सन १९१८
में चटगाँव के क्रांतिकारी दल की केंद्रीय कमेटी का
गठन जिन पाँच सदस्यों को लेकर हुआ वे थे, सूर्य सेन
(मास्टर दा) - नेशनल हाईस्कूल के सीनियर ग्रेजुएट
शिक्षक,
अनुरूप
सेन- २४ परगना के बुडूल हाईस्कूल के सहकारी प्रधान
शिक्षक, नगेन सेन (जुलू सेन)- ४९ नं. बंगाल रेजीमेंट
के सूबेदार, अंबिका चक्रवर्ती, चारु विकास दत्त। इनके
अधीन दल के प्रथम पंक्ति के सदस्य थे-- अशरफ उद्दीन,
निर्मल सेन, प्रमोद रंजन चौधरी, नंदलाल
सिंह, अवनी भट्टाचार्य (उपेन दा) और मैं- अनंत
सिंह। कुछ दिनों बाद मैंने अपने परम मित्र गणेश का
संपर्क नेताओं से कराया। मास्टर दा व अनुरूप दा कोई भी
उस समय शस्त्रविद्या में दक्ष नहीं थे। शारीरिक नहीं,
मनोबल के द्वारा ही वे बड़े ऊँचे उठे थे, क्रांति के
अटल प्रहरी थे। भूपेन दा (भूपेन दत्त- स्वामी
विवेकानंद के अनुज) सशस्त्र क्रांति की आवश्यकता
महसूस करते, हमारे चटगाँव के दल के क्रियाकलापों का वे
समर्थन करते थे।
मेरी सबसे अधिक
श्रद्धा अनुकूल दा पर थी। वे सन १९२१-२४ में हमारे लिए
स्मगलरों से हथियार ख़रीदकर हमें देते रहे। अनुकूल दा
का आंतरिक अभिप्राय था कि उनके दिए हथियारों का उपयोग
देश के सही काम में ही हो।
सन १९२२ में हमारे
पास बहुत थोड़े-से हथियार रह गए थे, जबकि और भी
हथियारों का इंतज़ाम ज़रूरी था। हथियार ख़रीदने के लिए
बहुत रुपयों की ज़रूरत थी। चटगाँव के क्रांतिकारियों
ने यह संकल्प किया कि अर्थसंग्रह के लिए कभी भी किसी
कारण से वे किसी गृहस्थ परिवार में (वह चाहे जितने
बड़े लोग क्यों न हों) डाका नहीं डालेंगे। काफी
वाद-विवाद के पश्चात यह तय किया गया कि ए.बी. रेलवे के
रुपए लूट लिए जाएँ। तारीख तय हुई १४ सितंबर १९२३।
योजना के अनुसार निर्मल दा, खोका, राजेन, उपेन और मैं
पाँचों दो दलों में बँटकर रेलवे के रुपए लूट लें।
मास्टर दा एवं अंबिका दा इस कार्यक्रम में नहीं होंगे।
रेलवे के रुपयों की लूट
ठीक ९ बजकर ४५ मिनट
पर रेलवे ऑफ़िस के पास नियत स्थान पर मैं और खोका आ
खड़े हुए। १० बजते ही रेलवे के रुपये लेकर घोड़ागाड़ी
आती दिखी। पहाड़ की ढाल की सड़क से गाड़ी नीचे की ओर
चली आ रही थी। मैं बाइसिकल को एक झटके के साथ सड़क पर
फेंककर दाहिने हाथ में रिवाल्वर कसकर एक छलांग में ही
रास्ते के बीच आ खड़ा हुआ। जब गाड़ी पाँच गज की दूरी
पर आ गई, तब मैं एक झटके से रिवाल्वर तानकर कोचवान के
सीने पर निशाना साधे खड़ा रहा। फौरन मैंने चिल्लाकर
कहा, ''मियाँ! गाड़ी रोको,'' पर कोचवान ने सधे हुए
हाथों से घोड़े की पीठ पर चाबुक जमा दिया। घोड़ा उछल
पड़ा और पूरी ताक़त से सामने की ओर बेतहाशा भाग चला।
गाड़ी ढाल पर लड़खडाती हुई चलने लगी। मैं भी जान हथेली
