मैं जब
१९४५-४६ से लेकर आज तक की हिंदी का स्मरण करता हूँ कि इसके
साथ जुलूस में पीछे मैं भी रहा हूँ तो मुझे दो चीजें बड़ी
साफ़ दिखाई देती हैं। हिंदी भाषा एक ऐसी भाषा है, जिसके ऊपर
दबाव पड़ता है, उसमें उछाल आता है, दबाव नहीं पड़ता, तो यह
भाषा सो जाती है। सदियों तक इस पर दबाव था। यह राजभाषा नहीं
थी। थोड़ी सी रियासतों में कुछ कार्यवाही हिंदी में होती थी,
लेकिन जो भी कार्यवाही हिंदी में होती थी, उसकी प्रामाणिकता
के बारे में मध्य युग के साहित्यकारों ने पहले जितनी भी
अभिव्यक्तियाँ की हैं, आज उसका महत्व हम समझते हैं ख़ास करके
अपने देश की म.प्र. की रियासतों में, राजस्थान की रियासतों
में हिंदी में जो दस्तावेज़ मिले, उनकी कीमत आज आंकी जा रही
है। उनमें कुछ अधिक सही बात है, सही परिप्रेक्ष्य है। जनता
की कुछ दूसरी तस्वीर है। तो भी एक शासन की भाषा दूसरी थी और
यह दूसरी भाषा थी। उसके पीछे भी कारण एक विचित्र प्रकार का
मनोभाव था।
आज लगभग ५०० वर्षों से जो विशेष रूप से हिंदी के क्षेत्र का
'ग्राम स्वराज सपना' जैसा दिखता है, उसके पीछे कारण क्या था?
उसके पीछे कारण था टोडरमल के द्वारा एक ऐसी माल व्यवस्था का
निर्माण जो केंद्रीकृत व्यवस्था थी। केंद्रीकृत व्यवस्था
होने के नाते ही यह फारसी-केंद्रित व्यवस्था थी और इसके कारण
शासक और शासित की दूरी थी, जनता को किसी माध्यम को चुनना
पड़ता था, जिसके माध्यम से वह शासक के पास पहुँच सकता था।
सीधा संवाद समाप्त करने के लिए और एक तंत्रीय शासन व्यवस्था
के लिए यह उपाय किया गया। नौकरशाही का यह स्तर पहले नहीं था।
इसका प्रमाण आज भी गोवा में मिलता है। गोवा में आज भी एक
संस्था है कम्युनिताद। उसका अर्थ है गाँव समुदाय। आज भी उसका
महत्व है, क्योंकि वहाँ यह टोडरशाही नहीं पहुँची थी लेकिन
जहाँ यह पहुँची थी, वहाँ केंद्रीय माल व्यवस्था थी और गाँव
तक केंद्र पहुँचा हुआ था। उसके बावजूद हिंदी ऐसी ऊर्जस्विता
के साथ रही कि हिंदी के अधिकांश साहित्य ने
नकार दिया कि कोई और सत्ता है।
तुलसीदास के रामचरित मानस में, गीतावली में, कवितावली में,
विनयपत्रिका में कहीं तत्कालीन बादशाह का नाम तक नहीं है।
इससे बड़ी उपेक्षा, इससे बड़ा नकार कुछ हो नहीं सकता। जैसे
तुलसीदास जी कहना चाहते थे कि इस राज सत्ता से बहुत बड़ी राज
सत्ता है, जिसके रहते अपने को स्वतंत्र अनुभव करते हैं। उसी
की राज सत्ता के अनुकूल अपेक्षा करते हैं। इस प्रकार की
ऊर्जा उस युग में उसके बाद भी थी, जिसे हम सामंत युग कहते
हैं, उसे हम रीतिकालीन युग कहते हैं। उसके कवियों में भी ऐसी
ऊर्जस्विता थी। पद्माकर की कविता में भी संकेत हैं,
फिरंगियों के आने के ख़तरे। वहाँ से संकेत
शुरू हो जाता है, बहुत पहले
संकेत शुरू हो जाता है।
१९०१ में हिंदी में जो प्रथम कविता लिखी गई वह एशिया के
जागरण की कविता है। शायद एशिया में तब किसी भाषा में एशिया
के जागरण की कविता नहीं लिखी गई होगी, १९०१ में लिखी गई
कविता राधाकृष्ण मित्र ने लिखी थी। इसका अर्थ यही है कि
जितना भी दबाव था, उतनी अधिक ऊर्जस्विता भी थी। लेकिन जब
दबाव कम पड़ जाता है, तब मूल्य होता। एक फ्रांस की कहानी
मैंने पढ़ी थी कि जब जर्मन कब्ज़ा कर रहे थे तो कब्ज़ा करने
