सांस्कृतिक
विरासत का अंग अशोक स्तंभ
डॉ. सी पी त्रिवेदी
हमारी
सांस्कृतिक विरासत का ही एक अंग है, हमारा राष्ट्रीय
चिह्न, जिसे हमने सम्राट अशोक की विरासत के रूप में
प्राप्त किया है। सारनाथ में जहाँ गौतम बुद्ध ने सर्वप्रथम
अपने ज्ञान के प्रकाश से संसार को आलोकित किया था, वहाँ
सम्राट अशोक ने शिलालेख और यह चिह्न स्थापित किया था। यहीं
से इस चिह्न को राष्ट्रीय के रूप में अपनाया गया। यह चिह्न
सम्राट अशोक और महात्मा बुद्ध की शिक्षाओं की स्मृति को तो
ताजा करता ही है, वरन् इस चिह्न में हमारी असीम सांस्कृतिक
विरासत भी झलकती है।
यद्यपि यह विवरण प्राप्त नहीं है कि सम्राट अशोक के काल
में इस चिह्न का निर्माण और प्रचलन कब हुआ परंतु यह
निश्चित है कि इस चिह्न का संबंध सम्राट अशोक से है और
संभव है इस चिह्न का प्रचलन पहले से रहा हो। यह इस चिह्न
में निहित गूढ़ अर्थों से ज्ञात होता है, जो ज्ञान की
सर्वोच्च पराकाष्ठा को प्रदर्शित करते हैं।
सांकेतिक भाषा में विचारों और भावनाओं को चिह्नों या
चित्रों के माध्यम से प्रकट करने का इतिहास अति प्राचीन
है। द इसी सांकेतिकता का उपयोग सम्राट अशोक के इस चिह्न
में भी परिलक्षित होता है। सामान्य दृष्टि से इस चिह्न को
देखकर यही कहा जाएगा कि सिंह, शक्ति और गौरव के प्रतीक तथा
आधार पर स्थित अश्व, ऊर्जा एवं गति, वृषभ, कठिन परिश्रम
एवं धैर्य तथा इन दोनों के मध्य स्थित चक्र धर्म को
प्रदर्शित करता है। परंतु इस चिह्न का गूढ़ार्थ ऋग्वेद के
अध्ययन से ज्ञात होता है, जिसे संसार में मानव सभ्यता का
सबसे प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ की भाषा भी
सांकेतिक है। संक्षेप में यदि कहा जाए तो यह चिह्न सृष्टि
की निरंतरता, जीवन और उस पर एक आधारभूत परम मौलिक ऊर्जा के
नियंत्रण को प्रदर्शित करता है।
सृष्टि निर्माण और पृथ्वी पर जीवन का कुछ उद्देश्य भी है
अथवा नहीं। इस संबंध में जिज्ञासा मानव का आदि स्वभाव रहा
है। आज आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी, मनुष्य इस संबंध में
उतना ही जिज्ञासु है, जितना हजारों वर्ष पहले था जब वेद
अस्तित्व में आए। सृष्टि निर्माण संबंधी प्रश्न ऋग्वेद के
दशम मंडल में उठाए गए हैं तथा उनका युक्तियुक्त उत्तर देने
का प्रयत्न ज्ञान के अनुसार किया गया है। और अंत में अपने
ज्ञान की सीमाओं को स्वीकार करते हुए यह कहा गया है कि 'यह
सृष्टि जहाँ से उत्पन्न हुई, अथवा इसका कोई आधार है या
नहीं, यह सब कुछ वही जानता है जो व्योम में सर्वत्र
व्याप्त है अथवा हो सकता है वह भी न जानता हो।
(ऋ.१०-१२९-७) अर्थात यहाँ जब स्पष्ट किया जा रहा है कि
जितना ज्ञान हमें प्राप्त है, उनके अनुसार हमने सृष्टि के
