मैंने श्रीलंका
में हिंदी प्रचार-प्रसार कार्य करने का दृढ़ संकल्प किया। क्यों कि
मैं यहाँ के उन इने-गिने लोगों में से एक हूँ जिनको हिंदी के
थोड़े बहुत ज्ञान का भाग्य प्राप्त हुआ है। तदनुसार मैंने ८
अगस्त १९९३ को अपनी धर्मपत्नी पद्मा वीरसिंह के साथ श्रीलंका
हिंदी निकेतन नामक एक संस्थान की स्थापना की थी जो उस दिन से आज
तक हिंदी प्रचार-प्रसार के शुभ-कार्य में लगी हुई है।
श्रीलंका हिंदी निकेतन की
हिंदी-यात्रा का विवरण प्रस्तुत करने से पहले अपनी हिंदी-यात्रा
का थोड़ा वर्णन करने की अनुमति चाहता हूँ क्यों कि मुझे लगता है
कि वह अप्रासंगिक नहीं होगा।
श्रीलंकावासी सहस्रों हिंदी प्रेमियों की मानिंद मैं भी हिंदी
चलचित्रों के प्रभाव में आकर ही हिंदी के प्रति आकृष्ट हुआ किंतु
केवल मनोरंजन पाने की दृष्टि से। हिंदी शिक्षा पाने का मेरा कोई
अभिप्राय नहीं था।
वह दशक यानी साठ का दशक एक
रंगीन दौर था। मैं एक स्कूली छात्र था। हिंदी चलचित्रों की मोहक
दुनिया में मैं खोया हुआ था। एक के बाद एक फ़िल्म देखता था।
फ़िल्मी गाने गुनगुनाता रहता था। यहाँ तक कि सिंहली भाषा में
हिंदी गीतों को लिखने का प्रयास भी करता था। ऐसे सैंकड़ों गीत
मेरे पास इकट्ठे भी हुए थे। सिंहली भाषा में लिखित हिंदी गीतों
का वह संग्रह आज भी मेरे पास है। अब वह पुस्तक सैंतीस साल पुरानी
हो चुकी है। आज एक हिंदी अध्यापक की हैसियत से जब मैं उसके पन्ने
पलटता हूँ और उनमें ग़लत शब्द पाता हूँ तब अनायास ही होठों पर एक
मुस्कुराहट आती है। किंतु मैं उस पुस्तक को कभी फेंकूँगा नहीं
क्यों कि वह भी मेरी हिंदी-यात्रा का एक मोड़ है, एक स्मारक है।
फ़िल्म 'जिस देश में गंगा बहती
है' श्रीलंका में प्रदर्शित हुई। कुछ मित्रों के साथ मैं भी
फ़िल्म देखने गया। फ़िल्म के एक दृश्य में जब राजू (राज कपूर)
डाकुओं के बीच में फँस जाता है और डाकू उसका अपमान करने लगते हैं
तब क्षुब्ध होकर राजू डफली उठाकर बजाने लगता है। फिर थककर डफली
को अलग रखता है। इसके बाद एक बच्ची को गोद में उठा लेता है और
गाने लगता है।
''होठों पर सच्चाई रहती है
जहाँ दिल में सफ़ाई रहती है
हम उस देश के वासी हैं
जिस देश में गंगा बहती है. . .''
तभी मैंने देखा रजतपट पर सभी डाकू कैसे स्तब्ध रह गए! न जाने
मुझे क्या हो गया। बिजली की लहर-सी मेरी नस-नस में दौड़ने लगी।
कैसा दृश्य था वह! राज कपूर का उत्तम अभिनय। गायक मुकेश के
हृदयविदारक स्वर और गीत के वे बोल -
''ये पूरब है पूरबवाले
हर जान की कीमत जानते हैं
मिल-जुलके रहो, और प्यार करो
इक चीज़ यहीं जो रहती है
हम उस देश के वासी हैं, जिस देश में गंगा बहती है. . .''
