महावीर
जयंती के अवसर पर
लोक
उद्धारक महावीर
-हनुमान सरावगी
भगवान महावीर सही अर्थों में लोक उद्धारक थे।
उन्होंने जो भी संदेश दिए तथा धर्म की जो भी
व्याख्या की वह सर्वसाधारण लोगों के लिए उन्हीं की
भाषा में कीं। वे लोक पुरुष थे और वे तत्कालीन
सामाजिक, नैतिक एवं धार्मिक परिस्थितियों की उपज
थे। जब उनका प्रादुर्भाव हुआ, समाज में विषमता,
असहनशीलता, अनाचार, झूठ, हिंसा और स्वेच्छाचारिता
का बोलबाला था। मानवीय मूल्यों की कोई पूछ नहीं
थी। इस घोर त्राहि त्राहि से भरे परिवेश ने महावीर
की अंतरात्मा तथा बुद्धि को झकझोर डाला और फिर इन
सभी बुराइयों को मिटाने के लिए उन्होंने जो संदेश
दिए, वे लोकव्यापी और लोकजयी होकर सर्वयुगीन,
शाश्वत हो गए।
पंच महाव्रत
हमारे लिए भगवान महावीर ने पंच महाव्रतों का उपदेश
दिया। ये पंच महाव्रत हैं : सत्य, अस्तेय,
अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य एवं अहिंसा। इन पाँचों
महाव्रतों की परिधि में समाज एवं व्यष्टि के सभी
आचरण आ जाते हैं और यदि इन महाव्रतों को जीवन में
धारण कर लिया जाए, निस्संदेह लोग बहुत सुखी हो
जाएँगे, विषमताएँ मिट जाएँगी और उनमें अंतर्कलह भी
नहीं रहेगी। यह इसलिए संभव है कि भगवान महावीर ने
व्यष्टि की आधार बुद्धि पर ही जोर दिया। लोक
परलोक, आत्मा परमात्मा की दुरूहता में वे अधिक
नहीं उलझे, हालाँकि इन विषयों में भी उनकी गति थी
और उनका सुस्पष्ट चिंतन और निष्कर्ष था।
भगवान के पंच महाव्रतों में सत्य प्रथम है। सत्य
के विषय में अधिक कहने की आवश्यकता ही नहीं है।
सभी जानते हैं कि जीवन में सत्य का क्या महत्व है।
सत्य को अंगीकार करके व्यक्ति ही नहीं, समाज और
समग्र राष्ट्र भी प्रामाणिकता प्राप्त करते हैं।
सत्यविहीन की कोई प्रामाणिकता नहीं होती। अत: सत्य
के महाव्रत का उपदेश देकर भगवान महावीर ने सामान्य
जन को अपने जीवन में प्रामाणिक, विश्वसनीय होने का
उपदेश दिया। भगवान का दूसरा महाव्रत, अस्तेय भी
सर्वसाधारण के लिए है। अस्तेय अर्थात चोरी नहीं
करना। इस व्रत के अनुपालन के लिए भगवान का यहाँ तक
कहना था कि क्षेत्र कुरेदने की सींक जैसी तुच्छ
चीज़ का भी लोभ नहीं करना चाहिए। इस महाव्रत का
सुप्रभाव ऐसा है कि समाज में परस्पर विश्वास की
भावना जागृत होती है तथा स्वत: स्फूर्त एक नैतिक
अनुशासन का निर्माण होता है। यह सामान्य जनजीवन
में संतुलन के लिए आत्मनिर्भरता का भी अनिवार्य
महाव्रत है। अपरिग्रह महाव्रत के रूप में भगवान ने
आवश्यकता से अधिक वस्तुओं के संग्रह की प्रवृत्ति
को दूर करने की सीधी साधी प्रक्रिया बताई थी।
अपरिग्रह महाव्रत के सामाजिक लाभ तो हैं ही, इसमें
आर्थिक संतुलन तथा शांति भी स्थापित होती है। यह
तो सीधी साधी बात है कि यदि आर्थिक शांति एवं
संतुलन हो तो, सामान्य जन की सुख शांति भी बनी
रहेगी।
भगवान के ये तीन महाव्रत तो सामान्य जन जीवन में
सामाजिक एवं आर्थिक नैतिकता से संबंध रखते हैं।
स्वयं में विषय लोलुपता अर्थात भोग विलास और वासना
के नियंत्रण के लिए उन्होंने ब्रह्मचर्य का
मनोवैज्ञानिक महाव्रत बताया। विषय इच्छा मनुष्य की
स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसकी अधिकता वासना है, जो
सारे जीवन को स्खलित और विच्युत कर देती है।
ब्रह्मचर्य का अर्थ आत्मसंयम और इंद्रिय निग्रह
है, जो मन की शांति तथा चित्त की स्थिरता के लिए
