११सुषम बेदी का उपन्यास- गाथा अमरबेल की
वीरेंद्र मेंहदीरत्ता
गाथा अमर बेल
की सुषम बेदी का पाँचवाँ उपन्यास है। इनके तीन उपन्यासों
'हवन', 'लौटना' तथा 'इतर' का संबंध अमेरिका तथा यूरोप के
भारतीय अप्रवासियों की परिवेशजन्य दबावों में टूटती-बिखरती
जि़दगियों से है, उन पात्रों से है जो बिखरते जीवन मूल्यों
तथा परिवर्तित सांस्कृतिक आघात से उबरने के प्रयत्न में हैं
तथा आत्मरक्षा के लिए संबल बटोर रहे हैं। चौथे उपन्यास
'क़तरा दर क़तरा' में पश्चिम से प्राप्त वैज्ञानिक दृष्टि तथा
मनोवैज्ञानिक स्तर पर एक सामान्य मध्यवर्गीय परिवार में वय:
संधि की अवस्था में एक किशोर की विघटित होती मानसिकता का
निरूपण है। इस उपन्यास में भारत के बदलते परिवेश्जन्य
दबावों में किशोर मन की कोमल भावनाओं के ग्रंथी बनकर विकृति तक
पहुँचने की करूण गाथा है। इस तरह इनके चारों उपन्यास
परिवेशजन्य दबावों में बिखरते, टूटते और कई बार जिजीविषा में
आस्था रखते हुए सम्भलते पात्रों की कथा-व्यथा है।
'गाथा अमरबेल की' भारतीय एवं पाश्चात्य परिवेश के चार
पात्रों की कथाव्यथा है। किन्तु इसमें सुषम बेदी ने
मनोवैज्ञानिक स्तर पर एक असुरक्षित पात्र की जकड़ में दम
तोड़ते सामान्यतर मध्यवर्गीय पात्रों की गाथा है। वैसे देखा
जाए तो असुरक्षित पात्र भी कम तकलीफ में नहीं। किन्तु इस
प्रकार के व्यक्तियों का कार्यकलाप, सम्पर्क में आने वाले
प्रत्येक का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहता है और वैसा न
होने पर असुरक्षा के आतंक के कारण अव्यवस्थित हो जाता है।
ध्यान आकर्षित करने का साधन लाउड मेकअप भी हो सकता है या अपनी
उपलब्धियों का अतिशय निरूपण। इस प्रकार का व्यक्ति इतना
आत्मकेन्द्रित होता है कि उसे अपनी सुख-सुविधा के अलावा दूसरे
की असुविधा और परेशानी का ध्यान ही नहीं रहता है। इस उपन्यास
में शन्नो इसी मानसिकता का पात्र है। शन्नो विश्वा की
पत्नी और गौतम की माँ है। इन्हीं दोनों पुरूष पात्रों के नाम
से उपन्यास को दो खण्डों में विभाजित किया गया है। शन्नो,
पत्नी तथा माँ के रूप में इन दोनों खण्डों में प्रमुख पात्र
हैं। यदि कहा जाए कि वही इस उपन्यास की केन्द्रीय पात्र है
तथा वही अमरबेल है जो अपने पति तथा बेटे के जीवन को ध्वस्त
करने का मूलभूत कारण भी है। असुरक्षित शन्नो अनजाने ही इस
स्थिति को रूप दे रही है : प्रकट रूप से अपने पति से भी प्रेम
करती है और अपने बेटे से भी, किन्तु वास्तविकता यह है कि
उसका मूल लगाव अपनी सुरक्षा से है, निरंतर असुरक्षा के भय से
आतंकित व्यक्ति सही मायने में किसी को प्रेम नहीं कर सकता,
केवल क्षणिक सुख तथा मनोरंजन उसके जीवन के आधार बन जाते हैं।
उन्हीं की तलाश में भटकता और व्याकुल होता है।
शन्नो की असुरक्षा का मूल कारण क्या है बहुत छुटपन में
शन्नो के माता-पिता का देहान्त हो गया था। शन्नो अपनी बड़ी
बहिन के पास रहती थी कि विश्वा के 'पापाजी' ने उसे देखकर अपनी
बहू बनाने का निर्णय ले लिया। उस समय शन्नो नौ वर्ष की थी।
