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व्यक्तित्व

गुरु हरिगोबिंद सिंह जयंती के अवसर पर

अकाल तख्त के संस्थापक गुरू हरगोविंद सिंह जी
जगजीत सिंह


गुरु ग्रंथ साहिब के संकलनकर्ता और पंचम सिख गुरु श्री गुरु अर्जुन देवजी की धर्मपत्नी माता गंगाजी विवाह के पंद्रह वर्ष बाद भी संतान न होने से दिन-रात इस चिंता में घुलती रहती थीं कि परिवार के वंश-वृक्ष को कौन आगे बढ़ाएगा। एक दिन उन्होंने अपनी यही चिंता पति गुरु अर्जुन देवजी को कह सुनायी। गुरुजी ने उन्हें सलाह दी कि वे गुरु-घर के पुरातन बुजुर्ग, बाबा बुड्ढाजी के पास जाकर उनकी सेवा करें और आशीर्वाद लें तो निश्चित रूप से उनकी संतान की मनोकामना पूरी होगी।

महापुरुष विनम्र होते हैं!

गुरु अर्जुन देवजी की सलाह के मुताबिक माता गंगाजी ने कई प्रकार के व्यंजन तैयार करवाये और दस-दासियों के साथ आलीशान रथ में सवार होकर बाबा बुड्ढाजी के पास पहुँची। बाबाजी ने भोजन तो ग्रहण कर लिया, लेकिन वह प्रसन्न नहीं हुए। मायूस माता गंगाजी ने लौटकर सारी बात पति अर्जुन देवजी को सुनायी। गुरुजी ने कहा, "महापुरुष लोग आडंबर और तड़क-भड़क से नहीं, विनम्रता से प्रसन्न होते हैं।" गुरुजी के कहे मुताबिक माता गंगाजी ने अगले दिन प्रातःकाल अपने हाथों से अनाज पीसकर ठेठ घरेलू ढंग से मिस्सी रोटी और लस्सी तैयार की एवं साथ में कुछ सूखे प्याज लेकर भरी दोपहर, तपती गर्मी में अकेली नंगे पाँव चलकर बाबा बुड्ढा जी के निवास पर पुनः पहुँची। माता गंगाजी के हाथ का बना हुआ भोजन खाकर बाबा बुड्ढाजी अत्यंत प्रसन्न हुए। भोजन के दौरान एक मोटे से प्याज को मुक्का मारकर तोड़ते हुए उन्होंने माता गंगाजी को वर दिया, "आपके घर एक ऐसा पराक्रमी युगपुरुष जन्म लेगा जो मीरी और पीरी का मालिक होगा, वह योद्धा दुष्टों के सिर वैसे ही तोड़ेगा जैसे हम यह प्याज तोड़ रहे हैं।"

गंगा माता का वरदान

प्रसन्न मन से माता गंगाजी घर लौटी। बाबा बुड्ढाजी का वरदान पूरा हुआ और २१ आषाढ़ संवत १६५२ के दिन वडाली (जिला अमृतसर) में गुरु अर्जुन देवजी के घर बालक हरिगोबिंद का जन्म हुआ। आगे चलकर पिता गुरु अर्जुन देवजी के बाद वह सिख धर्म के छठे गुरु कहलाये। गुरु सुपुत्र होने के कारण गुरु हरिगोबिंद साहिब का व्यक्तित्व भी भक्ति-भावना, परोपकार, त्याग, दानशीलता और करुणा के उदात्त संस्कारगत गुणों से परिपूर्ण था।

