उपन्यासकार प्रतापनारायण श्रीवास्तव
- संजीव शर्मा
उपन्यासकार
प्रतापनारायण श्रीवास्तव का जन्म २० सितंबर, १९०४ को उत्तर
प्रदेश के कानपुर नगर के हरवंश मोहाल मोहल्ले में हुआ था।
आपके पूर्वज नवाबी जमाने के सरकारी कर्मचारी थे। जब आप
पंद्रह वर्ष के थे तब आपकी माताजी का देहावसान हो गया था
और चौबीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते आप पिता के स्नेह
से भी वंचित हो गए थे।
आपने सन् १९२१ में मैट्रिक की
परीक्षा उत्तीर्ण करके कानपुर के क्राइस्ट चर्च कॉलेज से सन् १९२५ में बी.ए. किया
था और बाद में सन् १९२७ में लखनऊ विश्वविद्यालय से एल-एल. बी की परीक्षा दी थी।
अंग्रेजी साहित्य में रुचि होने के कारण आपने एम.ए में प्रवेश ले लिया और प्रथम
वर्ष की परीक्षा में उत्तीर्ण भी हो गए थे, किंतु इस बीच सन् १९२८ में आपको जोधपुर
रियासत में ‘न्यायाधीश’ के पद पर कार्य करने का सुअवसर मिल गया, अतः आप अंग्रेजी
में एम.ए. नहीं कर सके। बीस वर्ष तक ‘न्यायाधीश’ के पद पर कार्य करने के पश्चात्
आपने सन् १९४९ में स्वेच्छा से वह कार्य छोड़ दिया और स्थायी रूप से कानपुर मे आकर
रहने लगे थे। सन् १९४८ से १९५२ तक आप ‘कानपुर विकास बोर्ड’ में हिंदी अधिकारी भी
रहे थे। आप अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, फारसी और संस्कृत के अतिरिक्त बँगला, गुजराती,
मराठी, फ्रेंच और लेटिन भाषाओं के भी अच्छे मर्मज्ञ थे।
आपने अपने जीवन में लगभग अड़तालीस
वर्ष तक निरंतर साहित्य-साधना की थी और अपनी अद्वितीय प्रतिभा के बल पर हिंदी के
शीर्षस्थ कथाकारों में अपना एक सर्वथा विशिष्ट स्थान बना लिया था। आपने इक्कीस
उपन्यास, पाँच कहानी-संग्रह, दो एकांकी-संकलन हिंदी साहित्य को भेंट करने के
अतिरिक्त जापानी उपन्यासकार जून एचिरो टानाजाकी के उपन्यास ‘ओ सुइक थोरोसी’ का
हिंदी-अनुवाद भी प्रकाशित कराया था। इनके अतिरिक्त आपकी अनेक कहानियाँ, कविताएँ और
निबंध अप्रकाशित ही रह गए। आप ‘घोंघा छब्बे’ नाम से हास्य-व्यंग्य की रचनाएँ भी
लिखा करते थे। आपकी बहुत सी रचनाएँ ‘मनोरंजन’ (कानपुर), ‘इंदु’ (काशी), ‘मर्यादा’
(प्रयाग), ‘माधुरी’ (लखनऊ), ‘माया’ (प्रयाग), ‘प्रताप’ (कानपुर), ‘प्रभा’ (कानपुर),
‘सविता’ (कानपुर), ‘सहयोगी’ (कानपुर) और ‘मनु’ (कानपुर) के अनेक अंकों में बिखरी
पड़ी हैं। इतिहास, अध्यात्म, दर्शन, विज्ञान, ललित साहित्य और सामयिक राजनीति आपके
प्रिय विषय रहे थे।
आप स्वभाव से एकांत प्रेमी और
शांत वातावरण के उपासक थे। भीड़-भब्बड़वाली सभाओं और गोष्ठियों से आप प्रायः दूर ही
रहा करते थे। प्रचार और विज्ञापन में आपकी कोई विशेष रुचि न थी। आप पूर्णतः
भाग्यवादी थे। आपने सन् १९२४ में जब अपना पहला उपन्यास ‘विदा’ लिखना प्रारंभ किया
था तब आपके पिताजी ने उसकी पांडुलिपि को देखकर अपनी आश्वस्ति प्रकट करते हुए कहा
था- ‘अब तुम शौक से लिखो, मैं इसमें कोई रुकावट नहीं डालूँगा।’ पिताजी की स्वीकृति
मिलते ही आपको जो प्रेरणा मिली उसी का यह सुपरिणाम है कि आपने इतने सशक्त उपन्यासों
की रचना सहज भाव से कर डाली। आपके प्रथम उपन्यास ‘विदा’ के संबंध में उपन्यास
सम्राट् मुंशी प्रेमचंद ने अपने विचार इस प्रकार से प्रकट किए थे-‘ ‘विदा’ मौलिक
उपन्यास है और मेरे विचार में भाषा-सौष्ठव, चरित्र-चित्रण और भाव-व्यंजना में, जो
उपन्यास के तीन प्रधान स्तंभ हैं, प्रतापनारायणजी को अपने पहले ही प्रयास में जितनी
सफलता मिली है, वह महान् आशाओं से परिपूर्ण है।’ और वास्तव में आपने प्रेमचंदजी की
भविष्यवाणी को सार्थक कर दिया।
उनके उपन्यासों की एक विशेषता यह
भी है कि प्रायः उन सब ही के नाम आपने प्रारंभ में ‘व’ अक्षर पर रखे थे, जैसे-
‘विदा’, ‘विकास’, ‘विसर्जन’, ‘ विजय’, ‘वंदना’, ‘वंचना’, ‘विवाह विभ्राट्’,
‘वेदना’, ‘व्यावर्तन’, ‘विषमुखी’, ‘विधाता का विधान’, ‘विपथगा’, ‘विश्वास की वेदी
पर’, ‘विनाश के बादल’, ‘विजय का व्यामोह’ इत्यादि। इनके अतिरिक्त आपकी ‘दो साथी’,
‘हमारी भी कहानी है’, ‘बेकसी का मजार’, ‘नवयुग’, ‘बंधन विहीना’, ‘निकुंज’,
‘आशीर्वाद’ तथा ‘पाप की ओर’ नामक कृतियाँ भी उल्लेखनीय हैं। आपने अपनी सभी
कथा-कृतियों में समाज की अनेक विकृतियों का पर्दाफाश करके जिन मूल्यों की स्थापना
की थी, वे आपके जीवन के उदात्त आदर्श रहे थे। उच्चमध्यवर्गीय समाज के जीवन का
चित्रण करने में आप पूर्णतः सफल हुए थे। राजनीतिक और ऐतिहासिक कथानकों पर लिखकर भी
आपने अपनी विशिष्ट रचना-पद्धति का परिचय दिया था। आपकी प्रायः सभी रचनाएँ भारतीय
आदर्शवाद और पारिवारिक परंपराओं का चित्रण करने में पूर्ण सफल रही हैं। आपके कई
उपन्यासों के भारत की कई भाषाओं में अनुवाद भी हुए थे।
अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे कुछ अर्ध-विक्षिप्त से रहने लगे थे। आपके निधन के
पश्चात् कानपुर नगर की ‘महापालिका’ ने आपके निवास से आजाद नगर (नवाबगंज) की ओर जाने
वाली सड़क का नाम आपके नाम पर रखने की घोषणा की थी। आपका निधन १४ फरवरी, १९७८ को हुआ
था।
१५ सितंबर २०१५
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