पर लेकर कूद पड़ा और घोड़े की लगाम पकड़ ली और दोनों
घोड़ों की गरदनें झुका दीं- गाड़ी की चाल मंद हो गई।
गाड़ी के रुकते ही
खोका ने आगे बढ़कर रिवाल्वर तानकर सभी से गाड़ी से
उतरने कोकहा। खोका कोचवान की जगह जा बैठा। इसी बीच मैं
भी गाड़ी पर सवार हो गया था, लगाम खोका के हाथ में थी।
रिवाल्वर उन लोगों की तरफ़ बढ़ाकर मैंने कहा, ''जहाँ
जो खड़े हैं वहीं खड़े रहें। ज़रा भी कोई हिला-डुला कि
गोली मार दूँगा।'' राजेन और उपेन भी आ गए और चलती हुई
गाड़ी पर उछलकर सवार हो गए। हम लोग रुपयों का बैग लेकर
अपने पड़ाव में जा पहुँचे। जल्दी-जल्दी रुपए गिने, कुल
सत्रह हज़ार रुपए थे।
यह तय हुआ कि अंबिका
दा रुपयों को एक बैग में भरकर हथियार ख़रीदने के लिए
कलकत्ता जाएँ। इसके अनुसार अंबिका दा और दलिलुररहमान
रुपए कलकत्ता में रख कर चटगाँव लौट आए। इस घटना के दस
दिनों बाद सबेरे आठ बजे मास्टर दा और अंबिका दा हमारे
'सुलक-बहार' भवन में हम सभी के पास आ जुटे। यह तय किया
गया कि इस हेडक्वार्टर को बंद कर देना होगा। पाँच मिनट
में ही राइफल और ब्रिचलोडर बंदूकें बाँध लेने का आदेश
हुआ। हम बाहर निकलने को जैसे ही तैयार हुए कि 'पांचालाइस'
थाने के ऑफिसर इंचार्ज अपने दल-बल सहित आ धमके।
उन्होंने पूरे मकान को घेर लिया। हम लोग फौरन टोटे से
भरी थैली, अस्त्र-शस्त्र, गोला-बारूद और बम लेकर,
पोशाक के अंदर छिपे गोलीभरे हुए पिस्तौल के ट्रिगर पर
अंगुली रख, सरपंच चल पड़े। जिसके पास जो हथियार था,
उसे दिख-दिखाकर हम, लोगों को भयभीत करते हुए राह बनाते
हुए भागते रहे। तरह-तरह की विपत्तियों को झेलते हुए हम
कलकत्ता आ पहुँचे। मास्टर दा और अंबिका दा को
गिरफ़्तार कर उन पर मामला चलाया गया।
कुछ दिनों बाद
कलकत्ते में चटगाँव के पुलिस सब इंस्पेक्टर प्रफुल्ल
राय ने अचानक मुझे गिरफ़्तार किया। इसके भी कुछ दिनों
बाद चटगाँव शहर में एक और घटना से बहुत हलचल मची। सब
इंस्पेक्टर प्रफुल्ल राय, जिसने मुझे गिरफ़्तार किया
था, वे हमारे दल के सदस्य प्रेमानंद दत्त की गोली से
दिन दहाड़े मारे गए। मास्टर दा, अंबिका दा और मुझ पर
रेलवे डकैती का मामला चला। मामले में हमलोग बेकसूर
साबित होकर छूट गए।
क्रांति-दल का संगठन
चटगाँव शहर के सीने
पर सवार रहकर हम भूतपूर्व राजबंदी, नए तेवर के साथ
सशस्त्र क्रांति-दल के संगठन में लग रहे। हम छह
व्यक्तियों ने प्रमुख रूप में सन १९२९ की मई कांफ्रेंस
के बाद से दल का संगठन शुरू किया।
उस समय हमारी
केंद्रीय काउंसिल की एक बैठक में यह तय किया गया कि
अपने इस ग्रुप को हम लोग भविष्य की इंडियन रिपब्लिकन
आर्मी की चटगाँव शाखा की मान्यता प्रदान करेंगे। इस
