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साहित्यिक निबंध

कला और सौंदर्य
- डॉ. संजीता वर्मा

कला ही जीवन है। कला का ज्ञान, मानव के सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक है, यह मनुष्य की मानसिक शक्तियों का विकास करके उसे पशुत्व से उपर उठाता है। भर्तृहरि का लिखा हुआ यह प्रसिद्ध श्लोक मानव जीवन में कला के महत्व पर प्रकाश डालता है--
साहित्य संगीत कला विहीन:
साक्षात् पशु: पुच्छ विषाण हीन:।।

जीवन में सत्य, शिव और सुंदर से साक्षात्कार कराने में इसका अमूल्य योगदान है। आत्मसंतोष एवं आनंद की अनुभूति भी इसके ज्ञानार्जन से ही होती है और इसके मंगलकारी प्रभाव से व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। मानव का विवेकशील प्राणी होना यह प्रमाणित करता है कि वह सृष्टि की श्रेष्ठतम कलाकृति है। अपने जन्मकाल से ही मानव, जीवन की दो भिन्न प्रकार की विचारधाराओं पर चिंतन करता आया है। एक विचार का सीधा संबंध जीवन के स्थूल पक्ष से है तो दूसरे का सीधा संबंध जीवन के सूक्ष्म पक्ष से है। यह सच है कि ये दोनों विचार ही मानव जीवन के कर्मक्षेत्र के प्रेरणा स्रोत बने। जहाँ एक ओर आदिकाल से ही मानव जीवन-निर्वाह के लिए स्थूल आवश्यकताओं की ओर प्रयत्नरत रहा वहीं दूसरी ओर प्रकृति में व्याप्त सौंदर्य से अभिभूत होकर उसे और अधिक सुंदर बनाने के लिए प्रयास भी करता रहा। उसके प्रयास को ही उस युग की कला कहा जा सकता है।

प्राचीन काल के ग्रंथों में कला विषयक चर्चाएं और प्राप्त कला-सामग्री से यह साबित होता है कि मानव जीवन में सदा ही कला की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आदिम काल से ही मनुष्य हथियारों के गठन में निरंतर सौंदर्य का विकास करता आया है, उपयोग में आनेवाले मिट्टी के बर्तनों पर चित्रकारी और मिट्टी से पुती दीवारों पर तोता-मैना बनाता आया है। मानसिक तृप्ति और अपूर्व आनंद के लिए मानव अपने मन में अनेक कल्पनाओं का संसार रचता रहता है, जिसे बाद में फिर मूर्त रूप में ढाल लेता है।

सौंदर्य के प्रति आकर्षित होकर अपनी भावना को अभिव्यक्त करना ही कला है। अगर यह कहा जाए कि मानव जीवन की चिरसंगिनी कला है तो अत्युक्ति नहीं होगी, क्योंकि यह मानव जीवन के साथ अटूट रूप में बँधी हुई है। मनुष्य का तरीके से उठना-बैठना, चलना-बोलना, खाना-पहनना, सजना-सँवरना आदि भी तो एक प्रकार की कला ही है। अगर ध्यान देकर देखा जाए तो सुधर या सलीके से किया गया हर काम मानव को आकर्षित करता है। उस में एक प्रकार की सुंदरता होती है। लेकिन जब वही काम फूहड़ तरीके से किया जाता है तो वह मन को आकर्षित नहीं करता।

कला अपने अनेक सुंदर रूपों में मानव जीवन के रोम-रोम में बसी हुई है। कहीं वह प्रकृति की प्रचंड शक्तियों का प्रतीक बनकर मानव जीवन को सहारा देती है और चित्रकला के रूप में उसके द्वारा रची जाती है तो कहीं अपनी रमणीयता और करूणा से उसे भाव-विभोर कर हृदय में कविता की धारा बहा देती है और कहीं हवा के मंद-मंद झोकों की आवाज और झील-झरनों की झर-झर उसके दिल से कोयल की कूक बन झरने लगती है। इस तरह जीवन के साथ कलाकृति और उसके सौंदर्य का गहरा तालमेल है। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती।