के दो दिन पहले जिस क्षेत्र में आ रहे थे उस क्षेत्र की
पाठशाला में फ्रेंच का शिक्षक फ्रेंच पढ़ा रहा था तो लड़के
अपनी भाषा में जल्दी पढ़ते नहीं, बड़ी लापरवाही से पढ़ते
हैं, अरे यह तो हमें आती ही है, बोलते ही हैं, तो अध्यापक ने
विद्यार्थियों से कहा कि बच्चों, परसों से फ्रेंच नहीं पढ़ाई
जाएगी। आज पढ़ लो और उसने जब पाठ पढ़ाया तो बड़े मन से
बच्चों ने पाठ पढ़ा, उनको फ्रेंच में रस
आया और इसके बाद सब लड़के रोने
लगे।
अभी छिनी नहीं है हिंदी। छीनने के सारे उपक्रम हो रहे हैं,
सारे जाल फेंके जा रहे हैं, सारी कोशिश हो रही है कि
अंग्रेज़ी के बिना पीने को पानी नहीं मिलेगा। सब गुलाम हो गए
हैं, तुम भी गुलाम हो जाओ या तुममें गुलाम बनाने की क्षमता
हो तो गुलाम बना लो। बड़ी से बड़ी सत्ता जब खाने चलेगी, तो
भीतर से इतनी खोखली हो जाएगी, जैसा कि अमेरिका आर्थिक दृष्टि
से खोखला हो रहा है, स्वास्थ्य की दृष्टि से खोखला हो रहा
है, मानसिक दृष्टि से एकदम विशृंखलित हो रहा है। वह क्या
खाएगा, कागज़ी नोटों का भूत चढ़ा है वह स्वयं कभी नहीं खा
सकता। जिसमें थोड़ी सी भी ऊर्जा बची हुई है,
खड़े होने की, तनकर खड़े होने
की, इन्कार करने की, अस्वीकार करने की, वे ऐसा प्रतिरोध
करेंगे, ऐसा प्रतिरोध करेंगे कि एक दूसरी सृष्टि जन्म लेगी।
वैश्वीकरण का एक दूसरा रूप आएगा जो एक-दूसरे पर आश्रित होने
वाला रूप रहेगा। एक-दूसरे को खाने वाला रूप नहीं रहेगा। ऐसी
स्थितियाँ जब आती हैं तो आपस में ही उसमें टकराहट होती है और
उस भय का समाधान हो जाता है। इस प्रकार की स्थिति विश्व में
होगी, लेकिन उसके लिए एक तैयारी तो कहीं-न-कहीं होनी चाहिए।
किसी न किसी रूप में छोटे पैमाने पर निरंतर होती तो रहनी
चाहिए। मेरे स्व. मित्र लोहिया जी कहा करते थे कि मैं यह सोच
रहा हूँ कि जिस दिन
इमारत उठाने का हौसला हो, तब ईंट तो कम से कम मिल सके। आज
हमको, कम से कम ईंट रख देनी है।
हमारी पीढ़ी के लोगों ने बहुत गलतियाँ की हैं, एक के बाद एक
गलतियाँ की हैं और भाषा के प्रश्न पर, राष्ट्रीयता के प्रश्न
पर सबसे ज़्यादा गलती की है। हमारी पीढ़ी ने राष्ट्र के लिए
संघर्ष किया और राष्ट्र का कोई आकार खड़ा नहीं किया, कोई
मूर्त संकल्पना नहीं थी हमारे पास। हमें उधार लिए हुए वादे
स्वीकार करने पड़े। अगर हमारी संकल्पना होती, अगर हमारे भीतर
ऊर्जा होती तो स्वराज्य की जो गीता गाँधी जी ने तैयार कर रखी
थी, उस पर बहस करते, उसमें संशोधन करते और अपने देश की
परिस्थिति के अनुरूप, अपने और अपने देश की आकांक्षाओं के
अनुरूप कोई दस्तावेज़ बनाते और कहते कि इस हिसाब से शासन
चलेगा तो हमें निश्चित ही यह दिन देखने को नहीं मिलता, यह
झेलना नहीं पड़ता। लेकिन हमारी गलती थी कि हम स्वाधीनता
चाहते थे, उसके लिए लड़े। सबको किनारे रखकर। तिलक के शब्दों
में - 'स्वतंत्रता
सर्वोपरि थी', महत्त्वपूर्ण थी, लेकिन स्वराज्य का आकार भी
महत्त्वपूर्ण था, इसे हमने नहीं सोचा।
उसकी रचना हमने नहीं
की। अगर की होती तो भाषा सबसे ऊपर थी, भाषा के प्रश्न पर जो
संघर्ष हुए वे बड़े छोटे संघर्ष हुए। असली संघर्ष था
अँग्रेज़ों जाओ, हम आपस में निपट लेंगे। "आपस में कटेंगे,
मरेंगे जो कुछ भी करेंगे पर हम निपट लेंगे आपस में" यह भी
