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निबंध

२३ जनवरी: जयन्ती के अवसर पर विशेष


पत्रकारिता, शिक्षा और राजनीति की त्रिवेणी- तिलक
--मनोहर पुरी

 


लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक एक महान शिक्षक, पत्रकार, जन-नायक और स्वतंत्रता सेनानी थे। उन्हें स्वतंत्रता की लड़ाई का पहला लोकप्रिय नेता माना जाता है। आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन में उन्होंने अपना अमूल्य योगदान किया।

बाल गंगाधर तिलक का जन्म २३ जुलाई, १८५६ को महाराष्ट्र में रत्नागिरि ज़िले के एक गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम गंगाधर राव था। वह संस्कृत और गणित के अध्यापक थे। उनकी माता पार्वती बाई सरल हृदय की धार्मिक विचारों वाली महिला थी। बचपन में उनका नाम बलवंत रखा गया। उनकी माँ प्यार से उन्हें 'बाल' कह कर पुकारती थी। बाद में उनका यही नाम प्रचलित हो गया। तिलक को भारतीय राष्ट्रवाद का भगीरथ ऋषि कहा जाता है। उन्होंने आधुनिक भारतीय राजनीतिक चिंतन को एक नया मोड़ देकर राष्ट्रीय आंदोलन में अमूल्य योगदान किया। एक सजग पत्रकार के नाते उन्होंने दो साप्ताहिक पत्र निकाले : मराठी में 'केसरी', और अंग्रेज़ी में 'मराठा'। 'केसरी' में उन्होंने जो विचारोत्तेजक लेख और संपादकीय लिखे तथा विविध अवसरों पर जो ओजस्वी भाषण दिए, वे उनके राजनीतिक विचारों की मुख्य स्रोत सामग्री है। 'गीता रहस्य' उनकी धार्मिक कृति है जिसमें 'कर्मयोग' तथा अन्याय के विरुद्ध संघर्ष का प्रेरणादायक संदेश निहित है।

तिलक ने भारत में समाज सुधार का कार्यक्रम लागू करने के लिए ब्रिटिश सरकार का मुँह ताकना उचित नहीं समझा, जैसा कि राजा राम मोहन राय जैसे समाज सुधारकों का दृष्टिकोण था। उन्होंने स्वयं समाज-सुधार आंदोलन के नेतृत्व का बीड़ा उठाया। इसके लिए उन्होंने भारतीयों की विदेश यात्रा का समर्थन किया ताकि उनके ज्ञान और विचार-शक्ति का विस्तार हो, विधवा-पुनर्विवाह की सराहना की ताकि स्त्रियों के प्रति अन्याय को रोका जा सके, स्त्री-शिक्षा की पैरवी की, अस्पृश्यता की अमानवीय प्रथा का विरोध किया, और जात-पात पर आधारित भेदभाव की निंदा की। उन्हें निर्धन और दलित वर्गों के प्रति असीम सहानुभूति थी। तिलक भारत के चिरसम्मत सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप भारतीय समाज में सच्चा सुधार लाना चाहते थे, वे पश्चिम के अंधानुकरण के पक्ष में नहीं थे।

उन्होंने न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानडे और गोपाल कृष्ण गोखले जैसे मूर्द्धन्य नेताओं के समाज सुधार कार्यक्रम का इसलिए विरोध किया क्योंकि ये महानुभाव भारत के परंपरागत सामाजिक मूल्यों में आस्था नहीं रखते थे बल्कि भारत को हूबहू पश्चिमी सभ्यता के अनुरूप ढालने के लिए पुरानी सब परंपराओं को मिटा देने को तैयार थे। तिलक ने तर्क दिया कि भारत की अपनी एक स्वस्थ आध्यात्मिक संस्कृति है जिसे हम भूल चुके हैं, और इसीलिए यहाँ कई अंधविश्वास और कुरीतियाँ घर कर चुकी हैं। उस संस्कृति की अवहेलना करते हुए भारतीय समाज को यूरोपीय भौतिकवाद, तर्क-बुद्धिवाद और उपयोगितावाद के साँचे में ढालने का प्रयास विनाशकारी होगा। तिलक ने समाज सुधारकों को याद दिलाया कि वर्तमान युग में हमारा पतन हिंदू धर्म के कारण नहीं हुआ, बल्कि इस धर्म के त्याग के कारण हुआ है। फिर, इन समाज सुधारकों को जन-समर्थन भी प्राप्त नहीं था बल्कि वे राज्य की बल-प्रयोग-मूलक शक्ति के सहारे और प्रशासन की दुष्प्रेरणा के द्वारा इस देश के समाज को पश्चिमी साँचे में ढालने की तत्पर थे। तिलक ने तर्क दिया कि इससे न केवल हमारे आत्मसम्मान और आत्मगौरव को ठेस लगेगी, बल्कि विदेशी शासन के द्वारा भारतीय समाज के आंतरिक मामलों में बल-प्रयोग अपने आप में अनैतिक है।