तेरह वर्ष की आयु में उसकी शादी विश्वामित्तर से हो गई।
शन्नो विवाह के उपरान्त बीवीजी पापाजी के संरक्षण में रही।
विश्वामित्तर पढ़ने के लिए बोर्डिंग में रहता और घर सिर्फ
तीन चार महीने के लिए आता। छुटपन में माता-पिता का देहान्त ही
बच्चे में असुरक्षा का बीज डाल देता है। केवल नि:स्वार्थ,
बिना किसी अपेक्षाओं तथा शर्त के माता-पिता का प्यार ही
बच्चे को सुरक्षा देता है। भले ही विवाह के पश्चात्
बीवीजी-पापाजी का प्यार और सुरक्षा मिली किन्तु जिस घर में
आयी वहाँ पति की बुआ और विधवा ताई भी साथ रहती थी। यह घर इन
दोनों को भी सुरक्षा दे रहा था। किन्तु जीवनगत तथा
परिस्थितियों ने इन दोनों के हिस्से भी असुरक्षा दी थी। इस
तरह माता-पिता विहीन शन्नो को ससुराल में भी ऐसे ही सगे
संबंधी मिले जो स्वयं बहुत सुरक्षित नहीं थे।
स्वयं विश्वामित्तर भी स्वावलम्बी नहीं, आश्रित ही था।
इसी परिवेश में बड़ी हो रही शन्नो को सबसे अधिक आघात लगा, जब
विश्वा का पत्र आया कि वह अनुसूया से प्रेम करता है। शन्नो
को लगा 'जिस डाल पर उसकी जिंदगी टिकी बैठी है, उसे ही कोई काट
डाले तो वह कहां जायेगी।' भले ही विश्वा ने अपने पत्र में
शन्नो को छोड़ने की बात नहीं लिखी थी, केवल अपनी सहपाठिनी
अनुसूया को सखी के रूप में स्वीकार करने का आग्रह ही किया था
किन्तु सपत्नी का आगमन पति को छिनने की शुरूआत होती है, यह
शन्नो जानती थी। विश्वा तथा अनुसूया की विचारशीलता तथा
शन्नो की तकलीफ को ध्यान में रखने का ही परिणाम था कि
विश्वा ने अनुसूया से विवाह करने का इरादा छोड़ दिया। शन्नो
की परिस्थिति तथा मानसिकता का अनुमान लगा कर संवेदनशील विश्वा
ने अनुसूया के प्रति अपने प्रेम को न्योछावर कर दिया :
विश्वा के इस कदम के मूल में भारतीय विवाह की दृढ़ता तथा
शन्नो की वस्तुस्थिति दोनों ही थे। इसके इलावा प्रगतिशील
विचारधारा वाला विश्वा एक संवेदनशील प्राणी भी था। किसी आवेग
और प्रवाह में सामाजिक संस्था विवाह का अतिक्रमण भी उसके सोच
तथा विश्वास के विरूद्ध है। भले ही सुशिक्षित विश्वा तथा
बहुत बहुत प्रयत्न करने के बावजूद प्राथमिक की पढ़ाई से आगे न
जाने वाली शन्नो में मानसिक स्तर पर बहुत अंतर आ चुका है।
किन्तु विवाह के निर्वाह को विश्वा अपना कर्त्तव्य समझता
है।
विश्वा शन्नो की रूचि के अनुरूप उसके लिए नृत्य तथा नाटक का
क्षेत्र ढूंढता है। अपने प्रगतिशील विचारों के कारण विश्वा
शन्नो के व्यक्तित्व के विकास के लिए उसे पूरी आजादी भी
देता है। विश्वा की नौकरी के समय शन्नो के व्यक्तित्व का
विकास हो रहा था कि मार्क्सवादी विचारों के कारण विश्वे को
अपनी नौकरी से हाथ धोने पड़े। शन्नो को इसका भी सदमा लगा और
वह और भी अधिक असुरक्षित हो गई। नृत्य तथा नाटक के क्षेत्र की
कमाई ने सुरक्षा कम दी और अहंकार अधिक। इससे शन्नो और विश्वा
के परस्पर संबंधों में दरार आने लगी। इस दरार का मूल कारण
हरीश था, जिसके साथ शन्नो के संबंध अधिक आत्मीय होते जा रहे
