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बाल
साहित्य का केन्द्र लोक साहित्य
डॉ. जगदीश व्योम
लोक जीवन की जैसी सरलतम, नैसर्गिक अनुभूतिमयी
अभिव्यंजना का चित्रण लोक–गीतों व लोक–कथाओं में मिलता
है, वैसा अन्यत्र सर्वथा दुलर्भ है। लोक–साहित्य में
लोक–मानव का हृदय बोलता है। प्रकृति स्वयं
गाती–गुनगुनाती है। लोक–साहित्य में निहित सौंदर्य का
मूल्यांकन सर्वथा अनुभूतिजन्य है।
लोक–साहित्य उतना ही प्राचीन है जितना कि मानव, इसलिए
उसमें जन–जीवन की प्रत्येक अवस्था, प्रत्येक वर्ग,
प्रत्येक समय और प्रकृति सभी कुछ समाहित है। इसमें
बाल–साहित्य भी प्रचुरता से विद्यममान है। शिशुओं व
बालकों के लिए नित–प्रति के मनोरंजन हेतु बाल–साहित्य
बडों ने भी रचा है और बालकों ने भी अपने खेलने के
लिए गीत रच लिये हैं।
लोक–साहित्य में बाल–कथाओं का बहुत व्यापक संसार है।
दादी व नानी से कहानी सुने बिना भला कोई बचपन आगे बढ़ा
है? ये बाल–कहानियाँ बाल–जीवन की संजीवनी हैं। इन
कहानियों को सुन–सुन कर बालक पूर्ण मानव बनता है।
बाल–कथाओं में कुछ लघु छंद की कथाएँ भी होती हैं,
जिनमें छोटे–छोटे छंद के साथ कथा–सूत्र आगे बढ़ता है।
उदाहरण के लिए कइँटेरा (केकड़े) और मेंढकी की कथा का
कुछ अंश दृष्टव्य है–
लम्बक लेंड़ा, झब्बे कान
तू क्या मुझको दब्बेगा
नाक की नकटी, भुइं में चिपटी
तू क्या मुझको दिखती है।?
मेंढकी ने हाथी की बात सुनी तो पास की झाड़ी में बैठे
कइँटेरा से कहने लगी–
लाल पाग के लाला भाई
इसकी बातें सुनते हो ?
कइँटेरा को मेढकी ने लाल पाग का लाला भाई कहकर सम्मान
दिया तो वह खुश हो गया और मेंढकी की प्रशंसा में वह
बोला–
कुभंकरन कलियान की बेटी
कुत्तों के मुँह क्यों लगती हो।
इस प्रकार के लघु छंदों में संवादयुक्त लोक–कथाओं में
पुड़की की कथा, बंदर और सियार, बरसो राम धाड़ाके से,
गोग्गो रानी, मटके की कहानी, मैना और चना की कहानी,
कौआ और चिड़ी के बच्चे की कहानी विशेष उल्लेखनीय हैं।
जहाँ लोक–जीवन में कोई संस्कार बिना लोक–गीतों के पूरा
नहीं होता, वहाँ बालकों के लिए तो विशेष रूप से
लोक–गीत प्रचलित हैं। बालक जब शिशु होता है, तो माँ उसको थपकी देकर सुलाती है। इन्हें पालने के गीत कहा
जाता है। माताएँ बालक सुलाते समय . . .ला . . .ला . .
