1
हम फिदाए
लखनऊ
--डॉ. प्रेमशंकर
स्थान
संस्कृति रचते हैं, यह प्रश्न स्वयं में आश्चर्यजनक और कई बार
विवादास्पद भी हो सकता है, पर इतिहास बताता है कि कई स्थान
संस्कृतियों के वाहक रहे हैं। सांस्कृतिक यात्रा में उनका
योगदान रहा है और इतिहास के आरोह-अवरोह में यद्यपि परिवर्तन आए
हैं, पर सांस्कृतिक केन्द्रों की चर्चा होती है। मध्यकाल में
आरम्भिक टकराव के बाद जब सांस्कृतिक संवाद की प्रक्रिया आरम्भ
हुई तो प्रमुख जातियों का मिला-जुला स्वर विकसित हुआ। इस
संदर्भ में हैदराबाद, लखनऊ जैसे स्थलों का विशेष उल्लेख किया
जाता है। लखनऊ एक मिली-जुली सामाजिक संस्कृति का बोध कराता है,
जिसके विषय में यह भी प्रचलित है कि कभी इसका नाम लक्ष्मणपुर
रहा होगा। पास के ही नैमिष क्षेत्र के सीतापुर का वासी होने के
कारण, इस स्थान से समीपता रही है। यों कुंवर नारायण आदि इसकी
चर्चा के अधिकारी हैं। पर मैं अपने समय की हिन्दी रचनाशीलता की
बात तो कर ही सकता हूँ।
संस्कृति का एक समन्वित रूप लखनऊ में विकसित हुआ। अवध क्षेत्र
होने के कारण एक ओर यहाँ अवधी की रचनाएँ हुई, दूसरी ओर मेल-जोल
की स्थिति ने हिन्दी-उर्दू की निकटता स्थापित की। जायस के मलिक
मुहम्मद जायसी ने सोलहवीं सदी के मध्य में जिस प्रेम-पंथ का
आवाह्न किया था, वह आज भी प्रासंगिक है: ’’तीन लोक चौदह खंड
सबै परै मोहिं सूझ/प्रेम छांड़ि नहि लीन किछु जो देखा मन बूझ।‘‘
अवधी तुलसी के समय में अपनी पूर्णता पर पहुँची, पर बीसवीं
शताब्दी में भी इसमें कविताएँ होती रहीं। अवध के नवाबों ने
देशी भाषाओं के साथ हिन्दी-उर्दू कविता को भी प्रश्रय दिया। इस
प्रकार लखनऊ और उसके आस-पास ऐसा सांस्कृतिक परिवेश रहा है जिसे
हम सम्पूर्ण कला-संसार कह सकते हैं। लखनऊ की गज़ल गायकी,
संगीत-नृत्य का अपना स्थान है और कइयों का नाम अदब से लिया
जाता है।
लखनऊ का संसार शुद्धतावादी नहीं कहा जा सकता क्योंकि स्थान की
संस्कृति के अपने दबाव रहे हैं। इस दृष्टि से यहाँ रचना का एक
सम्मिलित रूप उभरा, जिसे भगवतीचरण वर्मा की ’दो बाँके‘ जैसी
कहानियों में देखा जा सकता है। पुराने इतिहास में जाने की
आवश्यकता नहीं, पर लखनऊ से माधुरी, सुधा जैसी पत्रिकाएँ
प्रकाशित हुई और बैसवाड़ा क्षेत्र के महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी
निराला पर्याप्त समय तक यहाँ रहे। डॉ. रामविलास शर्मा ने
’निराला की साहित्य-साधना‘ में इसकी चर्चा विस्तार से की है कि
