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साहित्यिक निबंध

रहिमन धागा प्रेम का

डॉ. दर्शन सेठी  

रहीम मध्यकालीन सामंतवादी संस्कृति के कवि थे। रहीम का व्यक्तित्व बहुमुखी प्रतिभा-संपन्न था। वे एक ही साथ सेनापति, प्रशासक, आश्रयदाता, दानवीर, कूटनीतिज्ञ, बहुभाषाविद, कलाप्रेमी, कवि एवं विद्वान थे। रहीम सांप्रदायिक सदभाव तथा सभी संप्रदायों के प्रति समादर भाव के सत्यनिष्ठ साधक थे। वे भारतीय सामासिक संस्कृति के अनन्य आराधक थे। रहीम कलम और तलवार के धनी थे और मानव प्रेम के सूत्रधार थे।

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरहु चटकाय।
टूटे से फिर ना मिले, मिले गाँठ पड़ जाय।।

जन्म और मृत्यु
रहीम का जन्म माघ कृष्ण पक्ष गुरुवार, १५ दिसम्बर, सन १५५६ में लाहौर में हुआ था। इस नवजात शिशु का नाम अब्दुर्रहीम रखा गया। रहीम के पिता बैरम खाँ तेरह वर्षीय अकबर के अतालीक (शिक्षक) तथा अभिभावक थे। बैरम खाँ खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित थे। वे हुमायूँ के साढ़ू और अंतरंग मित्र थे। रहीम की माँ वर्तमान हरियाणा प्रांत के मेवाती राजपूत जमाल खाँ की सुंदर एवं गुणवती कन्या सुल्ताना बेगम थी। जब रहीम पाँच वर्ष के ही थे, तब गुजरात के पाटन नगर में सन १५६१ में इनके पिता बैरम खाँ की हत्या कर दी गई। रहीम का पालन-पोषण अकबर ने अपने धर्म-पुत्र की तरह किया। शाही खानदान की परंपरानुरूप रहीम को 'मिर्जा खाँ' का ख़िताब दिया गया। रहीम ने बाबा जंबूर की देख-रेख में गहन अध्ययन किया। शिक्षा समाप्त होने पर अकबर ने अपनी धाय की बेटी माहबानो से रहीम की शादी कर दी। इसके बाद रहीम ने गुजरात, कुम्भलनेर, उदयपुर आदि युद्धों में विजय प्राप्त की। इस पर अकबर ने अपने समय की सर्वोच्च उपाधि 'मीरअर्ज' से रहीम को विभूषित किया। सन १५८४ में अकबर ने रहीम को खान-ए-खाना की उपाधि से सम्मानित किया। रहीम का देहांत ७१ वर्ष की आयु में सन १६२७ में हुआ। रहीम को उनकी इच्छा के अनुसार दिल्ली में ही उनकी पत्नी के मकबरे के पास ही दफना दिया गया। यह मज़ार आज भी दिल्ली में मौजूद हैं। रहीम ने स्वयं ही अपने जीवनकाल में इसका निर्माण करवाया था।

जन्मजात प्रतिभा-संपन्न
रहीम तुरकी, अरबी, फारसी, संस्कृत तथा हिंदी के कुशल कवि थे। वे बहुज्ञ विद्वान थे। जीवन का उन्हें अत्यधिक क्रियात्मक अनुभव था। रहीम कवियों में कल्पतरु, याचकों के कर्ण तथा गुणीजनों के भोज थे। परस्पर विरोधी गुणों का सराहनीय समन्वय एवं संतुलन उनके व्यक्तित्व का सहज अंग था। सेनापति की कठोरता और कवि की कोमलता का उनके व्यक्तित्व में स्तुत्य सामंजस्य था। कलाकार की कल्पना प्रवणता तथा प्रशासकों की यथार्थवादी दृष्टि उन्हें प्राप्त थी।

कलियुग के कर्ण
दानशीलता में रहीम कलियुग के कर्ण थे। दान, रहीम के जीवन का सहज स्वभाव था। रहीम दान को जीवन का आधार मानते थे -
तब ही लौं जीवो भलो, दीवो होय न धीम
बिन दीवो जगत, हमें न रुचे रहीम।।

