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इतिहास

हिंदी के प्रारंभिक उपन्यासः
चपले सईनाथ विट्ठल


आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी का पहला मौलिक उपन्यास 'परीक्षा गुरु' (सन १८८२ ई.) को माना है, अंग्रेज़ी नॉवेल शैली का समावेश पहली बार इसी उपन्यास में किया गया था। सन १८७३ ई. तक कहानी और उपन्यास में कोई विभाजन रेखा नहीं थी। हिंदी में 'उपन्यास' और 'नॉवेल' शब्दों का सबसे पहला प्रयोग भारतेंदु हरिश्चंद्र ने किया जब 'हरिश्चंद्र मैगज़ीन' के प्रथम अंक, अक्टूबर १८७३ ई. के आवरण पृष्ठ पर अंग्रेज़ी का 'नावेल' शब्द रोमन लिपि में प्रयुक्त हुआ था, इसके बाद सन १८७५ ई. में मासिक पत्र 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' के फरवरी, अंक में 'उपन्यास' शब्द का प्रयोग किया गया'। फरवरी और मार्च के इस संयुक्तांक में 'मालती' नामक उपन्यास अपूर्ण रूप से प्रकाशित हुआ।

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 इस गद्य रचना के शीर्षक (मालती) के आगे कोष्ठक में 'उपन्यास' शब्द लिखा हुआ है। 'परीक्षा गुरु' (१८८२ ई.) के पहले भी हिंदी में चार मौलिक उपन्यासों की रचना की गई- यथा- 'देवरानी जेठानी की कहानी' (१८७० ई.), 'वामा शिक्षक' (१८७२ ई.), 'भाग्यवती' (१८७७ ई.) और 'निस्सहाय हिंदू' (१८८१ ई, प्रकाशन वर्ष १८९० ई.)। इसके अतिरिक्त भी कुछ उपन्यास अपूर्ण प्रकाशित हुए थे, जैसे- 'स्त्री दर्पण (१८८६ ई.), 'मालती' (१८७५ ई.), 'तपस्विनी' (१८७९ ई.), 'रहस्यकथा' (१८७९ ई.), 'एक कहानी कुछ आप बीती कुछ जब बीती' (१८७०-७९ ई.) और 'अमृत चरित्र' (१८८१ ई.) आदि। इन उपन्यासों को कालक्रम एवं ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण माना जाना चाहिए। आज इनमें से कुछ उपलब्ध हैं कुछ अनुपलब्ध, तो कुछ पुरानी फाईलों में दबे पड़े हैं, जिनको हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि के तौर पर प्रकाश में लाना ज़रूरी है।

हिंदी के प्रारंभिक युग के उपन्यासकारों में बालकृष्ण भट्ट का स्थान महत्वपूर्ण है। हालाँकि भट्ट जी नाम निबंध साहित्य के लिए जाना जाता है उपन्यास साहित्य के लिए नहीं। भट्ट जी के प्रकाशित पूर्ण उपन्यासों की संख्या दो है- १. 'नूतन ब्रह्मचारी' (१८८६ ई.), २. 'सौ अजान एक सुजान' (१८९० ई.)। उन्होंने कुछ अन्य उपन्यास भी लिखे जो अपूर्ण रहे। इनका प्रकाशन तत्कालीन युग की महत्वपूर्ण पत्रिका 'हिंदी प्रदीप' में धारावाहिक रुप में कुछ अंकों तक जारी रहा था। 'रहस्य कथा' (१८७९ ई.), 'गुप्त बैरी' (१८८२ ई.), 'उचित दक्षिणा' (१८८४ ई.), 'सद्भाव का अभाव' (१८८९ ई.). 'हमारी घड़ी' (१८९२ ई.) और 'रसातल यात्रा' (१९९२ ई.) आदि ऐसे ही कुछ उपन्यास हैं जो हिंदी प्रदीप के फाईलों में आज भी देखे जा सकते हैं।

