तीन वर्ष, तीन महीने और तेरह दिनों वाली इतनी लंबी अवधि की परिक्रमा अपने आप में नर्मदा माहात्म्य
का जीता जागता उदाहरण है। दुनिया में ऐसा अन्य कोई
स्थान नहीं है जहाँ लाखों लोग बिना कोई कार्य किये तीन
वर्ष रोटी, कपड़ा और मकान की चिन्ता से मुक्त आनन्द
पूर्वक बिता सकें, और फिर जीवन भर इस आनन्द का गुणगान
करते रहें।मात्र यही एक विशेषता नर्मदा को संसार की
अन्य नदियों से श्रेष्ठ सिद्ध कर देती है।मुझे आज तक
एक भी परिक्रमा वासी नहीं मिला जिसने परिक्रमा के
दौरान किसी भी प्रकार के कष्ट की बात कही हो, परन्तु
आनन्द दायक घटनाओं और चमत्कारों का विवरण अपने अपने
ढंग से सभी ने दिया।
असंख्य आस्थावान जनों को
प्रत्यक्ष रूप से जीविका और आनन्द देने वाली यह नदी
नर्म अर्थात् आनन्द दा अर्थात् देने वाली नर्मदा के
नाम से सबसे अधिक प्रसिद्ध है। नर्मदा की उत्पत्ति
पुराणों के अनुसार भगवान शंकर की जटाओं से होने के
कारण इनका नाम जटाशंकरी भी विख्यात है। प्राचीन काल से
आज तक जितना साहित्य नर्मदा पर उपलब्ध है उतना और किसी
पर नहीं है। प्राचीन साहित्य में एक पूरा पुराण नर्मदा
पुराण के नाम से अत्यन्त लोकप्रिय ग्रन्थ उपलब्ध है
जिसका पारायण सर्वदा चलता रहता है। इस पुराण में
सेंकड़ों कथाओं के द्वारा नर्मदा का माहात्म्य बतलाया
गया है। भगवान शंकराचार्य द्वारा विरचित नर्मदाष्टकम्
भी अत्यन्त प्रसिद्ध है। नर्मदा कल्पवल्ली नामक ग्रन्थ
में नर्मदा परिक्रमा की संपूर्ण विधि के साथ साथ दोनों
तटों के सभी तीर्थों का वर्णन मिलता है। साथ ही हजारों
कवितायें भी नर्मदा का गुणगान करती हुई सुनी जाती हैं।
अनेक लोगों ने शोध ग्रन्थ भी लिखे हैं।
माघ मास के शुक्लपक्ष की
सप्तमी तिथि को नर्मदा का आविर्भाव होने से प्रति वर्ष
इस तिथि में नर्मदा जयन्ती बड़े धूमधाम से मनायी जाती
है.। १३०० कि०मी० लम्बी धारा में एक साथ लाखों दीपक
छोड़े जाते हैं तब एक स्वर्ग जैसा दृश्य दिखाई देता है।
लाखों लोग श्रृद्धापूर्वक एकत्रित होकर माँ रेवा की
आरती करते हैं.। होशंगाबाद जिसका पौराणिक नाम
नर्मदापुरम् में नर्मदा जयन्ती का उत्सव अत्यन्त बृहद्
स्तर पर आयोजित किया जाता है। दोनों ओर लाखों भक्तजनों
की उपस्थिति धारा के बीच में एक विशाल जलमञ्च बनाया
जाता है, वहाँ से देश के अतिविशिष्ट जनों द्वारा
अभिषेक होता है,जिसे देखने के लिये बहुत दूर दूर से
दर्शनार्थी आते है। यहाँ जनता जनार्दन के विराट स्वरूप
का दर्शन होता है।
पद्म पुराण में नर्मदा
को गंगा आदि पवित्र नदियों से श्रेष्ठ बताते हुए कहा
है॒,,
पुण्या कनखले गंगा, कुरुक्षेत्रे सरस्वती।
ग्रामे वा यदि वारण्ये, पुण्या सर्वत्र नर्मदा।।
अर्थात् गंगां को कनखल नामक तीर्थ में विशेष पुण्यदायी
माना जाता है और सरस्वती को कुरुक्षेत्र में, किन्तु
नर्मदा चाहे कोई ग्राम हो या फिर जंगल सर्वत्र ही
विशेष पुण्य देने वाली है।
तीर्थों की दृष्टि से भी नर्मदा अन्य नदियों की तुलना
में अधिक श्रेष्ठ है। इसके किनारे अमरकंटक से सागर
संगम तक दस करोड़ तीर्थ हैं। वायु पुराण तथा स्कन्ध
पुराण में उद्गम से सागर तक रेवा तटवर्ती क्षेत्रों का
क्रमबद्ध वर्णन मिलता है। यथा-
नर्मदा संगमं यावत्, यावच्चामरकण्टकम्।
तत्रान्तरे महाराज तीर्थ कोटिदशा स्थिताः।।
अर्थात् नर्मदा के उद्गम अमरकण्टक से लेकर सागर संगम
खम्बाद की खाड़ी तक दस करोड़ तीर्थ स्थित हैं।
पुराणों में स्थल स्थल पर भिन्न भिन्न आख्यानों के साथ
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, अग्निदेव, सूतमुनि मार्कण्डेय
इत्यादि ने नर्मदा की लोकोत्तर महिमा का बखान किया है।
विष्णु ने उसे मृत्युलोक की वैतरणी कहा है तथा ब्रह्मा
ने संसार की पाप नाशिका नदी कहा है।
स्कन्ध पुराण में रेवा
के माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है-
विहाय रेवां सुर सिन्धु सेव्याम्,
तत्तीरसंस्थं च हरिं हरं च।
उन्मत्तभाव विजितस्त्वमन्यं,
क्व यासि रे मूढ दिगन्तराणि।।
हे मूर्ख तुम इस ब्रहंमा विष्णु, शिव आदि देवताओं से
सेवित रेवा के तट को छोड़कर किसी अन्य स्थान पर जाने का
कैसे सोच सकते हो?