यद्यपि बालक हरिगोबिंद का बचपन माता-पिता के लाड़-दुलार में बीता, पर इतिहास के पन्ने गवाह हैं कि बाल्यावस्था में उन्हें अपने ही ताया प्रिथी चंद और ताई करमो की ईर्ष्या से कष्ट और यातनाएँ सहनी पड़ीं। प्रिथी चंद गुरु अर्जुन देवजी का बड़ा भाई था और चतुर्थ गुरु श्री गुरु राम दासजी के बाद, जो गुरु अर्जुन देव और प्रिथी चंद के पिता भी थे, स्वयं को गुरु गद्दी का असली उत्तराधिकारी समझता था। लेकिन प्रिथी चंद की गुरु-घर विरोधी नीतियों और बुरी संगत के कारण गुरु रामदासजी ने उससे अपना नाता तोड़ लिया एवं अपने छोटे सुपुत्र अर्जुन देवजी को गुरु गद्दी सौंप दी। तब से प्रिथी चंद और उसकी पत्नी गुरु-घर और विशेषकर गुरु अर्जुन देवजी के परिवार के कट्टर बैरी बन बैठे और अपने दुष्ट स्वभाव के मुताबिक, हमेशा गुरुजी को नीचा दिखाने का षड्यंत्र रचते रहे।

दही में जहर दिया गया

प्रिथी चंद खुद तो अपनी कुटिल हरकतों के कारण गुरु गद्दी प्राप्त नहीं कर सका, लेकिन पंद्रह वर्ष गुजर जाने पर भी छोटे भाई अर्जुन देव के यहाँ कोई संतान न होती देखकर वह खुश था कि अगर मुझे न सही तो मेरे लड़के मेहरबान को गुरु अर्जुन देवजी के बाद गुरु गद्दी मिलेगी ही। लेकिन गुरु अर्जुन देवजी के यहाँ पुत्र के जन्म की खबर सुनकर प्रिथी चंद और करमो जल-भुन गये। अपनी उम्मीदों पर पानी फिरता देख दोनों ने बालक हरिगोबिंद को मरवाने के कई षड्यंत्र रचे। कभी उन्हें जहर देने की कोशिश की गई तो कभी उनके कमरे में साँप छोड़ दिया गया लेकिन हरगोविंद हर बार बच गए। इन सभी हरकतों के भेद खुल गए। प्रिथी चंद की पूरे शहर में बदनामी हुई। इस भारी बदनामी के बाद प्रिथी चंद और करमों ने अपनी दुष्ट हरकतें बंद कर दीं।

सिक्खों को संत ही नहीं सिपाही भी बनना चाहिए

सर्वशक्तिमान गुरु अर्जुन देवजी ने अपने आध्यात्मिक ज्ञान से यह अनुभव कर लिया था कि आने वाले समय में जुल्म और अन्याय का मुकाबला करने के लिए सिखों को संत के साथ-साथ सिपाही भी बनना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने अपने सुपुत्र हरिगोबिंद को युद्ध-कला और कौशल का प्रशिक्षण देने के लिए बाबा बुड्ढा के पास भेजा। बाबाजी ने हरिगोबिंद साहिब को सर्वप्रथम गुरुवाणी की विद्या दी और तत्पश्चात उन्हें शस्त्र चालन, घुड़सवारी, कुश्ती इत्यादि जैसे करतब सिखाये। परिणामस्वरूप हरिगोबिंद साहिब एक ऐसे पुरुष के रूप में उभरे जो शूरवीर योद्धा भी थे और ब्रह्मज्ञानी भी। गुरु हरिगोबिंदजी के इस विशिष्ट गुण पर भाई गुरुदासजी ने लिखा है: दल भंजन गुरु सूरमा, बड जोधा बहु परउपकारी

मुगल बादशाह जहाँगीर के हाथों पिता, गुरु अर्जुन देवजी की शहीदी के उपरांत सिर्फ ११ वर्ष की अल्पायु में हरिगोबिंदजी ने गुरु-गद्दी का उत्तरदायित्व ग्रहण किया। इतिहास में जिक्र आता है कि गुरु-पदवी का तिलक लगाने के बाद बाबा बुड्ढाजी ने, परंपरा के मुताबिक, जब गुरु हरिगोबिंद साहिब को सेली टोपी (संतों-फकीरों द्वारा पहनी जाने वाली रेशमी या ऊनी टोपी जिसे गुरु नानक देवजी से लेकर गुरु अर्जुन देवजी तक पाँचों गुरु साफे के साथ पहनते रहे) पेश की तो गुरुजी ने फरमाया, "इसका युग अब खत्म हुआ। हमें आप दस्तार (पगड़ी), कलगी और तलवार पहनाइए।" ऐसा ही हुआ। गुरुजी ने दो तलवारें पहनीं- एक मीरी की और एक पीरी की। पहली आध्यात्मिक मार्ग की प्रतीक थी तो दूसरी सांसारिक मामलों में पंथ और समूची मानवता की अगुआई की।

