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निबंध

दिल की गीता
महावीर शर्मा

घूमते घामते एक पुरानी किताबों की दुकान के भीतर चला गया। शेल्फ़ पर एक उर्दू की किताब पर निगाह अटक गई जिसकी जिल्द काफी पुरानी सी थी। कवर पर उर्दू में लिखा था – 'दिल' की गीता’- नज़्म में । ख़्वाजा दिल मुहम्मद एम.ए. खोल कर पृष्ठों को उलट पलटता रहा और पुस्तक लेकर सीधे घर आ गया। श्रीमद्भगवद्गीता का अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है किंतु उर्दू में एक मुस्लिम विद्वान शायर की लेखनी द्वारा १८ अध्यायों के प्रत्येक श्लोक का नज़्म और शेर-ओ-शायरी में अनुवाद पढ़ कर स्तब्ध सा रह गया!

इस पुस्तक के लेखक थे ख़्वाजा दिल मुहम्मद’ एम.ए. जो स्वयं बड़े विद्वान थे, जिन्हें विभिन्न भाषाओं का ज्ञान था। वे लाहौर (जो अब पाकिस्तान में है) में 'इस्लामिया कॉलेज के प्रिंसिपल थे। 'दिल' साहब श्रीमद्बगवद्गीता से बहुत प्रभावित थे। इसे पढ़ कर विदित होता है कि गीता किसी एक धर्म-विशेष की धरोहर नहीं है बल्कि यह ज्ञान-संग्रह सार्वभौमिक है।

ख़्वाजा साहब यह पुस्तक लिखने से पूर्व वर्षों तक वाराणसी के विद्वानों से गीता के विषय पर विचार-विमर्श करते रहे। यह पुस्तक १९४० में लिखी गई थी। पुस्तक के आरंभ में लिखा हैः-
"पंजाब गवर्नमेंट ने अज़राह-ए-अदब नवाज़ी "दिल की गीता" पर मुसन्निफ़ को एक हज़ार रुपये का दर्जा अव्वल का जलील अलक़दरअतय्या बतौर इनाम इनायत फ़रमाया है।" (उस समय १००० रुपयों का वर्तमान समय में कितना मूल्य होगा, इससे अनुमान लगा सकते हैं कि कुछ सरकारी नौकरियों में २० रुपए मासिक मिलते थे।)

'दिल' साहब की 'गीता' के प्रति कितनी श्रद्धा है, पृष्ठ ३ पर 'इरफ़ान की फूलमाला' में लिखते हैं:- "श्रीमद्भगवद्गीता दुनिया की क़दीम रूहानी किताबों में बेनज़ीर अहमियत रखती है।.........इनसान क्या है, रूह क्या है, परमात्मा क्या है, भक्ति और विसाले-बारी क्योंकर हासिल हो सकते है। इनसान के फ़रायज़ क्या हैं, निष्काम कर्म यानी बेलोश अमल का क्या दर्जा है। यह इरफ़ानी मज़मून संस्कृत के सात सौ श्लोकों में बयान किया गया है। हर श्लोक मार्फ़त का रंगीन फूल है। इन्हीं सात सौ फूलों की माला का नाम गीता है।ये माला करोड़ों इनसानों के हाथों में पहुंच चुकी है लेकिन ताहाल इस की ताज़गी , इसकी नफ़ासत, इस की खुशबू में कोई फ़र्क़ नहीं आया। यह फूल उस बाग़ से चुने गए हैं जिस का नाम गुलशने-बक़ा है। जिसे हयात ने सींचा है और जिस पर हुस्न की उस मलका का राज है जिस का नाम है हक़ीक़त!”

