दरअसल, कश्मीर में वैष्णव-भक्ति के प्रचार-प्रसार
का श्रेय उन घुमक्कड़ साधुओं, संतों एवं वैष्णव भक्तजनों को जाता है, जो उन्नीसवीं
शताब्दी में मध्य भारत से इस प्रदेश में आए और राम-कृष्ण भक्ति का सूत्रपात किया।
यहाँ पर यह रेखांकित करना अनुचित नहीं होगा कि शैव-संप्रदाय के समांतर कश्मीर में
सगुण भक्ति की क्षीण धारा तो प्रवाहित होती रही किंतु एक वेगवती धारा का रूप ग्रहण
करने में वह असमर्थ रही। इधर, जब शैव संप्रदाय के अनुयायी विदेशी सांस्कृतिक आक्रमण
से आक्रांत हो उठे तो निराश - नि:सहाय होकर वे विष्णु के अवतारी रूप में
त्राण-सहारा ढूँढ़ने लगे। अंतर केवल इतना रहा कि जिस सगुण भक्ति, विशेषकर रामभक्ति
आंदोलन ने, मध्य भारत के कवि को सोलहवीं शती में प्रभावित और प्रेरित किया, उसी
आंदोलन ने देर से ही सही, कश्मीर में उन्नीसवीं शताब्दी में प्रवेश किया और रामकथा
विषयक सुंदर काव्य रचनाओं की सृष्टि हुई, जिनमें प्रकाशराम कृत 'रामावतारचरित'
कश्मीरी काव्य परंपरा में अपनी सुंदर वर्णन-शैली, भक्ति-विह्वलता, कथा-संयोजन तथा
काव्य-सौष्ठव की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है।
रामावतारचरित
'रामावतारचरित' की मूलकथा का आधार यद्यपि वाल्मीकि
कृत रामायण है, तथापि कथासूत्र को कवि ने अपनी प्रतिभा और दृष्टि के अनुरूप ढालने
का सुंदर प्रयास किया है। कई स्थानों पर काव्यकार ने कथा-संयोजन में किन्हीं नूतन
(विलक्षण अथवा मौलिक) मान्यताओं की उद्घोषणा की है। सीता-जन्म के संबंध में कवि की
मान्यता यह है कि सीता, दरअसल, रावण-मंदोदरी की पुत्री थी। मंदोदरी एक अप्सरा थी,
जिसकी शादी रावण से हुई थी। उनके एक पुत्री हुई, जिसे ज्योतिषियों ने रावणकुल के
लिए घातक बताया। फलस्वरूप मंदोदरी उसके जन्म लेते ही, अपने पति रावण को बताए बिना,
उसे एक संदूक में बंद कर नदी में बहा देती है। बाद में राजा जनक यज्ञ की तैयारी के
दौरान नदी किनारे उसे पाकर कृतकृत्य हो उठते हैं। तभी लंका में अपहृत सीता को देखकर
मंदोदरी वात्सल्याधिक्य से विभोर हो उठती है -
तुजिन तमि कौछि क्यथ हाथ ललनोवन
गेमच कौलि यैलि लेबन लौलि क्यथ सोवुन
बुछिव तस माजि मा माजुक मुशुक आव
लबन यैलि छस बबन दौद ठींचि तस द्राव। (पृ.१४५)
(तब उस मंदोदरी ने उसे गोद में उठाकर झुलाया तथा पानी में फेंकी उस सीता को पुन:
पाकर अपने अंक में सुलाया। अहा, अपने रक्त-मांस की गंध पाकर उस माँ के स्तनों से
दूध की धारा द्रुत गति से फूट पड़ी।)
'रामावतारचरित' में आई दूसरी कथा विलक्षणता राम
द्वारा सीता के परित्याग की है। सीता को वनवास दिलाने में रजक-घटना को मुख्य कारण न
मानकर कवि ने सीता की छोटी ननद(?) को दोषी ठहराया है, जो पति-पत्नी के पावन-प्रेम
में, यों फूट डालती है। एक दिन वह भाभी (सीता जी) से पूछती है कि रावण का आकार कैसा
था, तनिक उसका हुलिया तो बताना। सीता जी सहज भाव से काग़ज़ पर रावण का एक रेखाचित्र
बना देती है, जिसे ननद अपने भाई को दिखाकर पति-पत्नी के पावन-प्रेम में यों फूट
डालती हैं।
"दोपुन तस कुन यि वुछ बायो यि क्या छुय
दोहय सीता यथ कुन वुछित तुलान हुव
मे नीमस चूरि पतअ आसि पान मारान
वदन वाराह तअ नेतरव खून हारान(पृ.३९९)
(रावण का चित्र दिखाकर - देखो भैया, यह क्या है!
