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मिथक : अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम
-दिविक रमेश
मिथ और मिथक : शब्द और संकल्पना
अंग्रेजी के शब्द मिथ का हिन्दी रूप मिथक है और इस शब्द
का प्रयोग आधुनिक काल में हुआ। यह शब्द हिन्दी जगत को
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी से मिला। ध्यान देने योग्य
बात यह है कि मिथ और मिथक अपनी अर्थगत संकल्पनाओं में
समान नहीं हैं। मिथ प्राय: तर्क के विपरीत कोरा
कल्पनाधर्मी अधिक माना जाता रहा है जबकि मिथक अलौकिकता
का पुट रखते हुए भी लोकानुभूति का वाहक होता है। मिथ के
कल्पनाधर्मी अर्थ को मानने वाले वेदों और पुराणों को
इतिहास से परे कल्पना का चमत्कार मानते रहे हैं। इधर यह
धारणा बदली है। इतिहास और मिथ या पुराणकथाओं के बीच की
खाई संकल्पना के धरातल पर बहुत हद तक पट चुकी है।
मिथ शब्द यूनानी मुथॉस से आया जिसका अर्थ है - मौखिक
कथा। अरस्तू के यहां मिथ शब्द का प्रयोग कथाबन्ध या
गल्पकथा के रूप में मिलता है। मिथक को भारतीय संदर्भ में
आदिम युग के वास्तविक विश्वासों की अभिव्यक्ति माना गया
है जो आख्यानपरक भी है और प्रतीकवत भी। यह जानना दिलचस्प
होगा कि राम कथा की एक व्याख्या सीता को जीव, हनुमान को
गुरू, लंका को शरीर, समुद्र को संसार, राम को ब्रह्म और
रावण को देह स्थित विकराल विकार मानते हुए भी की जाती
है। इसी प्रकार कृष्ण की रासलीला की भी योगपरक और
आध्यात्मिक व्याख्याएं हुई हैं जिनकी तहत गोपियां अनेक
नाड़ियां, राधा कुंडलिनी, वृंदावन मस्तिष्क का सहस्रदल
कमल है। खैर, यहां एक बात उल्लेखनीय है कि मिथक की
उपादेयता को प्राय: सबने स्वीकार कर लिया है। इसका एक
कारण यह है कि मिथकों में प्र्राय: मूलभूत समस्याओं को
उठाते हुए उनके समाधान तक पहंुचा गया है। किसी भी
संस्कृति की पहचान के लिए इनकी उपादेयता असंदिग्ध है।
साथ ही भाषा की पुन:सर्जना के भी ये उपादान सिद्ध हुए
हैं।
वस्तुत: मिथ के स्वरूप आदि को लेकर अनेक विचार और अनेक
मत मिलते हैं। दार्शनिक, तत्वशास्त्री, समाजशास्त्री,
मनोविश्लेषक, इतिहासकार, कलाकार आदि सबने मिथकों को अपने
अपने कोण से देखा है। अत: किसी एक ही मत को मान लेना
बहुत ठीक न होगा। फिर भी प्रतिनिधि मत के रूप में कहा जा
सकता है कि मिथ या कहें मिथक कोरी कल्पना या गप्पबाजी न
होकर, कल्पना के खोल में अपने समय का एक सामाजिक यथार्थ
होता है। मिथकीय कल्पना के संबंध में कहा गया है कि
मिथकों का कथ्य आज कल्पना का विषय बन चुका है। यह कल्पना
सामान्य कवि कल्पना से भिन्न होती है। असल में
सत्रहवीं-अठाहरवीं शताब्दियों में कपोल-कल्पना समझा जाने
वाला मिथ मनोविज्ञान और विज्ञान के नवोन्मेष के साथ अपना
अर्थ बदलने लगा।
कॉलरिज, एमर्सन, नीत्शे आदि ने इसे नए रूप में ही ग्रहण
किया। इसे कविता की तर्ज पर एक खास प्रकार का सत्य ही
