कार्तिक मास की अमा निशा
के दूसरे दिन प्रातःकाल ओस के अंगराग में डूबी दिव्य
सौंदर्यमयी पृथ्वी पर ब्रज नारियाँ सुख भरी, मदमाती,
आकर्षक एवं विविध वस्त्रों से अलंकृता ब्रज बालाएँ,
इठलाते-गाते, नृत्य करते हुए ब्रज गोप गोवर्द्धन की
पूजा के हेतु चल दिए। एक सखी दूसरी सखी को बुलाती है।
फिर इकट्ठी होकर गाती हुई जाती हैं-
चलौ चलौ री सखी सब हिलमिल के, श्री गिरिराज पुजावन को।
रोली-अक्षत-पुष्पन माला, संग लै भेंट चढ़ावन
को। धूप-दीप-नैवेद्य-आरती,
कर बँकि उस गावन को।
छप्पन भोग बत्तीसों व्यंजन, गिरवर भोग लगावन
को। मानसी गंगा विमल तरंगा,
जल अचमन करावन को।।
पुंगीफल घरलोग इलायची, बीड़ा पान चबावन को।
फूलन की सैंया तहाँ रचिए, श्री गिरवर पौढ़ावन
को।।
चरण पलोटें दीन-दुखारी, कृष्ण भक्ति वर पावन
को। तीनों ताप नसावन को,
मेटन जग आवन-जावन को।।
इस परम पवित्र गोवर्द्धन
की पूजा किस प्रकार प्रारंभ हुई, इस संबंध में यही
जनश्रुति है कि ब्रज में इंद्र की पूजा का विधान था,
जिसको समाप्त कर कृष्ण ने गोवर्द्धन पर्वत की पूजा की
स्थापना की, या यों कहें कि इंद्र आदि देवताओं की पूजा
के स्थान पर प्रकृति की पूजा का विधान कृष्ण ने जनसमाज
के सम्मुख प्रस्तुत किया। 'प्रभुता पाहि काहि मद
नाहीं' के अनुसार इंद्र भी अहंकार की लपेट में आ चुके
थे। अहंकार ही उन्हें पतन की ओर ले चला। गोवर्द्धन की
पूजा के समय देवगिरि सुमेरु, नगाधिराज हिमालय,
राजर्षि, ब्रह्मर्षि आदि अनेक बड़ी प्रसन्नता से
सम्मिलित हुए, जिसका वर्णन 'गर्गसंहिता' में प्राप्त
हुआ। इसपर देवराज इंद्र क्रोध से भर उठे और प्रलयंकारी
मेघों को ब्रज को बहा देने का आदेश दिया।
इंद्र के समस्त
प्रयत्न बेकार गए। कृष्ण ने अपने बालसखाओं की सहायता
से गोवर्द्धन पर्वत को एक अंगुलि पर उठा लिया और बहते
हुए ब्रज को बचा लिया। यह भी माना जाता है कि उस
डूबते-बहते हुए ब्रज को बचाने के निमित्त गोवर्द्धन
पर्वत के रूप में बाँद बाँधा गया था। अगर बाँध
बाँधनेवाली बात सत्य हो सकती है तो हमको उस युग के
शिल्प कौशल की सराहना करनी पड़ेगी। गोधन की रक्षा के
कारण ही इसका नाम गोवर्द्धन पड़ा। गोवर्द्धन की
चिन्मयता का वर्णन भी 'गर्गसंहिता' में आया है।
दीपावली के दिन इस
पर्वत पर करोड़ों की संख्या में दीप जलाए जाते थे,
जिनकी ज्योति से पर्वत जगमगाने लगता था। यहीं पर बल्लभ
संप्रदाय के आचार्य बल्लभाचार्य जी ने १५२० ई. में
श्रीनाथ जी की मूर्ति का प्राकट्य कराके मंदिर की
स्थापन की थी।
गोवर्द्धन में दीप दान कियो मन भायो।
