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साहित्यिक निबंध

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तुलसीदास की प्रथम रचना - रामलला नहछू
मजीद अहमद
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'रामलला नहछू' गुसाईं तुलसीदास की प्रथम रचना है। इस लघु कृति के बीस सोहर छंदों में नहछू लोकाचार का वर्णन हुआ है।
 

सोहर छंद-

'सोहर' अवध प्रांत का एक अति ख्‍यात छंद है। इसके अतिरिक्‍त कर्णवेध, मुंडन और उपनयन संस्‍कारों तथा नहछू लोकाचारों पर स्त्रियाँ इसे गाती हैं। कवि ने जीवन में शास्‍त्र सम्‍मत विधानों के साथ लोकाचार के परिपालन का भी महत्त्व निरूपित किया है - 'लोक वेद मंजुल दुइ कूला'। वेदाचार लिखित संविधान की भांति ग्रंथबद्ध और व्‍यापक है, लेकिन लोकाचार परंपराओं पर आधारित होता है। नहछू लोकाचार का शास्‍त्रीय विधान न होते हुए भी अवध में कम से कम पाँच सौ वर्षों से व्‍यापक रूप से प्रचलित है।

नहछू का अर्थ

'नहछू' दो शब्‍दों से बना है - नख और क्षुर अर्थात् नख काटना। इस संस्कार में विवाह के लिये दूल्हे को सजा सँवार कर तैयार किया जाता है। नहछू की रस्‍म में नायिता (नाइन) ससुराल जाने के लिए सजते समय दूल्हे के पैरों के नख, नहनी से काटती है, और उसके पाँवों को महावर से चीतती है। दूल्हे का स्नान और शृंगार इसी रस्म के अंतर्गत होता है।

दूल्‍हा सजाने का आमंत्रण

दूल्‍हा सजाने का आमंत्रण पाते ही अड़ोस-पड़ोस की स्त्रियाँ गाली गाती हैं। माँ के लिए गाई जाने वाली गालियाँ सुनकर दूल्‍हे को लज्‍जा और संकोच की विचित्र प्रथमानुभूति होती है, जो थोड़ी ही देर में विनोद के ठहाकों में घुल जाती है। लोकगीतों में रामकथा सहस्‍त्रमुखी धाराओं में प्रवाहित हुई है। समाज के हर वर्ग ने उसे अपनी मान्‍यताओं के अनुकूल गढ़ा है, अपनी भावनाओं के रंग में रंगा है। गुसाईं तुलसीदास की काव्‍य-प्रतिभा ने नहछू लोकाचार का अत्‍यंत सजीव वर्णन किया है - राजा दशरथ के आँगन में आले बाँस का मंडप छाया गया है। मणियों, मोतियों की झालर लगी है। चारों ओर कनक-स्‍तंभ हैं, जिनके मध्‍य राजसिंहासन है। गजमुक्‍ता, हीरे और मणियों से चौक पूरी गयी है।

मंगल स्नान-

भागीरथी-जल से राम को स्‍नान कराया गया। युवतियों ने मांगलिक गीत गाये। राम सिंहासन पर विराजमान हैं। हाथों में नवनीत लिए अहीरिन खड़ी है, तांबूल लेकर तंबोलिन, जामा जोड़ा लिए दरजिन, पनही लिए मोचिन और कनक रत्‍न मणिजटित मयूर लिए मालिन आ पहुँची है। बारिन हाथ में छत्र लिए खड़ी है। बड़री आँखोंवाली नायिता भौंह नचाती हुई भाग-दौड़ कर रही है। सारी तैयारी हो जाने पर कौशल्‍या की जेठि, कुल की पुरखिन ने उन्‍हें आज्ञा दी - जाओ, सिंहासन पर बैठे रामलला का नहछू करा दो। माँ कौशल्‍या रामलला को गोद में लिए बैठी है। दूल्‍हा राम के सिर पर उनका आंचल छत्र की भाँति सुशोभित है। नहछू के लिए नायिता को पुकारा गया। बनी-ठनी, हँसती-मुसकराती गौरवर्ण नायिता कनकलसित नहनी हाथ में लिए खड़ी दूल्‍हा राम की शोभा निहार रही है। अब बड़भागी नायिता राम के पाँवों के नख काटने लगी। बीच-बीच में वह मुसकराती हुई तिरछे नयनों से उन्‍हें निहारती भी जाती है।