कहने का साहस हममें नहीं हुआ कि 'अंग्रेजी इस देश से जाए हम
आपस में निपट लेंगे।' तो मामला निपट गया होता, क्योंकि एक
संकल्प रहता।
अब आने वाली पीढ़ी यह भूल नहीं दुहराएगी। स्वाधीन राष्ट्र का
कोई सक्रिय रूप उन्हें सोचना होगा, इस देश को जोड़ने वाली जो
भी विचार धारा है उस की वाहिका जो भी भाषाएँ हैं, उनके बीच
क्या संबंध स्थापित हो, उस पर विचार करना होगा। अब तक जो भी
विचार आए हैं वे विचार सबके सब धुँधले विचार हैं, अस्पष्ट
विचार हैं। स्पष्ट रूप से विचार हुआ नहीं, क्योंकि ऐसी
आवश्यकता, ऐसी चुनौती, ऐसा भय उपस्थित नहीं हुआ। भय में सबसे
अधिक चेतना जाग्रत होती है, आशंका में ही सारी शक्तियाँ
एकाग्र हो जाती हैं। आज हमें शक्तियों को एकाग्र करने इन
प्रश्नों पर विचार करना चाहिए। यह केवल गुलाम मानसिकता नहीं
है। यह एकदम अज्ञान की मानसिकता है। शिष्टता के प्रति अज्ञान
की मानसिकता है, अपने समूचे इतिहास, अपनी समूची जाति,
व्यक्तित्व के अज्ञान की मानसिकता है। मगर हम जानते हैं कि
हमारा जातीय व्यक्तित्व क्या है? उसमें कितनी चीज़ जुड़ी हुई
है, उसमें कितनी झेलने की क्षमता है, कितनी ऊर्जा है? झेल
करके भी ऊँचा मान रखने
की क्षमता है, तो यह मानसिकता नहीं होती।
मैं इससे सहमत नहीं हूँ कि साहित्य की भाषा अलग है, बोलचाल
की भाषा अलग है, राजभाषा अलग है। भाषा की कोठरियाँ नहीं
होती, दिमाग की कोठरियाँ नहीं होती कि सब एक दूसरे से जुड़ी
हुई होती हैं। द्वार नहीं होता, सब एक ही हैं, क्षेत्र उनका
अलग होता है, प्रकार अलग होता है, लेकिन सब एक है। यह असंभव
है कि बोलचाल की भाषा से साहित्य की भाषा इतनी दूर चली जाए,
यह असंभव है कि बोलचाल की, राजकाज की भाषा दूर नहीं होती है,
यह अलग कभी नहीं होती,
अलग करने का सोचना भी नहीं चाहिए।
तकनीकी भाषा को भी सरल
होना है। भाषा का एक सहज प्रवाह है। उस प्रवाह को समझने के
लिए इन सबके भीतर जो शक्ति होती है, समझना चाहिए और जब यह
सोचते हैं, तो हमारा दिमाग वैसे ही स्वतंत्र हो जाता है। हर
जगह हम गलत हैं और सही होने के लिए एक ऐसी व्यापकता हमारे मन
में होनी चाहिए और एक संपूर्ण इतिहास के साथ ऐसा जुड़ाव होना
चाहिए। केवल गौरव का इतिहास ही हमारा इतिहास नहीं है। लोग यह
मानते हैं कि ह्रास का युग आ गया है। १०वीं शताब्दी के लोग
नहीं समझते थे कि १०वीं शताब्दी के बाद एक बौद्धिक ऊर्जा के
विकास का समय आएगा। निरंतर ऊर्जा का विकास हुआ है। एक
भावात्मक ऊर्जा के विकास का समय आया। इतना बड़ा महान,
भक्ति-साहित्य उसी समय रचा गया।
यह सारा हमारा हिस्सा है, हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा है। एक
सोने की चिड़िया वाला ही हमारा भारत नहीं है, संपूर्ण भारत
हमारा है। ऐसा उत्साह जो देशों का निर्माण कर दे, वह उत्साह
भी हमारा अंग है और उसके साथ जुड़ करके आने वाले भविष्य का
पूरा नज़ारा है विश्व का, उसको देखते हुए हम जो कोई संकल्प
लेंगे तो ये जो प्रश्न है राष्ट्रभाषा का प्रश्न है कि क्यों
हमारे भीतर एक गलत किस्म की मानसिकता आई, यह प्रश्न बहुत
छोटे हो जाएँगे और उनका समाधान बहुत ही सरल हो जाएगा।
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