सामान्य
मनुष्य की वेदना को प्रखर अभिव्यक्ति-
त्रिलोचन की
कविता में सामान्य मनुष्य की वेदना को प्रखर
अभिव्यक्ति मिली है। निराला की कविता की पत्थर तोड़ने
वाली स्त्री तथा महंगू, मैकू, झींगुर जैसे साधारण
चरित्र विशेष सहानुभूति के साथ दिखाई देते हैं। भोरई
केवट की चिंता देखें-
बातों ही बातों में
अचानक
भीतर की प्राणवायु सब बाहर निकाल कर
एक बात उसने कही
जीवन की पीड़ा भरी
बाबू, इस महँगी के मारे किसी तरह अब तो
और नहीं जिया जाता
और कब तक चलेगी लड़ाई यह?
भोरई केवट का प्रश्न
कि 'और कब तक चलेगी लड़ाई यह?' अनुत्तरित ही छूट जाता
है। भोरई केवट, नगई महरा जैसे आम लोगों की नियति यही
है। कवि ऐसी विडंबनात्मक स्थिति से समाज को मुक्त
कराना चाहता है। उसे दुख इस बात का है कि यह तो
बार-बार कहा जाता है कि श्रम की प्रतिष्ठा होगी,
श्रमिकों का सम्मान होगा, वे शोषण से मुक्त होंगे,
लेकिन वह सुखमय दिन 'आएगा कब?' इसका उत्तर कोई नहीं
देता। जनता के श्रम-शोषण के द्वारा अपनी-अपनी
तिजोरियाँ भरने वाले लोग समाज में विद्यमान हैं।
उन्हीं का सम्मान है। वास्तविक श्रम करने वाली जनता तो
केवल दो जून की रोटी जुटा पाने में अपना सब कुछ दाँव
पर लगा दे रही है। स्पष्ट ढंग से कवि अपनी कविता में
समाज की विषम स्थिति को शब्द देता है तथा अपनी कविता
के माध्यम से श्रम के मूल्य को स्थापित करता है।
रागात्मक संवेदना का चित्रण-
त्रिलोचन मूलतः रागात्मक संवेदना के कवि हैं। प्रेम,
सौंदर्य, प्रकृति इनकी कविता के मुख्य विषय हैं।
श्रेष्ठ प्रेम कविताओं का सृजन कवि की लेखनी से हुआ
है। संयम, तटस्थता, सांकेतिकता, कलात्मकता उसकी प्रेम
कविताओं का वैशिष्ट्य है। प्रेम की पीर में निरर्थक
आँसू बहाने की स्थिति से प्रेम की गरिमा धूमिल होती
है। दर्द का दिखावा न कर उसे भीतर ही भीतर जज्ब कर
लेना बेहतर स्थिति है। कवि के दुःख में प्रकृति
साथ-साथ है। १८-३-१९६३ को डॉ. प्रेमलता वर्मा के नाम
लिखे पत्र में त्रिलोचन लिखते हैं- ''सारनाथ, जब जी
करता है हो आता हूँ। वहाँ अकेलापन और अकेलेपन की चुहल
भी है। प्रायः छुट्टियाँ वहीं कहीं निर्जन में
पढ़ते-लिखते या सोचते गुज़ार देता हूँ। मेरे मन में भी
अथाह दुःख है। उसे सूम के धन की तरह छिपाए रहता हूँ।
लगता है शायद यह मेरी भूल हो,
निर्जन स्थान, वहाँ
की हवा, घास, दूरवर्ती पेड़ और इन सबके ऊपर छाया हुआ
आकाश जो कभी बादलों भरा, कभी दरारदार पपड़ियों वाले
सूखे ताल के समान मटमैले, उजले या ललछू बादलों से
जहाँ-तहाँ या पूरे विस्तार में भरा मेरे तरल दुःख को
