दो भूली बिसरी
कृष्णभक्त कवयित्रियाँ
वीरनारायण शर्मा
जिस प्रकार कवि रसखान और
रहीम कृष्ण भक्ति से प्रभावित होकर हिंदी साहित्य में श्रेष्ठ
हुए उसी प्रकाऱ कुछ मुसलमान कवयित्रियाँ भी कृष्ण भक्ति की
धारा में डूबकर हिंदी साहित्य में प्रसिद्ध हुईं। ताज और शेख
नाम की इन कवयित्रियों का नाम इनमें सर्वोपरि है।
ताज की रचनाएँ भक्तिरस से ओतप्रोत हैं। उनकी भाषा सरल घरेलू
भाषा है जिसमें पंजाबी एवं फारसी का पुट है। संभव है ताज ने
बृज भाषा का अभ्यास किया हो लेकिन उन्होंने बृजभाषा में
प्रचलित पद शैली का अनुसरण नहीं किया। उनकी भाषा दरबारी कवियों
की भाषा है जिसकी शैली कवित्त सवैया जैसी है। भाषा अलंकृत और
सानुप्रासिक होने से भाषा सौष्ठव अधिक हृदयग्राही और आकर्षक हो
गया है। भाषा में कहीं कही खड़ी बोली का भी आभास होता है।
दूसरी कवयित्री शेख प्रेम, माधुर्य और शृंगार की शालीन
कवयित्री हैं। उनकी रचनाओं से पता चलता है कि वे कितनी सहृदय
एवं रसिक थीं। उन्होंने अपने काव्य सृजन में सौम्य सुषमा
बिखराई है। उनकी काव्य कला अद्भुत थी, वे अत्यंत वाक्पटु थीं
तथा उनका वाक्य चातुर्य उच्च कोटि का था। उनको बृजभाषा पर भी
अद्भुत अधिकार था। हो सकता है बृजभाषा पर इतना अधिकार प्राप्त
करने में उनके पति और प्रसिद्ध कवि आलम उनके सहायक रहे हों।
उनके काव्य पर फारसी परंपरा के प्रेम का प्रभाव भी दिखाई देता
है जिसमें प्रेम की पीर की अभिव्यक्ति अत्यंत हृदयस्पर्शी है।
प्रेम का जो प्रसाद घनानंद, बोधा और ठाकुर में दिखाई देता है
शेख के आलमकेलि नामक ग्रंथ में उससे कम आनंद नहीं है।
प्रेम रंग रांची ताज
ताज का काल ईसा सं १६४४ है। ताज ने कृष्ण को अपना प्रियतम
मानकर कविता की है। उनका नाम पुरुषों जैसा दिखाई देता है।
परंतु उनकी रचनाओं से वे ध्वनित होता है कि वे स्त्री थीं।-
सुनो दिलजानी, मेरे दिल की कहानी तुम
दस्त की बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं
देवपूजा ठानी मैं निमाज हूँ भुलानी
तजे कलमा कुरान सारे गुनन गहूँगी मैं
श्यामला सलोना सिरताज सिर कुल्ले दिये
तेरे नेह दाग में निदान है दहूँगी मैं
नंद के कुमार कुर्बान ताणीं सूरत पै
हौं तो तुरकानी हिंदुआनी ह्वैं रहूँगी मैं
ताज की उक्त पंक्तियों में मीरा जैसी प्रेम की पराकाष्ठा दिखाई
देती है। जैसे मीरा ने समस्त लोक लाज तजकर कृष्णोपासना की, ठीक
उसी प्रकार ताज के कृष्ण प्रेम में बड़ा दृढ़ निश्चय दिखाई
देता है। फारसी साहित्य के प्रेम दर्शन में प्रेम और प्रेमिका
का एकाकार होना अनिवार्य है। प्रेम की उपयुक्त स्थिति में
जातपात धर्म और सभी सामाजिक मान्यताओं से प्रेमी प्रेमिका ऊपर
उठ जाते हैं। जबतक प्रेमी और प्रेमिका के बीच तू और मैं का भेद
है तब तक उसे सच्चा प्रेम नहीं माना गया। जब मैं तू में बदल
जाए तभी फारसी साहित्य सच्चे प्रेम की मान्यता प्रदान करता है।
फारसी साहित्य की प्रसिद्ध उक्ति है मन को शुदम तो मन शुदी
अर्थात् मैं तू हो जाऊँ और तू मैं हो जा। अलौकिक प्रेम का चरम
बिंदु जीव का ब्रह्म में या आत्मा का परमात्मा में विलय होना
है। ताज के इस सवैये की भाषा एवं भाव सौंदर्य भी अनूठा है।
नाम तिहारो सुनौ जग में तुम गोकुल के ठग हो हम जानी
सालस हौ अपने मन में चितचोर घने सौं अवै हम ठानी
हेत बड़ी हम सौं जुकियो छवि ताज गुनै इत लाल सुज्ञानी
