1
समकालीन गीतकारों ने गीत के ऐतिहासिक महत्व तथा उसके परिदृश्य पर यदा-कदा
संकेत किए हैं, वे गीत की संरचना के माध्यम से व्यक्त
हुए हैं। यह एक ज्वलंत सत्य हे कि साहित्य के क्षेत्र
में गीत का अस्तित्व किसी न किसी रूप में रहा है। इस
तथ्य को कवि प्रत्यक्ष न कहकर कबीर, सूर तथा मीरा बाई
के माध्यम से कहता है, और यह सत्य प्रकट करता है कि
कविता(साहित्य) के परिदृश्य से उन्हें नकारा नहीं जा
सकता है-साथ कबीर, सूर मीरा
बाई होगी
तब तक कविता से गीत की नहीं विदाई होगा। (नचिकेता)
यह भी एक सत्य है कि समय के अनुसार
गीत की संरचना में परिवर्तन आए हैं जो एक ऐतिहासिक
सत्य है। आज स्थिति यह है कि गीत की संवेदना और संरचना
में अंतर आया है, वह भी वैश्विक स्तर पर। यही कारण है
कि गीत की संरचना और संवेदना पूर्व के कालों से भिन्न
हो गई है। अतः आज का गीत अपनी संवेदना और सृजन में कुछ
अनिश्चित और अनमना हो गया है जिसके कारण गीत की संरचना
में एक भूचाल-सा आ गया है। यह भूचाल कवि द्वारा
निर्मित नए छंदों के प्रयोग से आया है और साथ ही, कथ्य
की दृष्टि से। यह सारी स्थिति है तो एक अगम-गति पर इस
गति के आगे गीत या किसी भी विधा को अपने तरीके से
सामना करना पड़ेगा जो समय की आवश्यकता भी है और नियति
भी-
वैश्विक फलक पर
गीत की संवेदना है अनमनी
तुम लौट जाओ
प्यार के संसार में मायाजनी
इस अगम गति की चाल में
भूचाल की है रागिनी! (दिनेश सिंह)
गीत की संरचना में
अंतर का महत्व रहा है और यह अंतर बाह्य घटनाओं के
द्वंद्व के प्रकाश में घटित होता है और ये घटनाएँ
मूलतः अंतर के द्वंद्व को गति देती है। यही कारण है कि
बाह्य घटनाओं का द्वंद्व जितना तीव्र होगा, उसी की
सापेक्षता में अंतर का द्वंद्व भी तीव्र होगा। अतः गीत
की संरचना में बाह्य और अंतर का सापेक्ष एवं
द्वंद्वात्मक संबंध है। एक गीतकार गीत(या रचना को) को
मात्र अंतर से संबधित करता है, पर सत्य तो यह है कि यह
आंतरिक बिंब उस समय तक अधूरा रहेगा जब तक वह बाह्य से
संबंधित नहीं होगा। गीत को निम्न संरचना में गीतकार ने
मात्र अंतर के महत्व को स्वीकार किया है जो मेरे विचार
से सत्य का केवल... पक्ष है। फिर भी गीतकार ने अंतर के
बिंब को झाड़ी में छिपे चिड़िया के द्वारा व्यक्त किया
है जो अत्यंत सटीक एवं व्यंजनात्मक है-
गीत
सात रंगो का झरना
झरता मन के भीतर
अथवा कोई,
चिड़िया चहक रही
झाड़ी में छिपकर। (नचिकेता)
गीत के ऐतिहासिक
परिप्रेक्ष्य में शब्द का अपना महत्व रहा है और यह
महत्व सामान्य रूप से सभी जान-क्षेत्रों में अपनी
भूमिका अदा करता रहा है। गीत और साहित्य के सभी
क्षेत्रों में शब्द मात्र शब्द नहीं रहा जाता है, वरन
वह किसी न किसी अर्थ या अवधारणा का वाहक होता है। सृजन
के क्षेत्र में शब्द-प्रयोग एक ज़िम्मेदारी है और यह
ज़िम्मेदारी अन्य ज्ञान-क्षेत्रों के लिए भी ज़रूरी
है। शब्द प्रयोग शब्द केलि नहीं है जैसा कि देरिदा का
मत है। यह एक सत्य है कि शब्द का अस्तित्व निरपेक्ष्य
नहीं है और न अर्थ का। शब्द और अर्थ का संबंध
सापेक्ष्य है और यह भी सत्य है कि एक शब्द भिन्न
संदर्भों में भिन्न अर्थ का व्यंजक होता है। शब्द और
