गुलाब सिंह
—डॉ दीप्ति गुप्ता
आम के पेड़ का थाँवला बनाता ''गुलाब सिंह'', बड़ा मगन हुआ,
कुछ गुनगुनाता-सा, अपने काम में लगा हुआ था। कल से उसने लगभग सभी पेड़ों के थाँवले
बनाकर, फूलों की क्यारियों की सफ़ाई कर उनकी डौलें भी विशेष रूप से आकार देते हुए
बना डाली थीं। आज आलूबुखारे के दो पेड़ों के थाँवले बनाने शेष थे। उसका जोश आसमानी
पींगें भर रहा था। वह कभी बगीचे के इस कोने में कुछ सफ़ाई करता दिखता, तो दूसरे ही
पल बगीचे के दूसरे सिरे पर अंगूर की बेल को सुलझाता हुआ, आम के तने पर उसकी
फुनगियों और पत्तों को ठीक से बैठाता नज़र आता। कभी वह एकाएक ग़ायब हो जाता। न इधर
नज़र आता, न उधर और कभी सहसा ही घनी झाड़ियों में से पत्तों को खड़खड़ाता प्रगट हो
जाता। वह माली कम, पेड़ अधिक लगता था - एक चलता-फिरता, हरा-भरा, खिला-खिला, झूमता
पेड़! मैंने पेड़-पौधों से इतना अधिक लगाव रखने वाला माली इससे पहले नहीं देखा था।
पेड़, पौधों, फूलों में जैसे उसके प्राण बसते थे।
इसलिए ही अकसर मुझे वह पेड़, पौधों
और फूलों का प्रतिरूप नज़र आता था। खाने-पीने की सुध-बुध खोए, जिस तल्लीनता से वह
बगीचे में लगा रहता था, उससे वह कभी-कभी मेरे लिए खीझ का कारण भी बन जाता, क्यों कि
मुझे उसकी चिंता सताती थी कि यदि इसी तरह वह अपनी ओर से लापरवाह रहा, तो शीघ्र ही
उसका शरीर जवाब दे जाएगा। एक दिन तो मुझे उस पर इतना क्रोध आया कि मेरा मन किया कि
मैं उसे बगीचे में ही एक पेड़ के पास खड़ा करके, चारों ओर थाँवला बनाकर रोप दूँ, उसे
वहीं जमा दूँ। क्यों कि शाम के 5 बजे तक उसका खाना बासी होकर, चींटियों की भेंट चढ़
गया था, कपड़े में लिपटी मोटी-मोटी रोटियाँ सूखी कड़क हो गई थी। जब ''चंपा'' किसी
काम से, उसके पास गई तो पता चला कि गुलाब सिंह को रोटी खाने की सुध ही नहीं रही और
खाना चींटियों की और कुछ चिड़ियों, कौवों की दावत बन गया।
''गुलाब सिंह'' का नाम उसके पिता ''गेंदा'' ने बड़े चाव से
रखा था। जिस दिन वह पैदा हुआ था, ठीक उसी दिन उनके झोपड़े के पीछे की बाड़ी में एक
बहुत ही सुंदर लाल गुलाब खिला था। धरती पर एक साथ दो फूल खिले थे उस दिन! इधर घर
में गेंदे के प्यारे बेटे ''गुलाब'' ने अपनी नन्हीं-नन्हीं जुगनू-सी आँखे खोली, उधर
बाड़ी में ''गुलाब'' ने अपनी पंखुड़ियाँ खोली। बस, उस दिन से ही वह ''गुलाब'' के नाम
से पुकारा जाने लगा।
मैंने बालकनी में कॉफी पीते हुए, गुलाब सिंह की 17 वर्षीय
बेटी चंपा को इशारे से अपने पास बुलाया और खोजबीन करनी चाही कि ''बात क्या है जो
गुलाब सिंह जी इतने कूदे-कूदे बगीचे में फिर रहे हैं? यों तो रोज़ ही बगीचे के लिए
उसके सेवा भाव में कोई कमी नहीं रहती, पर आज तो सेवा भाव सवासेर बढ़ा-चढ़ा है।''
चंपा ने उचक कर आँखों से बापू की, बालकनी से दूरी की तहक़ीक़ात की और फिर रहस्य का
पर्दाफ़ाश करती बोली - ''कल दो नए फूल के पौधों -''सूरजमुखी'' और ''डहेलिया'' -
दोनों पर फूली-फूली कलियाँ जो निकल कर आई हैं, वे खिलेंगीं। बापू उसी की तैयारी
में लगा है।''
''ओह'' सहसा ही मेरे मुँह से निकला और मैं
उत्सुकता से
भरी, वह सोचने लगी कि कल गुलाब सिंह क्या करेगा? क्यों कि उस तरह की तैयारी मेरे लिए
अचरज की ही बात थी। इससे पहले, ट्रांसफ़र होकर, मैं जहाँ भी गई और जो भी माली मुझे
मिले, मैंने उन्हें फूलों के खिलने पर, कुछ तैयारी करते कभी नहीं देखा था। सो मेरे
लिए तो ''गुलाब सिंह'' और उसकी ''तैयारियाँ'' लगभग एक अजूबे की तरह थीं। तभी चंपा
पलट कर मेरे पास आई और मुझे सचेत करती बोली -
''आप बापू से मत बोलना कि मैंने आपको कुछ बताया। बापू ने घर में भी सबको बोल रखा है
कि किसी से कुछ नहीं कहना है। बस, ''खुसी'' की ख़बर, उसी दिन सबको मिलेगी, जिस दिन
''खुसी'' की बात होगी। वरना सबकी नज़र लग जाएगी पौधों को।'' ''अच्छा ऐसा क्या?