सिख कौम के मसीहा

गुरु गद्दी पर विराजमान होने के पश्चात गुरु हरिगोबिंद साहिबजी ने अपने अनुयायियों को यह आदेश दिया कि वे अन्य प्रकार की भेंट-सामग्री के साथ-साथ शस्त्र और घोड़े भी लायें, ताकि सिख शस्त्र विद्या सीखकर अन्याय तथा अत्याचार की उस आँधी से टक्कर ले सकें, जिसमें उनके पूज्य पिता गुरु अर्जुन देवजी शहीद हो गये थे। सिख कौम को नयी दिशा देने के उद्देश्य से गुरुजी ने अमृतसर में दो प्रमुख कार्य किये। पहला-  लौहगढ़ किले का निर्माण जहाँ वे अपने अनुयाइयों को शारीरिक सौष्ठव-निर्माण और युद्ध कला का प्रशिक्षण दिया करते थे। दूसरा- स्वर्ण मंदिर के ठीक सामने अकाल तख्त का निर्माण और इसके जरिए गुरु हरिगोबिंदजी ने पहली बार सिखों की राजनीतिक पहचान कायम की। सोहन कवि ने अपनी रचना, ‘गुरु बिलास पातशाही छठी’ में अकाल तख्त के निर्माण को अकाल पुरुष (परमात्मा) के आदेश की पूर्ति की संज्ञा दी है। कवि का कथन है:

अकाल पुरख पुनि बचनि उच्चारे
हरिगोबिंद सुनीऐ निरधारे।
तुम हमरे महि भेद न कोई
तोहि अवतार हेत इह होई।
तोर पिता को बच कहे
पाछे मुहि इहि भाय।
सुत तुमरा तुमरे निकट
मेरे तख्त बनाय।

अर्थात परमात्मा ने स्वयं गुरु हरिगोबिंदजी को यह कहा कि मेरे और तुम्हारे बीच कोई भेद नहीं है और तुम्हारे पिता से हमने यह वचन किया था कि तुम्हारा सुपुत्र तुम्हारे दरबार के पास (दरबार साहिब का निर्माण गुरु अर्जुन देवजी ने करवाया था) मेरा तख्त बनाएगा। ऐतिहासिक उद्धरणों से पता चलता है कि जहाँ दरबार साहिब का वातावरण एकदम शांत और भक्तिमय होता, अकाल तख्त का वातावरण उतना ही जोशीला और वीर रस पूर्ण होता। प्रतिदिन दोपहर के बाद गुरु हरिगोबिंदजी अकाल तख्त पर राजसी और सांसारिक सत्ता के प्रतीक बनकर बैठते, वे लोगों की शिकायतें सुनते और उनके झगड़ों का निपटारा करते।

इतिहास अकाल तख्त का

गुरु हरिगोबिंदजी की बढ़ती शक्ति और रुतबा देखकर गुरु-घर के सदा से विरोधी रहे चंदू और मेहरबान (प्रिथीचंद का बेटा) ने जहाँगीर के कान भरने शुरू कर दिये कि हरिगोबिंदजी ने ‘बादशाही तख्त’ के मुकाबले में ‘अकाल तख्त’ बना लिया है, जहाँ विराजमान होकर वे खुद को ‘सच्चा पातशाह’ कहलवाते हैं। उन्होंने सैनिक-शक्ति भी संगठित कर ली है और उनकी बढ़ती ताकत को अगर रोका न गया तो किसी दिन वे हुकूमत के लिए खतरा साहिब हो सकते हैं। कान के कच्चे जहाँगीर ने, जो गुरु अर्जुन देवजी की शहीदी के कारण पहले ही अंदर से डरा हुआ था, बड़ी चालाकी और धोखे से गुरु हरिगोबिंदजी को गिरफ्तार करके ग्वालियर के किले में नजरबंद कर दिया।

