दिलचस्प यह है कि सच और
झूठ की यह रोचक लीला केवल हमारे बाल्यकाल की कहानियों
तक सीमित नहीं है, बल्कि आज हम जिस विधा को आधुनिक
कहानी कहते हैं, उसमें यथार्थवादी कहानी की महान और
समृद्ध परंपरा के बावजूद उसके अनेक पुरोधा कथाकार भी
इसी बीज तत्व को अपनी कहानियों का आधार बनाते रहे हैं।
जहाँ
तक बांग्ला कहानी के इतिहास का सवाल है, तकनीकी रूप से
स्वर्ण कुमारी देवी की १८९२ में प्रकाशित कहानी 'संकल्पन'
के चलते भले ही उन्हें बांग्ला का पहली कहानीकार मान
लिया जाए लेकिन एक विधा के रूप में कहानी के विकास की
दृष्टि से गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर बांग्ला कहानियों
के जनक हैं। यह वह समय था जब कलकत्ता विभिन्न
राजनैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक गतिविधियों का एक
स्पंदनशील केंद्र था। उन्नीसवीं शताब्दी में घटित
भारतीय नव जागरण की लहर से बांग्ला समाज में एक नई
चेतना विकसित हो रही थी, वहीं पश्चिम की ओर खुली
खिड़की से उसका बौद्धिक और सांस्कृतिक परिवेश भी
समृद्ध हो रहा था।
ऐसे परिदृश्य में बांग्ला कहानी को अपना आकार मिला।
पश्चिम की ओर खुली दृष्टि रखने के बावजूद रवींद्र नाथ
ठाकुर ने बांग्ला कहानी को अपनी जातीयता और परंपरा से
गहरे रूप से जोड़ा। उनकी लगभग ८४ कहानियाँ बंगाल की
विविध अनुभव संपदा को अपने में समेटे हुए है। उनकी
शुरुआती कहानियों में बंगाल की शस्य श्यामला भूमि की
गंध पूरी तरह से रची बसी हुई है। उनकी कहानियाँ सिर्फ़
चमकीले अभिजात्य जीवन की ऊब, हताशा और भ्रांतियों में
ही नहीं उलझी रही हैं, साधारण जन-मन की कोमल भावनाओं
को भी उन्होंने गहरी संवेदनशीलता से स्पर्श किया है।
उनकी पोस्टमास्टर कहानी की छोटी अनपढ़ लड़की रत्ना और
काबुलीवाला का मार्मिक चित्रांकन इसका पुष्ट प्रमाण
है। शिल्प के मोर्चे पर भी रवींद्र नाथ ठाकुर ने विविध
कथा प्रयोग किए और बांग्ला कहानी की भावाभिव्यक्ति को
समृद्ध करने के दृष्टि से कथारूपों के लिए अनेक
दरवाज़े खोले। उन्हीं दिनों नवजीवन, बालक, सुबोधिनी और
जन्मभूमि इत्यादि पत्रिकाओं में रवींद्रनाथ ठाकुर के
समकालीन कथाकार श्रीशचंद्र मजूमदार, स्वर्ण कुमारी
देवी, नगेंद्रनाथ गुप्त जैसे अनगिनत कथाकारों की
कहानियाँ प्रमुखता से छप रही थीं किंतु सही मायनों में
रवींद्रनाथ ठाकुर की कहानियों ने भोर के चमकते सूर्य
की तरह बांग्ला कहानियों के लिए मार्ग प्रशस्त किया।
रवींद्रनाथ ठाकुर के परवर्ती कथाकारों में
त्रैलोक्यनाथ मुखोपाध्याय, प्रभात कुमार मुखोपाध्याय,
सुरेंद्रनाथ मजूमदार, परशुराम, प्रमथ चौधरी और
शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की कहानियाँ विशेष रूप से
