‘दिनकर’
जी हिन्दी के उच्च-कोटि के यशस्वी कवि हैं।
विषय-वैविध्य उनके काव्य की एक विशेषता है। इसके
अतिरिक्त उनके काव्य का स्वरूप भी विविधता लिए हुए है।
एक ओर तो उनकी रचनाएँ भाव-धारा की दृष्टि से इतनी गहन
हैं तथा साहित्यिक सौन्दर्य से वे इतनी समृद्ध हैं कि
उनका आस्वाद्य केवल कुछ विशिष्ट प्रकार के पाठक ही कर
सकते; तो दूसरी ओर उनका काव्य इतना सरल-सरस है कि
समान्य जनता के हृदय में सुगमता से उतरता चला जाता है।
उनके ऐसे ही साहित्य ने देश के नौजवानों में क्रांति
की भावना का प्रसार किया था। ऐसी रचनाओं में वे एक
जनकवि के रूप में हमारे सम्मुख आते हैं। पर, ‘दिनकर’
जी का काव्य-व्यक्तित्व यहीं तक सीमित नहीं है।
उन्होंने किशोर-काव्य और बाल-काव्य भी लिखा है। यह
अवश्य है कि परिमाण में ऐसा काव्य अधिक नहीं है तथा इस
क्षेत्र में उन्हें अपेक्षाकृत सफलता भी कम मिली है।
बाल-काव्य लिखना कोई
बाल-प्रयास नहीं तथा वह इतना आसान भी नहीं। बाल-काव्य
के निर्माता का कवि-कर्म पर्याप्त सतर्कता और कौशल की
अपेक्षा रखता है। कोई भी प्रगतिशील और स्वस्थ राष्ट्र
अपने बच्चों की उपेक्षा नहीं कर सकता। जिस भाषा के
साहित्य में बाल-साहित्य का अभाव हो अथवा वह हीन कोटि
का हो; तो उस राष्ट्र एवं उस भाषा के साहित्यकारों को
जागरूक नहीं माना जा सकता। बच्चे ही बड़े होकर देश की
बागडोर सँभालते हैं। वे ही देश के भावी विकास के
प्रतीक हैं। उनके हृदय और मस्तिष्क का संस्कार यथासमय
होना ही चाहिए।
यह
कार्य साहित्य के माध्यम से सर्वाधिक प्रभावी ढंग से
होता है। इसके अतिरिक्त साहित्य से बच्चों का स्वस्थ
मनोरंजन भी होता है। वह उनकी मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं
की भी पूर्ति करता है। इससे उनके व्यक्तित्व का समुचित
विकास होता है; जो अन्ततोगत्वा राष्ट्र अथवा मनुष्यता
को सबल बनाने में सहायक सिद्ध होता है।
जो कवि सामाजिक
उत्तरदायित्व के प्रति सचेत हैं तथा जो अपने लक्ष्य के
प्रति समर्पित हैं, प्रतिबद्ध हैं, वे बाल-साहित्य
लिखने के लिए भी अवकाश निकाल लेते हैं। विश्व-कवि
रवीन्द्रनाथ ठाकुर जैसे अतल-स्पर्शी रहस्यवादी महाकवि
ने कितना बाल-साहित्य लिखा है; यह सर्वविदित है। अतः
‘दिनकर’ जी की लेखनी ने यदि बाल-साहित्य लिखा है तो वह
उनके महत्त्व को बढ़ाता ही है।
बाल-काव्य विषयक उनकी दो
पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं —‘मिर्च का मजा’ और ‘सूरज का ब्याह’। ‘मिर्च का मजा’ में सात
कविताएँ और ‘सूरज का ब्याह’ में नौ कविताएँ संकलित
हैं। ’मिर्च का मजा’ में एक मूर्ख काबुलीवाले का वर्णन
है, जो अपने जीवन में पहली बार मिर्च देखता है। मिर्च
को वह कोई फल समझ जाता है —
सोचा, क्या अच्छे दाने हैं, खाने से बल होगा,
यह जरूर इस मौसिम का कोई मीठा फल होगा।
.
और जब कुँजड़िन उससे कहती है कि ‘यह तो सब खाते हैं, तो
वह चार आने की सेर भर लाल मिर्च ख़रीद लेता है और नदी
के किनारे बैठ कर खाने लगता है। खाते ही —
मगर, मिर्च ने तुरंत जीभ पर अपना जोर दिखाया,
मुँह सारा जल उठा और आँखों में जल भर आया।
.