वैसे तो अपने सौंदर्यपूर्ण तत्व के कारण मनुष्य का प्रत्येक क्रियाकल्प कला कहलाता है, किंतु वास्तविक कला का जन्म तब हुआ जब मानव समाज के वर्ग समुदाय ने विभिन्न भावावेगों से प्रभावित होकर अपने अनुभवों को कलात्मक रूप में अभिव्यक्त किया। काव्य, संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला आदि इसी के अभिव्यक्त रूप हैं।

ऐतरेय ब्राह्मण में कलाकृति के लिए दो बातों को आवश्यक बताया गया है। वह है कौशल और छंद अर्थात लय। इस तरह किसी भी चीज की कौशल युक्त तरीके से की गई भावपूर्ण छंदमय अभिव्यक्ति ही कला है।

प्राचीन कला में वही नागरिक सुसंस्कृत कहलाता था जिसे कलाओं का भी ज्ञान होता था। एक प्राचीन बौद्ध ग्रंथ में राजकुमार सिद्धार्थ और यशोधरा के विवाह के बारे में एक रोचक कथा है - राजकुमार सिद्धार्थ अनेक सुंदरी कन्याओं में से जब यशोधरा को पसंद करते हैं तो राजा शुद्धोधन यशोधरा के पिता दंडपाणि, जो एक सामान्य नागरिक थे, के पास अपने पुत्र का विवाह प्रस्ताव लेकर जाते हैं। इस प्रस्ताव से यशोधरा के पिता दंडपाणि खुश तो होते हैं, लेकिन वे कहते हैं कि अपनी कुल मर्यादा के अनुसार मैं अपनी कन्या का विवाह अशिल्पज्ञ राजकुमार के साथ करने में असमर्थ हूँ। और तब राजकुमार सिद्धार्थ को नवासी प्रतियोगिता जीतकर सुसंस्कृत और शिल्पज्ञ होने का प्रमाण देना पड़ा था।

इस दृष्टांत से यह पता चलता है कि प्राचीन समाज में कला का कितना ऊँचा स्थान था। यह अपने सौंदर्य का प्रभाव सीधे दर्शकों के हृदय पर डालती है। अपने इसी गुण के कारण प्राचीन काल से ही कला धर्म और विचारों के आदान-प्रदान के लिए एक सशक्त माध्यम बनी हुई है। विभिन्न धर्मों के प्रचार-प्रसार के लिए मिथकों आख्यानों, देवी-देवताओं, बिंबों, प्रतीकों आदि के रूप में चित्रकला, मूर्तिकला और स्थापत्य कला का प्रयोग किया गया है।

भारतीय इतिहास में गुप्त सम्राटों के राज्यकाल को स्वर्ण युग कहा जाता है। वह इसलिए कि उस युग में भारत की राजनीतिक प्रभुता के साथ-साथ साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला और वास्तुकला की समाज में पुन: अनुपम प्रतिष्ठा हुई। क्योंकि गुप्त युग से पहले की जो प्राचीन भारतीय संपदा विदेशियों के आक्रमण से नष्ट हो गई थी, वह गुप्त सम्राटों के संरक्षण में पुन: पनपी।

आज भी हमारे देश की नारियाँ अपने व्रत-संस्कारों और जीवन के मंगलकारी अवसरों पर नर-नारी और पशु-पक्षी के चित्र अपनी भावना और क्षमता के अनुसार बनाती है। इसी सिलसिले में कला-संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान का अत्यंत ही उर्वरभूमि मिथिला की कला को लिया जा सकता है। यहाँ कला के विविध पक्षों को धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन के क्रियाकल्पों से प्रत्यक्ष रूप में जोड़कर उसे जीवंतता दी गई है। इसलिए मैथिल नारी ललितकला की सभी विधाओं में जन्मजात सिद्धहस्त होती है। मैथिली इतिहासकार डॉ. उपेंद्र ठाकुर ने मिथिला चित्रकला में नारी वर्ग की सिद्धहस्तता को देखकर ही तो कहा है - "मिथिला की महिलाएँ जन्मजात पिकासो होती है।" यहाँ तक की समीक्षकों ने इसे जीवित चित्रकला की संज्ञा भी दी है।