चहुँ दिस जगमग जोति कुहू निसि मयो सुहायो।
परिक्रमा सब कोउ भले दाहिनो दियो गिरिराय।
गीत नाद उद्घोष सो मगन भरे ब्रजराय।।
दीपावली के दूसरे दिन
गोवर्द्धन की विधि-विधान से पूजा होती है। अन्न के
विशाल पर्वत एक स्थान पर एकत्र होने के कारण 'अन्नकूट'
के नाम से भी यह त्योहार अधिक प्रसिद्ध है। पर्वत को
भी अन्नकूट की संज्ञा दी जाती है। अन्नकूट का विशद
वर्णन ब्रज साहित्य में उपलब्ध है।
अन्नकूट बहु भात बनाए रचि पकवानन ढेरी।
नंदराय पूजत परवत को लाओ गायन घेरी।।
गोपाल समस्त गोप-गोपिकाओं
सहित गोवर्द्धन पूजन करने के लिए आते हैं। उनकी मंद
गति की चाल निरखकर सभी मुग्ध हो जाते हैं। ब्रज
नारियाँ विविध प्रकार के पकवानों के थाल लेकर आती हैं।
कुंभनदास जी ने अनुपम चित्रण किया है-
गोवर्द्धन पूजन चले री गोपाल।
मत्त गयंद देख जिय लज्जित निरख मंद गति चाल।
अंग-सुगंध पहर पट भूषण गावत गीत रसाल।।
ब्रज नारी पकवान बहुत कर भर भर लीने थाल।
बाजे अनेक वेणु सबसौं मिल चलत विविध सुरताल।
ध्वजा पताका छत्र चमर करत कुलाहल ग्बाल।।
बालक वृंद चहुँ दिस सोहत मानो कमल अलिमाल।
कुंभनदास प्रभु त्रिभुवन मोहन गोवर्द्धनधरलाल।।
कृष्ण जब पूजा के
निमित्त आते हैं तो अपने बड़ों को साथ लेकर आते हैं और
गोवर्द्धन पर्वत की उसी प्रकार पूजा करते हैं जिस
प्रकार किसी देवता की करते हैं-
बड़ेन को आगे दे गिरिधर, श्री गोवर्द्धन पूजत आवत।
मानसी गंगाजल न्हवाइ के पीछे दूध धोरी को नावत।
बहोरि पखार अरगजा चरचित धूप-दीप बहु भोग धरावत।
दे बीरा आरती करत हैं ब्रज भामिनी मिल मंगल गावत।
टेर ग्वाल भाजन भर दे कें पीठ थाप सिरपेच बँधावत।।
चतुर्भुज प्रभु गिरिधर आज यह ब्रज युग-युग राज करो
मनभावत।
आज भी ब्रज में घर-घर में गोवर्द्धन पूजा के दिन गोबर
के ढेर की गोवर्द्धन की भावना से ही पूजा की जाती है।
गोवर्द्धन में कुछ
ऐसा आकर्षण है कि लोग उसकी मोहक छटा को देखने अवश्य
आते हैं। प्रतिदिन परिक्रमा देने पदयात्री लाखों की
संख्या में आते हैं। परिक्रमा की भी अपनी एक परंपरा
है। अपने आराध्य को अपनी दाहिनी ओर लेकर उसके चारों ओर
भक्ति-भावित होकर परिभ्रमण ही परिक्रमा का स्वरूप कहा
जा सकता है। अधिक मास में पदयात्रियों और परिक्रमा
देनेवालों की संख्या में वृद्धि हो जाती है। पैदल
परिक्रमा देनेवालों में अपूर्व उत्साह और उल्लास रहता
है कि अपने घरवालों के मना करने पर एक ब्रज-नारि
गोवर्द्धन का स्मरण करती, गाती हुई परिक्रमा देने जाती
है-
नाइ माने मेरौ मनुआँ
मैं तो गोवर्द्धन कू जाऊँ मेरी बीर।