.ला . . .निन्नी . . .निनी . . .निनी . . .। आदि को
बड़े आरोह–अवरोह के साथ लयपूर्वक गुनगुनाती हैं। इन
शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता परंतु शिशु मनोविज्ञान
से इस लयात्मकता का गहरा सम्बंधा है। इनका शिशु के
स्नायुओं पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ता है। इन मधुर लयों
को सुनकर शिशु विश्रांत का अनुभव करते हुए शीघ्र ही सो
जाता है।
स्वर–साम्य और स्वर–मैत्री तथा स्वरान्त पर विशेष
ध्यान दिया जाता है। एक भोजपुरी बालगीत का अंश
दृष्टव्य है–
हाल हाल बबुआ
करुई के ढेबुआ
माई अकसरुआ
बाप दरबरुआ
हाल हाल बबुआ।
बाल–लोकगीतकारों ने बाल–मानस को बहुत निकट से
देखा–परखा और उसके अनुरूप लोकगीत रचे हैं–
लल्ला लल्ला लोरी
दूध की कटोरी
दूध में बतासा
लल्ला करे तमासा।
न जाने कब से यह लोकगीत गाया जा रहा है और चन्दा मामा
भी न जाने कब से बच्चों को रिझाते आ रहे हैं–
चन्दा मामा दूर के
पुए पकाए बूर के
आप खाएँ थाली में
मुन्ने को दें प्याली में
प्याली गयी टूट
मुन्ना गया रूठ।
शिशुओें को गुदगुदाकर हंसाने के लिए प्रचलित इस बालगीत
को देखिए–
चुंत चिरैया दुर्गादासी
अन्न खाइ पानी की प्यासी
यहीं हगै, यहीं मूतै
घरु करत चली
घरु करत चली
घरु गुल. . .गुल . . .गु. . .गुल. . .गुल. . .
बालकों के मानस में सहज व्यवहार तथा एक–दूसरे की
सहायता करने का बीजांकुर बालगीतों के द्वारा सहज ही हो
जाता है–
कंत खिलाई कौड़ी पाई
बा कौड़ी मैंने गंग सिराई
गंगा ने गंगाजलु दीनों
गंगाजलु मैंने खेत कौ दीनो
खेत ने मोहि घास दीनी
घास मैंने गऊ कौ दीनी
गऊ ने मोहि दूध दीनो
दूध की मैंने खीर पकाई
तनिक तनिक सब घर ने खाई
रही बची सो मोर चटाई
आरे धरी, पिटारे धरी
नयी भीति उठी
पुरानी भीति खसी
धम्म धर . . . .
इस बालगीत के अन्त में– 'नयी भीति का उठना और पुरानी
भीति का खसना' सृष्टि की सनातन प्रक्रिया को दर्शाता
है। बच्चों का निरन्तर विकास होना ही नयी भीति का उठना
है और पुरानी पी.ढी का काल कवलित होना ही 'पुरानी भीति
का खसना' है। इतनी व्यावहरिक सोच और दर्शन जैसे गंभीर
विषय को सरल–सहज बालगीत बना लेना लोक–मानस के ही बस की
बात है।
बच्चों द्वारा रचे और गाये जाने वाले गीत का यह अंश
दृष्टव्य है–
माँ ताते पूआ करि लै री
नये ढला में धरि लै री
नानी की गैल बताय दै री
नानी की गैल में सांपु परयौं
जहीं बैठ कै खाइ लै री . . .
आम के पेड़ पर बैठा तोता आम कुतर रहा हो और बच्चा न
ललचाये, यह भला कैसे हो सकता है! बच्चा तोते से निवेदन
करता है कि उसके ह्यतोते केहृ घर तो भैंस बियानी है।
थोड़ी–सी गिजरी वह उसके लिए भी डाल दे। तोते के लिए
पेड़ों पर आमों का आना, तोतों के लिए उनकी भैंस का
बियाना ही है। बच्चे तो तोतों की दया पर निर्भर हंै।
तोते आम कुतरकर डालेंगे, तभी तो उन्हें खाने के लिए
मिल पाएँगे–
सुआ सुआ तेरी भैंस बियानी
मोकूँ गिजरी डारे जा
कच्ची होय तौ कच्ची डारु
पकी होय तौ पकी डारु . . .
बादलों को देख कर शरारती बच्चे एक साथ चिल्लाते हैं–
बरसो राम धड़ाके से
बुढ़िया मरि गई फाँके से . . .
