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एक
गली-गाथा उर्फ़ किस्सा-ए-कूचा कायस्थान
--कुमार रवींद्र
शहर लखनऊ,
मोहल्ला यहियागंज
कूचा कायस्थान
ईसवी सन १९५२
पाँच साल हाथरस रहकर हम लखनऊ वापस आ गये हैं। हाथरस प्रवास के
आखिरी साल में बाबूजी कुछ महीनों दिल्ली रहकर उत्तर प्रदेश के
धुर पूरब में स्थित बिहार की सीमा को छूते जिला देवरिया के एक
छोटे से कस्बे बरहज बाज़ार में स्थानांतरित होकर पहुँच गये हैं।
बरहज बाज़ार घाघरा नदी के किनारे स्थित छोटी लाइन का एक छोटा-सा
स्टेशन- एक बहुत ही छोटी जगह- स्वाधीनता संग्राम के एक
गाँधीवादी महानायक बाबा राघवदास की कर्मभूमि होने के कारण ही
ख्यात। प्राकृतिक दृष्टि से समृद्ध, किन्तु आर्थिक दृष्टि से
पिछड़ा- एकदम निरीह। हाथरस से इसी वर्ष मैंने हाईस्कूल की
परीक्षा दी है। आगे की पढ़ाई के लिए लखनऊ आना ज़रूरी हो गया है।
लखनऊ में भी अपना मकान नहीं है किन्तु अम्मा का मायका है और
बाबूजी भी पास के खैराबाद के रहनेवाले हैं। लखनऊ से ही सर्विस
शुरू की थी बाबूजी ने और एक लम्बे अरसे तक वहीं रहे थे। उनकी
बी। कॉम तक की पढ़ाई भी लखनऊ में ही हुई थी। हमारे चाचा और
हमारी दोनों बुआएँ भी लखनऊ में ही हैं। इसीलिए निश्चय यह हुआ
कि अम्मा हम बच्चों के साथ लखनऊ में ही रहें। गर्मी की
छुट्टियों में हम बरहज हो आये हैं। बाबूजी बैंक के इंचार्ज-
छोटी-सी पे-ऑफिस ब्रांच। बाबूजी के अलावा एक क्लर्क-कम-कैशियर,
एक चपरासी, एक चौकीदार, बस इतना-सा स्टाफ। नीचे ऑफिस, ऊपर
बाबूजी के रहने की व्यवस्था - दो साफ-सुथरे कमरे, आगे सड़क का
हाल देखता-बताता छज्जा, एक छोटा-सा किचन। हाथरस का बैंक का
क्वार्टर भी इससे बड़ा नहीं था। लखनऊ में अम्मा ने जो मकान
किराये पर लिया है, उसमें हमारे किराये का हिस्सा बहुत ही छोटा
है। घर भी लखौरी ईंटों का बना, पता नहीं किस बाबा आदम के ज़माने
का। जगह-जगह प्लास्टर
उखड़ा हुआ। किराया भी कम नहीं- बीस रुपया महीना। किन्तु बंद गली
का आखिरी मकान- मकान-मालकिन एकाकी विधवा। एक चौंतीस वर्षीय
स्त्री और उसके छः बच्चों के लिए पूरी तरह सुरक्षित और निरापद।
यह है यादों की डायरी के पहले पृष्ठ की पहली लिखावट। आज इसे
बाँचना मुझे अच्छा लग रहा है। हाँ, अतीत का सब कुछ अच्छा लगने
लगता है। जो तिरछे-टेढ़े, तीखे चुभने वाले कोने होते हैं मौजूदा
समय के, वे बाद में वक्त की घिसावट से गोलाई ले लेते हैं;
चिकने लगने लगते हैं। आज हमारे लिए भी पिछले वक्त के सारे
अभाव, सारे अवसाद, सारे ईर्ष्या-द्वेष-वैमनस्य अपनी चुभन खो
चुके हैं। अब तो कूचा कायस्थान, यहियागंज, लखनऊ के पते से जुडी
रह गई हैं बस कुछ ऐसी यादें, जो आज की हमारी प्रगति, हमारी
समृद्धि के सारे अभावों को पूर रही हैं। काश, हम वैसे ही रहे
होते- स्वप्नशील, संघर्षशील, उत्साहित एवं उद्वेलित। हर बात,
हर घटना तब कितनी ताज़ी लगती थी, कितनी सगी। आज तो
ये साँसें भी अपनी नहीं लगतीं।
कैसे सब कुछ बासी हो गया है।
ख़ैर, छोडिये इस आत्मकथा को और सुनिए दास्तान उस गली की यानी
कूचा कायस्थान की, जिसमें रहते मैंने किशोरावस्था की दुविधाओं