बाप रे, बड़ा ज्ञानी है तेरा बापू तो'' - मेरे यह कहने पर, चंपा गुलाब सिंह की तारीफ़
सुन ''हाँ'' कहती, खुशी से सिर हिलाने लगी। अपने पिता के ज्ञान पर सकारात्मक रूप से
सिर हिलाकर, पक्की मुहर लगाने वाली चंपा की भोली हरकत पर, मैं खिलखिला कर हँस पड़ी।
मेरे हँसने पर उस नादान को लगा कि उसने कोई बड़ी अच्छी हँसी की बात कही है तो वह भी
मेरे साथ हँसने लगी। फिर तो मेरी हँसी का ठिकाना ही नहीं रहा।
अगले दिन सुबह 6 बजे क्या देखती हूँ कि गुलाब सिंह एक थाली
में हल्दी, कुमकुम, धूपबत्ती, छोटे-छोटे बताशे और पेड़े रखे, मुझे प्रसाद देते हुए,
प्रफुल्लता से भरा ''सूरजमुखी'' और ''डहेलिया'' के खिलने का शुभ समाचार कुछ इस
अंदाज़ में मुझे दे रहा था - जैसे धरती ने फूलों को नहीं, वरन दो नन्हे मुन्ने
बच्चों को जन्म दिया हो! मुझे सच में उस पर गर्व हुआ। इसे कहते हैं संवेदनशीलता,
इसे कहते हैं निष्ठा, लगन, सच्चा प्यार! गुलाब सिंह की संवेदनशीलता ने तो
फूलों-पौधों में मानो दुगुनी जान डाल दी थी। आज जहाँ लोग इंसान को इंसान नहीं
समझते, परस्पर नारकीय व्यवहार करते हैं, वहीं उसी दुनिया में रहने वाला, भौतिक
दृष्टि से विपन्न, भावों और संवेदनाओं से संपन्न, गुलाब सिंह इतना उदात्त मनस है कि
फूलों का जन्मोत्सव मनाता है। बाकायदा हल्दी, कुमकुम और अक्षत से पूजा-अर्चन कर,
उनका स्वागत करता है, सबका मुँह मीठा कराता है। उसकी यह सीधी-सादी मिठाई उस महँगी,
सुसज्जित मिठाई से चौगुनी मीठी और पवित्र भाव पूरित है, जो बेमन से लोग ख़ास-ख़ास
मौकों पर एक दूसरे को दिखावे की होड़ में देते हैं।
* * * * * *
आज दीपावली है। माधवीबाई ने घर की जम कर साफ़-सफ़ाई की है।
बिजली वाला घर के बाहर, दरवाज़ों और खिड़कियों पर नन्हे-नन्हे बल्बों की रंग-बिरंगी
लड़ें टाँग रहा है। मैंने गुलाब सिंह को एक अप्रत्याशित खुशी देने के लिए बगीचे की
झाड़ियों और पेड़ों पर भी बल्बों की रंगीन लड़ियाँ लगाने का विशेष आदेश बिजली वाले को
दिया है। गुलाब सिंह भी आज अपने घर की सफ़ाई और सजावट के लिए 12 बजे तक बगीचे में
सफ़ाई करके व पानी वगैरह देकर चला गया और शाम को फिर छ:- सात बजे तक घर के मुख्य
द्वार पर फूलों की माला व कमरे में ताज़े फूलों के गुलदस्ते सजाने आएगा। उस समय
रंगीन बल्बों की लड़ियों से जगमगाते बगीचे के पेड़ों और झाड़ियों को देखकर गुलाब सिंह
के चेहरे की चमक, उसकी खुशी को वह देखना चाहती है। गुलाब सिंह को उस खुशी के रूप
