केरल का
हिन्दी कवि : स्वाति तिरुनाल
डा
सत्यव्रत वर्मा
ट्रावनकोर राज्य के युवा महाराज स्वाति
तिरुनाल
(१८१३-१८४७ ई.) जितने कुशल शासक थे, उतने ही समर्थ कवि
और कला साधक भी थे। उन्होंने स्वयं काव्यरचना के द्वारा
साहित्य की वृद्धि की है और अपनी सभा में कवियों तथा
कलाकारों को आश्रय देकर विभिन्न कलाओं के विकास में
उल्लेखनीय योगदान किया है। तिरुनाल की काव्य-साधना
भक्ति से प्रेरित और अनुप्राणित है। कुलदेवता भगवान
पद्मनाभ के प्रति उनकी अटूट भक्ति ही काव्य के रूप में
मुखरित हुई है।
उन्होंने यद्यपि कई भाषाओं में अपने आराध्य को काव्य की
अंजलि अर्पित की है किंतु उनकी संस्कृत-रचनाएँ संख्या
में सब से अधिक हैं। मातृभाषा मलयालम के अतिरिक्त
तेलुगु, कन्नड़ और मराठी में भी तिरुनाल के कुछ गीत
उपलब्ध हैं।
दक्षिण में हिंदी की मशाल
यह सुखद आश्चर्य है कि इस मलयालम भाषी कवि ने आज से लगभग
डेढ़ सौ वर्ष पूर्व, सुदूर दक्षिण में, हिंदी को भी
काव्य-रचना का माध्यम बनाया था। उनके हिंदी गीतों की
संख्या भले अधिक न हो किंतु वे अपूर्व श्रद्धा और भक्ति
से ओतप्रोत हैं। साहित्यिक दृष्टि से भी वे उपेक्षणीय
नहीं हैं। इन गीतों से स्पष्ट है कि तिरुनाल ने सूर,
रसखान, मीरा आदि कृष्णभक्त कवियों से प्रेरणा लेकर
उन्हीं की पद्धति पर गीतों की रचना की है। भागवत
संप्रदाय में गीत 'भगवद भक्ति' का लोकप्रिय माध्यम रहा
है। स्वाति तिरुनाल वैष्णव संतों की इसी परंपरा के
अनुयायी हैं। उनके अधिकतर गीतों का विषय कृष्णभक्ति है।
गीतकार पद्मनाभ विष्णु के सगुण रूप का उपासक है। इसीलिए उसके
गीतों में श्रीकृष्ण की महिमा और लीलाओं का सरस चित्रण मिलता
है परंतु सगुण की आराधना करता हुआ भी कवि का अंतर्मन उनके
निर्गुण रूप को भूल नहीं सका है! इस दृष्टि से कवि के लिए
कृष्ण उपनिषदों के ब्रह्म के समान सच्चिनानंद और अखंड है! सच
तो यह है कि वेद में
जिस परम तत्व का निरूपण हुआ है, वह कृष्ण ही है-
जाकि महिमा पुकारे वेद,
जाकू नहीं लोक लोक विभेद
जाके बल से हिले तनुभूत,
ताके मुखचंद्र से कर दूत।(८)
श्रीकृष्ण के विविध रूप
सगुण रूप में श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार मात्र नहीं हैं।
वे साक्षात विष्णु हैं। स्वाति तिरुनाल ने श्रीकृष्ण
के विविध रूपों में मुरलीधर, गिरिधारी, गोपीचितचोर और
कालियदमन रूपों का अपने गीतों में तत्परता से चित्रण
किया है। इनमें भी उनका मुरली मनोहर रूप सबसे आकर्षक तथा
मनोरम है। भक्ति की तन्मयता में कवि को समूचा ब्रज कान्ह
की बाँसुरी की तान से गुंजित प्रतीत होता है। उनकी मुरली
की धुन देवताओं और तपस्वियों को भी अपनी मधुरता से विकल
कर देती है, फिर ब्रजांगनाओं का तो कहना ही क्या?