नर्मदा की इस सर्व
श्रेष्ठता को बताने के लिये पद्म पुराण की एक कथा
पर्याप्त होगी।
एक भीलनी एक दिन अकस्मात् काले और बर्बर कुरूप पति के
परिवर्तित रूप को देखकर पहचान नहीं सकी। उधर उसका पति
व्याध भूखा था। अन्न पानी के लिए पत्नी को बुला रहा
था। लेकिन वह आशंका से पास नहीं जा रही थी। आखिर उसकी
पत्नी ने पूछा, ''आप कौन हैं?'' व्याध ने बताया प्रिये
मैं तुम्हारा पति हूँ। भीलनी आश्चर्य से बोली मेरे पति
तो काले कलूटे लाल लाल आँखों वाले डरावने हैं। आपका
शरीर तो दिव्य तेजोयुक्त है। व्याध ने बताया कि नर्मदा
के तट पर एक संगम है। धूप और श्रम से थका हुआ मैने उसी
संगम में स्नान किया, जल पिया। जब से उस जल का सेवन
किया है तभी से मेरा शरीर ऐंसा हो गया है। पत्नी ने
अत्यन्त उत्सुकता पूर्वक कहा पहले चलो वह जगह बताओ।
फिर खाना पीना देंगे।शीघ्रता पूर्वक वे उस रेवा संगम
में गये। पुनः स्नान किया। देखते ही देखते एक दिव्य
विमान आया और उस पर बैठ कर वे दोनों विष्णुलोक को चले
गये। इसी समय चार काले काले हंसों और चार विकृत एवं
भयावह स्त्रियों ने भी स्नान किया, जो अभी अभी
मानसरोवर से स्नान करके लौटी थीं। स्नान करते ही चारों
कृष्णवर्णी हंस धवल हो गये। वे स्त्रियाँ स्नान करते
ही चेतना विहीन हो गयीं। कैसा विरोधाभास ? क्या है
इसका रहस्य? मानसरोवर में स्नान करने पर भी जो हंस
श्वेत नहीं हुए वे यहाँ रेवा संगम के जल से पवित्र हो
गये।और वहाँ उसी पावन जल राशि के स्पर्श मात्र से वे
स्त्रियाँ जीवित नहीं बचीं। यह सारी घटना देख रहा था
वहीं स्थित समुज्जवल नामक हंस। उसने जाकर उद्विग्न भाव
से अपने पिता से सब कह सुनाया और इसका रहस्य जानना
चाहा। पिता कुंजल ने कहा, ''पांचाल देश में विदुर नाम
का एक क्षत्रिय था। उसने एक ब्राह्मण की हत्या कर दी।
उस पाप से व्याकुल होकर वह पापी प्रयाग, पुष्कर,
वाराणसी और अद्यतीर्थ पहुँचा। वह वहाँ जाकर पाप मुक्त
हो गया, लेकिन वे चारों तीर्थराज पापों से लिप्त हो
गये। वे ही काले हंसों के रूप में पाप छुड़ाने के लिये
सारे तीर्थों में भटक रहे थे। उनके साथ चलने वाली चार
स्त्रियाँ ब्रह्म-हत्याएँ थीं। रेवा के जल स्पर्श से
वे चारों तीर्थ पाप मुक्त हो गये यही कारण है कि वे
काले हंस धवल हो गये और पाप स्वरूपा नारियाँ मृत हो
गयीं। इसीलिये तो नर्मदा को मोक्षदायिनी कहते हैं।
नर्मदा के क्षेत्र में कभी अकाल नहीं पड़ा और न ही इस
क्षेत्र में कोई कभी भूखा सोता है। ऐसा लोगों का दृढ़
विश्वास है। इसीलिए कहा गया है,
नील नीर शुचि गंभीर नर्मदा की धारा, धीर धीर बहे समीर
हरती दुख सारा।
जल में प्रस्तर अविचल, छल छळ छल ध्वनि निश्छल, मीन मकर
क्रीडास्थल ढूँढते किनारा।
जलचर थलचर नभचर, पानी सबका सहचर, केवट धीवर अनुचर
जीविका सहारा।
परिक्रामक झुण्ड झुण्ड, धारित त्रिपुण्ड मुण्ड, भिन्न
बहु प्रपात कुण्ड त्रिविध ताप हारा।।
--शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
११
फ़रवरी २००८ |