बिना कोई प्रकट सहानुभूति दिखाए चुपचाप पिये जा रहे
हैं।''
संघर्ष में स्वस्थ प्रेम का
स्पर्श-
जीवन के कठिन संघर्ष में स्वस्थ प्रेम ही एक बड़ा संबल
है। इस सात्विक प्रेम के विस्तृत दायरे को कवि की
कविता स्पर्श करती है। दुनिया से जुड़ना कवि की इच्छा
है। दर्द से कवि के लगाव का आधार ही यही है कि दर्द
उन्हें दुनिया से जोड़ता है। कवि की प्रेम की अवधारणा
बड़ी व्यापक है-
प्रेम व्यक्ति
व्यक्ति से
समाज को पकड़ता है
जैसे फूल खिलता है
उसका पराग किसी और जगह पड़ता है
फूल की दुनिया बन जाती है।
त्रिलोचन भावुकता से
दूर प्रेम में यथार्थवादी दृष्टिकोण के कवि हैं। प्यार
की पीड़ा से अलग उनका ध्यान सांसारिक पीड़ा की ओर है।
कवि के लिए जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति
पहले है-
गीत संगीत उन्हें
किसलिए सुनाते हो
जिनको दो जून कभी मिलता है खाना भी नहीं।
दार्शनिक दृष्टि-
त्रिलोचन के भीतर एक दार्शनिक की भी दृष्टि समाहित है।
रूप-सौंदर्य का बखान करते हुए कवि वास्तविक सत्य की
तरफ़ हमारा ध्यान आकृष्ट करता है। समय के साथ रूप की
निस्सारता तथा नश्वरता को व्यक्त करते हुए कवि कहता
है-
आज जो रूप सरे राह
देखकर ठहरे
कल वही ऐसी छुअन होगी कि लट जाएगा
यह जो मुस्कान का परदा है त्रिलोचन वह तो
काल की एक ही फटकार में फट जाएगा।
त्रिलोचन जिस स्वर के
गायक हैं, वह लौकिकता के स्तर से ऊपर उठकर अलौकिकता का
संस्पर्श पा लेता है। जहाँ प्रेमी कवि परमात्मा प्रिया
से स्नेह-संवाद करने लगता है, वहाँ उसका सूफी मिजाज़
दृष्टिगत होता है।
परिष्कृत सौंदर्यबोध-
त्रिलोचन का सौंदर्यबोध अत्यंत परिष्कृत है। चमक-दमक
से रहित ये सहज सौंदर्य के पक्षपाती हैं। 'सादगी' इनके
सौंदर्य का मुख्य गुण है। भारतीय परंपरा के अनुरूप ही
ये आकर्षण शक्ति पर विशेष ध्यान देते हैं, मादकता पर
नहीं। जयशंकर प्रसाद जी की तरह ही नारी के बाह्य नहीं,
आंतरिक सौंदर्य पर कवि की दृष्टि है। दया, ममता,
उदारता, त्याग, सहनशीलता-स्त्री का वास्तविक सौंदर्य
है जो कवि के काव्य में दिखाई देता है।
मनुष्य की चेतना में
रची-बसी प्रकृति के सहज सौंदर्य को भी त्रिलोचन ने
अपनी कविताओं में उकेरा है। प्रकृति का स्वस्थ, सुंदर,
चमत्काररहित तटस्थ चित्रांकन कवि के काव्य में हुआ है।
एक नैसर्गिक खुलापन, लिए कवि ने अनेकानेक प्रकृति के
जीवंत चित्रों का सृजन किया है-
चल रही हवा धीरे-धीरे
सीरी-सीरी
उड़ रहे गगन में झीने-झीने
कजरारे चंचल बादल
छिपते-छिपते जब तब तारे उज्ज्वल-झलमल
चाँदनी चमकती है गंगा बहती जाती है।