तीसरे-चौथे दशक में मध्ययुगीन प्रवृत्तियों से जूझते हुए,
निराला ने नये भाव-बोध का प्रतिनिधि किया। यहीं ’दान‘ जैसी
कविता में विश्वविद्यालय के पास के गोमती पुल के दूत हैं और
महाकवि की उक्ति हैं: सबमें है श्रेष्ठ, धन्य मानव। कई अन्य
नाम जो यहाँ कुछ समय रहे, फिर अन्यत्र चले गए जैसे कवि रघुवीर
सहाय और कुछ यहीं बस गए जैसे श्रीलाल शुक्ल आदि।
आधुनिक समय में लखनऊ में मिश्र-बंधुओं की चर्चा रही है, जिनका
संबन्ध मध्य प्रदेश से भी था और जिन्होंने हिन्दी साहित्य का
इतिहास, मिश्र विनोद‘ चार भागों में लिखा। एक समय उनका अपना
रौब-दाब था। शताब्दी के चौथे दशक में जब काशी विश्वविद्यालय का
विद्यार्थी बना, तब भी लखनऊ से मेरा सम्पर्क बना रहा क्योंकि
वह नैमिष क्षेत्र के सीतापुर आते-जाते मार्ग में पड़ता था। अवधी
परिषद की चर्चा होती थी, जहाँ कविगण अवधी की कविताएँ सुनाते
थे। पास के ही सनेहीजी का सम्मान था। पं. श्रीनारायण जब लखनऊ
आकर बस गए, तब उनका आवास भी इस प्रकार की गोष्ठियों का केन्द्र
बना जिसका उल्लेख आचार्य पं. विद्यानिवास मिश्र ने अपने
संस्मरणों में किया था। जब मैं छठे दशक में लखनऊ क्रिश्चियन
कालेज में युवा अध्यापक हुआ, तब लखनऊ में त्रयी विराजमान थी:
भगवतीचरण वर्मा, यशपाल और ----’दिव्या‘ कोठी। यशपालजी अरसे तक
हेवेट रोड में रहे और वहाँ के विप्लव कार्यालय में नियमित
गोष्ठियाँ होती थीं। जब अमृतलाल नागर, गिरिजाकुमार माथुर और
भारतभूषण लखनऊ आकाशवाणी आ गए तो गोष्ठियाँ और भी जीवंत होने
लगीं जिसे नागर जी की सहजता अपनी मीठी चुटकियों से प्रफुल्ल
बना देती थीं। सुमित्रा जी भी वहीं थीं और अन्य साहित्यकार भी।
इन गोष्ठियों में स्थापित लेखक में न कोई अहंकार था, न
बौद्धिकता और न अतिरिक्त भार, एक ऐसा खुलापन था, जो निरन्तर
कठिन होता जाता था। वैचारिक विभेद थे, जिसमें एक यशपाल जैसे
प्रतिबद्ध कामरेड लेखक थे तो दूसरी ओर साम्यवाद की प्रासंगिकता
---- सन्देह करने वाले डॉ. देवराज। परपूवादि---- ऐसे न थे कि
तर्क-कुतर्क बन जाये और संवाद की गुंजायश ही न रहे। हम युवकों
के लिए प्रतिकार यह कि एक ही मंच पर हि---- की कई पीढ़ियाँ
एक-दूसरे को जानने-समझने का प्रयत्न करती थीं। डॉ. देवराज,
कुंवरनारायण, कृष्णनारायण कक्कड़, प्रताप टंडन, प्रेमशंकर ने जब
’युग चेतना‘ का सम्पादन-प्रकाशन सहयोगी प्रयास के रूप में आरंभ
किया, तब सभी लेखकों का व्यापक समर्थन मिलस। यह लखनऊ की