माना गया। ऐतिहासिक सत्य का पूरक। इसलिए यदि कोई रचनाकार
मिथक को लेकर अपने समय की रचना करना चाहता है तो उसे
पहले मिथक के गहरे में निहित सामाजिक यथार्थ को पकड़ने
का प्रयत्न करना चाहिए। अन्यथा या तोे रचनाकार मिथक के
अभिधानात्मक रूप में ही उलझ कर रह जाएगा अर्थात
थोड़े-बहुत संशोधन करता हुआ मात्र कथाधर्मी रह जाएगा
अथवा उसके अपने सौन्दर्य को नष्ट-भ्रष्ट करके मानेगा।
मिथक की उपयोगिता को लेकर अज्ञेय जिस खतरे की ओर संकेत
करते हैं उससे मिथक के प्रयोग के प्रति नए कवियों की
दृष्टि का पता चलता है - ' मिथक की उपयोगिता केवल इस बात
में मानना कि वह पुरातन और अधुनातम में एक सतत
समानान्तरता दिखाते चलने का साधन हैं, या कि समकालीन
इतिहास की अराजकता-व्यर्थता को नियंत्रित - अनुशासित रूप
में प्रस्तुत करने में सहायक होता है, मिथक को समझना हो
न हो, अधुनातम इतिहास के साथ गलत नाता जोड़ना है।अगर
समकालीन इतिहास अराजक है और हम मिथक के द्वारा उसमें
सामंजस्य या व्यवस्था का आभास उत्पन्न कर भी लेते हैं तो
अपने को धोखा देने के अलावा क्या करते हैं।'
अत: आगे का रचनाकार मिथक आधारित अपनी रचना में मिथक की
केवल नई व्याख्या करने तक सीमित नहीं रहता और न ही उससे
जुड़ी रूढ़ियों से उसे मुक्त कराने मात्र तक। बल्कि
समर्थ रचनाकार मिथक में निहित देशकालातीत राग तत्व
अर्थात सत्य तक पहुंचकर अपने समय के सत्य को अभिव्यक्त
करता है। इस अर्थ में वह मिथक में निहित सार्वभौमिक एवं
सार्वकालिक तत्व का संधान कर, अपने समय के सत्य को वे ही
विशेषताएं प्रदान करता हुआ उसमें आत्मसात करता है।
क्यों कि हिन्दी में मिथक आधुनिक युग की देन हैं इसलिए यह
रेखांकित करना उचित ही होगा कि हिन्दी साहित्य के आधुनिक
काल के लगभग प्रारम्भ से ही मिथकों को महत्व देते हुए
रचनाकारों ने मिथक आधारित रचनाओं का नयी दृष्टि से सृजन
प्रारंभ कर दिया था। इस प्रसंग के विस्तार में न जाते
हुए मैथिलीशरण गुप्त रचित साकेत, छायावादी कवि निराला
रचित राम की शक्तिपूजा और प्रसाद की कामायनी का विशेष
स्मरण कराया जा सकता है। नये कवियों के यहां भी न केवल
मिथक आधारित अनेक महत्वपूर्ण रचनाएं मिलती हैं बल्कि
मिथक संबंधी उनके विचार भी ध्यान देने योग्य हैं। यहां
उनका थोड़ा जायजा लेना मुनासिब होगा।
नये कवि और मिथक
पुराने या पारम्पारिक प्रतीकों के ग्रहण-त्याग को लेकर
नये कवियों में थोड़ा बहुत दृष्टि भेद मिलता है। कुछ कवि
हमारे जातीय इतिहास के प्रणेता परम्परागत प्रतीकों को न
केवल ललक के साथ स्वीकार करते हैं बल्कि उनका प्रयोग न
करने वालें कवियों की आलोचना भी करते हैं। अपने
सांस्कृतिक प्रतीकों को छोड़कर चलने वाले प्रगतिशील
भावधारा के कवियों पर टिप्पणी करते हुए नागार्जुन ने
लिखा है - 'ये लोग अपने प्रतीकों से नफरत करने लगे हैं