'नूतन ब्रह्मचारी' शीर्षक उपन्यास को सन १८८६ ई. में भट्ट जी ने स्वयं अपने व्यय से पुस्तक रूप में प्रकाशित किया और 'हिंदी प्रदीप' के पाठकों और ग्राहकों को उपहार स्वरुप वितरित किया। इसका दूसरा संस्करण 'सरस्वती' के दिसंबर १९११ ई. के अंक में प्रकाशित हुआ और तीसरा संस्करण सन १९१४ ई. में हिंदी प्रदीप कार्यालय, सूडिया, काशी से प्रकाशित हुआ, जिसकी एक प्रति आर्यभाषा पुस्तकालय काशी में उपलब्ध है। इस उपन्यास का एक अन्य संस्करण धनंजय भट्ट 'सरल' द्वारा श्री. जे.पी. मालवीय सेंट्रल प्रिंटिंग प्रेस इलाहाबाद से ५ मई सन १९५० ई. को छपा। इस संस्करण की एक प्रति सेठ सूरजमल जालान स्मृति भवन पुस्तकालय कोलकाता में उपलब्ध हैं। इस उपन्यास का अन्य एक संस्करण ज्ञान मंडल लिमिटेड वाराणसी से १९५० ई. में भी छपा।

ऐसा समझा जाता है कि भट्ट जी तत्कालीन अन्य उपन्यासों की तरह अपनी रचना पाठ्यक्रम में शामिल किए जाने के उद्देश से लिख रहे थे, क्योंकि उन्हीं के लगभग समकालीन रचनाकार डिप्टी नज़ीर अहमद ने 'मिरातुल ऊरूस' की रचना मुस्लिम लड़कियों को पढ़ाने की दृष्टि से की थी। सन १८६९ ई. में डिप्टी नज़ीर अहमद ने 'मिरातुल ऊरूस' की भूमिका में लिखा, 'गरज ये कि कुल खानदारी की दुरुस्ती अकल पर है और अकल की दुरुस्ती इल्म पर माकूफ है।' इस पुस्तक को मुस्लिम लड़कियों को शिक्षित करने के उद्देश्य से लिखा गया, जिस पर सरकार की ओर से एक हज़ार का पुरस्कार भी प्राप्त हुआ।

'मिरातुल ऊरूस' की प्रेरणा लेकर ही मुंशी ईश्वरी प्रसाद और मुंशी कल्याण राय ने २२४ पृष्टों का 'वामा शिक्षक' (१८७२ ई.) उपन्यास लिखा। भूमिका में ईश्वरी प्रसाद और कल्याण राय ने लिखा कि 'इन दिनों मुसलमानों की लड़कियों को पढ़ने के लिए तो एक दो पुस्तकें जैसे मिरातुल ऊरूस आदि बन गई हैं परंतु हिंदुओं व आर्यों की लड़कियों के लिए अब तक कोई ऐसी पुस्तक देखने में नहीं आई जिससे उनको जैसा चाहिए वैसा लाभ पहुँचे और पश्चिम देशाधिकारी श्रीमन्महाराजाधिराज लेफ्टिनेंट गवर्नर बहादुर की यह इच्छा है कि कोई पुस्तक ऐसी बनाई जिससे हिंदुओं व आर्यों की लड़कियों को भी लाभ पहुँचे और उनकी शासना भी भली-भाँति हो।' इसी तरह पंडित गौरीदत्त की 'देवरानी जेठानी की कहानी' (१८७० ई.) पुस्तक को सरकारी अनुदान और कृपा दृष्टि प्राप्त हुई थी और सरकार ने उसकी सौ प्रतियाँ खरीदीं थी।

इसी क्रम में 'नूतन ब्रह्मचारी' उपन्यास बालकों के लिए लिखा गया, ताकि यह उपन्यास पढ़कर बालक अपने सह्रदय का विकास करें। 'नूतन ब्रह्मचारी' इस उपन्यास का कथानक इतना सरल एवं स्वाभाविक है कि छोटे बच्चे भी पढ़कर आसानी से समझ सकते हैं। उपन्यास का शिल्प अद्भुत है जिसमें तत्सम तथा आँचलिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसके बावजूद भी उपन्यास की भाषा सरल एवं स्वाभाविक है। उपन्यास में कई जगहों पर मुहावरों का प्रयोग मिलता है। उपन्यास में कार्य-कारण शृंखला बड़े स्वाभाविक एवं मनोवैज्ञानिक रीति से विकसिकत हुई है। उपन्यास में प्रमुख चार ही पात्र हैं तथा एक आध सहायक पात्र भी हैं। इन सभी पात्रों का चरित्र-चित्रण बड़ी निपुणता से किया गया है। लगभग १२३ साल पहले लिखा गया यह उपन्यास आज दुर्लभ है और लगभग चार से ज़्यादा संस्करण छपने के बावजूद आज यह उपन्यास हिंदी के सामान्य पाठकों को उपलब्ध नहीं है।

१० अगस्त २००९

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