बहुत ही आवश्यक है। इनसे मनुष्य की संकल्प शक्ति
तथा कर्म शक्ति सुदृढ़ होती है। अंतिम अहिंसा
महाव्रत के रूप में भगवान महावीर ने बहुत ही सरल
आध्यात्मिक उपदेश दिया है। अहिंसा अर्थात सभी
प्राणियों के प्रति स्नेह और दया का भाव। सही
अध्यात्म यही है। इसी में शांति, सौंदर्य एवं आनंद
है।
सामाजिक समता के प्रबल
प्रतिपालक
वास्तव में भगवान के ये पाँचो महाव्रत मानव मात्र
की आचार संहिता हैं। इन पाँच महाव्रतों का आधार
रखकर भगवान ने सामान्य जन जीवन को प्रभावित
करनेवाले तीन अन्य क्षेत्रों में भी सामान्य जन का
मार्गदर्शन किया है। ये क्षेत्र हैं नारी की
प्रतिष्ठा, सामाजिक समता और आडंबर तथा मिथ्याचारों
का उन्मूलन। भगवान महावीर ने नारी की प्रतिष्ठा पर
विशेष बल दिया है। उन्होंने नारी को कभी गौण तथा
नरक का मूल नहीं माना और आध्यात्मिक साधना तथा
प्रव्रज्या का अधिकार उसे पुरुषों के बराबर ही
दिया। उन्होंने स्वयं चंपापुरी, जो वर्तमान
भागलपुर है, के नरेश दधिवाहन की बेटी चंदना को
श्रमण दीक्षा दी।
भगवान महावीर सामाजिक समता के प्रबल प्रतिपादक थे।
उनका मत था कि मानव मात्र समान है। मानव मानव के
बीच जन्म, जाति, लिंग, व्यवसाय तथा समानता विषमता
के आधार पर ऊंच नीच के भेद का उन्होंने विरोध
किया। इससे सामान्य जन भी समाज में अपनी स्थिति के
प्रति आश्वस्त तथा जागरूक हुए।
सहनशीलता और उदारता का
आदर्श
भगवान महावीर ने बाहरी आडंबरों तथा मिथ्या आचारों
का भी घोर विरोध किया। उनके काल में यज्ञ आदि
बाहरी अनुष्ठानों एवं कार्यक्रमों की बाढ़ थी।
उनका विरोध करते हुए भगवान ने कहा कि बिना आत्म
शोधन के, बिना जागृत संस्कारों के आडंबर एवं बाहरी
क्रियाएँ निरर्थक हैं। सीधे साधे शब्दों में कहें
तो, भगवान महावीर ने आचरण एवं व्यवहार की सत्यता
पर ही विशेष बल दिया। यह तो भगवान की व्यावहारिक
जगत की बात रही। वैचारिक क्षेत्र में भी उन्होंने
स्याद्वाद जैसे दर्शन का प्रवर्तन किया, जो
विश्व की किसी भी वस्तु, किसी भी विचार धारा को
नकारता नहीं। यह सह अस्तित्व का मूलमंत्र है।
विचारों के क्षेत्र में अपने अपने मत और
सिद्धांतों के प्रति प्रवर्तकों तथा उनके
अनुयायियों में विशेष आग्रह होता है, जो दुराग्रह
भी बन जाता है। पर भगवान ने स्याद्वाद के द्वारा
वैचारिक सहनशीलता और उदारता का आदर्श स्थापित
किया। भगवान महावीर ने भी गूढ़ विषयों को छुआ है
और उनका चिंतन भी बड़ा मौलिक और प्रखर हैं। पर
उनकी दृष्टि तत्वज्ञ विद्वानों पर नहीं, सामान्य
जन पर थी, जिनका उद्धार एवं कल्याण करने की
आवश्यकता थी। अपने उपदेश भी उन्होंने उसी सामान्य
जन के लिए उसी की बोली में दिए। अपने गणधर भी
उन्होंने सामान्य जन के बीच से लिए, सामान्य जन ही
लिए। भगवान महावीर के चरित्र का यह बहुत ही अदभुत
तथा प्रेरक पक्ष है।
संपूर्ण मानव समाज के लिए भगवान महावीर का एक ही
मूल मंत्र था- आत्मानुशासन और सृष्टि के सभी
प्राणियों के प्रति आत्मभाव। आत्मानुशासन की
आवश्यकता तो व्यक्ति ही नहीं समाज और साष्ट्र के
जीवन में भी है। तभी सफलता संभव है, तभी शांति,
सुख, समृद्धि और मानवता के स्थायी मूल्यों एवं
आदर्शों की प्राप्ति होगी। गीता में भगवान
श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो सभी प्राणियों को अपनी
आत्मा के ही रूप में देखता है, वह ईर्ष्या नहीं करता।
९
अप्रैल २००६
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