'इंफोर्मेशन
टेक्नॉलॉजी की शुरुआत भले ही अमेरिका में हुई हो, भारत
की मदद के बिना वह आगे नहीं बढ़ सकती थी।' गूगल के
मुख्य कार्यकारी अधिकारी एरिक श्मिट ने कुछ महीने पहले
यह कर के ज़बर्दस्त हलचल मचा दी थी कि आने वाले पाँच
से दस साल के भीतर भारत दुनिया का सबसे बड़ा इंटरनेट
बाज़ार बन जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ बरसों में
इंटरनेट पर जिन तीन भाषाओं का दबदबा होगा वे हैं-
हिंदी, मैंडरिन और इंग्लिश।
श्मिट के बयान से
हमारे उन लोगों की आँखें खुल जानी चाहिए जो यह मानते
हैं कि कंप्यूटिंग का बुनियादी आधार इंग्लिश है। यह
धारणा सिरे से ग़लत है। कंप्यूटिंग की भाषा अंकों की
भाषा हैं और उसमें भी कंप्यूटर सिर्फ़ दो अंकों- एक और
जीरो, को समझाता है। बहरहाल, कोई भी तकनीक, कोई भी
मशीन उपभोक्ता के लिए हैं, उपभोक्ता तकनीक के लिए
नहीं। कोई भी तकनीक तभी कामयाब हो सकती है जब वह
उपभोक्ता के अनुरूप अपने आप को ढाले।
भारत के संदर्भ में
कहें तो आईटी के इस्तेमाल को हिंदी और दूसरी भारतीय
भाषाओं में ढलना ही होगा। यह अपरिहार्य है। वजह बहुत
साफ़ है और वह यह कि हमारे पास संख्या बल है। हमारे
पास पढ़े-लिखे, समझदार और स्थानीय भाषा को अहमियत देने
वाले लोगों की तादाद करोड़ों में है। अगर इन करोड़ों
तक पहुँचना है, तो आपको भारतीयता, भारतीय भाषा और
भारतीय परिवेश के हिसाब से ढलना ही होगा। इसे ही
तकनीकी भाषा में लोकलाइज़ेशन कहते हैं। हमारे यहाँ भी
कहावत है- जैसा देश, वैसा भेष। आईटी के मामले में भी
यह बात सौ फीसदी लागू होती है।
सॉफ्टवेयर क्षेत्र की
बड़ी कंपनियाँ अब नए बाज़ारों की तलाश में है, क्यों कि
इंग्लिश का बाज़ार ठहराव बिंदु के क़रीब पहुँच गया है।
इंग्लिश भाषी लोग संपन्न हैं और कंप्यूटर आदि ख़रीद
चुके हैं। अब उन्हें नए कंप्यूटर की ज़रूरत नहीं।
लेकिन हम हिंदुस्तानी
अब कंप्यूटर ख़रीद रहे हैं, और बड़े पैमाने पर ख़रीद
रहे हैं। हम अब इंटरनेट और मोबाइल तकनीकों को भी अपना
रहे हैं। आज कम्युनिकेशन के क्षेत्र में हमारे यहाँ
क्रांति हो रही है। भारत मोबाइल का सबसे चमकीला बाज़ार
बन गया है। ये आँकड़ें किसी भी मार्केटिंग
एक्जीक्यूटिव को ललचाने के लिए काफ़ी हैं। जो भी तकनीक
आम आदमी से जुड़ी है, उसमें असीम बढ़ोतरी की हमारे
यहाँ गुंजाइश है। हमारी इकॉनॉमी उठान पर है, लिहाज़ा
तकनीक का इस्तेमाल करने वाले लोगों की तादाद में जैसे
विस्फोट-सा हुआ है। बाज़ार का कोई भी दिग्गज भारत की
अनदेखी करने की ग़लती नहीं कर सकता। वह भारतीय भाषाओं
की अनदेखी भी नहीं कर सकता।
वे इन भाषाओं को
अपनाने भी लगे हैं। हिंदी के पोर्टल भी अब व्यावसायिक
तौर पर आत्मनिर्भर हो रहे हैं। डॉटकॉम जलजले को भुलाकर
कई भाषायी वेबसाइटें अपनी मौजूदगी दर्ज़ करा रही हैं
और रोज़ाना लाखों लोग उन पर पहुँच रहे हैं। पिछले दस
बरसों में किसी अंतर्राष्ट्रीय आईटी कंपनी ने हिंदी
इंटरनेट के क्षेत्र में दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन अब
वे हिंदी के बाज़ार में कूद पड़ी हैं। उन्हें पता है
भारतीय कंपनियों ने अपनी मेहनत से बाज़ार तैयार कर
दिया है। चूँकि अब हिंदी में इंटरनेट आधारित या
सॉफ्टवेयर आधारित परियोजना लाना फ़ायदे का सौदा है,