थे।
शन्नो को लगता है जो सुरक्षा उसे अपने पति से नहीं मिली, वह
अपने बेटे गौतम से अवश्य मिलेगी। विश्वे की नियमित नौकरी न
होने पर शन्नो अपनी कमाई से गौतम को उच्च शिक्षा देती है।
इसी कारण गौतम पर अपना अधिकार भी समझती है। गौतम के मन पर भी
माँ की इस सहायता का गहरा प्रभाव है। विश्वा को दिल का दौरा
पड़ने से शन्नो बहुत परेशान होती है। किन्तु विश्वा इस
बिमारी के कारण खाने पीने की एहतियात न करते हुए पहले की तरह
मस्ती के साथ खाता-पीता है। ऊपर से मलंगों की तरह मस्ती के
साथ जीने वाला अन्तर्मन में किन तनावों को झेल रहा है, कोई
नहीं जानता। शन्नो का अहंकार उसे विश्वा के साथ गाली-गलोच तक
की स्थिति पर ले आता है। परिणाम स्वरूप अगली बार जब दिल का
दौरा पड़ता है तब विश्वा झेल नहीं पाता और उसका देहान्त हो
जाता है।
उपन्यास के इस प्रथम खण्ड में शन्नो के अमरबेल बनने की
मनोवैज्ञानिक व्याख्या पूर्वार्द्ध में है और इसी खण्ड के
उत्तरार्द्ध में वह अमरबेल का रूप धारण करके विश्वा की
मृत्यु का कारण भी बनती है। दूसरे खण्ड के प्रारंभिक
अध्यायों में शन्नो तथा विश्वा में शिकायतें-झगड़े इस कदर
बढ़ जाते हैं कि कोई दिन ऐसा नहीं गुज़रता जब किसी बात पर
कहासुनी न हो और उलझे नहीं। एक दिन टेलीफोन के बिल को लेकर बात
इतनी बढ़ जाती है कि हाथापाई शुरू हो जाती है। शन्नो ने
विश्वा का मुँह नोच लिया और फर्श पर गुत्थम-गुत्था होकर
लड़ते रहे। इसी घटना के बाद विश्वा को पहला हार्ट अटैक हुआ
था। अपनी बहू दिव्या के सामने संभवत: अपना यह निकृष्टतम रूप
विश्वा को अपमानजनक लगा था : अन्तर्मन में लगा यह आघात भी,
विश्वा की मृत्यु का कारण बना।
विश्वा के देहान्त के पश्चात शन्नो का एकमात्र आश्रय उसका
बेटा गौतम था। गौतम अपनी पत्नी दिव्या के साथ विदेश में रह
रहा था। शन्नो यदि अपने बेटे के पास पेरिस जाती है तो यहाँ के
सांस्कृतिक जीवन और नाटक की दुनिया से कट जाती है। किन्तु
यहाँ अकेले रहना संभव नहीं। शन्नो कुछ समय भारत तथा कुछ समय
विदेश में रहने लगती है। पेरिस में गौतम तथा दिव्या के लाख
प्रयत्नों के बाद शन्नो का मन पेरिस में नहीं लगा। वहाँ रहते
हुए अपने बेटे और बहू से अपेक्षाऍं इतनी बढ़ जाती हैं कि अपनी
नौकरी के बाद गौतम और दिव्या का एक सूत्रीय कार्यक्रम होता -
शन्नो के मनोनुकूल स्थानों अथवा पार्टियों आदि पर जाना।
चित्रकार दिव्या के लिए किसी भी स्तर पर अपनी सास के साथ
संबंध बनाना कठिन हो जाता है। अंग्रेजी न जानने के कारण शन्नो
अपने आप अकेले कोई भी काम नहीं कर सकती। दिव्या और शन्नो के
परस्पर मतभेद बढ़ते जाते हैं। गौतम इस वैषम्य को पाटते हुए
महसूस करता है कि शायद वह स्वयं ही विखण्डित होता जाता है और
उसका तनाव इस कदर बढ़ जाता है कि परेशान होकर आत्महत्या करने
की सोचता है। गौतम के आत्महत्या के प्रयास से दिव्या की
अपने वैवाहिक संबंध के प्रति आस्था टूटती है : वैवाहिक जीवन
में परस्पर प्रेम का मतलब है एक दूसरे के व्यक्तित्व को