सौमोती की न्हनु परयोए, परमी न्हाइबे जाऊँ मेरी बीर।
पाँच सेर की करूँ कोथरी, पेड़-पेड़ पे खाऊँ मेरी बीर।
राधाकुंड की राधारानी, कुसुम सरोवर न्हाऊ मेरी बीर।
गोबरधन, आन्यौर, पूँछरी, जतीपुरा लौटि जाऊँ मेरी बीर।
जतीपुरा ते आय गोबरधन, मानसी गंगा न्हाऊ मेरी बीर।
सात कोस की दै परकम्मा, बाम्हन न्योति जिमाऊ मेरी बीर।
सखियाँ गोवर्द्धन की
पूजा करती हैं, तत्पश्चात सभी लोग हाथ जोड़कर
गोवर्द्धन की प्रार्थना करते हैं कि अपनी मुक्ति का
दान देकर हम सबको भी आवा-गमन के चक्र से मुक्त कर
दीजिए-
जय गोवर्द्धन महाराज नाथ तुम भक्तन हितकारी,
दान घाटी वारे गिर्राज।
रखियो जन अपने की लाज, आप
हो भक्तन के सिरताज।
कृपा आपकी से प्रभु अन्न, धन और कुटुंब,
मुक्ति की मुक्ति करै धन्य तरहटी भूमि।
पूजा लई छिनाय इंद्र गर्व कियो भारी,
जय गोवर्द्धन महाराज नाथ तुम भक्तन हितकारी।
बीच में भरी मानसी गंगा,
लहर की अद्भुत उठै तरंगा,
करे स्नान पाप हो भंगा।
बच्छासुर की कृष्ण ने दीनो धरन पछार,
बाही के कारन प्रभू तन से प्रगटी धार।
कार्तिक बदी अमावस्या को दीपमान भारी।
करें जो एक रात जागरन, कभी
नहीं होय जनम-मरन, जाय के
श्रीकृष्ण की सरन।
इस प्रकार बहुत आगे
तक यह स्तुति चलती है, जिसमें भक्त लोग गोवर्द्धन की
तलहटी में निवास करने की प्रार्थना करते हैं। इस
लोकगीत में जागरण, प्रदक्षिणा और परिक्रमा का सुफल
दरशाया गया है-
जो कोई देय प्रदक्षिणा कुंड-कुंड लेय पान।।
जनम सुफल है जात है सुन लेव चतुर सुजान।
कर देव बेड़ौ पार नाथ मेरे गिरधर धारी,
हम सब की यही अरदास।
सदा गोबरधन करूँ निवास,
रहूँ सब गुणियन कौ दास।
सब गुणियन की दास हूँ करियो माफ़ कसूर,
बार-बार बिनती करूँ बनिहों ब्रज की धूर।
घासीराम जुगल छवि ऊपर, जाऊँ बलिहारी,
जय-जय गोबरधन महाराज।।
प्रारंभ से आज तक
गोवर्द्धन के पूजन की परंपरा चलती आ रही है। उससे
इंद्र का मान-मर्दन हुआ। गोवर्द्धन ने स्वयं प्रकट
होकर अन्नकूट पर छत्तीसों प्रकार के व्यंजनों का
रसास्वादन किया। विशेषता है कि प्रतिदिन प्रभु को परदे
में भोग लगता है, किंतु इस दिन भोजन-व्यंजन तथा भगवान
दोनों के ही दर्शन होते हैं। आज के युग में
पर्यावरण-प्रदूषण की भयावह समस्या है। इसके
निवारण-हेतु ध्यान रखकर हमारे पूर्वजों-ऋषि मुनियों ने
अधिकतम प्रकृति की गोद में निवास करने, परिक्रमा देने,
यमुना-स्नान करने तथा ब्रज के गोवर्द्धन की तलहटी में
रहने का प्रावधान रखा था। अतः ब्रज में सदैव अलौकिक
एवं आध्यात्मिक पर्यावरण बना रहता है।
२७
अक्तूबर २००८ |