विभिन्न रसों वाले सोहर-

नहछू शुरू होते ही उपस्थित युवतियाँ सोहर गाने लगीं। सबसे पहले कौशल्‍या की खबर ली, फिर सुमित्रा की -
काहे रामजिउ साँवर लछिमन गोर हो,
कीदहुँ रानि कौउसिलहिं परिगा भोर हो।
राम अहहिं दशरथ के लछिमन आनि क हो,
भरत सत्रुहन भाई तौं सिरी रघुनाथ क हो।। (एक ही पिता के पुत्र होकर राम साँवले क्‍यों हैं, और लक्ष्‍मण गोरे क्‍यों हैं? कहीं दशरथ के धोखे में कौशल्‍या से चूक तो नहीं पड़ गयी? अरे, नहीं-नहीं! राम तो दशरथ के ही पुत्र हैं। लक्ष्‍मण, संभव है - दूसरे के हों! भरत और शत्रुघ्‍न भी राम के भ्राता हैं।)

अगले छंद में उपस्थित मां के प्रति सोहर सुनकर रामलला के सकुचाने का मनोवैज्ञानिक चित्र है -
गावहिं सब रनिवास देहिं प्रभु गारी हो,
रामलला सकुचाहिं देखि महतारी हो।

नख काटने के बाद नायिता ने राम के पैरों की अँगुलियों को जावक से चर्चित कर सूख जाने पर उन्‍हें धो-पोंछ दिया। नहछू संपन्‍न हो जाने पर नेग की बारी आयी। कवि ने इस अवसर पर नेग की प्रचुरता और विपुलता का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन किया है। अंत के दो छंदों में मां कौशल्‍या की प्रसन्‍नता और कृति की फलश्रुति का वर्णन हुआ है -
दूलह के महतारि देखि मन हरखई हो।
कोटिन्‍ह दीन्‍हेऊ दान मेघ जनु बरसइ हो।।
यो यह नहछू गावे गाइ सुनावइ हो।
रिद्धि सिद्धि कल्‍यान मुक्ति नर पावइ हो।।

रचना काल

'रामलला नहछू' में रचना-काल का उल्‍लेख नहीं है। 'गोसाईं चरित' में लिखा है कि 'पार्वति मंगल', 'जानकी मंगल' और 'रामलला नहछू' की रचना एक साथ मिथिला में हुई। 'पार्वती मंगल' में रचना-काल का उल्‍लेख इस प्रकार है -
जय संवत् फागुन सुदि पॉंचै गुरू दिन।
अस्विनि विचरेऊँ मंगल सुनि सुख छिन-छिन।।
वाराणसी के पृथुपृथ ज्‍योति‍षी गणेशदत्‍त पाठक ने गणना करके 'पार्वती मंगल' की रचना संवत् १५८२ वि. मानी है और गुसाईं तुलसीदास का जन्‍म संवत् १५५४ माना जाता है। स्‍पष्‍ट है कि 'रामलला नहछू' कवि के तारूण्‍य का उद्गीत है, जिसमें एक और अवस्‍थानुरूप सुलभ श्रृंगारप्रियता है और दूसरी ओर उनकी प्रकृति के अनुरूप मर्यादावादिता का गंगा-जमुनी संगम है। नव-युवतियों के मांसल सौंदर्य में जो अभिरूचि कवि ने इस कृति में दिखलायी है, वह अन्‍य कृतियों में दुर्लभ है।

राम का ब्रह्म स्‍वरूप

'रामलला नहछू' के लघुकाय होने के कारण रचनाकार को य‍द्यपि यह सुविधा नहीं थी कि 'रामचरित मानस' की भांति बीच-बीच में पाठकों को स्‍मरण कराते कि राम सच्चिदानंद ब्रह्म हैं, तथापि इस लोकगीत में वे अपने उपास्‍य की लोकोत्‍तर महिमा का बोध कराना नहीं भूले -
जो पग नाउनि धोव राम धोवावइं हो।
सो पगधूरि सिद्ध म‍ुनि दरसन पावइं हो।।
रामलला कर नहछू इहि सुख गाइय हो।
जेहि गाए सिधि होइ परम पद पाइय हो।।

'रामलला नहछू' की भाषा अवधि है, 'रामचरित मानस' की भांति साहित्यिक अवधी अथवा 'विनय पत्रिका' की भांति संस्‍कृतनिष्‍ठ अवधि नहीं, बल्कि 'पद्मावत' की भाँति ठेठ ग्रामीण पूर्वी अवधी, जो गोंडा और अयोध्‍या के आसपास बोली जाती है। भाषा में बोलचार के ही शब्‍द अधिक हैं, जैसे - अहिरिन, महतारि, आवइ, हरखइ।

१६ अगस्त २०१०

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