विकसित करने में सहयोग देना, एक दूसरे के लिए जीना, एक दूसरे
के लिए मरना। यदि एक के कारण दूसरा आत्महत्या करने पर विवश
होता है तो दोनों के साथ रहने का कोई अर्थ नहीं। इसलिए
माँ-बेटे को साथ रहने के लिए अकेला छोड़ कर दिव्या रोज़मर्रा
के घरेलू झगड़ों से मुक्त होकर अपनी सृजनशीलता को विकसित करने
का निर्णय लेती है और हमेशा के लिए घर छोड़ देती है। उपन्यास
के अंत में यह वाक्य, 'कैसी विडम्बना थी नियति की। गौतम घर
में था। यशेधरा ही चल दी थी घर छोड़कर।' मुझे लगता है उपन्यास
यहीं खत्म हो गया। इसके बाद की पंक्तियॉं अंत की इस अनुगूंज
की वृद्धि नहीं करती। इस अंत द्वारा शन्नो उस अमर बेल का रूप
ले लेती है जो अपने पति विश्वामित्र की मृत्यु का कारण बनी
है और बेटे गौतम के घर की बर्बादी के मूल में है। असुरक्षित
आत्मकेन्द्रित पात्र जब किसी दूसरे की सुख सुविधा की अवहेलना
कर उसका जीवन रस सोंखकर ठूंठ बना देता है - तब अनजाने ही अपने
विनाश के बीज भी बोता है।
इस उपन्यास में
विश्वामित्र ने शन्नो के व्यक्तित्व को विकास के लिए जो
अवसर दिये, उनके लिए वह उसके प्रति कृतज्ञता का भाव अनुभव न
करके आत्मकेन्द्रित आत्मरति के जिस स्वभाव के साथ विकसित
होती है उसका कारण भी संभवत: असुरक्षा के भाव में ही दीखता है।
हरीश के साथ शन्नो के संबंध के लिए विश्वा के पास
मनोवैज्ञानिक कारण है जिसके आधार पर वह इस संबंध को जानकर भी
स्वीकार कर लेता है। किन्तु विश्वा की मृत्यु के पश्चात
गौतम के साथ रहते हुए केवल शरीरिक सुख के लिए हरीश के पास जाकर
वीयाना में समय बिताना, उसकी आत्मकेन्द्रित मानसिकता का
अतिरेक है। शन्नो सतहीपन की दिखावे वाली जिंदगी जीती है और
उसके व्यवहार में उथलापन तथा छिछोरापन है। बढ़ती हुई उमर और
बदली परिस्थितियों में विकसित होने की क्षमता भी उस असुरक्षित
भाव ने समाप्त कर दी है। जैविक आत्मरक्षा का मूलभूत भाव कहीं
उसे मानवीय स्तर से विच्युत करके दरिन्दे का रूप भी दे देता
है। इस तरह शन्नो के व्यक्तित्व में आत्मरक्षा तथा सुरक्षा
का भाव मिलकर विश्वा की मृत्यु का कारण बना है और इसी भाव का
विकसित रूप गौतम के घर को बरबाद कर रहा है।
विश्वा अनेक अन्तर्विरोधों के बावजूद सदा एक मानवीय चेहरा
लेकर सामने आता है। मार्क्सवादी प्रगतिशील विचारधारा ने उसे
एक दृष्टि दी है। अपने इस चिंतन को यथा संभव जीवन में लागू
करना चाहता है। अनुसूया के साथ प्रणय के आवेग में कोई निर्णय न
लेकर शन्नो के उस पर पूर्णत: भावनात्मक तथा आर्थिक दृष्टि से
आश्रित होने की वास्तविकता को पहचानता है। इस वास्तविकता को
सही परिप्रेक्ष्य में रख फिर अपने आवेगात्मक भावुक प्रणय से
ऊपर उठकर अपने दायित्व को निभाता है। यह विश्वा की दुर्बलता
न होकर विचारशीलता का परिणाम है। अनुसुया ने भी उसे इस निर्णय
पर पहुँचने में सहायता की है। अपनी विचारधारा के कारण नौकरी
छोड़ देता है और अपने स्वाभिमान की रक्षा करता है। शन्नो को
