किसी
भी भारतीय को यह बात जानकर हैरानी होगी कि आज की नई
दिल्ली, किसी परंपरा के अनुसार अथवा स्वतंत्र भारत के
राजनीतिक नेताओं की वजह से नहीं बल्कि एक सौ साल (वर्ष
१९११) पहले आयोजित तीसरे दिल्ली दरबार में ब्रिटेन के
राजा किंग जार्ज पंचम की घोषणा के कारण देश की राजधानी
बनी। इस दिल्ली दरबार की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना
ब्रिटिश भारत की राजधानी का कलकत्ता से दिल्ली
स्थानांतरण की घोषणा थी।
१२ दिसंबर १९११ में ब्रिटेन के राजा की घोषणा से पहले
इस ऐतिहासिक तथ्य से अधिक लोग वाकिफ नहीं थे। किंग
जार्ज पंचम के राज्यारोहण का उत्सव मनाने और उन्हें
भारत का सम्राट स्वीकारने के लिए दिल्ली में आयोजित
दरबार के शाही जमावड़े में भारी संख्या में ब्रिटिश
भारत के शासक, भारतीय राजकुमार, सामंत, सैनिक और
अभिजात्य वर्ग के व्यक्ति एकत्र हुए थे। तब दरबार के
अंतिम चरण में अंग्रेज राजा ने उपस्थित व्यक्तियों के
लिए अजरजभरी घोषणा की। तत्कालीन वायसराय लॉर्ड
हार्डिंग ने राजा के राज्यारोहण उत्सव के अवसर पर
प्रदत्त उपाधियों और भेंटों की घोषणा के बाद उन्हें एक
दस्तावेज सौंपा।
अंग्रेज राजा ने अपने प्रमुख दरबारियों के बीच में
खड़े होकर ऊँची आवाज में सावधानी से तैयार किया हुआ एक
वक्तव्य पढ़ते हुए राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली
स्थानांतरित करने, पूर्व और पश्चिम बंगाल को दोबारा एक
करने सहित अन्य प्रशासनिक परिवर्तनों की घोषणा की। उस
समय भी दिल्ली वालों के लिए यह एक हैरतअंगेज फैसला था
जब एक ही झटके में इस घोषणा से एक सूबे के शहर को एक
साम्राज्य की राजधानी में बदल दिया गया जबकि वर्ष १७७२
से ब्रिटिश भारत की राजधानी कलकत्ता थी।
लॉर्ड हार्डिंग लिखते हैं कि इस घोषणा से दर्शकों में
आश्चर्यजनक रूप से एक गहरा मौन पसर गया और चंद सेंकड
बाद करतल ध्वनि गूंज उठी। ऐसा होना स्वाभाविक था। अपने
समृद्ध प्राचीन इतिहास के बावजूद जिस समय दिल्ली को
अनचाहे राजधानी बनने का मौका दिया गया, उस समय दिल्ली
किसी भी लिहाज से एक प्रांतीय शहर से ज्यादा नहीं थी।
लार्ड कर्जन के बंगाल विभाजन की घोषणा (१९०३) के बाद
से ही इसका विरोध कर रहे और एकीकरण की मांग को लेकर
आंदोलनरत असंतुष्ट बंगालियों की तरह दिल्लीवालों ने
कोई माँग नहीं रखी और न ही कोई आंदोलन छेड़ा। सबसे
बड़ी बात यह है कि किंग जॉर्ज पंचम की घोषणा से हर कोई
हैरान था क्योंकि इस बात को पूरी तरह से गोपनीय रखा
गया था।
किंग जॉर्ज पंचम की भारत यात्रा के छह महीने पहले ही
ब्रिटिश भारत की राजधानी के स्थानांतरण का निर्णय हो
चुका था। इंगलैंड और भारत में मात्र दर्जन भर व्यक्ति
ही इस तथ्य से वाकिफ थे। यहाँ तक कि राजा की घोषणा के
समानांतर बाँटे गए उद्घोषणा के गजट और समाचार पत्रों
को भी पूरी गोपनीयता के साथ छापा गया। दिल्ली में एक
प्रेस शिविर लगाया गया, जहाँ सचिवों, मुद्रकों और उनके
नौकरों के लिए रहने की व्यवस्था की गई और वहीं पर छपाई
के अलए प्रिटिंग मशीनें लगाई गईं। दरबार से पहले इन