और बात करते हैं जातीय इतिहास की। मैंने तो काली,
दुर्गा, त्रिमूर्ति, पंचमूर्ति जैसे प्रतीकों का
इस्तेमाल हमेशा किया है।' नयी कविता के अनेक कवियों ने
पौराणिक आख्यानों को अपने काव्य में समाहित किया है।
यहां पुरा कथाएं अथवा मिथ प्रतीकात्मक उ ेश्यों के साथ
प्रयुक्त हुए हैं। मिथ और प्रतीक को अलग-अलग भी माना जा
सकता है य पि दोनों ही जातीय चेतना से उत्पन्न होते हैं।
वस्तुत: पश्चिमी साहित्य में प्रतीकवादी विचारों के
फलस्वरूप अभिव्यक्ति के लिए आदिम मानव द्वारा प्रयुक्त
प्रतीकों विशेषकर मिथक और दंत कथाओं की ओर खास ध्यान
दिया जाने लगा था। अज्ञेय मिथक की स्थिति प्रतीक के मूल
में ही मानते हैं। डॉक्टर विजयेन्द्र स्नातक के अनुसार
वैदिक मंत्रों में मूलत: प्रतीक ही गृहीत थे, किंतु जब
इनका विकास कथा के रूप में हुआ तो तो वे मिथक की कोटि
में आ गए। मिथक के उपयोग की पारम्परिक दृष्टि सेे नए कवि
की दृष्टि कुछ भिन्न है। नए कवि का उ ेश्य पौराणिक कथा
को थोड़ा बहुत नवीन कलेवर देते हुए उसका वर्णन करना
मात्र नहीं होता बल्कि उसका मूल उ ेश्य अपने
युग-संदर्भों और युग-बोध को उसके माध्यम से अभिव्यक्त
करना होता है। डॉ. रघुवंश ने 'अंधायुग' पर विचार करते
हुए लिखा है - 'आधुनिक कवियों ने इतिहास और पुराण के
अनेक चरित्रों और घटनाओं को अभिप्राय और संदर्भ में
प्रयुक्त किया है और उनके माध्यम से युग-जीवन के विघटन,
कुंठाओं, विश्रृंखलताओं और विस्थापनाओं को व्यंजित
किया है।'
मुक्तिबोध ने एक अन्य तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है। उनके
अनुसार कृति में केवल ढांचे या चौखटे के रूपमें कथा का
ग्रहण उचित नहीं होता। रचनाकार के मन में कथा
कल्पना-स्वप्न के रूप में उतरती है और तब वह उसका माध्यम
के रूप में इस्तेमाल करता है। वस्तुत: 'कोई भी कथा अपने
कथा-रूप में - लेखक को आकर्षक तब प्रतीत होती है जब वह
एक कल्पना-स्वप्न बनकर उसके मन-चक्षुओं के सामने तैर
उठती है - एक ऐसा कल्पना-स्वप्न जिसमें उसकी
आत्मवृत्तियों को तृप्ति और संतोष प्राप्त होता है।'
बहरहाल, नया कवि पुरा-कथा को, आधुनिक जीवन के सत्य को
प्रखर एवं गहरी व्यंजना देने का माध्यम मानता है यानी
उसकी दृष्टि में पुरा-कथा का महत्व माध्यम के रूप में ही
अधिक है। देखा जाए तो पश्चिमी विदुषी श्रीमती सृजन के
लेंगर ने भी मिथक को धर्म के साथ जोड़ते हुए उसे एक
माध्यम के रूप में स्वीकार किया है।
मिथ को माध्यम के रूप में इस्तेमाल करने की, कवि की
दृष्टि भले ही नवीन है किन्तु लगभग इसी दृष्टि से
'काव्य-नाटक' से भिन्न विधाओं में मिथ का उपयोग करने
वालों में कुछ कवि नए कवियों से इतर भी हैं। निराला ने
पौराणिक गाथाओं की न केवल नई व्याख्याएं की थीं बल्कि
उन्हें उनसे जुड़ी रूढ़ियों से भी मुक्त किया था। जगदीश
गुप्त रचना में मिथक के प्रयोग पर अधिक प्रसन्न नज़र