प्रकृति को कवि ने एक सजीव
सत्ता के रूप में देखना-
प्रकृति को कवि ने एक सजीव सत्ता के रूप में देखा है।
मनुष्य और प्रकृति का अद्भुत सामंजस्य कवि की कविता का
वैशिष्ट्य है। मनुष्य के सुख-दुःख, आक्रोश, भय और
प्रफुल्लता में प्रकृति बिल्कुल साथ-साथ है। भावनाओं
के तीव्र आवेग से कवि की प्रकृति से विमुख जीवन बिलकुल
नीरस, उबाऊ और यंत्रवत हो जाता है। प्रकृति की
क्रियाशीलता से कवि
ऊर्जा प्राप्त करता है। बसंत के वैभव को देखकर कवि
स्वयं के पतझड़ पीड़ित जीवन में भी बहार के आगमन के
प्रति आशान्वित है-
ले के उपहार चैत
घर-घर में
बात बिगड़ी बना रहा है फिर
फूल ऋतुराज को मिले
मन भी नए विश्वास पा रहा है फिर
प्रकृति का दूसरे की
भलाई में रत व्यक्तित्व कवि को गहरे प्रभावित करता है-
शीश पर फूल फल जो
लेता है
दूसरों को ही सौंप देता है
छाया अपनी लिए सदा तत्पर
वृक्ष ही बस पदार्थ चेता है।
कवि प्रकृति के
पशु-पक्षी, वृक्षों से कुछ न कुछ सीखता है। नन्हीं
गौरैया भीषणतम जीवन संघर्षों में भी गुनगुनाते हुए
गतिमान रहने की सीख देती है-
खिड़की पै जो गौरैया
चहचहाती है
जीवन के गान अपने वह सुनाती है।
जाने कहाँ-कहाँ दिन में जा-जा कर
प्राणों की लहर पंखों में भर लाती है।
ग्राम्य-जीवन की महत्वपूर्ण
भूमिका-
त्रिलोचन के लेखन में ग्राम्य-जीवन की महत्वपूर्ण
भूमिका है। समूचा ग्रामीण परिवेश उनकी कविताओं में
मूर्त होता है। उनकी प्रकृति गाँव की सहज प्रकृति है
जिसमें खेत, खलिहान, मटर, गेहूँ, जौ, सरसों, जलकुंभी
पुरइन, पीपल, पाकड़, कटहल, नीम, बादल, हवा, चाँदनी,
दुपहरिया, संध्या और रात अपने मोहक सौंदर्य के साथ
उपस्थित होता है। इस प्रकृति के साथ कवि का गहरा
रिश्ता है। 'हवा' कवि को बहुत प्रिय है। हवा कवि को
मुक्ति का सुख देती है। इसका वर्णन कवि की कविता में
बार-बार हुआ है। ऋतुओं में बसंत और शरद कवि को अत्यंत
प्रिय है। सावन ऋतु का भी बड़ा सुंदर वर्णन कवि की
कविता में देखा जा सकता है। ऐसे वर्णन में कवि का
संगीत-ज्ञान भी स्पष्ट रूप से प्रकट हुआ है-
बरखा मेघ-मृदंग थाप
पर
लहरों से देती है जी भर
रिमझिम-रिमझिम नृत्य-ताल पर
पवन अथिर आए
दादुर, मोर, पपीहे बोले, धरती ने सोंधे स्वर खोले
मौन समीर तरंगित हो ले।
'शरद' का नीला आकाश
कवि को बहुत प्रिय है। उसे वे 'सबका अपना आकाश' कहते
हैं। प्रकृति के बहाने यह कवि अपनी अनुभूति का विस्तार
करता है। प्रकृति के लोक पारखी घाघ, कवि गिरिधर कविराय
की ध्वनियों को भी कवि की कविताओं में देखा जा सकता
है। मौसम, फसल की प्रामाणिक जानकारी कवि की कविताओं को