बैन बजावत हूँ सुनियो तुक चारहिं आदि के अक्षर बानी
मीरा बाई की भाँति ताज सदा कृष्ण प्रेम में लीन रहती थीं। वे
कृष्ण को अपना प्रियतम मानकर ही उनकी उपासना करती थीं। उनकी
कविता बड़ी सरस एवं सरल है। जहाँ कहीं उनकी भाषा खड़ी बोली है
उसमें कुछ शब्द पंजाबी भाषा के अवश्य पाए जाते हैं। ताज के
जीवन के विषय में कुछ ऐसे प्रमाण भी मिलते हैं जिससे पता चलता
है कि वे नित्य नहा धोकर मंदिर में भगवान के दर्शन को जाती
थीं, बाद में भोजन ग्रहण करती थीं। पहले ताज मंदिर में
प्रवेशकर दर्शन करती थीं इसके पश्चात अन्य भक्तजन मंदिर में
प्रवेश करते थे।
गंगा की अराधक शेख
शेख का काल ईस्वी सन १६९४ है। व्यवसाय से रंगरेजिन और धर्म से
मुसलमान वे एक भावुक कृष्णभक्त कवयित्री थीं। वे ब्रज भाषा के
प्रसिद्ध कवि अलम की समकालीन थीं। एक बार आलम कवि ने उन्हें
अपनी पगड़ी रंगने को दी। जिसके एक कोने में कागज का एक टुकड़ा
भी बँधा चला गया। शेख ने जब पगड़ी खोली वह कागज का टुकड़ा
उन्हें मिला। कागज के टुकड़े पर आधा दोहा इस प्रकार लिखा हुआ
था- कनक छरी सी कामिनी काहे को कटि क्षीण
शेख ने पगड़ी को रंगकर तथा अधूरे दोहे की पूर्ति कर आलम कवि को
लौटा दिया। पूर्ति का दोहा निम्न प्रकार है-
कटि को कंचन काटिविधि कुचन मध्य धरि दीन इसे पढ़कर आलम कवि
बहुत प्रसन्न हुए। और उन्होंने शेख से विवाह कर अपनी धर्मपत्नी
बनाया। शेख का रचना संसार प्रेम रस से परिपूर्ण है। कहीं कहीं
आलम और शेख दोनो ने मिलकर काव्य रचना की है। ऐसा माना जाता है
कि आलमकेलि के बहुत से पद शेख के रचे हुए हैं।
शेख का अलग से कोई ग्रंथ नहीं मिलता परंतु कई संग्रहों में
स्फुट पद मिलते हैं। उन्होंने कई देवताओं के स्तुति में सुंदर
पद लिखे हैं। गंगा का उन्होंने बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है।
नीके नाहाईं धोईं धुरि पैटो नेकु वैठो आनी
धुरि जटि गई धूरि जटि लौ भवन में
पैन्हि पैठ्यो अंबर सो निकस्यौ दिगंबर ह्वै
दृग देखो भाल में अचंभो लाग्यो मन में
शेख की अधिकांश रचनाएँ शृंगार रस पूर्ण हैं। उनमें से कुछ
कृष्ण को आलंबन मानकर की गई हैं और कुछ में लौकिक प्रेम
प्रदर्शन किया गया है।
जब से गुपाल मधुबन को सिधारे भाई
मधुबन भयो मधु दानव विषम सौं
शेख कहै सारिका सिखंड खंजरीठ सुक
कमल कलेस कीन्हीं कालिंदी कदम सौं
उक्त
रचना से शेख को थोड़ी देर के लिये सूरदास की इस पंक्ति स्मरण
करा देती हैं- बिनुगोपाल बैरन भई कुंजैं, तब वे लता लगत तन
सीतल, अब भई विषम ज्वाल की पुंजैं।
शेख के यमक भावोत्कर्ष अलंकार के उदाहरण तो देखते ही बनते हैं-
प्रेम की धारा का प्रवाह आलम और शेख में समान है। उनके शांति
और भक्ति के पद भी असाधारण हैं। भावना का ऐसा साम्य बहुत कम
देखने को मिलता है। नायिका भेद और कलापूर्ण काव्य रचना की
दृष्टि से शेख को श्रेष्ठ कवियों की श्रेणी में रखा जा सकता
है। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उनकी भाषा शुद्ध, पद्धति
सरल और भाव व्यंजना सुव्यवस्थित है। शेख के पहले और बाद में भी
उन जैसी बृजभाषा किसी भी स्त्री कवि ने नहीं कही। आश्चर्य का
विषय तो यह है कि ऐसी परिष्कृति और प्रांजल बृजभाषा और शिष्ट
काव्य शैली भिन्न संस्कृति में जन्म लेकर व पल-पुसकर उन्होंने
कैसे प्राप्त की। उनकी रचना आलम लच्छीराम ठाकुर और दास से
टक्कर लेती है।
३० अगस्त २०१० |