में मानो वह दीपावली का तोहफ़ा देना चाहती है। लीक से हट कर ऐसा तोहफ़ा, जो उस अनूठे
इंसान के तन-मन में उत्फुल्लता और सच्ची खुशी के दीप जला दे।
शाम ठीक छ: बजे गुलाब सिंह फूलों की मालाओं के साथ हाज़िर हो
गया। फूलों और मालाओं से घर को सजाते-सजाते एक घंटे से ऊपर बीत गया। जैसे ही अँधेरा
घिरना शुरू हुआ, मैंने लड़ियों के दोनों स्विच दबा दिए। सारा घर और घर के साथ बगीचा
भी झिलमिल लड़ियों से झलमला उठा। गुलाब सिंह तो अपने प्यारे बगीचे को यों चकमक, लकदक
खूबसूरती से भरा देख, हक्का-बक्का-सा रह गया। उससे खुशी के मारे न हँसते बन पड़ा, न
ही कुछ बोल उसके मुँह से निकले। बौराया-सा बगीचे में इस पेड़ से उस पेड़, इस क्यारी
से उस क्यारी के पास, उस जगमग सौंदर्य को निहारता घूमता रहा। किंतु वह अपनी ओर से
कुछ अजूबा न करे, भला ऐसा कैसे हो सकता था? अपने साथ लाए, मालाओं के थैले में से
उसने दिए, बत्ती और सरसों के तेल की शीशी निकाली और हर क्यारी व पेड़ के पास एक-एक
दिया रखकर, एक जलती हुई मोमबत्ती से उन्हें दीपित कर, बगीचे की साज-सज्जा को चौगुना
करने में तल्लीन हो गया। हाथ जोड़े खुशी से भरा, मेरे पास आकर, मेरे पैरों को
श्रद्धा से छूता हुआ बोला -
''दीदी जी, आपने तो बगिया को दुल्हिन जैसा सजा दिया। क्या सुंदर दिख रही है बगिया!
बस एक दो फ़ोटू खिंच जाते तो, सदा के लिए याद रह जाती। मुझे उसका सुझाव भा गया।
मैंने एक-दो नहीं, बल्कि उसकी कई सारी फ़ोटो बगीचे में खींच डाली। उसके बाद से तो
फ़ोटो का विचार उसके मन में ऐसा घर कर गया कि वह जब-तब फूल खिलने पर, फल आने पर
वह अपनी फ़ोटो खिंचवाता।
जनवरी की कड़ाकेदार सर्दी थी। मैं शॉल में लिपटी किसी काम से
बाहर आई तो क्या देखती हूँ कि गुलाब सिंह एक पेड़ के नीचे बैठा रो रहा है खामोश
गर्दन झुकाए, आँसू पोंछता, सुबकता, सबसे बेख़बर कपड़े से मुँह ढके, चुपचाप रोए जा
रहा है। मैंने तुरंत, उसके पास पहुँच कर, प्यार से पूछा - ''क्या बात है गुलाब
सिंह? घर में सब ठीक तो है?'' वह चौंकता हुआ, धीरे से बोला - ''जी हाँ दीदी।''
''तो फिर रो क्यों रहे हो?'' - मैंने पूछा।
पहले तो खामोश रहा, फिर अपने को सम्हालते हुए, आँसू छिपाते हुए बोला - ''दीदी जी,
बगीचे में तीन पौधे मर गए हैं। हमने तो पूरी तरह उनकी देखभाल की थी, पर पाले ने
उन्हें मार डाला।''
मैं इधर उधर नज़र दौड़ाती बोली -''कहाँ है, कौन से पौधे? दिखाओ तो!''