पढ़ते हुए हमें प्राप्त होती है। त्रिलोचन ने अपनी
कविताओं में अपने को बड़े बेबाक ढंग से अभिव्यक्त किया
है। इस दृष्टि से इनके 'उस जनपद का कवि हूँ' तथा 'ताप
के ताये हुए दिना' संग्रह की कविताएँ महत्वपूर्ण हैं।
अपने नाम, रूप, वेशभूषा, आत्मविश्वास, आस्था,
आशावादिता, मस्ती, फक्कड़ता, दीनता, संघर्ष,
अभावग्रस्त जीवन, चाल-ढाल-स्वभाव सब कुछ उनको कवि अपनी
कविता में शब्द देता है। संघर्ष, अभावग्रस्त जीवन,
चाल-ढाल-स्वभाव सब कुछ उनको कवि अपनी कविता में शब्द
देता है। कवि की तटस्थता यह है कि अपने ऊपर भी वह
व्यंग्य करता है। बड़े सहज ढंग से अपनी कमियों को
स्वीकार करते हुए अपनी वास्तविक तस्वीर खींचता है। कवि
की विनम्रता है कि वह किसी प्रकार के छद्म में न रहकर
अपने को कवि भी नहीं मानता है-
कवि है नहीं त्रिलोचन
अपना सुख-दुःख गाता
रोता है वह, केवल अपना सुख-दुःख गाना
और इसी से इस दुनिया में कवि कहलाना
देखा नहीं गया।
त्रिलोचन की आत्मपरक कविताएँ-
त्रिलोचन की आत्मपरक कविताएँ जीवन के यथार्थ को
चित्रित करने वाली कविताएँ हैं। इस यथार्थ से टकराकर
कवि जीवन-दृष्टि प्राप्त करता है। कवि से उसकी कविता
अभिन्न होती है। त्रिलोचन जो भीतर से है वही कविता की
पंक्तियों में। इसीलिए उनकी कविता गहरे प्रभावित करती
है। उदारता, करुणा, दया, प्रेम, त्याग, मनुष्यता जैसे
बड़े मानवीय मूल्यों को त्रिलोचन अपनी कविता में
प्रतिष्ठित करते हैं। आदमी-आदमी की सहायता करे, यही
उसका परम कर्तव्य है-
आदमी वह आदमीयत
जिसमें हो
आदमी को देखकर पू-पू न कर
बन जा फूल, फल, मलयज, प्रकाश
पथिक से तूफ़ान-सा हू-हू न कर।
प्रत्येक प्राणी
प्रेमपूर्वक सुखी रहे। यही कवि की आकांक्षा है। समूची
सृष्टि के सुख में कवि अपना सुख देखता है। संवेदनशील,
भावुक इस कवि का अपने से ही प्रश्न करते हुए देखें-
क्यों मैंने पाया है
इतना परम कलेजा
जो दुःख कभी किसी का नहीं देख सकता है
आँखें भर-भर आती हैं, यह मन थकता है
धनोन्मुखता के संकट से पीड़ा-
वर्तमान समय के भयावह संकट को भी त्रिलोचन की कविता
में देखा जा सकता है। आज पूरा समाज धन के पीछे भाग रहा
है जिससे मनुष्य केवल धन कमाने की मशीन बनकर रह जा रहा
है। व्यक्ति संवेदनशून्य होता चला जा रहा है। त्रिलोचन
पैसे को नहीं विराट, उदार ह्रदय को महत्व देने वाले
कवि हैं-
सचमुच, सचमुच मेरे
पास नहीं है पैसा
वह पैसा जिससे दुनिया-धंधा होता है,
तो क्या, दिल तो है, ऐसा दिल जिससे दिल का
ठीक-ठीक प्रतिबिंब उतर आता है, जैसा
दर्पण में तब-तब होता है, क्यों रोता है?