मिली-जुली तहजीब के प्रति सदाशयता भाव तो है ही, इस तथ्य का
प्रमाण भी कि वैचारिक विभाजन और शिविरबद्धता का ऐसा दृश्य नहीं
था कि संवेदन की उदारता ही संकट में पड़ जाए। कृष्णनारायण की
मेधा के सभी कायल हैं, वे मुझे डॉ. कहकर सम्बोधित करते थे। मैं
आपत्ति करता कि यह एक बदनाम उपर्सग जैसा है, तो वे कहते यार हम
तो हो नहीं पाए, तो तुम्हें ही कहकर संतोष कर लेते हैं। वे
पैरोडी जैसी कविता सुनाते जिसके कुछ टुकड़े याद-रह गए हैं। इससे
कृष्णनारायण भाई की आलोचनात्मक दृष्टि का परिचय मिलता है:
यशपाल में कमाल अगर कम हो/नागर यदि अधिक उजागर हों/सोचें कम,
देखें अधिक देवराज आदि। भगवती बाबू को वे योजनाबद्ध लेखक कहते
और गिरिजाकुमार जी को कभी-कभी छुअनजी कहते: छाया मत छूना मन,
होगा दुख दूना मन। भारतभूषण के लिए कहते कि आदमी प्यारा है, पर
कई बार बहुत सर्वोदयी हो जाता है। कविता की अंतिम पंक्तियों की
ध्वनि थी कि यदि ऐसा हो तो लखनऊ का डंका बजे। स्वयं इन लेखकों
तक टिप्पणियाँ पहुँची, तो उन्होंने इसका मज़ा लिया।
छठे दशक के आरंभ में आचार्य नरेन्द्रदेव लखनऊ में थे और ’बौद्ध
धर्म दर्शन‘ ग्रन्थ को अंतिम रूप दे रहे थे। मुझे उन्होंने
अधिकृत कर रखा था कि लखनऊ विश्वविद्यालय के टेगौर पुस्तकालय से
उनके लिए पुस्तकें ले आऊँ। कालेज से छूटते ही पुस्तकालय जाता
और आर्चायजी की पुस्तकें लेकर, उनके हैदराबाद कालोनी स्थित
आवास में पहुँचाता। वहाँ देश के कोने-कोने से आए व्यक्ति होते
और मेरे लिए यह आश्चर्यजनक अनुभव था कि बुजुर्ग गुरुवर ठाकुर
जयदेव सिंह, प्रो. डी.पी. मुखर्जी से लेकर नई पीढ़ी तक के लोग
होते, जो आचार्यजी की ओर प्रेरणा की दृष्टि से देखते थे। श्वास
कष्ट के बावजूद आचार्यजी वातावरण को बोझिल नहीं होने देते थे।
प्रायः बौद्धिक चर्चाएँ होतीं, विशेषतया विश्व राजनीति,
समाजवाद, भारत की समस्याएँ आदि। नवयुवकों को दिशाबोध देने की
चिन्ता उनमें सर्वोपरि थी और वे कहते थे कि इसी पर देश का
भविष्य निर्भर है। बात बीसवीं शती के मध्य में कही गई थी, पर
आज उसके अंतिम छोर पर खड़े होकर देखते हैं तो लगता है कि वे
भविष्यवक्ता थे, इतिहास की स्थितियों के आधार पर निर्णय पर
पहुँचने वाले दूरदृष्टि के विचारक। वे भारतीय समाजवाद के पितृ
पुरुष थे। प्रो. मुकुट बिहारी लाल ने पूछा कि उपचार के लिए
मार्शल टीटो का निमंत्रण क्यों स्वीकार किया, तो वे बोले:
सोवियत संघ जाता तो लोग साम्यवाद का पिछलग्गू कहते और अमरीका