इसलिए उन्होंने भारत आना शुरू कर दिया है। चाहे वह
याहू हो, चाहे गूगल हो या फिर एमएसएन, सब हिंदी में आ
रहे हैं। माइक्रोसॉफ्ट के डेस्कटॉप उत्पाद हिंदी में आ
गए हैं। आईबीएम, सन माइक्रोसिस्टम और ओरेकल ने हिंदी
को अपनाना शुरू कर दिया है। लिनक्स और मैंकिंटोश परह
भी हिंदी आ गई है। इंटरनेट एक्सप्लोरर, नेटस्केप,
मोजिला और ओपेरा जैसे इंटरनेट ब्राउजर हिंदी को समर्थन
देने लगे हैं। ब्लॉगिंग के क्षेत्र में भी हिंदी की
धूम है। आम कंप्यूटर उपभोक्ता के कामकाज से लेकर
डाटाबेस तक में हिंदी उपलब्ध हो गई है। यह अलग बात है
कि अब भी हमें बहुत दूर जाना है, लेकिन एक बड़ी शुरुआत
हो चुकी है। और इसे होना ही था।
यह दिलचस्प संयोग है
कि इधर यूनिकोड नामक एनकोडिंग सिस्टम ने हिंदी को
इंग्लिश के समान ही सक्षम बना दिया है और लगभग इसी समय
भारतीय बाज़ार में ज़बर्दस्त विस्तार आया है। कंपनियों
के व्यापारिक हितों और हिंदी की ताक़त का मेल ऐसे में
अपना चमत्कार दिखा रहा है। इसमें कंपनियों का भला है
और हिंदी का भी। फिर भी चुनौतियों की कमी नहीं है।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में मानकीकरण (स्टैंडर्डाइजेशन)
आज भी एक बहुत बड़ी समस्या है। यूनिकोड के ज़रिए हम
मानकीकरण की दिशा में एक बहुत बड़ी छलाँग लगा चुके
हैं। उसने हमारी बहुत सारी समस्याओं को हल कर दिया है।
संयोगवश यूनिकोड के मानकीकरण को भारतीय आईटी कंपनियों
का जितना समर्थन मिला, उतना की-बोर्ड के मानकीकरण को
नहीं मिला। भारत का आधिकारिक की-बोर्ड मानक
इनस्क्रिप्ट है। यह एक बेहद स्मार्ट किस्म की, अत्यंत
सरल और बहुत तेज़ी से टाइप करने वाली की-बोर्ड प्रणाली
है। लेकिन मैंने जब पिछली गिनती की थी तो हिंदी में
टाइपिंग करने के कोई डेढ़ सौ तरीके, जिन्हें तकनीकी
भाषा में की-बोर्ड लेआउट्स कहते हैं, मौजूद थे। फ़ॉटों
की असमानता की समस्या का समाधान तो पास दिख रहा है,
लेकिन की-बोर्डों की अराजकता का मामला उलझा हुआ है।
ट्रांसलिटरेशन जैसी तकनीकों से हम लोगों को हिंदी के
क़रीब तो ला रहे हैं, लेकिन की-बोर्ड के मानकीकरण को
उतना ही मुश्किल बनाते जा रहे हैं। यूनिकोड को अपनाकर
भी हम अर्ध मानकीकरण तक ही पहुँच पाए हैं। हिंदी में
आईटी को और गति देने के लिए हिंदी कंप्यूटर टाइपिंग की
ट्रेनिंग की ओर भी अब तक ध्यान नहीं दिया गया है।
फिलहाल लोग इंग्लिश में कंप्यूटर सीखते हैं और बाद में
तुक्केबाज़ी के ज़रिए हिंदी में थोड़ा-बहुत काम
निकालते हैं। सरकार चाहे तो की-बोर्ड पर इंग्लिश के
साथ-साथ हिंदी के अक्षर अंकित करने का आदेश देकर इस
समस्या का समाधान निकाल सकती है। अगर आईटी में हिंदी
का पूरा फ़ायदा उठाना है, तो बहुत सस्ती दरों पर
सॉफ्टवेयर मुहैया कराए जाने की भी ज़रूरत है।
ग़ैर-समाचार वेबसाइटों के क्षेत्र में हिंदी को अपनाने
की तरफ़ कम ही लोगों का ध्यान गया है। सिर्फ़ साहित्य
या समाचार आधारित हिंदी पोर्टलों, वेबसाइटों या
ब्लॉगों से काम नहीं चलेगा। तकनीक, साइंस, ई-कॉमर्स,
ई-शिक्षा, ई-प्रशासन आदि में हिंदी वेबसाइटों को
बढ़ावा देना होगा। लाखों इंग्लिश वेबसाइटों को हिंदी
और अन्य भारतीय भाषाओं में लाने की चुनौती को भी हल
करना होगा।
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