शिविरों में कर्मचारियों को लगा दिया गया था और दरबार
की वास्तविक तिथि से पहले इस स्थान की सुरक्षा को चाक
चौबंद रखने के लिए सैनिकों और पुलिस की टुकडियाँ तैनात
कर दी गई थीं। इससे लार्ड हार्डिंग का राजधानी को
कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की बात
को इतिहास के गोपनीय राज बताना सही साबित होता है।
सात दिसंबर, १९११ को ब्रिटेन के राजा और रानी (जार्ज
पंचम और क्वीन मेरी) दिल्ली पहुंचे। शाही दम्पति को एक
जुलूस की शक्ल में शहर की गलियों से होते हुए इस अवसर
पर विशेष रूप से लगाए गए शिविरों के शहर (किंग्सवे
कैंप) में पूरे गाजे बाजे के साथ पहुँचाया गया। उत्तर
पश्चिम दिल्ली में विशेष रूप से निर्मित एक सोपान मंडप
में आयोजित दरबार में चार हजार खास मेहमानों की बैठने
की व्यवस्था की गई थी और एक बृहद अर्ध आकार के टीले से
करीब ३५,००० सैनिक और ७०,००० दर्शक भी इस दरबार के
चश्मदीद गवाह बने।
इस दरबार के दौरान लॉर्ड हार्डिंग सहित कौंसिल के
सदस्यों, भारतीय राजाओं, राजकुमारों सहित कइयों ने
अंग्रेज राजा की कदमबोसी की और हाथ को चूमा। २५ वर्ग
मील और ३० मील के घेरे में फैले क्षेत्र में २२३ तंबू
लगाए गए थे, जहाँ पर ६० मील की नई सड़कें और करीब ३०
मील लंबी रेलवे लाइन के लिए २४ स्टेशन बनाए गए।
अहमद अली का उपन्यास ट्विलाइट इन दिल्ली (१९४०) के
अनुसार, वायसराय लॉर्ड हार्डिंग ने व्यक्तिगत रूप से
दरबार की तैयारियों का जायजा लिया। कुल ४० वर्ग
किलोमीटर में फैले और १६ वर्ग किलोमीटर के घेरे में
पूरे भारत से करीब ८४,००० यूरोपीय और भारतीयों को २३३
शिविरों में ठहराया गया। १९११ में बसंत के मौसम के बाद
करीब २०,००० मजदूरों ने दिन रात एक करके इन शिविरों को
तैयार किया। इस दौरान ६४ किलोमीटर की सड़क, शिविरों
में पानी की व्यवस्था के लिए ८० किलोमीटर की पानी की
मुख्य लाइन और ४८ किलोमीटर की पानी की पाइप लाइनें
डाली गईं। इतना ही नहीं, दिल्ली में आने वाले मेहमानों
के खानपान के लिए दुधारू पशुओं सहित सब्जी और मांस का
इंतजाम किया गया।
उल्लेखनीय है कि मूल योजना के अनुसार, दिल्ली दरबार का
आयोजन एक जनवरी, १९१२ को होना था पर उस दिन मुहर्रम
होने की वजह से इसे कुछ दिन पहले करने का फैसला किया
गया। हालांकि एक जनवरी का अपना महत्व था क्योंकि इसी
दिन भारत को अंग्रेजी साम्राज्य में मिलाने की घोषणा
हुई थी और वर्ष १८७७ तथा वर्ष १९०३ में दरबारों का
आयोजन हुआ था।
वर्ष १८७७ में लॉर्ड लिटन ने महारानी विक्टोरिया की
कैसरे हिंद के रूप में उद्घोषणा के अवसर पर पहले
दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था। महारानी
विक्टोरिया के उत्तराधिकारी के रूप में एडवर्ड सप्तम
के राज्यारोहण के अवसर पर वर्ष १९०३ में लॉर्ड कर्जन
के समय दूसरे दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया था। यह
दरबार २९ दिसंबर से अगले साल दस दिनों तक चला था। इस
दरबार के एक भाग का आयोजन लालकिले के दीवान ए आम में
भी किया गया था।
वर्ष १९०३ में लार्ड कर्जन के समय हुए दूसरे दिल्ली
दरबार पर खर्च हुए १,८०,००० पाउंड की तुलना में तीसरे