जाता तो पूंजीवाद का दलाल बताते। लखनऊ के बुद्धिजीवी लेखक,
कलाकार, युवक आचार्यजी के पास जाते थे, जैसे वे प्रेरणा पुरुष
हों। लखनऊ काफी हाऊस जाने वालों में आचार्यजी प्रमुख थे और
उनके पास जमघट सा लग जाता था।
औद्योगिक व्यवस्था तथा मध्यवर्ग के विकास के साथ व्यक्तिवाद
तेजी से बढ़ा और कई बार ’अंधेरे बंद कमरे‘ जैसी स्थिति। पर उन
दिनों गोष्ठियों का जमाना था। विश्वविद्यालय की पंडिताई का
पुस्तकीय संसार था, पर डी.पी. मुखर्जी जैसे प्रोफेसर भी थे, जो
संस्कृति, इतिहास, समाजशास्त्र, संगीत, साहित्य में समानज्ञान
रखते थे। डायवर्सिटीज नामक अपनी पुस्तक की भूमिका में उन्होंने
उल्लेख किया है कि उत्तर भारत मुझे समाजशास्त्री मानता है,
मेरा बंगदेश मुझे साहित्यकार के रूप में देखता है और संगीत
मुझे प्रिय है।
’सोशियालजी ऑफ इंडियन कल्चर‘ पुस्तक में उनका समग्र व्यक्तित्व
देखा जा सकता है। प्रो. पूरनचन्द्र जोशी उनके योग्य शिष्यों
में हैं। वास्तव में उन दिनों जीवन, रचना और विभिन्न अनुशासनों के
बीच ऐसी दूरी न थी कि वे एक-दूसरे से अधिक सींख ही न सकें। लखनऊ के
उस दौर में शुद्ध साहित्य, शास्त्र-चर्चा के कई भ्रम टूटते थे,
साथ ही राजनीतिक वातावरण की सीमाएँ भी स्पष्ट होती थीं। रचना
जीवन से साक्षात्कार मात्र नहीं, संवेदन-वैचारिक संघर्ष भी है,
पर सब कुछ कला में विलयित होकर समान रूप में आना चाहिए। शिक्षा
संस्थानों के पाठ्यक्रमों को देखते हुए प्रायः टिप्पणी की जाती
है कि वे प्रतिभा के समुचित विकास में बाधा हैं। श्रीकांत
वर्मा ने तो ’अध्यापकीय आलोचना‘ का फिरका ही गढ़ लिया था जिसका
प्रतिवाद देवीशंकर अवस्थी ने किया था। पर ध्यान दें तो एक ही
स्थान पर कई संसार हो सकते हैं। काशी की पण्डित नगरी में तुलसी
की काव्य-रचना हुई, देशी भाषा में रामकथा को नये आशय देती।
वहीं भारतेन्दु सांस्कृतिक जागरण के प्रथम प्रस्थान बने। भाग्य
से लखनऊ की मिली-जुली सभ्यता और अवध की उदार संस्कृति में
कट्टरता की गुंजाशय कम थी। नवाबी परिवेश को उजागर करते निराला
ने ’कुकुरमुत्ता‘ व्यंग्य की रचना १९४१ में की थी: एक थे
नवाब/फारस के मँगाये थे गुलाब। श्रीलाल के ’रागदरबारी‘ की तीखी
टिप्पणी है: सभी जानते हैं कि हमारे कवि और कहानीकार वास्तव
में दार्शनिक हैं और कविता या कथा-साहित्य तो वे सिर्फ यों ही
लिखते हैं। बिना व्यापक जीवनानुभव के रचना का प्रस्थान कैसे
संभव होगा ?