उल्लेखनीय हैं। त्रैलोक्यनाथ मुखोपाध्याय की कहानियों
में बातचीत की शैली में कथा के भीतर एक और कथा
गूथनेवाले शिल्प के माध्यम से जहाँ तत्कालीन समाज में
व्याप्त कुरीतियों पर व्यंग्य किया गया है, वही फलेर
मूल्य काशीवासिनी जैसी लोकप्रिय कहानियों के लेखक
प्रभात कुमार मुखोपाध्याय की कहानियाँ अपनी करुणा और
उदात्त भावनाओं के लिए जानी जाती हैं। परशुराम की
कहानियों का स्वभाव कुछ अलग था। उनकी व्यंग्य विनोद की
तेजाबी शैली पाठकों को बेहद के बाद शरतचंद्र ही आते
हैं। वे स्त्री की पीड़ा, प्रेम, आक्रोश और द्वंद्व को
उन्होंने अपनी कहानियों में अत्यंत मार्मिकता से उकेरा
है। उनकी अनुपमा का प्रेम, बोझा, हरिलक्ष्मी, मेजदीदी
और महेश कहानियों में स्त्री मन की अंतर्विरोधी
भावनाएँ अत्यंत पारदर्शिता से व्यक्त हुई हैं। उनके
कथा-साहित्य में व्यक्त गलदाश्रु भावुकता कहानियों का
एक ट्रेडमार्क बन गई थी।
इस बिंदु
पर कल्लोल युग का ज़िक्र किए बिना बांग्ला कहानी का
परिदृश्य अधूरा रहेगा। कल्लोल का शाब्दिक अर्थ है
गरजती उत्ताल लहरें। कल्लोल एक साहित्यिक
पत्रिका थी जिसे १९२३ में गोकुल चंद्र नाग और दिनेश
रंजन दास ने शुरू किया था। परंपरावादी लेखकों के प्रति
इसका रुख आक्रामक था। यह वह दौर था जब पूरे विश्व में
आर्थिक मंदी चल रही थी वहीं भारत में अंग्रेज़ी राज्य
के विरुद्ध तीखा संघर्ष चल रहा था। कल्लोल गोष्ठी के
कथाकारों ने समाज, धर्म और परिवार के तानेबाने को नई
आँखों से देखना शुरू किया। यथार्थवादी जीवन के प्रति
गहरे आग्रह के साथ ही इन कहानियों में किंचित
रोमांटिकता की छौंक भी थी। ताराशंकर बंद्योपाध्याय,
अचिंत्य कुमार सेनगुप्त, प्रेमेंद्र मित्र, बुद्धदेव
बसु, प्रबोध कुमार सान्याल, भवानी मुखोपाध्याय सरीखे
कथाकार इस समय कथा सृजन के क्षेत्र में सक्रिय थे।
इन्होंने आम आदमियों को अपना कथ्य बनाया। इस
परिप्रेक्ष्य में इस दौर की कहानियों को सामान्य
मनुष्य की कहानियों से अभिहित किया जा सकता है। इन
कहानिकारों में पश्चिम के प्रति कोई मोह नहीं था। सही
अर्थों में कहें तो सचेत रूप से पश्चिम का बहिष्कार
दिखता है।
यह सांस्कृतिक राष्ट्रीयता के उदय का
युग था। प्रेमेंद्र मित्र की सहानुभूति मुख्य रूप से
समाज के निचले तबके के साथ थी। उनकी कहानियों में इस
वर्ग के पात्र उच्च वर्गों के मनुष्यों की तुलना में
अधिक उदार, मानवीय, साहसी और सरल दिखते हैं। उनकी
कहानियाँ हर छोटे से छोटे प्राणी का दुख-सुख
जीते-जागते जीवित आदमियों की गाथाएँ हैं। शुधू केरानी,
गोपनचारिणी, मोटबारो सरीखी कहानियाँ इसका अच्छा
साक्ष्य हैं। ग्राम्य जीवन के वैविध्यपूर्ण, सर्वांगिण