उसकी क्षमता के अनुरूप आत्मनिर्भर होने की राह सुझाता है और
उसका हर स्थिति में समर्थन करता है। शन्नो के व्यवहार की
तिक्तता के लिये अपनी आर्थिक अव्यवस्था तथा अस्थिरता को
जि़म्मेवार समझता है। विश्वा के व्यक्तित्व का यह खुलापन
ही है कि हरीश के साथ शन्नो के बढ़ते संबंधों के लिए भी
मनोवैज्ञानिक आधार ढूंढ लेता है। मार्क्सवादी चिंतन भी इसे
स्वीकारने में सहायता देता है। विश्वा का उदात्त रूप अपनी
बहू दिव्या के साथ संबंध में दीखता है : जिस खुलेपन के साथ
अपनी बहू के साथ बात कर सकता है उससे अनुमान लगाया जा सकता है
कि किसी रूढिगत मान्यता को स्वीकार न करके मानवीय धरातल पर
बेटी की तरह प्यार ही नहीं देता बल्कि मानता है कि उसके सारे
ज्ञान और अनुभव की वह सही वारिस है। इसीलिए विश्वा दिव्या को
मनोविज्ञान और भावना का अन्तर समझाता है। बतलाता है कि
मनोविज्ञान की भाषा में बात करते हुए लोगों के अन्दरूनी मकसद
समझें जा सकते हैं। यदि ऐसा न करें तो शिकायत रोना - झींकना ही
जिंदगी बनकर रह जाएगी। विश्वा के अपने बहू से आत्मीय और
उदात्त मानवीय संबंध की दृष्टि से 33वाँ अध्याय महत्त्वपूर्ण
है।
गौतम का लगाव भले ही अपनी
माँ शन्नो से अधिक है किन्तु स्वभाव और व्यक्तित्व की
दृष्टि से अपने पिता विश्वा का ही मानस-पुत्र है। उसी तरह से
ही विचारशील तथा अपने से ज्यादा दूसरे का ध्यान रखने वाला।
वह माँ और पत्नी दोनों को ही साथ लेकर चलने का भरसक प्रयत्न
करता है किन्तु अपने वैवाहिक जीवन में माँ के अत्यधिक दखल के
कारण उन्हें अपनी सीमाओं में रहना नहीं सिखा पाता। गौतम ने
अपने पापा से ही अतिरिक्त सहानुभूति का भाव पाया था। इसी कारण
से मामा के अकेलेपन और विदेश में आकर बाहर के जीवन से कट जाने
के कारण उनकी हर तरह की दखलंदाजी को स्वीकार करता चला गया। इस
प्रक्रिया में दिव्या की मानसिक आवश्यकता की उपेक्षा हो गई।
गौतम के घर की बरबादी का कारण शन्नो का गौतम के प्रति मोह तथा
उस पर अतिरिक्त अधिकार है। दिव्या को उसका न्यायोचित स्थान
न देना और चाहना कि हर स्थिति में दिव्या ही समझौता करे - उसे
भीतर से कहीं तोड़ रहा है। गौतम की संवेदनशीलता इस तथ्य को
नहीं पहचान पाई। विश्वा आर्थिक कारणों से शन्नो के सीमाओं के
अतिक्रमण को बर्दाश्त करता रहा और गौतम माँ के अनुग्रह में
दबा तथा उसके अकेलेपन के प्रति संवेदनशील हुआ - उसकी हर
ज़्यादती को बर्दाश्त करता गया। इस प्रकार गौतम विश्वा का
ही विस्तार है।
गौतम तथा दिव्या के संबंध में शन्नो के कारण एक 'झीनी सी
दीवार खड़ी थी।' इसी वजह से जो आत्मीयता उसके आपसी रिश्ते की
सहज नियति थी, उसमें व्यवधान पड़ गया था। गौतम दिव्या के
व्यक्तित्व के विकास के लिए हर तरह से अवसर भी देना चाहता है
किन्तु माँ शन्नो के प्रति अपने कर्त्तव्य के बोझ से दबा
जा रहा है। दिव्या के मन में एक डर सा बैठ गया था कि गौतम
पूरी तरह कभी उसका नहीं हो सकेगा। यही मानसिकता इस उपन्यास की
अंतिम परिणति का कारण है।