सहसा मेरे मन में यह विचार आया
कि हो न हो, इस गीत के बोल में एक उत्तम अर्थ अवश्य होगा। साथ ही
साथ बड़े दुख का अनुभव भी होने लगा। क्यों कि हिंदी भाषा-ज्ञान के
अभाव के कारण मैं उस उत्तम अर्थ से वंचित था। वह मुझसे सहा नहीं
गया। तभी उसी समय सिनेमाघर में बैठे-बैठे ही मैंने ठान लिया कि
एक न एक दिन मैं इस मधुर संगीतात्मक हिंदी भाषा को अवश्य
सीखूँगा।
लेकिन कल्पना और यथार्थ में कितना बड़ा अंतर था। मेरे लाख
परिश्रम करने के बावजूद भी किसी हिंदी अध्यापक को ढूँढ़ने में
मैं असमर्थ हुआ। क्यों कि उस समय श्रीलंका में हिंदी जाननेवाले न
के बराबर थे। एक हिंदी टीचर की खोज में न जाने मुझे कहाँ-कहाँ
भटकना पड़ा। किंतु मेरे सारे प्रयास व्यर्थ! मुझे यह लगने लगा कि
हिंदी सीखना मेरे भाग्य में नहीं था। फिर भी मैंने धैर्य नहीं
खोया। लगातार परिश्रम करता रहा।
कुछ वर्ष यों भटकने के बाद
सिंहली भाषा में लिखित हिंदी गुरु नामक एक हिंदी प्रवेशिका को
मैं ढूँढ़ पाया। हर्ष का पारावार न रहा। घर में बैठे-बैठे
स्वाध्याय करने लगा। दिन-रात एक करके पढ़ता रहा। किंतु वह
छोटी-सी प्रवेशिका मेरी हिंदी पिपासा को बुझाने में समर्थ नहीं
हुई। मैं हिंदी का और ज्ञान अर्जित करना चाहता था। परंतु कैसे? न
कोई अध्यापक मिला, न कोई ढंग की हिंदी पुस्तक।
हिंदी भाषा अध्ययन-मार्ग में मेरी स्थिति त्रिशंकु की-सी थी, न
इधर की न उधर की। मैं मँझधार में था। यही दशा और कई साल तक रही।
समय के साथ-साथ मेरे जीवन में भी परिवर्तन आ गया। लेकिन मेरी
हिंदी-पिपासा जैसी की तैसी रह गई। अब मैं छात्र नहीं रहा।
राजधानी से काफ़ी दूर एक नगर में किसी दफ़्तर का कर्मचारी बना
हुआ था। काम तो मैं करता था। किंतु काम में मन नहीं लगता था।
बार-बार एक ही विचार मन में उभरता कि मैं हिंदी का और ज्ञान कहाँ
से पाऊँ।
सन १९८० की बात है। एक दिन एक
सज्जन मेरे दफ़्तर में पधारे। दफ़्तर के बड़े बाबू ने उनका काम
मुझे सौंपा। काम करते-करते मैंने यों ही पूछा ''आपका पेशा क्या
है?'' जवाब में वे बोले, ''मैं एक हिंदी अध्यापक हूँ।'' मेरे
रोंगटे खड़े हो गए। जिसको गली-गली में ढूँढ़ता रहा उसको घर के
पिछवाड़े में पाया। एक क्षण के लिए मैं स्तब्ध रह गया। कुछ बोल न
पाया। फिर अपने को सँभालकर मैंने पूछा, ''क्या आप मुझे हिंदी
सिखाएँगे?'' मेरे पूछते ही वे राजी हो गए। जब मैं पढ़ाई की फ़ीस
पूछने लगा तब उन्होंने मुसकुराकर कहा, ''मैं फीस नहीं लेता,
मुफ़्त ही पढ़ाता हूँ।'' मेरे परम पूज्य हिंदी गुरु श्री
आर.जे.के. करुणासेकर जी से मेरी भेंट इस प्रकार हुई।
हिंदी पढ़ाई का आरंभ हुआ। कभी
उनके घर में तो कभी मेरे घर में। पढ़ाई जहाँ कहीं भी हो, हर्ष का
वातावरण अवश्य रहता। मुझे अपने घर की अपेक्षा उनके घर में पढ़ना
अधिक अच्छा लगता क्यों कि उनके घर में एक कमरा था जो हिंदी
पुस्तकों से भरा हुआ था। जब मैंने पहली बार उन पुस्तकों को देखा
तब मैं आश्चर्यचकित हो गया। इतनी सारी हिंदी पुस्तकें! मेरे
विस्मय की सीमा न रही। मुझे वह समय याद आ गया जब मैं एक पुस्तक
के लिए तरस रहा था। और अपने को हिंदी पुस्तकों की एक भरमार के
बीच में पाकर मैं विस्मित और प्रसन्न हुआ।
मेरे गुरु जी बड़े दानी थे। जो भी पुस्तक मैं माँगता वे
निस्संकोच मुझे देते क्यों कि उनको मेरी हिंदी पिपासा का भान हो
चुका था। मैंने भी पुस्तकें पढ़ने में हद कर दी। अवकाश का अधिकतर
समय उसी कमरे में मैं बिताने लगा। हिंदी पुस्तकों का वह कमरा
मेरे लिए देवलोक समान था।
परंतु प्रसन्नता का वह दौर अधिक