निर्माण का वर्णन किया है।
सृष्टि निर्माण प्रक्रिया का वर्णन नारदीय सूक्तों में
मिलता है। प्राचीन मत में जगत की सृष्टि एक प्राकृतिक
उत्पत्ति मानी गई हैं। सृष्टि निर्माण प्रकृति की जिन
शक्तियों के द्वारा होता है, उन्हें देव तुल्य मानकर यह
बताया गया कि समस्त देवताओं ने मिलकर जगत की उत्पत्ति की।
नारदीय सूक्तों में ज्ञान वृद्धि के साथ जगत की उत्पत्ति
को आधारभूत परम मौलिक ऊर्जा से क्रमश: विकसित बताते हुए
प्रकृति की शक्तियों को इसमें कारण और सहायक माना है। इसी
आधारभूत परम् मौलिक ऊर्जा को परम पुरूष, विश्वकर्मा,
प्रजापति तथा हिरण्यगर्भ नाम दिए गए। इसे ही उपनिषदों में
परब्रह्म या विश्वात्मा कहा गया है।
पुरूष सूक्त में आधारभूत परम मौलिक ऊर्जा को परम् पुरूष की
संज्ञा देते हुए इसे सहस्त्र शीर्षा पुरूष : (१०-९०-१)
अर्थात इसे हजारो सिर, हजारों आँखें और हजारों पाँवोंवाला
बताकर यह संकेत दिया गया है कि वह सर्वत्र उपस्थित है। इसी
श्लोक में आगे कहा गया कि वह समस्त भूत जात प्रकृति को
आच्छादित करके मनुष्य शरीर के दस अंगुलवाले स्थान अर्थात
हृदय गुहा में स्थित है। यह पुरूष ही जगत् है, जो पहले था
और भविष्य में होगा। (ऋ.१०-९०-२क)। इस पुरूष का एक चौथाई
भाग दृश्य जगत्-मृत्यु लोक के प्राणी हैं और उसका तीन
चौथाई भाग अदृश्य स्वर्गवासी अमरों का लोक हैं (१०-९०-३
स)। अर्थात जो सृष्टि हमें दिखाई दे रही है, वह उसका
चतुर्थांश है, और तीन चतुर्थांश भाग अदृश्य जगत का भाग
होकर समस्त भूत जात प्रकृति को घेरे हुए हैं। इसी परम
पुरूष से ब्रह्माण्ड आदि की उत्पत्ति बताते हुए यह
प्रतिपादित किया गया कि प्रकृति की दिव्य शक्तियाँ, पुरूष
द्वारा प्रदत्त जगत्-रचना सामग्री द्वारा सृष्टि यज्ञ को
विस्तारित करती हैं। अर्थात सृष्टि में जो भी निरंतर
क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ हो रही हैं, उन्हें सृष्टि यज्ञ
द्वारा प्रतिपादित किया गया है। इस प्रकार उसे आधारभूत परम
मौलिक ऊर्जा से ब्रह्मांड और सृष्टि के विभिन्न घटकों की
उत्पत्ति उस पुरूष के विभिन्न अंगों से बताते हुए। मनुष्य
शरीर और ब्रह्मांड में समानता दिखाई गई है।
अशोक चिह्न में इसे इस प्रकार से दर्शाया गया है कि इसमें
प्रदर्शित चार शेर और सामने से दृष्टिगत शेरों के चार पैर
परम् मौलिक ऊर्जा के चार अंशों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
किसी भी दिशा से सामने देखने पर शेरों के तीन मुँह और चार
पैर ही दृष्टिगोचर होते हैं। जिससे यह तात्पर्य निकलता है
कि इस मौलिक ऊर्जा के चार अंशों में से तीन अंश ऊपर उठकर
आकाश में अवस्थित हैं, शेर के माध्यम से इस मौलिक ऊर्जा की
अभिव्यक्ति इसे सर्वशक्तिमान प्रतिपादित करती है। अशोक