लोकमान्य के अनुसार, सच्चा समाज सुधार समाज के भीतर से जन्म लेता है, अत: लंबे चौड़े कानून बना कर समाज पर बाहर से थोपने पर कोई लाभ नहीं होगा, स्वयं समाज के भीतर सुधार की प्रेरणा जगाना ज़रूरी है। प्रगतिशील शिक्षा और ज्ञान के प्रसार के स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन का वातावरण तैयार किया जा सकता है। हिंदू समाज में वैदिक धर्म की विवेकसम्मत परंपरा को पुनरुज्जीवित करके अंधविश्वासों और कुरीतियों पर सक्षम प्रहार किया जा सकता है। जिस नेतृत्व को भारत की आध्यात्मिक परंपरा में कोई आस्था नहीं है और जो पश्चिम के सामाजिक इतिहास के आधे-अधूरे विचार उधार लेकर इस देश में समाज सुधार लेकर इस देश में समाज सुधार लाने का दम भरता है, उसे ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है।

तिलक ने अनुभव किया कि लार्ड मैकॉले ने इस देश में जो पश्चिमी शिक्षा, प्रणाली स्थापित की थी, वह राष्ट्र के भावी स्वास्थ्य और कल्याण के लिए घातक थी। वह शिक्षा प्रणाली नई पीढ़ी और भारत की विशाल जनसंख्या के बीच न केवल अलगाव पैदा कर रही थी, बल्कि नई पीढ़ी को भारत की सांस्कृतिक मूल्य-परंपरा और आदर्शों से भी विमुख कर रही थी। सरकारी संस्थाओं में प्रचलित पश्चिम शिक्षा प्रणाली युवा पीढ़ी को अपने अतीत की शानदार धरोहर से वंचित कर रही थी। इसके विपरीत तिलक ने संपूर्ण देश में राष्ट्रीय स्कूल और कॉलेज खोलने की सलाह दी ताकि जनसाधारण को कम ख़र्चीली और स्वस्थ शिक्षा प्रदान की जा सके जो उनमें आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन की भावना भर सके। स्वयं तिलक ने ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा की स्थापना में सक्रिय योग दिया जो राष्ट्रीय पुनर्निर्माण कार्यक्रम का अभिन्न अंग थी।

तिलक के अनुसार, राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का निर्माण प्राचीन भारतीय संस्कृति की स्वस्थ और जीवंत परंपरा के आधार पर होना चाहिए सच्चा राष्ट्रवादी पुरानी नींव पर नया ढाँचा खड़ा करना चाहेगा। पुरानी परंपराओं की अवमानना करके जो सुधार लाया जाएगा, वह निराधार होगा। हमारी संस्थाओं के अंग्रेज़ीकरण का अर्थ होगा, उनका अराष्ट्रीयकरण। तिलक ने जन-मानस में राष्ट्रीय चेतना का संचार करने के लिए गणपति और शिवाजी उत्सवों का आयोजन किया। वस्तुत: तिलक पश्चिमी आदर्शों और मूल्य-परंपरा के विरुद्ध थे, पश्चिमी कार्य-प्रणाली के विरूद्ध नहीं थे। उन्होंने पश्चिमी मूल्यों पर आधारित शिक्षा का विरोध किया, पश्चिम ढंग के स्कूल और कॉलेज खोलने का विरोध किया। ऐसे संकेत मिलते हैं कि उन्हें गणपति-उत्सव के आयोजन की प्रेरणा यूनान के इतिहास से मिली जिसमें देवी-देवताओं के नाम पर जनशक्ति को गतिमान करने के लिए ओलंपिक खेल-कूद आयोजित किए जाते थे। शिवाजी उत्सव के आयोजन की प्रेरणा उन्हें कार्लाइल और रस्किन की कृतियों में चित्रित वीर-पूजा के उदाहरणों से मिली।