यहाँ तक तो ठीक था। पर, चूँकि उस मूर्ख काबुलीवाले ने
इन मिर्चों पर चार आने ख़र्च किये हैं; इसलिए वह उन्हें
फेंकना ठीक नहीं समझता। उन्हें खाकर ख़त्म कर देना
चाहता है। उसका स्पष्ट कथन है कि मैं मिर्च नहीं
—’खाता हूँ पैसा’ !
इस प्रकार यह कविता हास्य का सृजन करती है। हास्य का
आलम्बन एक मूर्ख व्यक्ति (काबुलीवाला) है। निस्संदेह
लोगों की मूर्खता पर हम बराबर हँसते हैं। यह कविता संकलन की प्रथम व
प्रमुख कविता है। इसी कविता के शीर्षक पर पुस्तक का
नामकरण हुआ है।
मिर्च
को देखकर काबुलीवाला कहता है-‘क्या अच्छे दाने हैं।’
यहाँ मिर्च का आकार भी दृष्टव्य है ! ‘खाने से बल
होगा’ का अर्थ कि इन ‘दानों’ के खाने से शक्ति बढे़गी
! ‘मौसिम’ शब्द कवि के अरबी के ज्ञान का परिचायक है;
जबकि ‘मज़ा’ और ‘ज़रूर’ कवि को रुचिकर नहीं!
चवन्नी की एक सेर लाल मिर्च से ज़ाहिर होता है कि यह कविता उस
समय की लिखी हुई है जब चीजें बहुत सस्ती रही होंगी।
(कविताओं के अन्त में रचना-काल अंकित नहीं है; यद्यपि
कुछ कविताओं की विषय-सामग्री से स्पष्ट होता है कि वे
स्वातन्त्र्योत्तर काल की हैं।)
‘खर्च हुआ जिस पर उसको क्यों बिना सधाये छोड़ें ?' —
में ‘सधाये’ स्थानिक प्रयोग है।
‘पढ़क्कू की सूझ’ की
विषय-सामग्री चिर-परिचत है; मात्र उसे पद्यबद्ध किया
गया है। इस कविता में ‘मंतिख’ शब्द का प्रयोग है;
यद्यपि अन्त में टिप्पणी दे दी गयी है कि ‘मंतिख'
तर्कशास्त्र को कहते हैं। ‘चूहे की दिल्ली यात्रा’ और
‘अंगद कुदान’ बाल-मनोविनोद के सर्वाधिक उपयुक्त हैं।
‘अंगद कुदान’ के भी कुछ शब्द-प्रयोग कम प्रचलित हैं;
यथा-पंघत (पंगत), आधी नीबू (आधा नीबू), मुस्की
(स्थानिक प्रयोग), पिहकारी (पक्षियों के लिए प्रयुक्त
होने वाला शब्द; वानरों के लिए प्रयुक्त ) आदि।
‘मामा के लिए आम’ शीर्षक
कविता ‘चूहे की दिल्ली यात्रा’ के समान बाल-विनोद की
रचना है। इसमें गीदड़ (गीदड़ पांडे !) की चतुराई बतायी
गयी है। गीदड़ झूठ बोलने में सफल हो जाता है। झूठ बोलने
के कारण उसकी दुर्गति नहीं होती। अतः शैक्षिक प्रभाव
बच्चों के अनुकूल नहीं। वे भी गीदड़ के समान चतुर बनना
चाहेंगे; झूठ बोलेंगे। गीदड़ को तो झूठ बोलने में लाभ
रहा; पर हो सकता है, बच्चों को इसका कुफल भोगना पड़े।
‘झब्बू का परलोक सुधार’ एक मूर्ख चेले का आख्यान है।
बिना सोचे-समझे आँखें बंद करके अनुकरण करने वालों पर
व्यंग्य। इस प्रकार ‘मिर्च का मजा’ की अधिकांश कविताओं
के पात्र मूर्ख हैं तथा इन कविताओं से हास्य की
सृष्टि होती है। बालकों का मनोरंजन इस पुस्तिका
से सम्भव है।
’सूरज का ब्याह’ की अधिकांश कविताएँ ‘मिर्च का मजा’
की कविताओं के समान हैं। सूरज और उषा के विवाह का
प्रंसग ‘सूरज का ब्याह’ में है। इसमें एक वृद्ध मछली
का कथन पर्याप्त तर्क-संगत है —
अगर सूर्य ने ब्याह किया, दस-पाँच पुत्र जन्मायेगा
सोचो, तब उतने सूर्यों का ताप कौन सह पायेगा ?