हिंदुओ और सिक्खों के अलावा कई नेक दिल मुसलमानों ने भी गुरुजी को बंदी बनाये जाने का कड़ा विरोध किया। नतीजन करीब दो साल बाद बादशाह ने गुरुजी को रिहा करने का फरमान जारी कर दिया। कैदखाने में बंद ५२ राजाओं की दुर्दशा से आर्त्त गुरु हरिगोबिंदजी ने कहलवा भेजा कि जब तक इन सभी ५२ राजाओं को रिहा नहीं किया जाता, वे किले से बाहर नहीं जाएँगे। इस पर बादशाह जहाँगीर ने कहा कि ठीक है, जितने भी कैदी राजा गुरुजी का हाथ या पल्ला थामकर निकल सकते हैं, निकल जाएँ। गुरुजी ने चतुराई से काम लेते हुए ५० कलियोंवाला जामा तैयार किया और इस प्रकार ५० राजाओं को अपने जामे की एक-एक कली थमाकर तथा बाकी दो राजाओं को अपना हाथ थमाकर कैद से छुड़ा लिया और तब से वे ‘बंदी छोड़ पातशाह’ कहलाये।

आप कैसे साधु हैं!

गुरु नानक देवजी के बाद गुरु हरिगोबिंदजी प्रथम गुरु थे, जिन्होंने धर्म के प्रचार के लिए पंजाब से बाहर दौरा किया। श्रीनगर (कश्मीर) में आपकी मुलाकात शिवाजी मराठा के धार्मिक गुरु श्री समर्थ रामदासजी से हुई। अस्त्रों-शस्त्रों से लैस और घोड़े पर सवार हरिगोबिंदजी को देखकर समर्थ रामदासजी बोले, "हमने सुना था आप गुरु नानक देवजी की गद्दी पर विराजमान हैं पर गुरु नानक देवजी तो त्यागी साधु थे, जबकि आप तो शस्त्र, घोड़े और सैनिक रखते हैं और ‘सच्चा पातशाह’ कहलाते हैं। आप कैसे साधु हैं।" गुरु हरिगोबिंदजी ने उत्तर दिया- "बातन फकीरी, जाहर अमीरी।" "शस्त्र हमने गरीब की रक्षा और अत्याचारी के विनाश के लिए धारण किये हैं। बाबा नानक ने संसार नहीं त्यागा था, माया का त्याग किया था।" समर्थ रामदासजी इस उत्तर से अत्यंत प्रभावित हुए और सच भी है मजलूमों की रक्षा के लिए गुरुजी ने चार लड़ाइयाँ लड़ीं। पर ये लड़ाइयाँ राजसी नहीं, धार्मिक (धर्मयुद्ध) थीं। उन्होंने विरोधी-पक्ष की एक इंच भूमि पर भी कब्जा नहीं किया, बल्कि अपने खर्च पर मुसलमानों के लिए करतारपुर में एक मस्जिद बनवायी।

अपने पचास वर्षीय जीवनकाल के अंतिम दस वर्ष गुरु हरिगोबिंद साहिब ने ईश्वर के चिंतन में व्यतीत किये। आपके पाँच साहिबजादे (सुपुत्र) हुए- बाबा गुरदिताजी, श्री सूरमलजी, श्री अणी रामजी, बाबा अटलजी, और तेग बहादुरजी। इनमें से तीन बाबा गुरदिताजी, बाबा अटल राय और श्री अणी राय जी पहले ही ईश्वर को प्यारे हो गये थे। श्री सूरजमलजी दुनियादारी में बहुत अधिक प्रवृत्त रहते थे जबकि तेग बहादुरजी, जो आगे चलकर नौवें गुरु बने - दीन-दुनिया से बिल्कुल ही विरक्त रहने वाले त्यागी पुरुष थे। सो अपना अंतकाल निकट आया महसूस कर गुरु हरिगोबिंदजी ने अपने पौत्र, श्री हरि राय को गुरु-पद-परंपरा के निर्वहन का दायित्व सौंपा और ६ चैत्र, संवत १७०१ के दिन उसी परम ज्योति में समा गये जिसका वे अंश थे।

२९ जून २०१५

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