साहित्य का भूगोल बहुत
विशाल है। इसे न तो किसी सीमा में बाँधना उचित कहा
जाएगा और न ही कालखंड में समेटना, फिर भी बीते एक साल
में हिंदी साहित्य ने कहाँ तक अपनी विकास यात्रा तय की
है, कमोबेश उस पर दृष्टिपात तो किया ही जा सकता है।
बीते साल हिंदी साहित्य की सभी विधाओं में नए-नए
प्रयोग किए गए और लेखकों कवियों ने बढ़-चढ़कर अपनी कलम
का जौहर दिखाया है। साहित्य की सभी विधाओं पर काम हुआ
है पर ख़ास तौर से बीता साल कहानियों के लिए जाना
जाएगा।
जाने-माने कथाकार उदय प्रकाश की कहानी 'दिल्ली की
दीवार' व हंस में प्रकाशित 'पीली छतरी वाली लड़की' काफ़ी चर्चा में रही। कथाकार
दूधनाथ सिंह की कल्पना 'निष्कासन' भी इसी दायरे में आती है। इसके अलावा कृष्णा
अग्निहोत्री की 'मैं अपराधी हूँ', उर्मिला वोहरा की 'शादी से पहले', किशन पटनायक की
'विकल्प नहीं है दुनिया' तथा मंजूर एहतेशाम की 'तमाशा' और अन्य कहानियाँ ख़ासी
चर्चा में रहीं। यद्यपि अशोक शुक्ल का पहला कहानी संग्रह 'आगमन' भले ही पुराना हो
पर नया ही लगता है। इस संग्रह की कहानी 'आतंक बाज़ार' अपनी पूरी भयावहता प्रदर्शित
करती है। कमलेश्वर, मालती जोशी, राजेंद्र दानी, दीपक शर्मा, अवधेश प्रीत, नासिरा
शर्मा, मिथिलेश्वर, संजय और सतीश जायसवाल की कहानियाँ विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में
चर्चित रहीं।
नए साहित्यकारों में इधर एक बात उभरती दिख रही है
- वह पत्रकारों जैसी खोजी प्रवृत्ति। खोजी प्रवृत्ति बुरी नहीं हैं पर खोज के बहाने
किसी की निजी ज़िंदगी पर कीचड़ उछालने को कोई अच्छा कैसे कहेगा। अब कथाकार यह मानकर
चलने लगे हैं कि पात्र अगर तलाशने ही हैं तो अपनों के बीच क्यों न तलाशें। कवि
उपेंद्र कुमार की कहानी 'झूठ की मूठ' को लें तो पातें हैं कि उनमें जादुई
यथार्थवादी कहानीकार की झलक है। मृदुला गर्ग का कहानी संग्रह 'मेरे देश की मिट्टी
अहा' ख़ासी चर्चा में रही। वैसे इस संग्रह की कहानियाँ बौद्धिकता से भरपूर हैं।
चर्चित कथाकार धीरेंद्र अस्थाना की लंबी कहानी
'नींद के बाहर' खूब पढ़ी गई। धीरेंद्र ने ग्लोबलाइज़ेशन के मौजूदा दौर में बढ़ी
बेरोज़गारी और इससे जुड़ते युवा वर्ग की पीड़ा का चित्रण जिस मार्मिकता से किया है
कि उससे कथाकार की संवेदना की गहरी झलक दिखाई पड़ती है। इसके अलावा जयनंदन के कहानी
संग्रह 'एक अकेला गान्ही जी', शरद चंद्रा के 'तो क्या' अमृता प्रीतम के 'अक्षरों की
रासलीला' और आलोक भट्टाचार्य का 'आंधी के आसपास' जैसे संग्रहों में छपी कहानियाँ
चर्चा में रहीं।
हालाँकि कमलाकांत त्रिपाठी उपन्यासकार के रूप में
जाने जाते हैं पर उनका ताज़ा कहानी संग्रह 'अंतराल' में हिंदी कहानियों का अलग स्वर
सुनाई पड़ता है। 'अंतराल' शीर्षक से पहली कहानी है। इसमें शहरी हो चुके कथानायक का
अपने मामा के गाँव जाना और स्थितियों में आई गिरावट के साथ तब्दीली महसूस करना ही
'अंतराल' का मुख्य विषय है।
उपन्यासों को लें तो बीते साल उपन्यास भी कम नहीं
प्रकाशित हुए। गीतांजलिश्री का उपन्यास 'तिरोहित' काफ़ी चर्चा में रहा। इस उपन्यास
में नारीवादी हिंसा का चित्रण है। साहित्य अकादमी सम्मान से विभूषित अलका सरावगी का
उपन्यास 'शेष कादंबरी' और 'कलिकथा वाया बाईपास' साल भर चर्चा में रहे। विभूति
नारायण राय का उपन्यास 'तबादला' उन दो वर्गों के द्वंद्व को बेनकाब करता है जो किसी
अधिकारी का तबादला कराने और रुकवाने में लगे रहते हैं।
मनोहर श्याम जोशी का 'क्याप' भी अच्छे उपन्यासों
की श्रेणी में रहा। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास 'झूला नट', प्रभा खेतान के 'पीली
आँधी', जगदीश चंद्र के 'ज़मीन अपनी तो थी', श्रीलाल शुक्ल के 'राग विराग', द्रोणवीर