नहीं आते क्यों कि किसी प्राचीन कथांश को नए संदर्भ का
सशक्त वाहक बनाकर उसे सफलतापूर्वक निबाह ले जाने के लिए
जिस सामर्थ्य की अपेक्षा होती है वह कम कवियों में
उपलब्ध होती हैं।' शमशेर बहादुर सिंह मिथक के प्रगतिशील
दृष्टि से हुए प्रयोग के प्रशंसक हैं।
उनके अनुसार मिथक का प्रगतिशील दृष्टि से प्रयोग करने
वाले कवियों में नागार्जुन, मुक्तिबोध आदि कवि आते हैं
जब कि मिथक का प्रतिक्रियावादी दृष्टि से प्रयोग करने
वाले कवियों में उन्होंने 'प्रमथ्युगाथा के रचनाकार
धर्मवीर भारती को माना है जिन्होंने कमजोरियों को छुपाने
के लिए मिथ को एक 'सेफटी वाल्व की तरह से इस्तेमाल किया
है। स्पष्ट है कि इन दोनों ने भी मूलत: मिथक के उचित
प्रयोग पर बल दिया है, मिथक का विरोध नहीं किया है। अत:
नए कवियों ने मिथक के महत्व को सामान्यत: स्वीकार किया
है। माना गया है कि मिथ रचना को शक्ति, गहरा और व्यापक
आधार प्रदान करता है। डॉ. रामविलास शर्मा का अनुभव है कि
कल्पना के बावजूद कवियों ने प्रत्यक्ष रूप से अपने
समकालीन मानव जीवन का चित्रण किया है। देवताओं अथवा
अवतारी पुरूषों के रूप में बहुत कुछ अनजान में अपने समाज
का चित्र प्रस्तुत कर दिया है।'
संक्षेप में कहें तो नये कवियों ने मिथक का सैद्धान्तिक
और व्यावहारिक दोनों ही रूपों में महत्व माना है।
इन्होंने मिथ के उपयोग के प्राय: चार कारण माने हैं -
-
किसी उपेक्षित, तिरस्कृत अथवा निंदित पात्र अथवा कथा
को सहानुभूति के साथ प्रस्तुत करते हुए उसमें निहित
मानवीयता को उजागर करना, शक्ति देना।
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किसी छिपे हुए महत्वपूर्ण अर्थ को साधार उद्घाटित हुए
सांस्कृतिक वैभव के साथ कलात्मक चमत्कृति की प्रतीति
कराना।
-
प्राचीन कथा-प्रसंग के सहारे अपनी संवेदना को
परिविस्तार देना और इस प्रकार वस्तुपरकता अर्जित करते
हुए नये सौन्दर्य का विधान करना।
-
आधुनिक युग की किसी जीवंत समस्या को व्यापक भूमि पर
प्रतिष्ठित करने तथा गहराई देने के निमित्त उसे मिथकीय
प्रतीकात्मकता प्रदान करना।
मिथक पर आधारित मेरी कृति (काव्य-नाटक) 'खण्ड खण्ड
अग्नि' की मूल प्रेरणा वाल्मीकि कृत रामायण का एक प्रसंग
विशेष है। युद्ध हो चुका है। लंका पर राम का आधिपत्य है।
विभीषण राजा घोषित हो चुके हैं। युद्ध-विजय और
सीता-स्वतंत्रता का समाचार देने के लिए हनुमान को अशोक
वाटिका भेजा जाता है। विभीषण सीता को राम तक लिवा लाते
हैं। क्रोधित राम पर घर में रह चुकी सीता के प्रति न
केवल उदासीनता प्रकट करते हैं बल्कि उसे स्वीकार करने से
मना कर देते हैं। उनके मुख्य तर्क है कि हरण के समय जब
सीता को रावण ने उठाया था तो अवश्य ही उसकी देह ने सीता
की देह का स्पर्श किया होगा। राम के उस देहवाद ने वैदेही
को जरूर चकित किया होगा। चकित होने की बात ही है। विवाह
से पूर्व राम ने अहल्या जैसी ऋषि-पत्नी का उद्धार किया