दिल्ली दरबार पर ६,६०,००० पाउंड की राशि का खर्चा आया।
किनेमाकलर ने तीसरे दिल्ली दरबार की फिल्म, विथ अवर
किंग एँड क्वीन थ्रू इंडिया (१९१२ में सबसे पहली बार
प्रदर्शित), बनाई जिसकी अवधि दो घंटे से अधिक समय की
थी। यह फिल्म से अधिक एक मल्टीमीडिया शो थी, जिसके
अनेक हिस्सों को जरूरत के मुताबिक बदला जा सकता था।
किंग जॉर्ज पंचम और क्वीन मेरी ने किंग्सवे कैंप में
आयोजित दिल्ली दरबार में १५ दिसंबर १९११ को नई दिल्ली
शहर की नींव के पत्थर रखे। बाद में, इन पत्थरों को
नार्थ और साउथ ब्लॉक के पास स्थानांतरित कर दिया गया
और ३१ जुलाई १९१५ को अलग-अलग कक्षों में रख दिया गया।
दिल्ली के नए शहर के स्थापना दिवस समारोह में लॉर्ड
हार्डिंग ने कहा कि दिल्ली के इर्द गिर्द अनेक
राजधानियों का उद्घाटन हुआ है पर किसी से भी भविष्य
में अधिक स्थायित्व अथवा अधिक खुशहाली की संभावना नहीं
दिखती है। रॉबर्ट ग्रांट इर्विंगन्स की पुस्तक इंडियन
समर में लॉर्ड हार्डिंग कहते हैं, हमें मुगल सम्राटों
के उत्तराधिकारी के रूप में सत्ता के प्राचीन केंद्र
में अपने नए शहर को बसाना चाहिए। वाइसराय ने बतौर
राजधानी दिल्ली के चयन का खुलासा करते हुए कहा था कि
यह परिवर्तन भारत की जनता की सोच को प्रभावित करेगा।
हम सब इसे भारत में अंग्रेजी राज को कायम रखने के अटूट
संकल्प के रूप में स्वीकार करेंगे। तत्कालीन भारत
सरकार के गृह सदस्य सर जॉन जेनकिन्स ने कहा था कि यह
एक साहसिक राजनयिक कदम होगा जिससे चहुंओर संतुष्टि के
साथ भारत के इतिहास में एक नए अध्याय की शुरूआत होगी।
अंग्रेजों के राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली
स्थानांतरित करने के दो प्रमुख कारण थे। पहला, बंगाली
अंग्रेजों के लिए काफी समस्याएँ पैदा कर रहे थे और
अंग्रेजों की नजर में कलकत्ता राजनीतिक आ तंकवाद का
केंद्र बन चुका था जहाँ लोग राइटर्स बिल्डिंग में बम
फेंक रहे थे जबकि दिल्ली में ऐसे हालात नहीं थे। खासकर
लॉर्ड कर्जन के शासनकाल के बाद अंग्रेज बंगालियों को
उपद्रवकारी, राजनीतिक रूप से सजग मानने लगे थे। दूसरा,
यह एक तरह से मुसलमानों को खुश करने का भी फैसला था।
अंग्रेजों की सोच यह थी कि वे एक ही समय में हिंदू और
मुसलमानों को नाराज नहीं कर सकते।
इसी सिलसिले में, वर्ष १९११ में आयोजित दिल्ली दरबार
की ऐतिहासिक घटनाओं के ब्यौरे वाला अहमद अली का
उपन्यास “दिल्ली में आहत मुस्लिम सभ्यता” की पड़ताल
करता है। इस किताब के जरिए लेखक ने तत्कालीन भारत में
अंग्रेजी साम्राज्यवाद की कहानी को बयान करते हुए
उपनिवेशवादी ताकत से टक्कर पर मुस्लिम नजरिए को सामने
रखते हुए साम्राज्यवादी साहित्य को चुनौती दी है। अली
के शब्दों में, मुसलमानों ने स्पेन में कोरडोवा और
ग्रेनाडा की तरह दिल्ली खो दी है और उनकी हार की तरह
मुसलमानों को यह बात अपने खोए हुए सम्मान के रूप में
सालती रहेगी।
नीरद सी चैधरी ने आजादी मिलने के तुरंत बाद प्रकाशित
अपनी आत्मकथा द ऑटोबायोग्राफी ऑफ अननोन इंडियन में
उनकी (बंगालियों) प्रतिक्रिया का स्मरण करते हुए लिखा