तो जवाब में मुँह लटकाए वह बोला - ''उन्हें तो हमने दफ़ना भी
दिया। हम उन्हें उखाड़कर कूड़े कचरे की तरह नहीं फेंकते। जहाँ मिट्टी में उन्हें
दबाया है, अब वहाँ कुछ दिन बाद, हम नई पौध लगाएँगे। जब तक वहाँ नए पौधे नहीं जम
जाएँगे, तब तक हमें कल नहीं पड़ेगी।''
मैंने एक गहरी निश्वास के साथ गुलाब सिंह को समझाने का प्रयास किया कि वह इस तरह
रो-रो कर दुखी न हो। ऐसे रोने से मरे हुए पौधे ज़िंदा थोड़े ही हो जाएँगे! धैर्य रखे
और खिले फूल, हरे-भरे पौधों में अपना ध्यान बटाए। फिर भी उसकी उदासी नहीं गई। वह
मेरे कहने से भारी कदमों से खुरपी हाथ में लिए उठा और क्यारियों की निराई करने
लगा। मैं पोर्च की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सोचने लगी कि यह गुलाब सिंह भी सच में अनोखा ही
व्यक्तित्व है, बड़ा ही भला और प्यारा इंसान है। माली तो बहुतेरे मिले, पर गुलाब
सिंह
जैसा न तो कभी मिला और न ही भविष्य में कहीं मिलेगा। तन, मन से प्रकृति को समर्पित! उसके आँसू, उसकी मुस्कान, उसकी उदासी, उसकी खुशी सब इन पेड़ पौधों और फूलों में
समाई है। उसकी तो दुनिया इन्हीं में बसी है। कोई पौधा मर जाता है या सूख जाता है तो
मिनटों में उसकी दुनिया उजड़ी, उखड़ी हो जाती है। वाह रे, भोले, सरल मनस गुलाब सिंह,
तू धन्य है, महान है! मानवता का जीता जागता रूप है, प्यार की प्रतिमूर्ति
है, प्रकृति के प्रति समर्पण की प्रतिकृति है, इसके प्रति अनूठे लगाव का प्रतिरूप
है!
* * * * * *
भीषण गर्मी ने बड़ी क्रूरता से समूची सृष्टि के मानो प्राण
ही खींच लिए थे। पंछी बेजान से तपती दोपहरी में अपने घोंसलों में मुँह डाले पड़े थे।
निरीह पशु बेसुध से जगह-जगह पेड़ों की, घरों की छाँह में दयनीय से बैठे थे। हरी,
रेशमी घास, गर्मी की तपिश से सूखी और बदरंग नज़र आने लगी थी। सभी बौराए से लगते थे।
अगर नहीं बौराया था, तो वह था- फलों का राजा ''आम''। अमराइयाँ रसीले, पके आमों से
लदी पड़ी थीं। तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई। मैंने सोचा इस भरी दोपहरी में, एक तीस पर, जब
गर्मी अपने चरम पर होती है, कौन आया होगा? भला यह भी कोई आने का समय है? न जाने
कौन सिरफिरा है - मन ही मन खीझते हुए जैसे ही मैंने दरवाज़ा खोला तो पाया कि गुलाब
सिंह फलों की टोकरी में बनारसी और दशहरी आमों की सौग़ात लिए मुसकुराता, पसीने में
तरबतर खड़ा है। मैंने आव देखा न ताव और मैं उस पर बरस बुरी तरह बरस पड़ी -
''तुम्हें इस दोपहरी में भी चैन नहीं है? दो पल आराम के तुम्हें बुरे लगते हैं? लू
लग गई, ताप हो गया तो, हम सबका चैन हराम करके ही तुम्हें सुकून मिलेगा क्या?'' मेरे
ये ख्याल और प्यार से भरे ''तिक्त'' शब्द सुनकर शांत भाव को ओढ़े, बिना शिकन डाले,
वह बड़ी सहजता से बोला -
''दीदी जी, आज ही ये आम पक कर तैयार हुए हैं, तो पहला भोग भगवान को लगाकर, सीधे आपके
पास लेकर आए हैं। हम इन्हें पानी में भिगो देते हैं। 1-2 घंटे बाद आप इन्हें फ्रिज
में रख देना। वरना ऐसे ही खा लिए तो गर्मी कर जाएँगे।''
मैं फिर तड़की - ''अरे, हमारी गर्मी का तो तुम्हें पूरा ख्याल है, कुछ अपना भी ध्यान
कर लिया करो, तुम्हें गर्मी लग गई तो ये आम, बाग़ - बगीचा, सब आठ-आठ आँसू रोएँगे!