तिलक ने स्पष्ट किया कि राष्ट्रवाद को मूर्त सत्ता नहीं है, बल्कि एक तरह का विचार या भावना है : यह देशवासियों को उन महापुरुषों की याद दिलाता है जिन्होंने देश के इतिहास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। शिवाजी एक ऐसे महापुरुष थे जिन्होंने अपने अदम्य शौर्य और न्यायप्रियता से जन-कल्याण को बढ़ावा दिया। उन्होंने किसी संप्रदाय या क्षेत्र-विशेष के लोगों के संकीर्ण हितों को भी प्राथमिकता नहीं दी। तिलक की राष्ट्रवाद की संकल्पना राष्ट्रीय स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय के पश्चिमी सिद्धांतों से भी प्रभावित थी। उन्होंने राष्ट्रीयता के बारे में जॉन स्टुआर्ट मिल की परिभाषा को विशेष आत्मनिर्णय के बारे में वुडरो विल्सन की संकल्पना को भारत पर लागू करने की पैरवी की।

भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा था कि कांग्रेस के नरम दल ने ब्रिटिश सरकार के पास प्रार्थनाएँ और याचिकाएँ भेजने तथा संविधानिक तरीके से संघर्ष चलाने की जो नीति अपना रखी थी, उससे अंग्रेज़ों पर कोई प्रभाव नहीं हुआ था, और वे भारतवासियों को कुछ भी देने वाले नहीं थे। तिलक ने इन तरीकों की जगह शांतिपूर्ण प्रतिरोध का समर्थन किया। यह महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की पूर्वपीठिका थी। फिर, तिलक ने श्री अरविंद, विपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय के साथ मिलकर 'स्वदेशी' आंदोलन चलाया और 'स्वराज' का नारा बुलंद किया। उन्होंने तर्क दिया कि राजनीतिक अधिकार माँगने से कभी नहीं मिलते थे, अधिकार लड़कर प्राप्त किए जाते हैं। उन्होंने देशवासियों को स्वाधीनता संघर्ष के निर्णायक दौर में पदार्पण करने के लिए तैयार किया। उन्होंने याद दिलाया कि कर्तव्य का मार्ग कभी फूलों से भरा नहीं होता, यह काँटों से भरा रास्ता है। भारतवासियों को अपने लक्ष्य की सिद्धि के लिए बलिदान को तत्पर रहना चाहिए।

स्वदेशी आंदोलन का नेतृत्व करते हुए तिलक ने तर्क दिया कि जब तक हम विदेश में बनी वस्तुओं का बहिष्कार या बॉयकॉट नहीं करते, तब तक स्वदेशी में विश्वास का कोई अर्थ नहीं है। ब्रिटेन में बनी वस्तुओं को ख़रीदना बंद कर के हम ब्रिटिश व्यावसायिक हितों को ख़रीदना बंद कर के हम ब्रिटिश व्यावसायिक हितों को हानि पहुँचा सकते हैं जो ब्रिटिश सरकार की जड़ों को हिला देगी। इससे भारत में बने माल की माँग बढ़ जाएगी, अत: भारत के औद्योगिक विकास को बढ़ावा मिलेगा। कुल मिलाकर इससे हमारी राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन का आधार सुदृढ़ होगा। स्वदेशी का एक पा यह भी था कि भारतवासी ब्रिटिश शासन-तंत्र उन्हें पैरों तले रौंद रहा था। तिलक ने बल दे कर कहा कि स्वदेशी केवल आर्थिक अस्त्र नहीं है बल्कि यह एक राजनीतिक और आध्यात्मिक अस्त्र भी है। उन्होंने कहा यदि हम गोरी जातियों का दास नहीं बनना चाहते तो हमें पूरा निष्ठा के साथ स्वदेशी आंदोलन चलाना होगा। यह हमारी मुक्ति का साधन है।