है कि वर्ष १९११ में मौत का स जिससे हम सब अपरिचित थे,
पहले ही कलकत्ता पर पसर चुका था। मुझे अभी भी अपने
पिता का उनके मित्रों के साथ राजधानी के दिल्ली
स्थानांतरण के समाचार के पढ़ने की बात याद है।
कलकत्ता का स्टेटसमैन गुस्से में था पर वह भविष्य की
बजाय इतिहास के बारे में ज्यादा सोच रहा था और वह
कासनड्रा की तरह भविष्यवाणियाँ करने का इच्छुक नहीं
था। हम बंगाली कासनड्रा की तरह भविष्यवक्ता नहीं थे।
हम बातूनी थे। मेरे पिता के एक दोस्त ने रूखेपन से कहा
कि वे साम्राज्यों के कब्रिस्तान दिल्ली में दफन होने
जा रहे हैं। इस बात पर वहाँ मौजूद हर कोई हँस पड़ा पर
हम सभी की तीव्र इच्छा का लक्ष्य अंग्रेजी साम्राज्य
का दफन होना ही था। उस दिन हम में से किसी ने भी नहीं
सोचा था कि ऐसा होने में केवल छत्तीस साल लगेंगे।
अंग्रेज सत्रह सौ सत्तावन से कलकत्ते में राज करते
रहे। उन्नीस सौ ग्यारह में दिल्ली राजधानी बनाने के
छत्तीस साल बाद उनके विश्वव्यापी साम्राज्य का सूरज
डूब गया।
वर्ष १९१२ में एडविन लैंडसिर लुटियन और उनके पुराने
दोस्त हरबर्ट बेकर को बतौर वास्तुकार नए शहर को बसाने
की जिम्मेदारी दी गई। लुटियन के चुनाव में उनके काम के
अनुभव का कम और रिश्ते का जोर ज्यादा था। सरकारी
इमारतें और शहर के वास्तु से उनका दूर दूर तक कोई लेना
देना नहीं था पर महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने
लॉर्ड लिटन, जिन्होंने वर्ष १८७७ में महारानी
विक्टोरिया के समय दिल्ली दरबार की अध्यक्षता की थी,
की एकलौती बेटी एमली लिटन से शादी की थी। लुटियन का
खास मित्र और सहयोगी गर्टरूड जेकल, जो कि अच्छा बाग
वास्तुशास्त्री भी था, भी एक अच्छे संपर्कों वाला
व्यक्ति था।
लॉर्ड हार्डिंग भी मार्च १९१२ के अंत में अपने पूरे
लाव लश्कर के साथ दिल्ली पहुँच गया। वर्ष १९११ में
दिल्ली राजधानी स्थानांतरित होने पर दिल्ली
विश्वविद्यालय का पुराना वाइसरीगल लॉज वायसराय का
निवास बना। प्रथम विश्व युद्ध से लेकर करीब एक दशक तक
वायसराय इस स्थान पर रहा जब तक रायसीना पहाड़ी पर
लुटियन निर्मित उनका नया आवास बना।
मौजूदा नई दिल्ली शहर दिल्ली का आठवाँ शहर है। नई
दिल्ली के लिए अनेक स्थानों के बारे में सोचा गया और
उन्हें अस्वीकृत किया गया। दरबार क्षेत्र को
अस्वास्थ्यकर और अनिच्छुक घोषित कर दिया गया, जहाँ
बाढ़ का भी खतरा था। सब्जी मंडी का इलाका बेहतर था पर
फैक्ट्री क्षेत्र में अधिग्रहण से मिल मालिक नाराज
होते। इसी तरह, सिविल लाइंस में यूरोपीय आबादी को
हटाने की जरूरत के चलते उनकी नाराजगी का खतरा था। अतः
वास्तुकार लुटियन के नेतृत्व में मौजूदा पुराने शहर
शाहजहाँनाबाद के दक्षिण में नई दिल्ली के निर्माण का
कार्य १९१३ में शुरू हुआ जब नई दिल्ली योजना समिति का
गठन किया गया। इसने पुराने शहर का तिरस्कार हुआ और
उसके आसपास के इलाके तत्काल ही एक दूसरे दर्जे का शहर
मात्र पुरानी दिल्ली बन गया।
लुटियन के जिम्मे नई दिल्ली शहर और गर्वमेन्ट हाउस और
हरबर्ट बेकर के सचिवालय के दो हिस्सों (नार्थ और साउथ