और परिवर्तनशील मानवीय संबंधों की संवेदनशील
अभिव्यक्ति भी इस युग के कुछ कथाकारों में मिलती है।
ताराशंकर बंद्योपाध्याय की कहानियाँ इसका अच्छा उदाहरण
है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने ताराशंकर बंद्योपाध्याय की
कहानियों के बारे में कहा था कि वे मिट्टी और मनुष्य
को जानते हैं। इनके साथ इनका घनिष्ठ संबंध है।
ताराशंकर बंद्योपाध्याय की ख्याति उपन्यासकार के रूप
में अधिक थी लेकिन उनकी तारणीमाझी, डाइन, नारी ओ
नागिनी जैसी कहानियों ने पाठकों के मन को झकझोरा था।
विभूतिभूषण की कहानियों में जीवन और प्रकृति के साथ
गहरा तादात्म्य मिलता है। उनके यहाँ कई बार प्रकृति ही
एक चरित्र की भूमिका निभाने लगती है।
कुछ समय बाद माणिक बंद्योपाध्याय एक सशक्त कथाकार
के रूप में बांग्ला कथा के दृश्यपटल पर सक्रिय हुए।
उन्होंने अपनी कहानियों में युद्ध, अकाल, देश विभाजन
की त्रासदी और आज़ादी के बाद राजनैतिक तथा सामाजिक
जीवन में आई गिरावट को विशेष रूप से रेखांकित किया।
सामाजिक जीवनदृष्टि और अपनी अनोखी कथा शैली के चलते वह
बहुत जल्दी ही पाठकों के चहेते कथाकार बन गए थे। इसी
दौर में बनफूल, गजेंद्र कुमार मित्र, आशापूर्णा देवी,
मनोज बसु, परिमल गोस्वामी, अन्नदाशंकर राय, विमल मित्र
की कहानियों ने पाठकों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया।
कल्लोल युग के बाद दूसरे विश्व युद्ध की आहट से
लेकर देश के विभाजन का समय अत्यंत उथल-पुथल भरा समय
था। भारत छोड़ो आंदोलन, दूसरा विश्व युद्ध, अकाल,
कालाबाज़ारी, सांप्रदायिक हिंसा और दो राष्ट्रों की
अवधारणा के चलते देश के विभाजन ने तत्कालीन मनुष्य की
संवेदनाओं को गहरे रूप से झिंझोड़ दिया था। नए
कथाकारों ने तत्कालीन समाज के विक्षुब्ध मन को
अभिव्यक्ति प्रदान की। कल्लोल युग के मिजाज़ से ये
कहानियाँ भिन्न थीं। रोमांटिकता के स्थान पर इनमें
तिक्तता और बेधकता अधिक थी। बांग्ला कहानी के मानचित्र
पर इस समय सुबोध घोष, सतीनाथ भादुड़ी, नारायण
गंगोपाध्याय, नरेंद्रनाथ मित्र, नवेंदु घोष, ननी भौमिक,
सुशील जाना और ज्योतिरिंद्र नंदी प्रमुख रूप से छाए
हुए थे।
देश की आज़ादी की खुशी के साथ उजड़े हुए
घर-परिवारों की सिसकियाँ भी सुनाई दे रही थीं। एक ओर
नए भारत के निर्माण का विराट स्वप्न था और दूसरी ओर
आशावाद से ग्रस्त राजनीति से मोहभंग की प्रक्रिया भी
जारी थी। समरेस बसु, विमल कर, रमापद चौधरी, सैयद
मुज्तफा अली, हरिनारायण चट्टोपाध्याय, प्रभात देव
सरकार, सुधीरंजन मुखोपाध्याय, शचींद्रनाथ
बंद्योपाध्याय, आशीश बर्मन, सुलेखा सान्याल सरीखे
आधुनिक कथाकारों ने बांग्ला कहानी की वैविध्यपूर्ण