था जिसने वाल्मीकि-रामयण के अनुसार पति-वेष में आए
इन्द्र को पहचानकर भी न केवल उसके साथ समागम किया बल्कि
उससे संतुष्ट होकर पति के आगमन से पूर्व ही उसे चले जाने
का संकेत भी दिया- मुनिवेषं सहस्त्रक्षं विज्ञाय
रघुनन्दन।
ऐसी पत्नी को गौतम ऋषि द्वारा स्वीकार करने पर राम मौन
ही रहे। दूसरों के संदर्भ में राम के हृदय की उदारता का
प्रमाण बाली-सुग्रीव प्रसंग में भी मिलता है। बाली ने
अपने छोटे भाई सुग्रीव की पत्नी रूमा को बलपूर्वक अपने
घर में रख लिया था तथा उससे कामेच्छा की पूर्ति भी करता
था। राम ने सुग्रीव की सहायता कर रूमा को बाली के चंगुल
से छुड़ाया था तथा सुग्रीव ने परवश पर-पुरूष के घर रह
चुकी रूमा को सहर्ष स्वीकार कर लिया था जिस पर राम की
कोई विपरीत टिप्पणी नहीं हुई। कदाचित इसीलिए सीता राम की
बात पर न केवल दंग रह गई होगी बल्कि प्रश्नाकुल भी हो
उठी होगी। तब भी अपने युग की मानसिकता के बोझ तले उसने
यही कहना चाहा होगा कि यदि उसे स्वीकार न करना तय था तो
यहां लाकर अपमानित करने की अपेक्षा हनुमान से अशोक
वाटिका में ही उसकी सूचना भिजवा देते ताकि सीता वहीं
अपने को समाप्त कर लेती।
किंतु इस सारे प्रसंग का जो अत्यंत महत्वपूर्ण और
आघातपूर्ण पक्ष है वह दूसरा है जो सूक्ष्म होते हुए भी
अपने भीतर सोच की अनन्त संभावनाएं लिए हुए हैं। सीता के
मन में यह प्रश्न सहज उठता है जिसे वह राम के समक्ष रखती
है। सीता जानना चाहती हैं कि युद्ध के बाद यदि सीता को
स्वीकार ही नहीं करना था तो उसे लिए वह कष्टदायी युद्ध
ही क्यों किया गया? बातचीत या तर्क-वितर्क में राम का एक
ऐसा कथन भी था जिसमें उस समय की सीता को भी अवश्य हिला
दिया होगा। आज का व्यक्ति तो हिलेगा ही हिलेगा। कथन इस
प्रकार था -
विदितश्चास्तु भद्रं ते योषं रणपरिश्रम:।
सुतीर्ण: सुहृदां वीर्यान्न् त्वदर्थ मया कृत: ।।
युद्धकाण्ड ११५/१५
रक्षता तु मया वृत्तमपवादं च सर्वत:।
प्रख्यातस्यात्मवंशस्य न्यड्ंग च परिमार्जना ।।
युद्धकाण्ड ११६/१६
अर्थात
तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैंने जो युद्ध का परिश्रम
उठाया है तथा इन मित्रों के पराक्रम से जो इसमें विजय
पाई है, यह सब तुम्हें पाने के लिए नहीं किया गया है।
सदाचार की रक्षा, सब ओर फैले हुए अपवाद का निवारण तथा
अपने सुविख्यात वंश पर लगे कलंक का परिमार्जन करने के
लिए ही यह सब मैंने किया है।
वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड में वर्णित उक्त कथन से
जब पहले पहले मेरा सामना हुआ तो पत्नी सीता के संदर्भ
में राम के वंशवाद या कुलवाद से मैं भी हिल गया। इसी से
मैं यह कृति लिखने को प्रेरित हुआ।
योजना
उक्त प्रसंग मुझसे निरंतर टकराता रहा और अपार बेचैनी
पैदा करता रहा। अग्नि-परीक्षा या सीता-त्याग से भी
ज्यादा। मुझे लगा कि सीता पर पहला आघात तब ही हुआ होगा