चिह्न में शेरों के आधार पर स्थित पशु और चक्र, इस परम
मौलिक ऊर्जा के एक अंश का प्रतीक होकर दृश्य जगत का भाग
है। इसमें चिह्नित अश्व एवं गाय चैतन्य जगत का
प्रतिनिधित्व करने के साथ, परम मौलिक ऊर्जा तथा प्रकृति को
अभिव्यक्त करते हैं।
तस्मादृष्टा अजायन्त ये के चोभयादत:।
गावो ह जज्ञिरे तस्मात्तस्माज्जाता अजावय:।। (ऋ.१०-९०-१०)
इस ऋचा में परम मौलिक ऊर्जा से चैतन्य जगत की उत्पत्ति की
ओर संकेत किया है कि उसी से अश्व तथा ऊपर और नीचे दोनों ओर
दाँत वाले पशु उत्पन्न होते हैं। उसी से गायें उत्पन्न
होती हैं तथा बकरी और वनस्पति भी उसी से उत्पन्न होते हैं।
यहाँ अजावय: अजआवय: से तात्पर्य बकरी और वनस्पति से प्रतीत
होता है। वेद में स्थूल रूप से महत्वपूर्ण पाँच पशु माने
गए हैं, पुरूष, अश्व, गौ, अज ये प्रसिद्ध नाम हैं तथा अवि
उस पशु प्राण का नाम हैं, जो वनस्पतियों को स्वपोषी बनाता
है। कहने का तात्पर्य यह है कि अशोक चिह्न में चैतन्य जगत
को अश्व एवं गाय के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।
इसका
दूसरा महत्व एवं संकेत यह है कि वैदिक ज्ञान के अनुसार
सृष्टि को प्रकृति-पुरूषात्मक अर्थात मैथुनी सृष्टि कहा
गया है। अर्थात् प्रकृति के आधारभूत तत्व परम पुरूष (मौलिक
ऊर्जा) से संयोग कर प्रकृति की विभिन्न शक्तियों और घटकों
का निर्माण करती है और प्रकृति अस्तित्व में आती हैं। अशोक
चिह्न में इस मैथुनी स्वभाव को अभिव्यक्त करने के लिए अश्व
और गाय का उपयोग किया गया है। परम मौलिक ऊर्जा के ऊर्जावान
गति स्वरूप को अश्व के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है,
तथा चक्र के दूसरी ओर प्रकृति तथा प्रकृति की मातृवत् पोषण
शक्ति को गाय के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है। आधारभूत
मौलिक ऊर्जा और प्रकृति का संयुक्त प्रयास यह सृष्टि है।
जो भूमि चक्र के रूप में कार्य कर रही है। इस सृष्टि चक्र
को चक्र के माध्यम से मध्य में उत्कीर्ण किया गया है।
सृष्टि एक 'परिस्थितिकी तंत्र' है। इस 'परिस्थितिकी तंत्र'
पर परम् मौलिक ऊर्जा का नियंत्रण है, इस तथ्य की
अभिव्यक्ति ऋग्वेद के सृष्टि संबंधी ज्ञान से होती है।
स सूर्य: पर्यरू वरांस्यन्द्रो ववृत्याद्रथ्येव चक्रा।
अतिष्ठन्तमपस्यं न सर्ग कृष्णा तमांसि स्विष्यां जघान।
(ऋ.१०-८९-२)
अग्निरिद्रो वरूणा मित्रो अर्यमा वायु: पूषा सरस्वती
सजोषस:।
आदित्या विष्णुर्मरूत: स्वर्बृहत्सोमो रूद्रो
अदितिर्ब्रह्मणस्पति:।।(ऋ.१०-६५-१)
भावार्थ - अग्न्यादव आदित्याद्यो बृहद्दहती स्वर्द्योश्च
सोमादय एते देवा: सजोषस: संहत्य।।
अग्नि (अग्नि), इन्द्र: (विद्युत), वरूण: (जल), मित्र:
(अन्न), अर्यमा (सूर्य), वायु:(वायु) |