ब्लॉक) और कांउसिल हाउस (संसद भवन) को तैयार करने का
भार आया। करीब २,८०० हेक्टेअर क्षेत्र में फैली लुटियन
दिल्ली का मूल स्वरूप १९११ से १९३१ के मध्य में बना जो
कि साम्राज्यवादी भव्यता का एक खुला उदाहरण था। इसका
मुख्य केंद्र ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि वाइसरॉय
का महलनुमा परिसर (अब राष्ट्रपति भवन) था। अंग्रेज
वास्तुकार नई दिल्ली को पुरानी दिल्ली की अराजकता के
विपरीत एक कानून और व्यवस्था का प्रतीक बनाना चाहते
थे। वास्तुकार हरबर्ट बेकर का मानना था कि नई राजधानी
अच्छी सरकार और एकता का एक स्थापत्यकारी स्मारक होनी
चाहिए क्योंकि भारत को इतिहास में पहली बार अंग्रेज़
शासन के तहत एकता मिली है।
भारत
में अंग्रेज़ शासन केवल सरकार और संस्कृति का प्रतीक
नहीं है। यह एक विकसित होती नई सभ्यता है जिसमें पूर्व
और पश्चिम के बेहतर तत्वों का समावेश है। दिल्ली का
स्थापत्य इस महान तथ्य इस बात का प्रतीक होना चाहिए।
गौर करने वाली बात यह है कि वायसराय पैलेस का मुख्य
गुम्बद साँची के बौद्ध स्तूप, लाल बलुआ पत्थर और
जालियों को मुगल स्थापत्य कला की तर्ज पर बनाया गया पर
अंग्रेजों ने अपने महत्व को बरकरार रखने के लिए
वायसराय पैलेस की उंचाई शाहजहाँ की जामा मस्जिद से
अधिक रखी। यहाँ तक कि नई दिल्ली में किसी भी देसी पेड़
पौधों की किस्मों को नहीं लगाया गया। यहाँ लगाए गए
पेड़ों की किसी की किस्म को दिल्ली का देसी नहीं कहा
जा सकता था।
एक
तरह से, नई दिल्ली का अर्थ भारतीय उपमहाद्वीप के लिए
एक साम्राज्यवादी राजधानी और एक सदी के लिए अंग्रेज़
हुक्मरानों के सपनों का साकार होना था हालांकि इसके
पूरा होने में २० साल का वक्त लगा यह भी तब जबकि
राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने के साथ
ही नई दिल्ली बनाने का फैसला लिया गया था। इस तरह, नई
राजधानी केवल १६ साल के लिए अपनी भूमिका निभा सकी। नई
दिल्ली में निर्माण कार्य १९३१ में पूरा हुआ जब पूरी
सरकार इस नए शहर में स्थानांतरित हो गई। १३ फरवरी १९३१
को तत्कालीन वायसरॉय लॉर्ड इरविन ने नई दिल्ली का
औपचारिक उद्घाटन किया।
प्रसिद्ध लेखक खुशवंत सिंह के पिता सर शोभा सिंह ने
लुटियन और बेकर के साम्राज्यवादी नक्शे के अनुरूप चूना
पत्थर और संगमरमर को तराशने का काम किया। खुशवंत सिंह
ने अपनी आत्मकथा सच, प्यार और थोड़ी सी शरारत में नई
दिल्ली पर खासी रोशनी डाली है। उनके ही शब्दों में,
मेरे पिताजी को साउथ ब्लॉक बनाने का ठेका मिला था और
उनके सबसे जिगरी दोस्त बसाखा सिंह को नार्थ ब्लॉक
बनाने का। हमारे मकान के सामने और दक्षिण दिल्ली से
कोई बारह किलोमीटर दूर, बदरपुर गाँव से दिल्ली के लिए
जिसे आज कनाट सर्कस कहते हैं, छोटी रेलवे लाइन गई थी।
बदरपुर से निर्माण स्थल तक पत्थर, रोड़ी और बजरी लाने
के लिए ही यह लाइन बिछाई गई थी। जिस दिन छुट्टी होती,
हम छोटी सी इम्पीरियल दिल्ली रेल के आने का इंतजार
करते कि कब वह आकर पत्थर उतारे और हम उसमें सवार होकर
मुफ्त में कनाट प्लेस की सैर करके आएँ।
वे आगे बताते हैं कि खालसा मिल्स के प्रवेश द्वार के