जब युद्ध-विजय के बाद उसने अपने पति राम के स्थान पर
पहले हनुमान और बाद में विभीषण को पाया होगा। सीता की
मानसिकता से सोचें तो उसने सहज रूप में यही कल्पना की
होगी कि राम, जो उसके पति हैं, कैद-प्रताड़ित निर्दोष
सीता के रिहा होते ही, सबसे पहले दौड़कर उसके पास आएंगे
और उसे गले लगा लेंगे - वैसे ही जैसे कोई व्यक्ति अपने
पुत्र, पुत्री, बहन, मां आदि आत्मीय संबंध के प्रति
व्यवहार करता है। खैर कोई संतोषप्रद उत्तर नहीं मिल रहा
था। मैंने रामचरित मानस समेत राम संबंधी अनेकानेक
ग्रंथों और कृतियों में इस प्रसंग विशेष को खोजा, पर इस
प्रसंग की भयावहता के दर्शन कहीं नहीं हुए। लेकिन लगभग
दो साल तक यह प्रसंग मुझे कचोटता रहा। तब कहीं जाकर मुझे
रचना की राह मिली।
मिथक और समसामयिक यथार्थ की चुनौती
मिथ या पुरा कथा या इस प्रकार के प्रसंगों को केन्द्र
में रखकर लिखने के प्रति मैं विशेेष उत्साहित भी कभी
नहीं रहा हांलांकि कई बार ललकता जरूर रहा हूँ। मेरे
सामने समस्या यह थी कि एक ओर मैं पुरा-कथा या इतिहास-कथा
के सौन्दर्य, उसकी युगधर्मा गरिमा को भी नहीं भंग करना
चाहता था और दूसरी ओर अपने युग की, अपने समय की मानसिक
टकराहट के प्रहारों से भी नहीं बच सकता था। ऐसी स्थिति
में मैं समक्ष राम कुलबद्धता के प्रतीक रूप में उभरते
चले गए और सीता सम्बंध के उत्तरदायित्व के रूप में।
वस्तुत: आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कथन भी मेरे सामने
था जो उन्होंने साकेत में, रामायण के भिन्न भिन्न
पात्रों की परम्परा से प्रतिष्ठित स्वरूपों को विकृत न
करके उनके भीतर ही आधुनिक आन्दोलनों की भावनाओं को कौशल
से झकलाने की प्रशंसा करते हुए कहा था -
"पौराणिक या ऐतिहासिक पात्र के परम्परा से प्रतिष्ठित
स्वरूप को मनमाने ढंग पर विकृत करना हम भारी अनाड़ीपन
समझते हैं।"
चिन्तन और समाधान
चिन्तन के चलते मेरी यह धारणा बनी हुई थी कि मिथ या
पुरा-कथा आगे के रचनाकार के लिए कथ्य या उद्देश्य की
अपेक्षा शिल्प अर्थात् क्राफ्ट या अभिव्यक्त-उपादान ही
अधिक हो सकता है - बल्की वही होता है। सोचते सोचते एक
दिन मुझे खास ट्रीटमेंट हाथ लग गया। न सही व्यक्ति, न
सही लोग, सृष्टि में कुछ ओर भी तो हो सकता है जो उन
चीजों को भी अभिव्यक्त कर सकता है जिनका एक समय-स्थान
में अभिव्यक्त होना अविश्वसनीय लग सकता है। मुझे पात्र
मिले सन्नाटा, विश्वास, सूचना, उद्घोषणा, संदेह आदि। यह
मेरे लिए उपलब्धि थी और मार्ग प्रशस्ति भी। अब मुझे इन
पात्रों को छायावदी मानवीकरण के खतरे से बचाना था। मैंने
भरसक प्रयत्न किया।
रचे जाने के बाद मेरे प्रति यह बात सिद्ध हुई कि मिथक
अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हो सकता है। मुझे लगा है
कि मिथक आधुनिक जीवन के सत्य को प्रखर एवं गहरी व्यंजना
देने का महत्वपूर्ण माध्यम बन सकता है। |