बैठक में हम पाँच व्यक्ति-मास्टर दा, अंबिका, निर्मल
दा, गणेश और मैं उपस्थित थे। काउंसिल की इसी बैठक में
सर्व-सम्मति से इस इंडियन रिपब्लिकन चटगाँव शाखा के
अध्यक्ष चुने गए मास्टर दा अर्थात सूर्यसेन।
हमारी काउंसिल की यह
बैठक लग-भग पाँच घंटे तक चला तथा निम्नलिखित कार्यक्रम
बना-
- अचानक शस्त्रागार
पर अधिकार करना।
- हथियारों से लैस
होना।
- रेल्वे की संपर्क
व्यवस्था को नष्ट करना।
- अभ्यांतरित
टेलीफोन बंद करना।
- टेलीग्राफ के तार
काटना।
- बंदूकों की दूकान
पर कब्जा।
- यूरोपियनों की
सामूहिक हत्या करना।
- अस्थायी
क्रांतिकारी सरकार की स्थापना करना।
- इसके बाद शहर पर
कब्जा कर वहीं से लड़ाई के मोर्चे बनाना तथा मौत को
गले लगाना।
हम लोगों ने कुछ
बुनियादी संकल्प भी लिए-
- अब से डकैती नहीं
करेंगे।
- अपने-अपने घरों से
अर्थ-संग्रह करेंगे।
- गुप्तरूप से थोड़े
से हथियार एकत्र कर उनकी सहायता से अस्त्रागार पर
हमला करेंगे।
- इसके अलावा
जिस-जिसके घरों में बंदूकें हैं, उन्हें लाएँगे।
- अस्त्रागार पर
अधिकार पाने के लिए जितनी ज़रूरत हो, उतना बारूद और
बम तैयार करेंगे।
- व्यक्तिगत हत्या
के बदले संगठित रूप में हमला या विद्रोह के विकास के
लिए आयोजन करेंगे।
१५ अक्तूबर १९२९। हम
लोगों ने शपथ ली कि ये ही हमारे भविष्य के कार्यक्रम
होंगे। और सब कुछ भूलकर इसी एक काम को सफल बनाने के
लिए अपनी सारी ताक़त लगाएँगे। इसके बाद - ''करो या
मरो'' नहीं ''करो और मरो''
हथियारों की ख़रीद
हम लोगों का हथियार
ख़रीदने का काम अब शुरू हुआ। मैं रिवाल्वर और पिस्तौल
ख़रीदने के लिए पागल हो उठा। इसके लिए बराबर कलकत्ता
जाता और अनुकूल दा के साथ घंटों व्यतीत करता। मल्लाहों
की एक बस्ती में अनुकूल दा मुझे एक बूढ़े मुसलमान फकीर
के पास ले गए। बात पहले ही हो चुकी थी, अनुकूल दा ने
उसे रुपए दिए। फकीर ने अपनी बगल में पड़ी एक हंडिया से
दो रिवाल्वर निकालकर थमा दिए। एक एंग्लो इंडियन साहब
के पास भी अनुकूल दा मुझे ले गए। उन्होंने भी कई
हथियार दिए। इसके अलावा मिस्टर पिटर भाँति-भाँति के
बोर के रिवाल्वर पिस्तौल के कारतूस भी मुहैया करते
रहे। एक फ्रेंच साहब के यहाँ भी मैं और अनुकूल दा गए-
दोपहर के कुछ ही बाद। वे हमें अपने बेडरूम (सोने के
कमरे) में ले गए। अनुकूल दा से मिलकर वे बड़े खुश हुए।
उन्होंने बताया कि दो बहुत उत्तम पिस्तौल हैं,
अतिरिक्त मैगज़िन और प्रत्येक के साथ कारतूस हैं- इतना
कहकर उन्होंने लोहे की अलमारी से झकझकाते हुए नौ
शाटवाले दो पिस्तौल कारतूस और मैगजिन निकाल दिए।
और एक जहाज़ी मुसलमान
दोस्त याकूब थे। इन्होंने ही हमें सबसे अधिक हथियार
दिए। हम लोगों ने १८ अप्रैल १९३० के सशस्त्र युवा