ऊपर बने कमरों को छोड़ अब हम रायसीना पहुँच गए थे जो
आगे चलकर नई दिल्ली बना। पहले एक दो साल तक हम लोग एक
बड़े से झोपड़ीनुमा मकान में रहते थे। वह मकान जिस
सड़क पर था वह आगे चलकर ओल्ड मिल रोड अब रफी मार्ग
कहलाई क्योंकि वहाँ एक आटे की चक्की थी। यह जगह आज के
संसद मार्ग के सामने पड़ती थी जहाँ दोनों सचिवालय
नार्थ और साउथ ब्लॉक बनाए जाने थे उसके यह काफी नजदीक
थी।
दिल्ली दरबार रेलवे
समूचे देश से दिल्ली में लोगों के दरबार में शामिल
होने को देखते हुए अंग्रेजों ने यातायात के सुचारू
आवागमन के लिए अतिरिक्त रेल सुविधाएँ बढ़ाने और नई रेल
लाइनें बिछाने का फैसला किया। सरकार ने इसके लिए
दिल्ली दरबार रेलवे नामक विशेष संगठन का गठन किया।
मार्च से अप्रैल, १९११ के बीच सभी संभावित यातायात
समस्याओं के निदान के लिए छह बैठकें हुईं। इन बैठकों
में दिल्ली में विभिन्न दिशाओं से आने वाली
रेलगाडि़यों के लिए ११ प्लेटफार्मों वाला एक मुख्य
रेलवे स्टेशन, आजादपुर जंक्शन तक दिल्ली दरबार क्षेत्र
में दो अतिरिक्त डबल रेल लाइनें, बंबई से दिल्ली
बारास्ता आगरा एक नई लाइन बिछाने के महत्वपूर्ण फैसले
किए गए।
कलकत्ता से दिल्ली सैनिक और नागरिक रसद का साजो सामान
पहुँचाने के लिए प्रतिदिन एक मालगाड़ी चलाई गई जो कि
दोपहर साढ़े तीन बजे हावड़ा से चलकर अगले दिन दिल्ली
के किंगस्वे स्टेशन पर सुबह दस बजे पहुँचती थी। इस
तरह, मालगाड़ी करीब ४२ घंटे में ९०० मील की दूरी तय
करती थी। नंवबर, १९११ में ‘मोटर स्पेशल‘ नामक पाँच
विशेष रेलगाड़ियाँ हावड़ा रेलवे स्टेशन और दिल्ली रेलवे
स्टेशन के बीच में चलाई गईं।
इसी तरह, देश भर से ८०,००० सैनिकों को दिल्ली लाने के
लिए विशेष सैनिक रेलगाड़ियाँ चलाई गई। ये रेलगाडि़याँ
मुख्य रूप से उत्तर पश्चिमी रेल के टर्मिनल पर खाली
हुई। इस अवसर पर पूर्वी भारत रेलवे ने अपने स्टेशनों
पर आने वाली १५ सैनिक रेलगाडियाँ चलाईं और १९ सैनिक
रेलगाडि़यों में सैनिकों को दिल्ली दरबार की समाप्ति
के बाद वापिस भेजा।
इतिहास और अगर-मगर--
अगर प्रथम विश्व युद्व नहीं छिड़ा होता तो नई दिल्ली
के निर्माण में अधिक धन खर्च किया जाता तथा यह शहर और
अधिक भव्य बनता। इतना ही नहीं, यमुना नदी पुराने किले
के साथ बहती होती और राजपथ से गुजरने वाले इसके गवाह
बनते।
अगर लॉर्ड कर्जन और उनके अंग्रेज व्यापारी मित्रों की
चलती तो नई दिल्ली को राजधानी बनाने का फैसला रद्द हो
जाता। यह तो लॉर्ड हार्डिंग के अंग्रेज राजा को भारतीय
जनता को दिए वचन से न फिरने के बारे में समझाने के
कारण ऐसा नहीं हो सका।
अगर हरबर्ट बेकर ने प्रिटोरिया का निर्माण नहीं किया
होता तो लुटियन को नई दिल्ली परियोजना में अवसर नहीं
मिलता और न ही विजय चैक (इंडिया प्लेस) प्रिटोरिया की
तर्ज पर तैयार होता। इतना ही नहीं, अगर लुटियन की
मर्जी चली होती तो राष्ट्रपति भवन (गर्वमेंट हाउस)
सरदार पटेल मार्ग पर मालचा पैलेस के नजदीक रिज में बना
होता। लॉर्ड हार्डिंग के इस प्रस्ताव को खारिज करने के
बाद रॉय सीना पहाड़ी पर वायसराय हाउस बना
१५
अप्रैल २०१३ |