अर्थ का यह संबंध अर्थ विज्ञान (सिमैंटिक्स) का
क्षेत्र है। गीत का संरचना में और रचना प्रक्रिया में
शब्द के महत्व तथा उसके व्यापक परिप्रेक्ष्य को ( जिसे
अंधेरा कहा गया है) रचनाकार इस प्रकार व्यक्त
करता है-
एक कोई शब्द\कोई
गीत
कोई राग बन
चटखता है धमनियों में
अर्थ की लपटें पहन
चीरती हैं, अंधेरे की छातियों को। (माहेश्वरी तिवारी)
रचनाकार यही नहीं
रुकता है, पर वह शब्द को कवि के अंदर बैठा हुआ उसे
सार्थकता प्रदान करता है-
मुझे यों शब्द से
भरता हुआ
कौन है मुझमें/ मुझको
सार्थक करता हुआ। (सत्यनारायण)
मेरे विचार से शब्द
की सार्थकता दो प्रकार की होती है, रचनाक्रम और उसकी
अभिव्यक्ति दोनों के लिए। एक शब्द की वह सार्थकता है
जो परंपरा से प्राप्त रूपाकारों-आशयों (शब्द) का समय
के अनुसार अर्थ-रूपांतरण करती है और दूसरी वह सार्थकता
है जो ज्ञान-विज्ञान के नए रूपाकारों से प्राप्त होती
है। काव्य शास्त्र.... अमिधा से व्यंजना तक जो व्यापार
होता है, वह एक प्रकार से शब्द और उसके अर्थ का ही
व्यापार है-
अमिधा से व्यंजना तक//सब
है भाषा की प्रतिमाएँ
पता नहीं, किस-किस में बिंबित/
हो मेरी अभिलाषाएँ। (मधु प्रसाद)
यह तो हुआ शब्द का
सार्थक एवं अर्थपूर्ण प्रयोग, दूसरी ओर, रचना में शब्द
का प्रयोग इस प्रकार से भी होता है कि सृजन अपना
अस्तित्व को तलाशता है। कहने का तात्पर्य यह है कि
शब्द और अर्थ का सापेक्ष्य संबंध, जो रचना को सार्थकता
देता है। वह एक तरह से अर्थ को पूरी तरह से संकेतित
नहीं कर पाता है-
शब्दों के पुल टूट
रहे हैं/ शब्दातीत
मनःस्थितियाँ हैं
अर्थ सभी के टूट रहे हैं। (सूर्यभानु गुप्त)
जब शब्द और अर्थ का
संबंध टूट जाता है, तब भाषा का स्वरूप यांत्रिक सा हो
जाता है, तब लोग ऐसी भाषा से मोहित होकर उसे स्वीकार
करते हैं। ऐसा मशीनी भाषा से होता यह है कि वह मानव के
मध्य संपर्क की भाषा नहीं बन सकती है। कवि के द्वारा
ऐसा समय अपाहिज होता है जिसकी चिंताओं को लिया नहीं जा
सकता है अथवा उस भाषा प्रयोग पर रोया नहीं जा सकता है-
एक ही भाषा मशीनी है/
निकलती हर गली से
लोग उसको लिए फिरते/ शहर भर
में बावले से
आदमी का आदमी से/ जोड़ने के
शब्द खोए
इस अपाहिज समय की/ चिंताओं
को कौन रोए। (कुमार रविंद्र)
शब्द या भाषा का
बाज़ारीकरण इस क़दर हो रहा है कि वे अपने अर्थ-संबंधों
को खोकर कविता या गीत मात्र समाचार बन कर रह गए हैं।
ऐसी दशा में हम विश्वग्राम तक तो पहुँच गए, पर शब्द
समय से अपने संवाद को खो चुका है, और ऐसी स्थिति में
शब्द पथरा गए हैं। यह एक तरह से शब्द का अवमूल्यन है-
हमने शब्द लिखा या
रिश्ते/ अर्थ हुआ बाज़ार/ कविता के माने खबरें हैं
संवेदनः व्यापार/ भटकन की, उँगली थामे हम/ बहुत कठिन
संवाद समय से शब्द सभी पथराए। (राजेंद्र गौतम)
यह तो हुआ शब्द का
अवमूल्यन या उनका दुर्प्रयोग। दूसरी ओर सृजन के
क्षेत्र में शब्द मात्र शब्द न होकर किसी विचार, धारणा
या संवेदना के व्यंजक होते हैं। ये शब्द अनेक दिशाओं
से आते हैं और अपने साथ भिन्न विचारों के वाहक होते
हैं। अतः भाषा की संरचना में ये शब्द इस प्रकार