विद्रोह में महिलाओं का हिस्सा लेना अवांछनीय नहीं
समझा था। मेरी बहन इंदुमती सिंह हमारी क्रांतिकारी
पार्टी में १९२३-२४ से ही सक्रिय रूप में जुड़ी थी। सन
१९२८-३० में वह महिलाओं को सम्मिलित कर प्रकट और गुप्त
दोनों ही प्रकार के क्रांतिकारी संगठन कायम करने में
लग गईं। चटगाँव में दुश्मनों की प्रमुख दो घाटियाँ
थीं। एक था असम बंगाल रेलवे बटालियन ए.एफ.आई. का
हेडक्वार्टर, और एक था पुलिस लाइन हेडक्वार्टर। शहर
में इंपीरियल बैंक, जेल, कोतवाली आदि अवस्थित थे। एक
बंदूक की बड़ी दूकान थी। एक ही साथ, तूफ़ानी ढंग से
शहर पर कब्जा करने के साथ ही साथ, इन पर भी कब्जा करना
प्लान के अंतर्गत था।
हम लोगों की तैयारी
का ख़ास काम अभी बाकी था। हमारे पास बम के १७ खाली खोल
थे। इन्हें पिकरिक पाउडर से भरवाना था। इसलिए एक ओर
रामकृष्ण विश्वास, दूसरी ओर तारकेश्वर दस्तीदार और
अर्द्धेदु दस्तीदार इस पाउडर को बनाने में व्यस्त थे।
युवाक्रांति का समय सामने था, सिर्फ़ दो सप्ताह हाथ
में बचे थे। इस समय भयानक विस्फोट की वजह से ताकरेश्वर
और अर्द्धेंदु बुरी तरह घायल हो गए। प्राथमिक चिकित्सा
के बाद उन्हें सुरक्षित स्थान में ले जाने की व्यवस्था
की। एक के बाद एक दुर्घटनाओं के कारण पुलिस की तत्परता
बढ़ गई। पुलिस हर रोज़ इनकी खोज में मकान-मकान, घर-घर
में तलाशी लेने लगी। कोतवाली, पुलिस चौकी, डी.आई.बी.
इंस्पैक्टर और सब इंस्पैक्टर के घरों पर निगाह रखने के
लिए हम लोगों ने अपने सदस्य कार्यकर्ताओं को तैनात
किया।
आक्रमण का दिन
मास्टर दा से संपूर्ण
आक्रमण का दिन तय करने की बातें होने के दूसरे दिन ही,
हेड क्वार्टर में हमारी एक महत्त्वपूर्ण बैठक हुई। इस
बैठक में उपस्थित थे- मास्टर दा, अंबिका दा, निर्मल
दा, गणेश और मैं। मेरा प्रस्ताव था कि १८ तारीख
शुक्रवार का दिन तय करना ठीक होगा। तब मास्टर दा ने
संघर्ष के लिए १८ अप्रैल १९३० के दिन को निश्चित किया।
आयरलैंड की आज़ादी की लड़ाई के इतिहास में ईस्टर
विद्रोह का दिन भी था- १८ अप्रैल, शुक्रवार-
गुडफ्राइडे। रात के आठ बजे। शुक्रवार। १८
अप्रैल १९३०। चटगाँव के सीने पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद
के विरुद्ध सशस्त्र युवा-क्रांति की आग लहक उठी।
चटगाँव क्रांति में
मास्टर दा का नेतृत्व अपरिहार्य था। मास्टर दा के
क्रांतिकारी चरित्र वैशिष्ट्य के अनुसार उन्होंने जवान
क्रांतिकारियों को प्रभावित करने के लिए झूठ का आश्रय
न लेकर साफ़ तौर पर बताया था कि वे एक पिस्तौल भी
उन्हें नहीं दे पाएँगे और उन्होंने एक भी स्वदेशी
डकैती नहीं की थी। आडंबरहीन और निर्भीक नेतृत्व के
प्रतीक थे मास्टर दा।
२६
जनवरी २००९ |