प्रश्न तुलना का नहीं, और इससे बचना भी चाहिए क्योंकि मनुष्य
की तरह स्थानों के भी स्वतंत्र व्यक्तित्व हो सकते हैं। हिन्दी
रचनाशीलता के प्रमुख दावेदारों में काशी, प्रयाग रहे हैं और अब
तो सब कुछ महाराजधानी दिल्ली-केन्द्रित होता जा रहा है।
महानगरों के अपने दुःख-सुख, पर उनके आकर्षण से बच पाना आसान
नहीं। जैसे गाँव उजड़कर शहरों की ओर भाग रहे हैं, वैसी स्थिति
कई बार रचनाकारों की भी दिखाई देती है। भगवती बाबू मुम्बई गए,
लौट आए और मायानगरी के अपने अनुभवों को ’आखिरी दाँव‘ में
लिपिबद्ध किया। अमृतलाल नागर जी भी लखनऊ लौटे। कथा लेखिकाओं
में शिवानी जी हैं जो पहाड़ियों से सामग्री प्राप्त करती हैं,
जिसे वे शान्तिनिकेतन शिक्षा से नया संवेदन-संसार देती हैं, पर
लखनऊ भी उनमें और उनकी बेटी मृणाल पाण्डे में उपस्थित है।
मुद्राराक्षस कलकत्ता गए थे, पर अपनी जमीन में लौटे; उन्होंने
अपनी प्रखरता से कई विवाद उपजाए, पर नये प्रयोगों से चर्चित
हुए। कई विधाओं में उन्होंने कार्य किया। उनसे पूछा जाय तो
कहेंगे: लखनऊ हम पर फ़िदा और हम फ़िदाए लखनऊ। काशी के अग्रज
ठाकुर प्रसाद सिंह (पूर्व सूचना निदेशक) से एक बार पूछा कि
लखनऊ कैसा लगता है तो बोले, यहाँ तो काशी के लोग मुझसे पहले से
मौजूद हैं। उनमें से कुछ ने भंग के रंग की शिकायत की है, पर
लखनऊ की अपनी तहजीब है। नागर जी का उदाहरण दिया जाता है कि
उनमें लखनऊ का ’चौक‘ मुहल्ला रचा-बचा है।
मेरी नियुक्ति आचार्य नरेन्द्रदेव और प्रो. अय्यर की संस्तुति
से लखनऊ क्रिश्चियन कालेज में हुई थी, जहाँ प्रो. ठैकोर हमारे
प्रिंसिपल थे। जब भी अवसर मिलता, विश्वविद्यालय के हिन्दी
विभाग जाता, जहाँ उस समय की अकादमिक सक्रियता से सीखता था।
सर्वश्री दीनदयाल गुप्त की शालीनता याद आती है। आगे चलकर डॉ.
भगीरथ मिश्र सागर में हमारे अध्यक्ष हुए। कवि निशंक जी से अवधी
परिषद की गोष्ठियों में भेंट हो जाती थी। डॉ. रमासिंह का पड़ोसी
तो था ही। नाम गिनाने-भूलने के अपने संकट हैं, पर उस समय लखनऊ
विश्वविद्यालय में कई विषयों के यशस्वी प्राध्यापक थे, जिनमें
से कुछ को सुनने का अवसर भी मिला। तब जाना कि अध्यापन की
सार्थकता विद्यार्थियों की प्रेरणा बन सकने में हैं। यशस्वी
लेखकों के सम्पर्क से लिखने के उत्साह में वृद्धि हुई और जो
कुछ कर सका, उसमें काशी, लखनऊ आरंभिक प्रस्थान के रूप में
मौजूद हैं।
लखनऊ के उन दिनों की याद करता हूँ तो सबसे पहले अच्छी किताबों
से भरी दुकानों पर दृष्टि जाती है। नयी से नयी पुस्तकें मिल
जाती थीं, आदेश देने पर दो सप्ताह में आ जाती थीं। मित्रों के
अपने पुस्तकालय थे, जिनमें आपस में विनिमय भी होता था। स्टिफेन
स्पैंडर लखनऊ आए तो उन्हें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि उनकी
कविताएँ पढ़ी गई हैं, ’इन्काउण्टर‘ भी कुछ लोग मँगाते हैं और ’द
स्ट्रगल आफ द माडर्न‘ अपरिचित पुस्तक नहीं है। मुझे स्मरण है
कि गिरिजा कुमार माथुर और कुंवर नारायण ने निराला की कुछ
कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद प्रस्तुत किये थे, जिन्हें स्पेंडर
ने सराहा था। भोपाल के विश्व कविता समागम में भी इसकी चर्चा
हुई थी। पुरानी-नई पीढ़ी में, लखनऊ में वह टकराहट न थी, जैसी
कुछ अन्य स्थानों पर दिखाई देती है। शीतयुद्ध के दिनों में और
बढ़ते वैचारिक संघर्ष के दौरान तो स्थिति ऐसी असंवादी हुई कि
विचित्र शिविर बनें। काशी, प्रयाग के वैचारिक शिविर सर्वविदित
हैं। रचना में ऐसा अलगाव रचनाशीलता की ऊर्जा का व्यर्थक्षरण
करता है। लखनऊ में काशी, प्रयाग की तरह बंगाली समाज है, जो
अपनी सांस्कृतिक अस्मिता के प्रति सजग है, पर जिसने लखनऊ पर भी
अपनी छाप छोड़ी है, विशेष रूप से संगीत और रंगमंच के क्षेत्रों
में। रवीन्द्र भवन एक प्रकार से सांस्कृतिक मिलन-भूमि है,
जिसमें पुरानी-नयी पीढ़ी को एक साथ देखा जा सकता है। इसी प्रकार
लखनऊ कला विद्यालय के कलाकार, चित्रकार, मूर्तिकार, शिल्पी
कला-संसार को समृद्ध बनाते हैं।
किसी स्थान को बार-बार देखना भी स्वयं में एक अनोखा अनुभव है।
हर बार वह स्थान कुछ बदला सा लगता है। लोगों के चेहरे-मोहरे ही
नहीं बदलते, स्थान भी तेजी से बदलते हैं। लखनऊ का भातखंडे
संगीत महाविद्यालय उत्तर भारत का प्रमुख संगीत शिक्षा संस्थान
रहा है, पर रोजगार की समस्या के इस समय मंे शौकिया
विद्यार्थियों की संख्या में कमी आई है। प्रायः उधर जाता हूँ,
अपनी पुरानी जमीन को छूने, तो लगता है कि नज़ाकत-नफ़ासत का शहर
भी बदल रहा है। कभी ककड़ी को लेकर आवाज़ लगती थी: लैला की
उगलियाँ, मजनूँ की पसलियाँ। ठुमरी ऐसी मशहूर कि उसकी अपनी अलग
पहचान थी, कव्वालों के तो कहने ही क्या ? पर अब नई प्रतिभाएँ
प्रश्न करती हैं- कहाँ गए वे दिन, वे लोग जो सम्मिलित
कला-संसार रचते थे, जब दूर-दूर से सीखने-समझने आते थे। माहौल
ऐसा कि उर्दू, हिन्दी के साथ घर-गाँव की बातें मीठी अवधी में
होती थीं। सुल्तानपुर के विलोचन जी का सम्बन्ध प्रायः काशी से
स्थापित किया जाता है, पर उन्होंने ’अमौला‘ के माध्यम से अपनी
अवधी कविताएँ प्रस्तुत कीं, उन्नीस मात्राओं के बरवे छन्द में:
दाउद महमद तुलसी कह हम दास/ केहि गिनती मंह गिनती जस बन-घास।
स्वतंत्रता संग्राम के दौर में सनेही जी से लेकर पढ़ीस जी, रमई
काका और वंशीधर शुल्क तक अवधी कवियों की एक पूरी पंक्ति थी जो
अलख लगाती थी। नवीन जी और सोहनलाल द्विवेदी की कविताएँ तो
सर्वविदित हैं ही।
लखनऊ और उसके आस-पास की चर्चा करते हुए, हमारा ध्यान लखनवी
तहजीब, तौर-तरीके की ओर जाता है, जिसने आस-पास की रचनाशीलता को
भी अपनी उदार दृष्टि से प्रभावित किया। वहाँ के उर्दू अदब का
जिक्र करते हुए प्रो. एहतिशाम हुसैन ने उर्दू साहित्य के
इतिहास में लखनऊ की आधुनिक काव्य रचना में परिवर्तनों का विशेष
उल्लेख किया है। इसे उन्होंने ’लखनवी रंग‘ कहा है और चकबस्त,
मजाज़ आदि के साथ कई मशहूर शायरों के नाम गिनाए हैं। मुहम्मद