घुल-मिल जाते हैं कि वे भाषा के अंग बन जाते हैं। यह
शब्द का अर्थ-विस्तार इस प्रकार घुल-मिल जाते हैं कि
वे भाषा के अंग बन जाते हैं। यह शब्द का अर्थ-विस्तार
ही है और साथ ही उसका अंतःअनुशासनीय रूप भी-
कौन बहलाता है अब
परी-कथाओं से
सौ विचार आते हैं, सभी दिशाओं से। (यश मालवीय)
फिर भी, हर रचनाकार
अथवा गीतकार अपने विचार-संवेदन को अपने तरीके से
रचनात्मक संदर्भ देता है। हर गीतकार का ट्रीटमेंट
अलग-अलग होता है जो उस गीत-सृजन को नवीनता प्रदान करता
है। अतः प्रत्येक गीतकार या रचनाकार का स्वर एक सा
नहीं होता है, इसलिए ऐसा एक सा नियम सृजनात्मकता को
बाधित करेगा-
हर गायक का अपना स्वर
है/ हर स्वर की अपनी मादकता
ऐसा नियम न बाँधो/ सारे गायक एक तरह से गाएँ। (जयकुमार
'जलज')
उपर्युक्त विवेचन के
द्वारा स्वयं गीतकारों का गीत के प्रति उसके ऐतिहासिक
और धारणागत महत्व तथा गीत में प्रयुक्त शब्दों के
परिदृश्य पर विचार करने के बाद गीत की संरचना में
प्रयुक्त घटकों यथा छंद, लय, ध्वनि और सौंदर्य की
निहित क्या है, इसे गीतकारों के गीत-अंशों के द्वारा
रेखांकित करने का प्रयत्न है।
गीत की संरचना में
छंद का अपना महत्व रहा है क्यों कि छंद का कोई न कोई
रूप गीत के ऐतिहासिक विकास में रहा है जो यह स्पष्ट
करता है कि गीत सृजन के लंबे काल में छंद एक-सा नहीं
रहा है जो समय और कथ्य की आवश्यकता के अनुसार
परिवर्तित होता रहा है। इसका अर्थ यह है कि वह
प्रतिबंधों को तोड़ता रहा है। इस पूरे ऐतिहासिक क्रम
को स्वयं छंद इस प्रकार प्रस्तुत करता है-
मैं (छंद) सुर में
बँधकर सजता हूँ/ पर रहता हूँ स्वच्छंद सखी
मैं छंद छंद, मैं छंद सखी!/ मैं प्रतिबंधों से दूर
रहा/ जीवन की शर्तें पूर रहा
पर कभी-कभी असमंजस में/ बरसों-बरसों मजदूर रहा
जब तान निराला ने छेड़ी/ तब से हूँ निर्बंध सखी
मैं छंद-छंद, मैं छंद सखी!! (कुबेरदत्त)
छंद की संरचना में यह
परिवर्तन एक सत्य है, पर इसके साथ यह भी सत्य है कि
छंद वर्षों तक बेड़ियों में जकड़ा रहा, पर इस जकड़न को
कवियों ने (निराला) क्रमशः निर्मूल किया तब जाकर छंद
बंधनहीन हो सका। असल में, कथ्य या अंतर्वस्तु के बदलने
पर छंद की संरचना में बदलाव आता है जिससे कि छंद का
प्राण लय में भी परिवर्तन आता है। कथ्य औऱ रूप (फॉर्म)
का यह संबंध सापेक्ष एवं द्वंद्वात्मक है। कवि इस तथ्य
को सांकेतिक रूप में रखता है-
अंतर्वस्तु बदलते ही/
लय-छंद बदल जाते हैं। (नचिकेता)
छंद की संरचना में लय
का होना आवश्यक है कि क्यों कि छंद का प्राण लय और
ध्वनि है। यह भी ज़रूरी है कि गीत का छंद हो या
मुक्तछंद का छंद हो- दोनों के लिए लय का होना
परमावश्यक है। मुक्त छंद का अर्थ यह नहीं है कि छंद
लयहीन हो, मुक्त हो क्यों कि मुक्तछंद भी छंद है। यही
कारण है कि रचना में शब्द-संयोजन हो, स्वर हो और
अनुभूति हो, पर यदि उसमें लय नहीं है, तो वह छंद
प्राणहीन है तथा अपने अस्तित्व पर स्वयं प्रश्नचिह्न
लगाता है-
शब्द है, स्वर है/
सहज अनुभूति भी/ पर लय नहीं है/ एक ही परिताप प्राणों
में
सहज अनुभूति/ पर क्यों लय नहीं है। (शंभुनाथ सिंह)
सृजन और सौंदर्य-बोध
का गहरा रिश्ता है। यह संबंध यह स्पष्ट करता है कि