पैसे वाला रह जाता है केवल छिलका।
लोक
जीवन से यथार्थवादी दृष्टिकोण-
अपनी धरती की
सोंधी गंध से गहरे जुड़े त्रिलोचन की कविता लोक जीवन
से सीधा साक्षात्कार करती है। प्रखर लोक चेतना कवि की
कविता का सशक्त पक्ष है। कवि की कविता में देशीपन है,
गाँव का खाटी संस्कार। लोक संवेदना, लोक संस्कृति, लोक
परंपराओं, लोक ध्वनियों, बोलियों को कवि की कविता
शब्दबद्ध करती है। कवि एक बातचीत में इस तथ्य को
स्वीकार करता है कि उसने कविता लोक से सीखी है, पुस्तक
से नहीं। 'लोक' समकालीन कवियों की कविताओं में अपनी
समग्र प्राणवत्ता, जीवंतता के साथ उपस्थित हुआ है।
त्रिलोचन की कविता में लोक का समूचा परिदृश्य उभरा है।
कवि की कविता के महत्वपूर्ण पात्र भोरई केवट, नगई
महरा, चंपा, चित्रा, परमानंद आदि सीधे-सीधे लोक से ही
लिए गए हैं। त्रिलोचन का गाँव से गहरा रिश्ता है। उनकी
कविता में लोक जीवन के उनके अनुभव, स्मृतियाँ दिखाई
देती हैं-
घमा गए थे हम
फिर नंगे पाँव भी जले थे
मगर गया पसीना, जी भर बैठे जुड़ाए
लोटा-डोर फाँसकर जल काढ़ा
पिया
भले चंगे हुए
हवा ने जब तब वस्त्र उड़ाए।
भारतीय किसान की
निश्छल, भोली-भाली दुनिया कवि की वास्तविक दुनिया है।
भारतीय किसानों की मानसिकता, उनके मनोविज्ञान की बड़ी
सूक्ष्म पकड़ कवि को है-
वह उदासीन बिल्कुल
अपने से,
अपने समाज से है, दुनिया को सपने से अलग नहीं मानता
उसे कुछ भी नहीं पता दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची, अब
समाज में
वे विचार रह गए वहीं हैं जिनको ढोता
चला जा रहा है वह, अपने आँसू बोता
विफल मनोरथ होने पर अथवा अकाज में।
धरम कमाता है वह तुलसीकृत रामायण
सुन पढ़कर, जपता है नारायण नारायण।
भाषा
की संपन्नता-
त्रिलोचन के सघन,
सरस, विविध प्रकार के अनुभवों को उनकी संपन्न भाषा
बखूबी शब्दबद्ध करती है। अनुभूति और अभिव्यक्ति का
संतुलन कवि की कविता का गुण है। सरल भाषा और मामूली
शब्दों में विशेष अर्थ की संभावना कवि की काव्यभाषा का
वैशिष्ट्य है। सपाटबयानी की शक्ति कवि की भाषा में
लक्ष्य की जा सकती है। इस कवि की भाषा समकालीन कवियों
से अलग तरह की है। इसको बताते हुए कवि स्वयं कहता है-
बड़े-बड़े शब्दों में
बड़ी-बड़ी बातों को
कहने की आदत औरों में है पर मेरा
ढर्रा अलग गया है
ढाकों के पातों को
पाली की मर्यादा देकर पहला घेरा
तोड़ दिया।
रस जीवन का जीवन से सींचा
दिये ह्रदय के भाव, उपेक्षित थी जो भाषा
उसको आदर दिया, मरुस्थल मन का सींचा
उपेक्षित भाषा और
उपेक्षित जीवन को आदर देने वाले त्रिलोचन की भाषा का
भारतीयता और देशीपन से गहरा रिश्ता है। हिंदी की जातीय
कविता के ये प्रमुख कवि हैं। भाषा को ही सब कुछ मानने
वाले त्रिलोचन ने अपना भाषा-गुरु भारतीय परंपरा के
महत्वपूर्ण कवि तुलसीदास को स्वीकार किया है-
तुलसी बाबा, भाषा
मैंने तुमसे सीखी
मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुए हो
त्रिलोचन अपनी कविता
की शब्दावली लोकजीवन से ग्रहण करते हैं। छुट्टा,
ग्वैड़े, थेथर, हरहा, पलिहर, बारी, इनार, जैवरी,
बकैंया, मड़ई, सीवान जैसे लोक के जाने बूझे खाँटी शब्द
कवि की कविता के सौंदर्य में वृद्धि करते हैं। ऐसे
शब्दों का प्रयोग लोकजीवन से गहरे जुड़ा कवि ही कर
सकता है। लोक-शब्दों की क्षमता यह है कि उनके स्थान पर
दूसरा कोई शब्द उस सटीक अर्थ का वहन कर ही नहीं सकता।
लोक लय, लोक ध्वनियों की अच्छी पकड़ कवि को है। इस
दिशा में कवि ने नये-नये प्रयोग भी किए हैं-
ये दिन न भुला ऽ ऽ ऽ
ऽ ना। और सनेही
नींबू के फूले, बेला के फूले
कहीं किसी बारी में भूले भूले
विलग मत जा ऽ ऽ ऽ ना। ओ सनेही
मंजर गए आम। कोयलिया न बोली
बाटों के अपने। हाथ उठाए धरती।
बसंत सखी को बुलाए
पेड़ हैं सब काम
कोयलिया न बोली।
त्रिलोचन भाषा से
बोली की ओर बढ़ते हैं। वह बोली जो सबकी समझ में आ सके-
कोई समझ न पाए अगर
तुम्हारी बोली
तो उस बोली का मतलब क्या, मौन भला है?