हुसैन आजाद अपनी पुस्तक उर्दू काव्य की जीवनधारा में भी कुछ
पुराऩों का भी उल्लेख करते हैं। लखनऊ का अपना कला संगीत संसार
है। श्री अरूण कुमार सेन ने भातखंडेजी की ’उत्तर भारतीय संगीत
पुस्तक‘ का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत करते हुए उन्हें उद्धृत
किया है कि लखनऊ के अंतिम नवाब वाजिदअली शाह द्वारा ठुमरी को
प्रतिष्ठा मिली, यह एक प्रकार से उत्तरी संगीत का पुनरूत्थान
है। इसी प्रकार लखनऊ में कथक नृत्य का घराना विकसित हुआ,
जिसमें महाराज बिंदादीन से लेकर अच्छन महाराज और लच्छू महाराज
तक के नाम हैं। आचार्य वृहस्पति ने ’मुसलमान और भारतीय संगीत‘
पुस्तक में वाजिदअली शाह युग के संगीत की सराहना की है। १९२६
में भातखंडे जी ने जिस संगीत विद्यालय का आरंभ किया, वह
हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति का शिक्षा केन्द्र बना।
यह सब स्वतंत्र चर्चा का विषय है, पर लखनऊ के कलावृत्त ने
समग्र रचना संसार को प्रभावित किया, इसमें संदेह नहीं।
स्वतंत्रता के पहले दौर में जो भाई-चारा था, उसे सभी ने
देश-प्रेम की भावपूर्ण अभिव्यक्ति दी। पर आज के संदर्भ में
पिछली यादों में खोते हुए, कुछ प्रश्न उठते हैं। उपभोक्ता
सभ्यता के अपने दबाव हैं और रचना के सामने संकट उपस्थित है
क्योंकि वह बिक्री की सामग्री बनने से अपना लक्ष्य निश्चय ही
अधिक मानवीय होता है, उच्चतर मानव मूल्यों की चिंता करता। कहीं
की भी युवा पीढ़ी हो, जिसमें रचना की संभावनाएँ हैं, वह शब्द,
रेखा, रंग, स्वर, भंगिमा के समक्ष उपस्थित वर्तमान संकट का
अनुभव करती है और कोई ऐसा मार्ग चाहती है, जहाँ वह स्वयं को
मुक्त, पर दायित्वपूर्ण अभिव्यक्ति दे सके। मुझे लखनऊ के छठे
दशक के वे दिन याद आते हैं जब हम ’युगचेतना‘ की व्यवस्था में
लगे रहते थे। कुंवर नारायण का शाहनजफ रोड का कमरा हमारा
कार्यालय था और सहयात्री होकर भी, वे हमारे स्थायी अतिथि थे।
हम सम्पादन, संचयन के विषय में पर्याप्त वादमुक्त थे और रचना
का गुण ही अंतिम निर्णायक था। कुछ युवक भी हमारे पास आते थे और
अपनी रचनाओं को प्रकाशित देखकर संतुष्ट थे। आज लगता है कि हर
शहर में जैसे कई टुकड़े होते हैं और उनसे मिलकर एक बिम्ब बनता
है। कुंवर नारायण के कविता संकलन ’अपने सामने‘ में ’लखनऊ‘
शीर्षक कविता है, पूर्व स्मृतियों की कथा कहती: किसी मुर्दा
शानो शौकत की कब्र-सा/किसी बेवा के सब्र सा/जर्जर गुम्बदों के
ऊपर/अवध की उदास शामों का शामियाना थामें/किसी तवाइफ़ की
ग़ज़ल-सा/हर आने वाला दिन किसी बीते हुए कल-सा/कमान-कमर नवाब के
झुके हुए/शरीफ़ आदाब-सा लखनऊ/बारीक मलमल पर कढ़ी हुई बारीकियों
की तरी/इस शहर की कमजोर नफ़ासत/ नवाबी ज़माने की ज़नानी अदाओं
में/किसी मनचले को रिझाने के लिए/क़ब्वालियाँ गाती नज़ाकत/किसी
गरीज़ की तरह नयी ज़िन्दगी के लिए तरसता/सरशार और मजाज का
लखनऊ/किसी शौकीन और हाय किसी बेनियाज़ का लखनऊ/यही है
क़िबला/हमारा और आपका लखनऊ।
८ अक्तूबर २०१२ |