जहाँ पर भी सृजन सार्थक और अर्थवान होगा, वहाँ पर
सौंदर्य का कोई न कोई रूप अवश्य प्राप्त होगा। सौंदर्य
साहित्य-सृजन का प्राण है और यह सृजन या रचना सही अर्थ
में रचना होगी, तो वहाँ पर सौंदर्य की अन्विति का रूप
अवश्य प्राप्त होगा। यह एक प्रसिद्ध कथन है कि सौंदर्य
का अस्तित्व दृष्टा या रचनाकार की सापेक्षता में घटित
होता है। यह कथन रचनाकार की विषयागत दृष्टि
(सब्जेक्टिव) पर अवलंबितत है, पर यह भी सत्य है कि इस
अभ्यांतर दृष्टि में वस्तुतः यथार्थ का भी योगदान रहता
है। आइंस्टीन के सापेक्षावादी सिद्धांत में दिक् और
काल का अस्तित्व दृष्टा द्वारा किसी वस्तु (परमाणु) को
देखा जाए, तो इस देखने की प्रक्रिया में उस वस्तु में
विक्षोभ उत्पन्न होगा जो यह स्पष्ट करता है कि दृश्य
के निरीक्षण में वस्तु का भी योगदान है क्यों कि दृष्टा
का अभ्यांतर उस समय तक अर्थवान नहीं हो सकेगा जब तक कि
वह वस्तु से संबंधित न हो। अतः विज्ञान तथा सृजन में
अभ्यांतर और वस्तुगत दृष्टि का सापेक्ष्य महत्व है, वे
अपने में निरपेक्ष नहीं है।
दूसरे शब्दों में, यह
कहा जा सकता है कि रचना का संयोजन ही सौंदर्य की
सृष्टि करता है। जहाँ तक सौंदर्य-बोध का संबंध है वह
त्रासद तथा अमानवीय संवेदनाओं के साथ मानवीय मनोभावों
का भी व्यंजक है, इन विपरीत-क्षेत्रों में भी
सृजनात्मकता का होना ज़रूरी है। इन कारणों से यह
स्पष्ट होता है गीत-सृजन और सौंदर्य का सापेक्ष्य
महत्व है, तभी एक गीतकार ने सृजन और सौंदर्य को एक साथ
प्रयुक्त किया है और इस प्रयोग में जन की अनुगूँज
(श्रम की) भी सुनाई देती है जिसे उसे रचनात्मकता की ओर
ले जाता है क्यों कि वह रचनाकार है-
मैं सृजन-सौंदर्य के/
कुछ गीत, गाना चाहता हूँ/ चाहता हूँ मैं
पसीने से सने, मुँह को हसाना/ बन हवा का नर्म झोंका
थकन श्रम की मिटाना/ फिर सृजन के, छंद में ढल
गुनगुनाना चाहता हूँ। (नचिकेता)
इस प्रकार हम
गीतकारों के माध्यम से यह देखते हैं कि काव्य विकास की
दृष्टि से गीत का एक ऐतिहासिक महत्व है जिसे कदाचित
नकारा नहीं जा सकता है। गीत को इस ऐतिहासिक संदर्भ में
देखने से उसके महत्व तथा परिदृश्य को ठीक प्रकार से
निर्धारित किया जा सकता है। समकालीन गीत की संरचना में
स्वयं रचनाकारों ने यह स्वीकार किया है कि गीत के
अस्तित्व तथा उसकी संरचना में शब्द, छंद, लय तथा
सौंदर्य का अपना स्थान है अथवा उनका संबंध निरपेक्ष्य
न होकर सापेक्ष्य है। विज्ञान-दर्शन की भी यह मान्यता
है कि संरचना में संपूर्ण और घटक का सह-अस्तित्व रहता
है और उसके घटकों (छंद, लय, सौंदर्य आदि) का महत्व इस
बात में है कि वे न्यूनाधिक रूप उसके घटकों (छंद, लय,
सौंदर्य आदि) का महत्व इस बात में है कि वे न्यूनाधिक
रूप से संपूर्ण (रचना का संयोजन) की व्यंजना कर सके।
सृजन के क्षेत्र में रचना की संरचना और उसका संयोजन इस
बात में है कि उसके घटक अपने सह अस्तित्व के द्वारा उस
कथ्य को संकेतित कर सके जो किसी भी रचना का लक्ष्य है।
मेरे विचार से समकालीन गीत न्यूनाधिक रूप से इस माँग
को पूरा करता है जो कम से कम उपर्युक्त उदाहरणों से
स्पष्ट है।
१ जून
२००९ |