अंतर्राष्ट्रीय जगत में नेपाल की पहचान कायम करने में यहाँ की मिथिला कलाकृतियों का प्रमुख हाथ है। आजकल इसने व्यवसाय का रूप ले लिया है। व्यावसायिक चित्र बनाने की होड़ में लोग इसकी सूक्ष्मता और प्रतीकात्मकता के मर्म को नहीं पहचान पाते हैं। जबकि सत्य तो यह है कि सामान्य रूप में मिथिलावासी की जीवनशैली को प्रतिबिंबित करने वाली इस कला में प्रचुर मात्रा में पतीक पाये जाते हैं। इस चित्रकला का प्रयोग पूजा करते वक्त जमीन पर बनाई जाने वाली अल्पना, कोहबर अर्थात केलिगृह में नव वर-वधू की भावना को जागृत कराने के उद्देश्य से प्रतीकात्मक रूप में बनाए जाने वाले चित्र, दिवारों पर अंकित देवी-देवताओं का चित्र आदि रूप में होता है।

वि. सं. २०४६ साल में क्लयर बुर्केट नामक एक अमेरिकी महिला इस कला से अत्यधिक प्रभावित हुई और उन्होंने इसे व्यावसायिक रूप देने की कोशिश की। इसके अलावा यूएनडीपी और दक्ष मैथिल महिलाओं ने भी जनकपुरधाम में जनकपुर नारी विकास केन्द्र की स्थापना कर इसके व्यावसायिक रूप को आगे बढ़ाया। आज मिथिला पेंटिग में सिद्धहस्त लोग शोहरत के साथ-साथ यथेष्ट मात्रा में धनार्जन भी कर रहे हैं। अत: कला की सौंदर्यानुभूति हमें सिर्फ मानसिक तृप्ति देकर आनंदित ही नहीं करती बल्कि आर्थिक संबल भी देती है। भौतिकतावादी मार्क्स ने भी जीवन के इस सौंदर्य से भरे कलात्मक पहलू की अवहेलना नहीं की वरन् इसे जीवन का अविभाज्य हिस्सा माना है।

कोई भी कलाकृति चाहे वह चित्र हो या काव्य, अभिनय, संगीत, नृत्य आदि; वह अपने सौंदर्य से हमारे अंतर्मन पर ऐसा प्रभाव डालता है कि उससे शारीरिक प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न होती हैं जिससे वह हमें पहली ही नज़र में आत्मविभोर कर परमसुख और संतोष प्रदान करता है। महान दार्शनिक अरस्तु ने भी कला के इस गुण को स्वीकार कर नाटकों के संदर्भ में कहा है कि नाटक का मुख्य कार्य तो हमारी भावनाओं का शुद्धिकरण है अर्थात् आत्मा की शुद्धि। सौंदर्य का सामान्य अर्थ बाह्य सौंदर्य या रूप सौंदर्य हो सकता है, पर इसका वास्तविक अर्थ आत्मिक सौंदर्य ही है। ग्रीक लोगों का भी विश्वास है कि सौंदर्य ही नैतिक भलाई है और यह मानव के आध्यात्मिक कल्याणकारी आचरण में निहित है। इसी तरह महान कवि कालिदास भी सौंदर्य का अर्थ जीवन में सदाचार का अभ्युदय करना मानते हैं।

इस तरह हम कह सकते हैं कि बिना सौंदर्य की कलाकृति भी कल्पना करना निरर्थक है। क्योंकि जिस वस्तु में सौंदर्य नहीं है वह कालकृति कहलाने लायक नहीं हैं। सौंदर्य और कलाकृति एक दूसरे के पूरक हैं। अत: सौंदर्य है वहीं कला है और जहाँ कला है वहीं सौंदर्य हैं।

 
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