सीता इसे देख-देख रोज़ विलाप करती है। जब से मैंने यह चित्र चुरा लिया है, तब से
उनकी आँखों से अश्रुधारा बहे जा रही हैं। यदि वह यह जान जाए कि ननद ने उसका यह
काग़ज़ चित्र चुरा लिया है तो मुझे ज़िंदा नहीं छोड़ेगी।)
मक्केश्वर-लिंग से वंचित
'रामावतारचरित' के युद्धकांड प्रकरण में उपलब्ध एक
अत्यंत अद्भुत और विरल प्रसंग 'मक्केश्वर लिंग' से संबंधित हैं, जो प्राय: अन्य
रामायणों में नहीं मिलता है। वह प्रसंग जितना दिलचस्प है, उतना ही गुदगुदानेवाला
भी। शिव रावण द्वारा याचना करने पर उसे युद्ध में विजयी होने के लिए एक लिंग
(मक्केश्वर) दे देते हैं और कहते हैं कि जा, यह तेरी रक्षा करेगा, मगर ले जाते समय
इसे मार्ग में कहीं पर भी धरती पर नहीं रखना।
लिंग को अपने हाथों में आदरपूर्वक थामकर रावण
आकाशमार्ग द्वारा लंका की ओर प्रयाण करते हैं। रास्ते में उन्हें लघुशंका की
आवश्यकता होती है। वे आकाश से नीचे उतरते हैं तथा इस असमंजस में पड़ते हैं कि लिंग
को कहाँ रखें? तभी ब्राह्मण वेश में नारद मुनि वहाँ पर प्रगट होते हैं, जो रावण की
दुविधा भाँप जाते हैं। रावण लिंग उनके हाथों में यह कहकर पकड़ाकर जाते हैं कि वे
अभी निवृत्त हो कर आ रहे हैं। रावण लघु-शंका से निवृत्त हो ही नहीं पाता! संभवत: वह
प्रभु की लीला थी। काफ़ी देर तक प्रतीक्षा करने के उपरांत नारद जी लिंग धरती पर
रखकर चले जाते हैं। तब रावण के खूब प्रयत्न करने पर भी लिंग उस स्थान से हिलता नहीं
है और इस प्रकार शिव द्वारा प्रदत्त लिंग की शक्ति का उपयोग करने से रावण वंचित हो
जाता है।(पृ.-२९५-२९७)
शिव से लंका माँगी
'रामावतारचरित' में उल्लिखित एक दिलचस्प
कथा-प्रसंग लंका-निर्माण के संबंध में हैं। पार्वती जी ने एक दिन अपने निवास-हेतु
भवन निर्माण की इच्छा शिव जी के सम्मुख व्यक्त की। विश्वकर्मा द्वारा शिव जी की
आज्ञा पर एक सुंदर भवन बनाया गया। भवन के लिए स्थान के चयन के बारे में
'रामावतारचरित' में एक रोचक प्रसंग मिलता है। गरुड़ एक दिन क्षुधापीड़ित होकर कश्यप
के पास गए और कुछ खाने को माँगा। कश्यप ने उसे कहा, 'जा, उस मदमस्त हाथी और ग्राह
को खा डाल जो तीन सौ कोस ऊँचे और उससे भी दुगुने लंबे हैं। वे दोनों इस समय युद्ध
कर रहे हैं।' गरुड़ वायु के वेग की तरह उड़ा और उन पर टूट पड़ा तथा अपने दोनों
पंजों में पकड़कर उन्हें आकाश-मार्ग की ओर ले गया। भूख मिटाने के लिए वह एक
विशालकाय वृक्ष पर बैठ गया। भार से इस वृक्ष की एक डाल टूटकर जब गिरने को हुई तो
गरुड़ ने उसे अपनी चोंच में उठाकर बीच समुद्र में फेंक दिया, यह सोचकर कि यदि डाल
(शाख) पृथ्वी पर गिर जाएगी तो पृथ्वी धँसकर पाताल में चली जाएगी। इस प्रकार जिस जगह
पर यह शाख (कश्मीरी लंग) समुद्र में जा गिरी, वह जगह कालांतर में - 'लंका' कहलाई।
विश्वकर्मा ने अपने अद्भुत कौशल से पूरे त्रिभुवन में इसे अंगूठी में नग के समान
बना दिया। गृह-प्रवेश के समय कई अतिथि एकत्र हुए। अपने पितामह पुलस्त्य के साथ रावण