क्या समझे?'' किंतु वह खामोश, गर्दन झुकाए, मुसकुराता काम में लगा रहा।
फिर मैंने प्रश्न सूचक दृष्टि से उसे देखते हुए पूछा -
''इस कड़कती गर्मी में कौन से मंदिर में भगवान को भोग लगाकर आ रहे हो? जाने के लिए
ये ही समय मिला था? सुधर जाओ गुलाब सिंह, सुधर जाओ! ''
मेरे यह पूछने पर जो उसने जवाब दिया, उसे सुनकर तो मैं ऐसी
निरुत्तर हुई कि मैंने तौबा कर ली कि इस महारथी महानात्मा से अब कभी कुछ न कहूँगी।
इसके साथ कोई डाट-फटकार नहीं करूँगी। इसके सोच, इसके मूल्य, इसके क्रिया कलाप, सच
में, आम लोगों से थोड़े नहीं, बल्कि बहुत हटकर है। गुलाब सिंह उस चिलचिलाती गर्मी
में, मेरे घर से कुछ दूरी पर बने हुए उस छोटे से ''अनाथ आश्रम'' में गया था, जहाँ
100 के लगभग बच्चे रहते हैं। उन्हें बगीचे के पके आमों का पहला भोग लगाकर वह मानो
उन अनाथ बच्चों के रूप में, भगवान को भोग लगाकर आया था। माँ- बाप के प्यार से वंचित
बच्चों को, उनकी इस उम्र में जब, उन्हें अच्छी-अच्छी स्वास्थ्यवर्धक चीज़ें मिलनी
चाहिए, बल्कि यदि देखा जाए तो यही वह उम्र है, जब बच्चों को तरह-तरह की चीज़ें खाने
का चाव होता है, तो ऐसे अनाथ बच्चों को, हर मौसम के फलों का पहला भोग लगाना, दान
करना, गुलाब सिंह अपना नैतिक कर्तव्य समझता था। उसके अनुसार बगीचे के फल खाकर, वे
मासूम-अनाथ बच्चे तो तृप्त होते ही है, साथ ही फलदाता पेड़-पौधे भी मानो खुश और
प्रफुल्लित होते है और गुलाब सिंह के अनुसार ऐसे दान से ही वे वृक्ष दिन दूने और
रात चौगुने फलते- फूलते हैं। ''ग़रीब व दीन की सेवा, उनसे प्यार - भगवान की सेवा और
भगवान से प्यार होता है ''-इस जगत प्रसिद्ध आस्था को गुलाब सिंह ने
सिद्धांत बना कर
मात्र दिल में ही नहीं सँजो रखा था, अपितु उसे चरितार्थ भी करता था।
भावों और संवेदनाओं से संपन्न मैं तो गुलाब सिंह की सोच, उसके दर्शन, उसके उदार नज़रिए, उच्च
मूल्यों से इतनी अधिक अभिभूत हुई कि उस दिन से मैंने किसी पर भी अमीर-ग़रीब,
छोटे-बड़े, शिक्षित-अशिक्षित, परिपक्व-अपरिपक्व की मुहर लगाना छोड़ दिया। उन्हें
वर्गीकृत करना छोड़ दिया। मात्र किताबें पढ़ लेने से, डिगरियाँ हासिल कर लेने से किसी
की समझ और सोच जाग्रत नहीं होती। पूंजीपति होते हुए भी व्यक्ति, अनुदार और
निर्बुद्धि होने के कारण ग़रीब माना जा सकता है। सच्चाई और अच्छाई, उदात्तता,
समझदारी, दूरदृष्टि, बुद्धिमत्ता और शिक्षा - धन और किताबी ज्ञान की मोहताज नहीं
होती। गुलाब सिंह इस सत्य का जीता जागता रूप था। जीवन में सब कुछ पा लेने पर भी,
सारी कामनाएँ पूर्ण करने पर भी, अतृप्त रहने वाले, ''और पाने की'' लालसा में विघटित
मूल्यों वालों के लिए गुलाब सिंह एक करारा जवाब था। समाज के लिए कुछ भी न कर पाने
की विवशता जताने वालों के लिए एक ठोस उदाहरण था। अनुदार अमीरों को लज्जित करने वाली
उदारता था। पेड़-पौधों, पशु-पक्षी और ज़रूरतमंदो का ममता और प्यार से भरा भगवान था।
मनुष्यता की, इंसानियत की अनूठी मिसाल था। यदि समाज में हर दूसरा आदमी गुलाब सिंह
हो जाए तो सच में धरती पर स्वर्ग उतर आए।
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