अच्छा है, सूरज क्वाँरा है, वंशहीन, अकेला है,
इस प्रचंड का ब्याह जगत की खातिर बड़ा झमेला है।
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‘मेमना और भेड़िया’ में सुरक्षित स्थान पर खड़े मेमने की
चुहलबाज़ी बच्चों के लिए रोचक है। ‘चाँद का कुर्ता’
शीर्षक कविता चन्द्रमा की कलाओं को लक्ष्य करके लिखा
गया है। प्रस्तुत कविता किंचित
उपदेशप्रद है; जो एक तथ्य की बात बच्चों के सम्मुख
रखती है। कुत्ता खरगोश को पकड़ नहीं पाता। इस पर कुत्ते
का कथन ध्यान देने योग्य है —
मैं तो दौड़ रहा था केवल दिन का भोजन पाने
लेकिन, खरहा भाग रहा था अपनी जान बचाने,
कहते हैं सब शास्त्र, कमाओ रोटी जान बचाकर।
पर, संकट में प्राण बचाओ सारी शक्ति लगाकर।
.
‘ज्योतिषी तारे गिनता था’ का पात्र एक मूर्ख
व्यक्ति है। तारे गिनने वाला एक मूर्ख ज्योतिषी कुएँ
में गिर पड़ता है। इसलिए ‘चलो मत आँखें मीचे ही, देख लो
जब तब नीचे भी’। 'चील का बच्चा’ में चील के बच्चे के
ऊधम का उल्लेख है। पर, यह कविता हास्य-विनोद की न होकर
कुछ करुण हो गयी है। चील का बच्चा बीमार है। अनेक
दवाइयाँ दी गयीं, पर वह ठीक नहीं हुआ। किसी देवता के
आशीष की उसे कामना है ; पर कोई देवता उसे आशीष
देनेवाला नहीं। क्यों कि —
.माँ बोली, ‘ऊधमी! कहाँ पर जाऊँ मैं!
कौन देवता है जिसको गुहराऊँ मैं!
किस चबूतरे पर न चोंच तूने मारी!
चंगुल से तूने न ध्वजा किसकी फाड़ी!
किसकी थाली के प्रसाद का मान रखा?
तूने किसके पिंडे का सम्मान रखा?
किसी देव के पास नहीं मैं जाऊँगी,
जाऊँ तो केवल उलाहना पाऊँगी।
रूठे हैं देवता, न कोई चारा है
ले ईश्वर का नाम कि वही सहारा है।
.
इस कविता में भी ‘घोंसले’ के लिए ‘खोंते’ शब्द का
प्रयोग किया है। इसी प्रकार
‘चतुर सूअर‘ एक आँचलिक शब्द पजाने का प्रयोग है।
वह एकांत में जब-तब अपने दाँत पजा लेता है; क्यों कि —
.हँसकर कहा चतुर सूअर ने, ''दुश्मन जब आ जायेगा
दाँत पजाने की फुरसत तो मुझे नहीं दे पायेगा।
इसलिए, जब तक खाली हूँ दाँत पजा धर लेता हूँ,
पेट फाड़ने की दुश्मन का तैयारी कर लेता हूँ !''
.
‘बर्र और बालक’ का सार
निम्नलिखित उपदेश है —
.माता बोली, लाल मेरे, खलों का स्वभाव यही,
काटते हैं कोमल को, डरते कठोर से।
काटा बर्र ने कि तूने प्यार से छुआ था उसे,
काटता नहीं जो दबा देता जरा जोर से।
.
कविता की भूमिका में घटना का उल्लेख कर दिया है ; जो
इस प्रकार है —
''अल्लाउद्दीन खिलजी ने जब चित्तौर पर कब्जा कर लिया,
तब राणा अजय सिंह अपने भतीजे हम्मीर और बेटों को लेकर
अरावली पहाड़ पर कैलवारा के किले में रहने लगे। राजा
मुंज ने वहीं उनका अपमान किया था; जिसका बदला हम्मीर
ने चुकाया। उस समय हम्मीर की उम्र सिर्फ ग्यारह साल की
थी। आगे चलकर हम्मीर बहुत बड़ा योद्धा निकला और उसके हठ
के बारे में यह कहावत चल पड़ी कि ‘तिरिया तेल हमीर हठ
चढ़ै न दूजी बार।’
इस रचना में ‘दिनकर’ जी का ओजस्वी-तेजस्वी स्वरूप झलका
है; क्यों कि इस कविता की विषय-सामग्री उनकी रुचि के
अनुरूप थी। ’बालक हम्मीर’ कविता राष्ट्रीय गौरव से
परिपूर्ण रचना है। इस कविता की निम्नलिखित पंक्तियाँ
पाठक के मन में गूँजती रहती हैं —
.धन है तन का मैल, पसीने का जैसे हो पानी,
एक आन को ही जीते हैं इज्जत के अभिमानी।
२०
अप्रैल २००९ |