बुझौअलों का भी लोक–जीवन में खूब प्रचलन है। बच्चे एक
दूसरे से पूछते हैं। कुछ सीखते हैं, कुछ सिखाते हैं–
एक खेत में ऐसा हुआ
आधा बगुला, आधा सुआ
रंग साम्य कस् आधार पर बालकों को मूली की जड़ और पत्तों
को बगले और तोते के रंग के साथ जोड़ना बच्चों के लिए
लोक–शिक्षा का प्रभावी पाठ है।
'टेसू' के गीत की तुकबंदी बड़ी ही सटीक और प्रभावी होती
हैं–
मेरा टेसू यहीं अड़ा
खाने को माँगें दही बड़ा . . .
टेसू के बाल–गीतों में संतों का वाणियों का बाल रूप भी
देखने को मिलता है। एक चित्र प्रस्तुत है–
कंकड़ कुंइयाँ सीतल पानी
नौ मन भंग उसी में छानी
चल वे चट्टे, भर लौट्टे, पी पी भंग उड़ाएँ सोट्टे
जीव–जंतुओं के माध्यम से संबंधों की जानकारी देता हुआ
यह बालगीत–
''बीवी मेंढकी री तू तो पानी में की रानी
कौआ तेरा भाई–भतीजा,चील तेरी देवरानी
बगुला तेरा छोटा देवर, तू कहाँ की रानी . . .'
एक चित्र और–
सुन सुन सखी, पक्षी का ब्याह था
बगुला बराती आये, जुगुनू मसाला लाये
डोम तो खूब बोले, डोमनी बारात गाये
पोदना को सतायी, बुलबुल करे लड़ाई
ज्युं ही बिल्ली आयी–सारी सभा भगायी।
सप्ताह के दिनों का संबंध बालगीत के माध्यम से–
वृहस्पति मेरी दाई, शुक्र की खबर लायी
शुक्र मेरा भइया, मैं खेलूँ धम्मक धैया
सनीचर मेरा नाना, मुझे कान पकड़ बुलवाना . . .
क्रीड़ा–गीतों की भी भरमार है। खेलों के लिए अलग–अलग
बालगीत हैं, जिनका प्रयोग बालक खेलते समय करते हैं।
कबड्डी खेलते समय साँस साधने के लिए एक गीत का अंश
देखें–
डुडुआ डांढ़े, चलैं पनारे
तुमसे लरिका धद्धरि मसरे . . .
धद्धरि मारें . . .धद्धरि मारे . . .
शरारती बच्चों के मुख से प्रायः सुनने को सह भी मिल
जाता है–
ओना मासी धम्म
बाप प.ढे ना हम।
यह शाक्टायन का प्रसिद्ध मंत्र 'ओम नमः सिद्धम' का
बिगड़ा हुआ रूप है। नीचे की पंक्ति बच्चों ने तुक जोड़
कर मिला ली, बस बन गया उनका गीत।
आकाश, बादल, बिजली, जुगुनू आदि का चित्र उकेरता एक
बालगीत–
एक पेड़ झलरा,
वाके नीचे पथरा
वाके नीचे लप लप
वाके नीचे झप झप . . .
और अंत में एक पहेली, जिसमें एक भैंस तालब में बैठ
गयी। उस पर मेंढकी बैठ गयी। ऊपर से चील ने झपट्टा
मारा और मेंढकी को उठा ले गयी–
चार पाग की चापड़ चुप्पो,
वा पै बैठी लुप्पो
आयी सप्पो, लै गयी लुप्पो,
रह गयी चापड़ चुप्पो।
लोक साहित्य में अगणित छवि–चित्र हैं, ठीक बालक की
अनंत कल्पनाएँ जैसे।
बाल–मानस कर चिर संग्रह लोक–साहित्य के पास है,
वर्तमान समय में लोक–साहित्य के प्रति जागरूकता हुई
अतः यह आवश्यक है कि लोक–जीवन में बिखरे अनमोल
बाल–साहित्य के खजाने को समेट लिया जाए। कहीं ऐसा न हो
कि आधुनिकता की आंधी हमारी इस धरोहर को उड़ा ले जाए।
१६
नवंबर २००६ |