अपने साथी रचनाकारों
से भी कवि ने कहा कि शब्दकोशों से भारी भरकम शब्द
खोजकर कविता में रोपने के बजाए इस जीवन से ही भाषा
ग्रहण करो। अनुभूति की स्पष्टता और सहजता से ही बिना
अतिरिक्त माथापच्ची किए आसानी से कविता का अर्थ स्पष्ट
हो सकता है। कुँवरपाल सिंह से एक बातचीत के क्रम में
त्रिलोचन कहते हैं-
''जनता की भाषा यदि कवि नहीं लिख रहा है तो वह किसका
कवि होगा। कवि को जनता से जुड़ना चाहिए। तुलसीदास हैं,
मीरा हैं, रैदास हैं, कबीर हैं, दादू साहब हैं। ये सब
भाषा के द्वारा ही जनता के जीवन से जुड़े।''
त्रिलोचन की भाषा में
उर्दू और हिंदी का मेल प्रभावकारी है। दोनों भाषाओं को
जज़्ब करके उसका सटीक प्रयोग कवि की लेखनी से हुआ है।
बीच-बीच में 'पनपियाव', 'पू-पू', 'हू-हू', 'लीलने'
जैसे अंचल के शब्दों का प्रयोग कर कवि अपनी भाषा को
प्रामाणिक बनाता है। शब्दों, कहावतों, मुहावरों और
उक्तियों का कवि के पास भंडार है।
त्रिलोचन शब्द की
मितव्ययता पर विशेष ध्यान देते हैं। कम शब्दों में
अपने गझिन काव्यानुभव को ये सार्थक अभिव्यक्ति प्रदान
करते हैं। कवि ने गीत, सॉनेट, ग़ज़ल, बरवै, रुबाई,
काव्य-नाटक, प्रबंध कविता, चतुष्पदी इत्यादि छंदों में
अपने व्यापक अनुभव को शब्दबद्ध किया। सॉनेट इनका प्रिय
छंद है। चौदह पंक्तियों के गीत काव्य साँनेट में कसे-कसाए
को विस्तृत किया। प्रेम के रोमांटिक भावों से ऊपर
उठाकर सॉनेट में अपने गहन अनुभव और जीवन यथार्थ के
चित्रों को समाहित करके इसमें अर्थ की और संभावनाएँ
भरीं। शब्दानुशासन कवि के शिल्प पक्ष का विशिष्ट गुण
है।
निष्कर्ष-
इस प्रकार काव्यानुभूति और काव्यभाषा, दोनों ही स्तरों
पर त्रिलोचन की कविता रेखांकित करने योग्य है। प्रेम,
प्रकृति, सौंदर्य और लोक की प्रामाणिक उपस्थिति के साथ
आम जनता के संघर्ष, उसकी वेदना को सशक्त शब्दों में
अभिव्यक्त करने वाली इस कवि की कविता अपना विशेष स्थान
रखती है। संस्कृत की प्राचीनतम परंपरा से लेकर हिंदी
की ठेठ जनपदीय बोली तक प्रभाव ग्रहण करते हुए त्रिलोचन
की काव्य-भाषा मौलिक है, जो अपना गंभीर, संयत प्रभाव
डालती है।
16
दिसंबर 2007 |