समय तक रह नहीं पाया। भाग्य पलट गया। किसी दूर शहर में मेरा
स्थानांतरण हुआ। मुझे गुरु जी और स्वर्ग-जैसे कमरे से दूर जाना
ही पड़ा। किंतु मेरा हिंदी प्रेम तनिक भी कम नहीं हुआ। मैं पढ़ता
रहा। धीरे-धीरे हिंदी का ज्ञान बढ़ता गया। इस प्रकार तेरह वर्ष
बीत गए। अब मेरे पास भी हिंदी पुस्तकों की एक राशि संचित हुई। घर
में हिंदी का माहौल स्थापित हुआ।
फिर एक दिन गुरु जी का बुलावा
पाकर मैं उनके सामने उपस्थित हुआ। उन्होंने मुझे आशीर्वाद देते
हुए कहा, ''अब तुम बहुत कुछ सीख चुके हो। अब तुम अपनी विद्या का
दान करो। याद रखो विद्या-दान महादान है।'' गुरु जी की बात सुनकर
मैं फूला नहीं समाया। उनके दर्शन के बाद जब मैं घर जाने लगा, मैं
ज़मीन पर नहीं, आसमान पर चल रहा था।
गुरु जी के आशीर्वाद ने मेरा
हौसला बढ़ा दिया था। इसलिए कुछ महीनों बाद मैंने श्रीलंका हिंदी
निकेतन की स्थापना की। यह सन १९९३ की बात थी।
अब प्रस्तुत है श्रीलंका हिंदी
निकेतन की हिंदी-यात्रा का विवरण।
सर्वप्रथम यह बताना उचित होगा कि श्रीलंका हिंदी निकेतन एक ऐसा
संस्थान है जो पूर्णतया राजनीति-निरपेक्ष है। इसका मुख्य
उद्देश्य है श्रीलंका में हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार करना। यह
आशा की जाती है कि इसी प्रचार-प्रसार कार्य के फलस्वरूप अधिक से
अधिक श्रीलंकावासी भारतीय संस्कृति तथा चिंतन से परिचित होकर
चिरकाल से चली आ रही भारत-श्रीलंका सद्भावना की वृद्धि करेंगे।
प्रशासन और
संचालन
इस संस्थान के प्रशासन और
संचालन कार्य इसके संस्थापकद्वय श्री शरणगुप्त वीरसिंह तथा
श्रीमती पद्मा वीरसिंह द्वारा किए जा रहे हैं।
पाठमालाएँ
संप्रति इस संस्थान में
निम्नलिखित हिंदी पाठमालाएँ उपलब्ध हैं-
१. बोलचाल की हिंदी पाठमाला।
२. श्रीलंका सरकार द्वारा संचालित 'ए' लेवेल हिंदी परीक्षा की
पाठमाला।
३. दक्षिण-भारत हिंदी प्रचार सभा द्वारा संचालित परीक्षाएँ
(प्राथमिक से विशारद तक)।
४. श्रीलंका की विश्वविद्यालयीय छात्र-छात्राओं के लिए सहायक
पाठमाला।
शाखाएँ
निम्नलिखित शहरों में
श्रीलंका हिंदी निकेतन की शाखाएँ उपलब्ध हैं-
१. कुरूणैगला
२. कुलियापिटिया
३. गमपहा
४. रागमा
श्रीलंका हिंदी
निकेतन का हिंदी सेवा-कार्य
हिंदी-सिंहली कोश का संपादन
अभी संपादन-कार्य जारी है।
हिंदी भाषा संबंधी ग्रंथ
१. हिंदी साहित्य का इतिहास (अभी कार्य जारी है)
२. भाषा-विज्ञान प्रवेश (अभी कार्य जारी है)
शोधकार्य
श्रीलंका में हिंदी भाषा के
इतिहास पर शोधकार्य संपन्न किया गया है।
हिंदी भाषा संबंधी टेपांकित सामग्री का निर्माण
१. उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद के जीवन और कृतित्व के विवरण
सहित ऑडियो कैसेट।
२. सुविख्यात हिंदी भाषा पंडित भोलानाथ तिवारी के जीवन और
कृतित्व के विवरण सहित ऑडियो कैसेट।
३. साहित्य, काव्य, रस तथा अलंकार आदि के संक्षिप्त विवरण सहित
ऑडियो कैसेट।
४. बोलचाल की हिंदी में संवाद सहित ऑडियो कैसेट।
उपर्युक्त विवरण से यह विदित
होगा कि श्रीलंका हिंदी निकेतन अपने देश में हिंदी प्रचार-प्रसार
कार्य में अग्रगामी है। किंतु कदाचित ही किसी को यह आभास होगा कि
हिंदी प्रचार-प्रसार का वह मार्ग कैसा कंटीला है। संसाधनों की
सीमितता, अधिकारियों की उदासीनता, स्कूलों में हिंदी पढ़ाई के
प्रबंध का न होना, हिंदी भाषा शिक्षकों का घोर अभाव - ये सब
हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार मार्ग में विघ्न बनकर खड़े हैं।
काश, ऐसा कोई हो, जो इन कष्टों को दूर करने में अग्रसर हो।
हिंदी बने विश्व भाषा! जय हिंद! जय श्रीलंका। |