जहाँ नरम दल के सदस्य ब्रिटिश शासन के अंतर्गत सीमित प्रशासनिक सुधारों की माँग कर रहे थे, वहाँ तिलक ने गरम दल या उग्रपंथियों का नेतृत्व करते हुए 'स्वराज' या स्वशासन की माँग को बढ़ावा दिया। उन्होंने स्पष्ट किया कि 'स्वराज' का अर्थ है, अधिकारितंत्र की जगह जनता का शासन। जो समाज-सुधारक ब्रिटिश सरकार से समाज सुधार लागू करने की आशा करते थे, उन्हें तिलक ने यह तर्क दिया कि किसी भी सार्थक समाज-सुधार से पहले स्वराज-प्राप्ति ज़रूरी है। स्वराज और स्वधर्म हमारे इतिहास के गौरवशाली तत्व रहे हैं, परंतु आज से ध्वस्त अवस्था में हैं। उनका जीर्णोद्वार समय की माँग है। टुकड़े-टुकड़े सुधार से कुछ नहीं होने वाला है। ब्रिटिश प्रशासन इस देश के विनाश पर उतारू है। अत: तिलक ने यह प्रसिद्ध नारा दिया : '' स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे ले कर रहूँगा।'' स्वराज प्राप्ति भारतीय राष्ट्रवाद की महान विजय होगी। तिलक यह चाहते थे कि साम्राज्य परिषद की सांकेतिक प्रभुसत्ता के अंतर्गत भारत की अपनी प्रतिनिधि सभा पूर्ण स्वराज का प्रयोग करें। उन्होंने स्पष्ट किया कि हमारी माँग पूर्ण स्वराज की है, आंशिक स्वराज कुछ नहीं होता यह शब्द ही निरर्थक है। 'धर्म-राज्य` के अंतर्गत पूर्ण स्वराज ही रह सकता है। केवल प्रशासनिक सुधार लागू करने से हमारा लक्ष्य पूरा नहीं होगा।

कभी-कभी तिलक पर यह आरोप लगाया जाता है कि उन्होंने भारतीय राष्ट्रवाद के साथ हिंदू राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया। परंतु यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्होंने राष्ट्रीय चेतना को जागृत करने के लिए ये उत्सव आयोजित किए। उन्होंने मुस्लिम या किसी अन्य संप्रदाय के प्रति वैमनस्य का परिचय कभी नहीं दिया। वास्तव में वे यह चाहते थे कि राष्ट्रीय हित में हिंदुओं और मुसलमानों को कंधे से कंधा मिला कर काम करना चाहिए। उनका विश्वास था कि हिंदुओं का बुद्धि-बल और मुसलमानों का शौर्य जब एक साथ मिल जाएँगे तब वे ब्रिटिश अधिकारीतंत्र को तहस-नहस कर देंगे। १९२० में तिलक ने मुसलमानों के खिलाफ़ आंदोलन को पूरा समर्थन देने की पेशकश की।

तिलक उग्रपंथी अवश्य थे, परंतु उन्होंने स्वराज प्राप्ति के लिए हिंसा की वकालत कभी नहीं की। उन्होंने क्रांतिकारियों की सराहना अवश्य की, परंतु जनशक्ति को जागृत और गतिमान करने के लिए उन्होंने शांतिपूर्ण प्रतिरोध का समर्थन किया। वे ब्रिटिश आर्थिक हितों को क्षति पहुँचा कर और ब्रिटिश शासन तंत्र में रोड़े अटका कर अंग्रेज़ों को यहाँ से प्रस्थान करने के लिए विवश करना चाहते थे। उन्होंने राजनीतिक हत्याओं का आतंकवादी गतिविधियों का समर्थन नहीं किया। उनके विचार से ऐसे साधन नैतिक दृष्टि से तो अनुचित थे ही, तत्कालीन परिस्थितियों में ये राजनीतिक इष्ट सिद्धि की दृष्टि से भी अनुपयुक्त थे। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध सशस्त्र क्रांति की योजना बनाई थी-ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता।

२१ जुलाई २००८

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