कोहली के 'नानी', भीमसेन त्यागी के 'वर्जित फल' और मृणाल पांडे के 'हमका दियो
परदेस' ने साहित्य प्रेमियों के लिए अच्छी सामग्री प्रस्तुत की।
संस्मरण और आत्मकथा के प्रति ज़्यादातर लोगों का
नज़रिया बहुत ईमानदार नहीं माना जाता है। अपनी बात लिखने के बहाने दूसरों पर
छींटाकशीं करने का सिलसिला इधर कुछ ज़्यादा ही गति पकड़ रहा है। हालाँकि साफ़-सुथरी
किताबों में प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की 'अमेरिका यात्रा' और छत्तीसगढ़ के
मुख्यमंत्री अजीत जोगी की 'सदी के इस मोड़ पर' उल्लेखनीय रहीं। राजेंद्र यादव का
आत्मकथ्य 'मुड़ मुड़ के देखता हूँ' काफ़ी चर्चा में रहा।
संस्मरणों के अलावा अन्य साहित्यिक विधाओं पर भी
काम हुआ है। देवेंद्र चौबे की किताब 'समकालीन हिंदी का समाज शास्त्र', वीर भारत
तलवार की किताब 'हिंदू नव जागरण की विचारधारा', निर्मल वर्मा का निबंध संग्रह 'आदि,
अंत और आरंभ', रवीन्द्र नाथ त्यागी का व्यंग्य संग्रह 'कबूतर, कौवे और तोते' आदि
ऐसी किताबें हैं जिन पर साहित्यकारों के बीच चर्चा हुई है।
अन्य महत्वपूर्ण प्रकाशनों में विष्णु प्रभाकर की
'राष्ट्रीय एकता और हिंदी' इस साल की महत्वपूर्ण पुस्तक रही। महात्मा गांधी
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने समकालीन हिंदी कविता पर एक सीडी तैयार की
तथा प्रमुख हिंदी लेखकों की एक चित्रावली भी प्रकाशित की। उनके द्वारा प्रकाशित
सुमित्रानंदन पंत की कविताओं का संचयन और निराला की कविता
'राम की शक्तिपूजा' पर टीका भी जारी की गई।
कविताओं के भी कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं जिनमें
से अधिकांश संग्रहों में समसामयिक द्वंद्व को उभारती कविताएँ ही दिखती हैं। कवि
पंकज सिंह का संग्रह 'पवन पानी', विष्णु नागर का 'कुछ चीज़ें कभी खोई नहीं', संजय
कुंदन का 'काग़ज़ के प्रदेश में' आदि न केवल पढ़कर आलमारी में सजा दिए गए हैं बल्कि
उन पर बाकायदा चर्चा हुई है। कवि केशरी नाथ त्रिपाठी के दो कविता संग्रह 'मनोनुकृति'
और 'आयुपंख' ख़ासी चर्चा में रहे। अजित कुमार, विनोद कुमार शुक्ल, नरेश सक्सेना,
विष्णु नागर, पंकज सिंह, सुल्तान अहमद, संजय कुंदन, सुंदरचंद ठाकुर और सविता सिंह
के काव्यसंग्रह भी इस साल प्रकाशित हुए साथ ही चर्चित कवि प्रयाग शुक्ल ने 'कविता
नदी' का संपादन भी इसी साल किया।
साहित्य की दुनिया में एक और क्रांति देखने को
मिली है वह है इंटरनेट पर कविताओं की पत्रिका की। यह क्रांति की है दुबई में
पूर्णिमा वर्मन ने। उन्होंने न केवल कविताओं की इंटरनेट पत्रिका 'अनुभूति' लांच की
है वरन साहित्यिक विषयों की एक और इंटरनेट पत्रिका 'अभिव्यक्ति' के ज़रिए दुनिया भर
में फैले हिंदी साहित्य प्रेमियों को इंटरनेट पर हिंदी साहित्य सुलभ कराया है।
इस वर्ष साहित्यिक पत्रिकाओं और लघु पत्रिकाओं ने
भी अपनी छाप छोड़ी हैं। तद्भव, कथादेश, हंस, वागर्थ, वर्तमान साहित्य आदि ने अपने
अलग-अलग अंकों में ऐसी सामग्री प्रकाशित की है जो कहीं न कहीं साहित्यकारों और
पाठकों को मथती रही है। इनमें से तद्भव, हंस और वर्तमान साहित्य ने अपनी उपस्थिति
विश्वजाल पर भी दर्ज की, जो हिंदी साहित्य को विश्वव्यापी बनाने की दिशा में एक
महत्वपूर्ण कदम है।
हिंदुस्तान के बाहर जिन देशों में हिंदी साहित्य
पर लेखन चल रहा है उनमें यू.के., नार्वे और त्रिनिडाड के नाम महत्वपूर्ण हैं।
यू.के. हिंदी लेखकों की कहानियों का एक संकलन 'कथा लंदन' तथा त्रिनिडाड से प्रकाशित
प्रेम जन्मेजय का 'जहाज़ी चालीसा' प्रवासी भारतीयों की भावनाओं और प्रतिभा को
व्यक्त करने वाली महत्वपूर्ण पुस्तकें रहीं।
16 जनवरी 2002 |