भी आए और लंका के वैभव ने उन्हें मोहित किया। गृह-प्रवेश की पूजा के उपरांत जब शिव
ने दक्षिणास्वरूप सबसे कुछ माँगने का अनुरोध किया तो रावण ने अवसर जानकर शिव जी से
लंका ही माँग ली -
"दोपुस तअम्य तावणन लंका मे मंजमय
गछ्यम दरमस मे दिन्य, बोड दातअ छुख दय
दिचन लवअ सारिसूय कअरनस हवालह
तनय प्यठअ पानअ फेरान बालअ बालह।" (पृ.-१९६)
(तब रावण ने तुरंत कहा - मैं लंका को माँगता हूँ, यह मुझे धर्म के नाम पर मिल जानी
चाहिए क्यों कि आप ईश्वर-रूप में सबसे बड़े दाता हैं। तब शिव ने चारों ओर पानी
छिड़का और लंका को उसके हवाले कर दिया और तभी से शिव स्वयं पर्वत-पर्वत घूमने लगे।)
'जटायु-प्रसंग' भी 'रामावतारचरित' में अपनी मौलिक
उद्भावना के साथ वर्णित हुआ है। जटायु के पंख-प्रहार जब रावण के लिए असहनीय हो उठते
हैं तो वह इससे छुटकारा पाने की युक्ति पर विचार करता है। वह जटायु-वध की युक्ति
बताने के लिए सीता को विवश कर देता है। विवश होकर सीता को उसे जटायु-वध का उपाय
बताना पड़ता है -
वोनुन सीतायि वुन्य येत्अ बअ मारथ
नतअ हावुम अमिस निशि मोकल नअच वथ
अनिन सखती तमसि, सीतायि वोन हाल
अमिस जानावारस किथ पाठ्य छुस काल
दोपुस तमि रथ मथिथ दिस पल च दारिथ
यि छनि न्यंगलिथ तअ जानि नअ पत लारिथ।" (पृ.- १४६-१४७)
(तब रावण ने सीता से कहा, 'मैं तुझे अभी नहीं पर मार डालूँगा, अन्यथा इससे मुक्त
होने का कोई मार्ग बता। सीता पर उस रावण ने बहुत सख्ती की, जिससे सीता ने वह सारा
हाल (तरीक़ा) बताया, जिससे उस पक्षी का काल आ सकता था। वह बोली, 'रक्त से सने हुए
बड़े-बड़े पत्थरों को इसके ऊपर फेंक दो। उन्हें यह निगल जाएगा और इस तरह
(भारस्वरूप) तुम्हारे पीछे नहीं पड़ेगा। जब तक यह रामचंद्र जी के दर्शन कर उन्हें
मेरी ख़ैर-ख़बर नहीं सुनाएगा, तब तक यह मरेगा नहीं।)
वशिष्ठ द्वारा अमृत-वर्षा
'रामावतारचरित' में कुछ ऐसे कथा-प्रसंग भी हैं, जो
तनिक भिन्न रूप में संयोजित किए गए हैं। उदाहरण के तौर पर रावण-दरबार में अंगद के
स्थान पर हनुमान के पैर को असुर पूरा ज़ोर लगाने पर भी उठा नहीं पाते (पृ.- २१२) एक
अन्य स्थान पर रावण युद्धनीति का प्रयोग कर सुग्रीव को अलग में एक खत लिखता है और
अपने पक्ष में करना चाहता है। तर्क वह यह देता है कि क्या मालूम किसी दिन उसकी गति
भी उसके भाई (बालि) जैसी हो जाए। वह भाई के वध का प्रतिशोध लेने के लिए सुग्रीव को
उकसाता है और लंका आने की दावत देता है, जिसे सुग्रीव ठुकरा देते हैं। (पृ.-२२८)
इसी प्रकार महिंरावण/अहिरावण का राम और लक्ष्मण को उठाकर पाताल-लोक ले जाना और बाद
में हनुमान द्वारा उसे युद्ध में परास्त कर दोनों की रक्षा करना-प्रसंग भी
'रामावतारचरित' का एक रोचक प्रकरण है (पृ.-२५९, २८४)। 'रामावतारचरित' के लवकुश-कांड
में भी कुछ ऐसे कथा-प्रसंग हैं, जिनमें कवि प्रकाशराम की कतिपय मौलिक उद्भावनाओं का
परिचय मिल जाता है। लव-कुश द्वारा युद्ध में मारे गए राम-लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न