रहीम शरणागत के रक्षक थे। उनका यह गुण विश्व-विख्यात था। 'मअसिरे-रहीमी' में रहीम के इन गुणों का विस्तृत वर्णन हुआ है। रहीम सभी भाषाओं को समान रूप से प्रेम करते थे। हिंदी कवि गंग को रहीम ने एक छप्पय छंद पर प्रसन्न हो ३६ लाख रुपए पुरस्कार में दिए थे। वह छंद इस प्रकार है -
चकित भँवर रहि गयो, गमन नहिं करत कमल बन।
अहि फल मनि नहिं लेत, तेज नहिं बहत पवन घन।।
हंस मानसर तज्यौ, चक्क-चक्की न मिलैं अति।
बहु सुंदरि पदमिनी, पुरुष न चहैं, करैं रति।।
खलमलित सेस कवि गंग मन अमित तेज रवि रथ खस्यौ।
खानखाना बैरम सुवन, जबहि क्रोध करि तंग कस्यौ।

रहीम दानशील होते हुए भी विनयशील थे। कवि गंग ने उनकी अपूर्व दानशीलता के संबंध में यह दोहा लिखकर भेजा था।
सीखे कहाँ नवाबजू, ऐसी दैनी दैन।
ज्यों-ज्यों कर ऊँचो करो, त्यों-त्यों नीचे नैन।।

रहीम ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया था -
देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन-रैन।
लोग भरम हम पर धरैं, यातैं नीचे नैन।।

रहीम के व्यक्तित्व में दानशीलता और विनयशीलता का मणिकांचन संयोग था। इस संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कथन सत्कार के योग्य है - "इनकी (रहीम की) दानशीलता हृदय की सच्ची प्रेरणा के रूप में थी। कीर्ति की कामना से उसका कोई संपर्क न था।"

अनाथों के नाथ
रहीम अनाथों के नाथ थे। अन्य अनेक कवियों के आश्रयदाता थे। रहीम की दानशीलता के साथ उनकी अपूर्व काव्य प्रतिभा के भी दर्शन होते हैं। एक प्रसिद्ध घटना है कि एक दरिद्र ब्राह्मण अपनी कन्या के विवाह के लिए तुलसीदास के पास सहायता हेतु आया। तुलसीदास जी ने यह पंक्ति लिखकर उसे रहीम के पास भेज दिया -
सुर-तिय नर-तिय नाग-तिय, यह चाहत सब कोय।

रहीम ने ब्राह्मण की इच्छा पूर्ण की और साथ ही तुलसीदास जी को इन शब्दों में सम्मान दिया -
गोद लिए हुलसी फिरैं तुलसी सो सुत होय।।

तुलसीदास जी ने जो प्रशंसा रहीम की की थी। रहीम ने इस पंक्ति द्वारा वही प्रशंसा तुलसीदास की कर दी। रहीम के असाधारण व्यक्तित्व के संबंध में कुछ जनश्रुतियाँ अत्यधिक प्रख्यात हैं, उनमें से एक यहाँ प्रस्तुत है -

जिन दिनों रहीम मुगल साम्राज्य के वकील मुतलक थे, उन दिनों एक बार सेना के पैदल सैनिकों का वेतन बँटवा रहे थे तो भूल से एक सैनिक के नाम के आगे दाम के स्थान पर तनका लिख गया। तनका उस समय चाँदी का सिक्का होता था और उसका मूल्य चालीस दाम के बराबर होता था। इस प्रकार एक हज़ार दाम अर्थात पच्चीस रुपए के स्थान पर एक हज़ार रुपया हो गया। जब रहीम का ध्यान इस भूल की ओर दिलाया गया तो उन्होंने कहा कि इस सैनिक के भाग्य में इतना ही लेना लिखा था अत: उसे उतना ही दे दिया जाए।

इस घटना से रहीम की उदारता तथा भाग्य के प्रति असीम आस्था का बोध होता है।


९ दिसंबर २००४

(कादंबिनी से साभार)

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