बाँसुरी की तान छेड़ते ही कृष्ण के रोम-रोम से दिव्य छटा
फूट पड़ती है, जिसे निरखकर ब्रज का कण-कण पुलकित हो जाता
है-
करुणानिधान कुंज के बिहारी,
तुम्हारी बंसी लाला मेरो मनोहारी।।
इसी बंसी से सुर नर मुनि मोहे,
मोह गयी सारी ब्रज की नारी।।
जब श्याम सुंदर का तन देखी,
जनम-जनम के मैं संकट तारी।।(९)
कालियदमन और गोवर्धन धारण श्रीकृष्ण की ऐसी लीलाएँ हैं,
जो अपनी प्रतीकात्मकता के कारण उल्लेखनीय तथा साभिप्राय
हैं। नागदमन जहाँ आसुरी शक्ति के विनाश का प्रतीक है,
वहाँ गोवर्धन-धारण दैवी शक्ति के अतिचार की पराजय को
द्योतित करता है। स्वाति तिरुनाल में इन दोनों का
प्रभावशाली चित्र अंकित किया है। नागवधुओं की दैन्यपूर्ण
विनती कालियदमन के परोपकारी कर्म में करुणा का रस भर
देती है-
फणिवर के पर निरत करत प्रभु देव मुनीश्वर गगन बसे।
हाथ जोड़ सब नागवधूजन करे विनती हरिचरणन से
छोड़ो हमारे प्रीतम कू हम आँचल धोवें अँसुवन से।।(१२)
अन्य कृष्णभक्त कवियों की भांति तिरुनाल ने भी गोपी
विरह के द्वारा विप्रलंभ की वेदना को वाणी दी है। इस
दृष्टि से वे ब्रजभाषा की समृद्ध काव्य-परंपरा के बहुत
निकट आ जाते हैं। उन्होंने जिस निपुणता से विरह की पीड़ा
को सीधी-सादी शब्दावली में व्यक्त किया है, वह उनकी सजग
संवेदना तथा मनोवैज्ञानिक कौशल की परिचायक है। जब ब्रज
का हृदय ही निकल गया और प्रिय के विरह में वृक्ष, लता,
कुंज तक मुरझा गए तो प्रेमाकुल गोपियों और अन्य
ब्रजवासियों को धीरज कैसे मिल सकता था-
सुनो सखी मेरी मन की दरद री।
जैसे जल बिन तरसत पंछी,
तरस रही मेरो पिय बिन छाती।।
सोषत नहि लगे गोरि निद्रा,
बीच-बीच पिया कू बुलाती।।(३५)
गोपियों की मनोदशा
श्रीकृष्ण द्वारा वंचित गोप-बालाओं की हताशा का चित्रण
भी कुछ गीतों में हुआ है। उनमें जो माधुर्य और
व्यंग्यात्मक चास्र्ता है, उससे तिरुनाल की काव्यकला
चमत्कृत हो उठी है। किसी अन्य युवती से रमण करके आए
गिरिधारी को देखकर गोप बाला की आशाओं पर पानी फिर जाता
है। इस गीत में खंडिता गोपी की मनोदशा का मनोवैज्ञानिक
चित्रण है-
आज उनींदे चले आए ठाड़ो मोरे अंगना।
मौसे कहो आवन औरन ते रति पायो,
मैं तो जागि रही अब भौर भयी प्यारी।।(४)
विरह और प्रवंचना के विपरीत कुछ गीतों में 'रसिक धारा'
पूर्ण वेग से प्रवाहित है। इसमें अपने अस्तित्व को विलीन
कर 'प्रियतम' हो जाना प्रणय की चरम सिद्धि माना गया है।
दार्शनिक दृष्टि से यह आत्मा का परमात्मा से मिलन है।
राधा ने कृष्ण के रंग में रंग कर इसी मिलन का सुख पाया
था। गोपी की आनंद-प्राप्ति की यह उत्कंठा इस गीत में
कितनी कोमलता से मुखर हुई है?
भई लो पिया चाँदनी रात अब रहियो मेरे पास।
तन को अबीर लगाऊँ अँगिया के कोर खुलाऊँ
दिन के वियोग बुझाऊँ तोसे चुनरि हमारी रंगाऊँ।
तिरुनाल के गीतों में अधिकतर कृष्ण की विभिन्न लीलाओं
का रम्य वर्णन है, किंतु कुछ गीतों में राम, शिव,
सरस्वती आदि की भी स्तुति की गई है। यद्यपि 'यमुना
विहारी' की तर्ज पर कवि ने राम को 'सरजू तीर विहारी'
कहा है पर उनका आदर्श रूप भी यहाँ अंकित हुआ है (ओरन को
कछू और भरोसा हमें भरोसा तेरो-३०)।
सरस्वती की स्तुति में नवीनता का समावेश है। वह केवल
विद्या की अधिष्ठात्री नहीं है बल्कि वह जगत की जननी है
और भवानी तथा शर्वाणी से भिन्न नहीं है।
कुछ गीतों में नाच-ताल के बोल भी मिलते हैं जिनसे ये और
सरस बन गए हैं। तिरुनाल के गीत भक्ति काव्य के माधुर्य
से परिपूर्ण हैं।
इनकी भाषा में ब्रज, खड़ी बोली और दक्खिनी का अजीब
मिश्रण है। कहीं-कहीं संस्कृत विभक्तियों का भी प्रयोग
किया गया है। ऐसी रचनाओं में भाषात्मक शुद्धता अथवा
काव्य-सौंदर्य का विशेष महत्त्व नहीं होता है फिर भी
तिरुनाल के गीत कवित्व की मधुरता से शून्य नहीं हैं।
इनमें अनेक स्थलों पर सहृदय कवि की वाणी सुनाई पड़ती हैं
किंतु इन गीतों का वास्तविक सौंदर्य इनकी साहित्यिकता
अथवा कवित्व में नहीं हैं बल्कि इस बात में है कि इनकी
रचना सुदूर अतीत में, हिंदी के हृदय-स्थल से कोसों दूर,
एक मलयालम भाषी भक्त कवि द्वारा गायी गई थी, जिसने इनके
माध्यम से हिंदी के कृष्ण भक्ति काव्य की परंपरा को
जीवित रखने का प्रशंसनीय प्रयास किया है।
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