के मुकुटों को देखकर सीता का विलाप करना, सीता जी के रुदन से द्रवित होकर वशिष्ठ जी
द्वारा अमृत-वर्षा कराना और सेना सहित रामादि का पुनर्जीवित हो उठना, वशिष्ठ के
आग्रह पर सीता जी का अयोध्या जाना किंतु वहाँ राम द्वारा पुन: अग्नि-परीक्षा की
माँग करने पर उसका भूमि-प्रवेश करना आदि प्रसंग ऐसे ही हैं।
कश्मीरी विद्वान डॉ.शशिशेखर तोषखानी के अनुसार
'रामावतारचरित' की सबसे बड़ी विशेषता है, स्थानीय परिवेश की प्रधानता। अपने युग के
सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिवेश का कृति पर इतना गहन प्रभाव है कि उसका
स्थानीय तत्वों के समावेश से पूरा कश्मीरीकरण हो गया है।
ये तत्व इतनी प्रचुर मात्रा में कृति में लक्षित
होते हैं कि अनेक पात्रों के नाम भी कश्मीरी उच्चारण के अनुरूप ही बना दिए गए हैं।
जैसे जटायु यहाँ पर 'जटायन' हैं, कैकेयी 'कीकी', इंद्रजीत 'इंद्रजेठ' है और संपाति
'संपाठ' आदि। रहन-सहन, रीति-रिवाज़, वेशभूषा आदि में स्थानीय परिवेश इतना अधिक
बिंबित है कि १९ वीं शती के कश्मीर का जनजीवन साकार हो उठता है।
राम के वनगमन पर विलाप करते हुए
दशरथ कश्मीर के परिचित सौंदर्य-स्थलों और तीर्थों में राम को ढूँढ़ते हुए व्याकुल
दिखाए गए हैं।(पृ.-९२-९३), लंका के अशोक वन में कवि ने गिन-गिनकर उन तमाम फूलों को दिखलाया
है, जो कश्मीर की घाटी में अपनी रंग-छवि बिखेरते हैं।(पृ.-२००) राम का विवाह भी
कश्मीरी हिंदुओं में प्रचलित द्वार-पूजा, पुष्प-पूजा आदि रीतियों और रस्मों के
अनुसार ही होता।
'लवकुशचरित' में सीता के पृथ्वी-प्रवेश प्रसंग के
अंतर्गत कश्मीरी रामायणकार प्रकाशराम ने भक्ति विह्वल होकर 'शंकरपुर' गाँव (कवि के
मूल निवास-स्थान कुयंगाँव-काजीगुंड से लगभग पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित) में
सीता जी का पृथ्वी-प्रवेश दिखाया है। (पृ.-४५) किंवदंती है कि यहाँ के
'रामकुंड-चश्में' के पास आज भी जब यह कहा जाता है - 'सीता, देख राम जी आए हैं, तेरे
राम जी आए हैं' तो चश्मे के पानी में से बुलबुले उठते हैं। हो सकता है यह भावातिरेक
जनित एक लोक-विश्वास हो लेकिन कश्मीरी कवि प्रकाशराम ने इस लोक-विश्वास को रामकथा
के साथ आत्मीयतापूर्वक जोड़कर अपनी जननी जन्मभूमि को देवभूमि का गौरव प्रदान किया
है।
कुल मिलाकर 'रामावतारचरित' कश्मीरी भाषा-साहित्य
में उपलब्ध रामकथा-काव्य-परंपरा का एक बहुमूल्य काव्य-ग्रंथ है, जिसमें कवि ने
रामकथा को भाव-विभोर होकर गाया है। कवि की वर्णन-शैली एवं कल्पना शक्ति इतनी
प्रभावशाली एवं स्थानीय रंगत से सराबोर है कि लगता है 'रामावतारचरित' की समस्त
घटनाएँ अयोध्या, जनकपुरी, लंका आदि में न घटकर कश्मीर-मंडल में ही घट रही हैं।
'रामावतारचरित' की सबसे बड़ी विशेषता यही है और यही उसे 'विशिष्ट' बनाती हैं।
'कश्मीरियत' की अनूठी रंगत में सनी यह काव्यकृति संपूर्ण भारतीय रामकाव्य-परंपरा
में अपना विशेष स्थान रखती हैं।
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