दिव्या की भीतरी शक्ति का कारण उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता तथा
उसकी अपनी माँ द्वारा दी गयी सोच की सफाई है। दिव्या के
अन्तर्मन की वास्तविकता तभी खुलती है जब वह अपनी माँ से बात
करती है, उसकी माँ दिव्या को उसकी प्रतिभा के प्रति आश्वस्त
कराती है तथा उसे अपने आपको व्यवस्थित करके सृजनशीलता के सही
राह तलाशने में मदद करती है। इस दृष्टि से इस उपन्यास का
44वाँ अध्याय दिव्या के जीवन में आए मोड़ का दिग्दर्शक है।
इस अध्याय के अन्त में दिव्या की माँ के शब्द सार्थक तथा
दिशा देने वाले हैं : 'एक बार चल पड़ने की बात है। रास्ते कभी
भी बने बनाये नहीं होते। जिधर भी जाना हो उधर का रास्ता
गंतव्य के हिसाब से निश्चित करना होता है। गंतव्य साफ़ हो तो
रास्ता भी साफ़ समझ आने लगेगा।'
यहाँ यह उपन्यास परंपराजन्य मान्यताओं पर चोट करता हुआ
दिखता है। दिव्या की माँ उसे पारंपरिक ढंग से ससुराल में
रचने-बसने का उपदेश न देकर स्वयं उसकी क्षमताओं और प्रतिभा के
प्रति सचेत करती है तथा अपनी बेचैनी के लावे को सृजनात्मक
दिशा देने की राय देती है। माँ से ज्यादा अपनी बेटी के
अन्तर्मन की वास्तविकता को भला और कौन समझ सकता है। किन्तु
विवाह की संस्था की जटीलता में सदा ही इस स्थिति की उपेक्षा
की गई है। इस उपन्यास का यह स्वस्थ, नया और दिशा देने वाला
स्वर है।
दिव्या का अंत में घर छोड़ना नारी जगत के आत्मसम्मान की
रक्षा करने वाला ही नहीं, उसके व्यक्तित्व को गरिमा भी देता
है। गौतम का फैसला नकारात्मक था : आत्महत्या समस्या से
पलायन करना है, उसका सामना करना नहीं है। दिव्या का फैसला
सकारात्मक है और स्वस्थ दिशा देने वाला।
'गाथा अमर बेल की' उपन्यास में शन्नो का अपने बेटे गौतम के
प्रति प्रेम उसकी बर्बादी का कारण क्योंकर बन गया? वस्तुत:
माँ का प्रेम कभी भी बच्चों की बर्बादी का कारण नहीं बनता।
शन्नो का असुरक्षा मिश्रित मोह ही गौतम के विनाश का कारण है।
यदि माँ का प्रेम होता तो निरंतर उसके तनाव को देखकर उससे
मुक्त करने के लिए कोई साधन अपनाती। मोह से गौतम को जकड़ती
शन्नो भूल गई कि डाल की जड़ों पर चोट कर रही है - डाल सूख
जाएगी। वास्तविकता यही है कि असुरक्षित व्यक्ति सम्पूर्णता
से किसी भी संबंध में प्रेम नहीं कर सकता। शन्नो जिसे प्रेम
कहती है वह पात्र आत्मरक्षा की जकड़न है जिसमें कोई भी
व्यक्ति सहज रूप से जी नहीं सकता।
आज की जटील मानसिकता तथा जीवन-स्थितियों के प्रति समझ पैदा
करने वाला सार्थक और महत्त्वपूर्ण उपन्यास है सुषम बेदी का
'गाथा अमर बेल की'। उपन्यासकार के रूप में सुषम बेदी अपना अलग
स्थान बना रही हैं। प्रवासी भारत वासियों के जीवन की
विसंगतियों अन्तर्विरोधों का जैसा यथार्थ निरूपण इनके
उपन्यासों में हुआ है, वैसा हिन्दी में अत्यंत्र नहीं
मिलता। इतना ही नहीं, अपने पात्रों की अन्तर्मन की स्थितियों
तथा बदली मानसिकताओं का ऐसा यथार्थ और तथ्याभास देने वाला
निरूपण बहुत कम देखने को मिलता है।
२
अगस्त
२०१० |