“इस फूल की माला में अजब ख़ुशबू है और इस ख़ुशबू में अजब तासीर। इस माला को पहनो तो दिल ओ दिमाग़ पर लाहूती ताअसरात छा जाते हैं और कायनात के ज़र्रे ज़र्रे में आफ़ताब झलकने लगते हैं। हर ख़ार फूल बन जाता है और हर फूल फ़िरदौस-ए-निगाह-आलम तमाम तजल्लीगाहे रब्बानी नज़र आने लगता है। ........दिल पर एक रूहानी सकून छा जाता है। और इस फूल माला की हर पत्ती किताब-ए-इरफ़ान का वर्क़ बन जाता है। आओ आज हम भी इस किताबे इरफ़ान के चंद औराक़ का मुताअला करें शायद हक़ीक़त के कुछ रमोज़ हम पर भी रौशन होने लगें।"

आगे २८ पृष्ठों में गीता के अनुसार परमात्मा, उसकी प्रकृति, आत्मा, तनासुख़, मादी दुनिया (प्रकृति), नजात के तीन रास्ते-कर्म मार्ग (राहे-अमल), भक्ति-मार्ग (राहे-इश्क़ व मुहब्बत), ज्ञान मार्ग (राहे-इरफ़ान) और पैग़ाम-ए-अमल आदि को गीता के श्लोकों को नज़्म में बहुत ही सुंदर अंदाज़ में अभिव्यक्त किया गया है।

इस पुस्तक की एक और विशेषता है कि संस्कृत में जिस प्रकार १८ अध्यायों में श्लोकों का क्रम है, 'दिल' साहब ने उस क्रम-व्यवस्था को क़ायम रखा है। यदि अन्यत्र कोई श्लोक (शेर) प्रयोग किया है तो अध्याय और श्लोक के अंक भी लिखे हैं, उदाहरणार्थः-
७।४ अर्थात श्लोक ७, अध्याय ४ ।
उदाहरण के रूप में ७०० श्लोकों में से कुछ उर्दू के श्लोक (नज़्म में) देखिएः
संस्कृत:-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवतिभारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
 
उर्दू
तनज़्ज़ुल पे जिस वक़्त आता है धर्म, अधर्म आके करता है बाज़ार गर्म,
यह अंधेर जब देख पाता हूँ मैं तो इनसाँ की सूरत में आता हूँ मैं।
।७।४
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।
तुझे काम करना है ओ मर्दे कार, नहीं उसके फल पर तुझे अख़्तयार,
किए
जा अमल और ना ढूंढ उस फल, अमल कर अमल कर, ना हो बेअमल।। ४७।२
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।
कटेगी न तलवार से आत्मा, जलेगी कहां नार से आत्मा,
ना गीली हो पानी लगाने से ये, ना सूखे हवा में सुखाने से ये।।
२३।२
एषा तेऽभिहिता सांख्येबुद्धिर्योगेत्विमांशृण।
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि।।
ये तालीम थी सांख के ज्ञान से, समझ योग की बात अब ध्यान से,
अगर योग में तुझ को हो इनहमाक तो कर्मों के बन्धन से हो जाए पाक।।
३९।२
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्।।
निको कार खाएँ जो यग का बचा, गुनाहों से करते हैं ख़ुद को रिहा,
जो पापी ख़ुद अपनी ही ख़ातिर पकाएँ, तो अपने ही पापों का भोजन वो खाएँ।।१३।३
मत्तः परतरं नान्यत्किंचिदस्ति धनंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।
सुन अर्जुन नहीं कुछ भी मेरे सिवा, न है मुझ से बढ़ कर कोई दूसरा,
पिरोया है सब कुछ मिरे तार में, कि हीरे हूँ जैसे किसी हार में।।
७।७
प्रवृत्ति च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।
न शौचं नापि चाचारो न सत्यं विद्यते।।


असत्यमप्रतिष्ठं ते जगदाहुरनीश्वरम।
अपरस्परसंभूतं किमन्यत्कामहैतुकम्।।

खबासत के पुतले, उन्हें क्या तमीज़, यह करने की है वह ना करने की चीज़
ना सत उन के अंदर ना पक़ीज़ापन, मअर्रा है शाइस्तगी से चलन।।

वह कहते हैं झूठा है संसार सब ना इसकी है बुनियाद कोई ना रब,
करें मर्द ओ ज़न मिल के जब मस्तियां इन्हीं मस्तियों से हों सब हस्तियाँ।। ७-८।१६

'दिल' साहब ने 'गायत्री मन्त्र' का भी अनुवाद किया है जिसकी श्री खुशवन्त सिंह ने बड़ी प्रशंसा की है।

२१ जनवरी २००८

  
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