परिदृश्य को और अधिक विस्तृत किया।
तदनंतर सुनील गंगोपाध्याय, श्यामल गंगोपाध्याय,
सय्यद मुस्तफा शीराज, शीर्षेंदु मुखोपाध्याय, प्रफुल्ल
राय, मतिनंदी, कविता सिंह, देवेश राय, आनंद बागची,
संजीव चट्टोपाध्याय, दिव्येंदु पालित, नवनीता देवसेन
सरीखे अनेक कथाकारों ने बांग्ला कहानी संसार को अपनी
रचनात्मकता से समृद्ध किया है। इस तरह हम देखते हैं कि
बांग्ला कहानी ने एक लंबी यात्रा तय की है। इस यात्रा
के अनेक मोड़ और उतार चढ़ाव रहे हैं। हर सामाजिक और
मानवीय स्थिति ने बांग्ला कहानीकारों में एक विशिष्ट
प्रतिक्रिया को जन्म दिया है और जिसके फलस्वरूप उनके
कथा-साहित्य मे एक नया मूल्य और चरित्र विकसित हुआ है।
सच तो यह है कि बांग्ला कहानी परिदृश्य से थोड़ा भी
परिचित व्यक्ति इसकी आत्मीयता लचीलेपन और व्यापकता से
प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।
यह सर्वविदित तथ्य है कि बांग्ला कहानियों की
पठनीयता, रोचकता और गहरे जीवनानुराग के चलते उसे
अभूतपूर्व लोकप्रियता मिली है। लेकिन इधर उसे कई
व्याधियों ने घेर लिया है। समकालीन बांग्ला कहानी
परिदृश्य में बाज़ारू प्रवृत्तियाँ प्रवेश करके इसके
रचनात्मक वैभव को धीरे-धीरे घुन की तरह कुतर रही हैं।
यह अकारण नहीं है कि सृजनात्मकता के लिए जिस तरह से
अवकाश और धीरज चाहिए, बांग्ला कहानी उससे शनैः शनैः
विमुख होती जा रही है। पूजा के अवसरों पर निकलनेवाले
विशेषांकों की माँग पर थोक में कहानी लिखने की लालच ने
बांग्ला में सृजनात्मक धैर्य के साथ कहानी लिखने की
परिपाटी को क्षीण कर दिया है। शायद एक यह भी कारण है
कि जहाँ इधर की बांग्ला कहानी में साँचे में ढले गढ़े
पात्र और अस्वाभाविक घटनाएँ और स्थितियाँ प्रचुरता से
दिखाई दे रही हैं, वहीं उनमें जीवन की धड़कन कम से
कमतर होती जा रही हैं। कहना न होगा कि इस चुनौती से
बांग्ला कहानी को साहस के साथ सामना करना होगा।
हिंदी और बांग्ला
एक दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक समान
सांस्कृतिक स्मृति और परंपरा के कारण अपने अंतर्निहित
स्वभाव में समानरूपा हैं। दरअसल हिंदी और बांग्ला में
एक ही चेतना स्पंदित होती है। उनके कथा साहित्य का
परिवेश या भाषा भले ही क्यों न कुछ भिन्न हो, उनके
पात्र एक ऐतिहासिक समय, सांस्कृतिक अस्मिता और स्मृति
से जुड़े रहते हैं। यही कारण है कि बांग्ला कहानियाँ
एक मायने में कई बार हिंदी की कहानियाँ लगती हैं और
हिंदी समुदाय इन्हें हाथोंहाथ लेता है। यह एक प्रीतिकर
तथ्य है कि बांग्ला कथा साहित्य का अनुवाद जिस तत्परता
और शीघ्रता से हिंदी में होता है, शायद दुनिया की
किन्हीं अन्य भाषाओं में होता हो।
१६ फरवरी २००९ |