से जूझना सीखा, धुर युवा सपनों का ताज़ा-टटका आस्वाद लिया, देह
की नई-नई गंधों को महसूसा, चित्रकला छोड़ कविताई की ओर पहला कदम
रक्खा और अंततः प्रीति की पहली रुनुक-झुनुक भी सुनी। हाँ, छुवन
की झुरझुरी में भरपूर नहाया-डूबा भी। वह गली अंशतः मुझसे छूटी
सन १९६१ के अंतिम दिनों में, जब मैं सुदूर पंजाब के जालन्धर
शहर में प्राध्यापक होकर प्रवासी हो गया। और अब समय ने छीन ली
हैं मुझसे मेरी जड़ें, जिनका कुछ हिस्सा कूचा कायस्थान में भी
पला-पुसा-बढ़ा। आज मैं तटस्थ होकर यह सब देख पा रहा हूँ,
हालाँकि कहीं अंदर एक
अतीत-गंध आज भी मुझे लुभा रही है, मोहाविष्ट कर रही है।
किन्तु बात कूचा कायस्थान की, यानी उस गली की, जो मुख्यतः निगम
कायस्थों की बसावट थी। आज भी अधिकांश घर निगम कायस्थों के ही
हैं, एक-आध घर ब्राह्मणों के हैं, जिनमें एक परिवार के 'छोटे
महराज' ने पिछली पीढ़ी में पहलवानी और लखनऊ के प्रसिद्ध
बाँकेपन में पर्याप्त खयासति अर्जित की थी। आज उनके भाई-भतीजे
हैं। छोटे महराज की पसली में एक टुंडे ने किसी अंधेरी गली में
ऐसी छुरी अटकाई कि उनका बाँकापन किसी काम न आया और वे वहीं ढेर
हो गये। ऐसी कहानी कूचा कायस्थान की ज़ुबानी हमने सुनी। उनके एक
भतीजे ने बौडी-बिल्डिंग में हमारे रहते कुछ नाम कमाया, किन्तु
अधिक पढ़-लिख न पाने और परिवार की खस्ता हालत के कारण किसी
मामूली नौकरी में मर-खप गया। कुछ उम्र में बड़ा होने से हम उसे
भइया कहते थे। उसके साथ हमने भी कुछ दिनों उसकी देख-रेख में
वेट-लिफ्टिंग की, किन्तु
पढ़ाई और अन्य शौकों के रहते वह देह-सिद्धि बहुत आगे तक नहीं
बढ़ पाई ।
गली के शुरू में एक फाटक लगा था बड़ा-सा, जब हम वहाँ रहने
पहुँचे थे। किन्तु हमारे रहते-रहते उसका घेरा मात्र रह गया था।
उस टूटते फाटक का भी अपना एक इतिहास रहा होगा, जिसका हमें पता
नहीं चला। वैसे यहियागंज नवाबी ज़माने का एक मोहल्ला था, जिसे
शायद बादशाह नसीरुद्दीन के ज़माने में हुए शहर कोतवाल याहया
खां ने बसाया होगा। यानी उन्नीसवीं सदी की शुरूवात में।
मोहल्ले के तंग गली-कूचे, उसके ज्यादातर पुरानी शैली के बोशीदा
हो रहे मकान मेरे इस सोच की तस्दीक करते लगते थे। कूचा
कायस्थान उसी का एक छोटा-सा हिस्सा था। हमारी गली के ठीक
पिछवाड़े एक छोटा-सा नाला बहता था, जिसके आसपास और पार
मुसलमानों की आबादी थी। हमारा घर कूचा कायस्थान में आखिरी था
और हमारी छत की ऊँची दीवार से लगा एक मुस्लिम परिवार का घर था।
लखनऊ शहर में कई मोहल्लों में इस प्रकार की आमने-सामने की या
आगे-पीछे की हिन्दू-मुस्लिम बसावट आज़ादी के कुछ बरसों में बहुत
आम थी। पड़ोस के राजाबाजार में ही झगडेश्वर महादेव का मंदिर
था, जिसकी एक दीवार एक मस्जिद के साथ साँझी थी। और शायद
स्वतन्त्रता-पूर्व की आपसी उलझनों के कारण ही वह मंदिर
झगडेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हो गया होगा। पीढ़ियों-सदियों साथ
रहे दो धार्मिक समुदायों की यह असहिष्णु मनोवृत्ति मेरी समझ से
हमेशा ही परे रही है। एक ओर यह आपसी मनमुटाव और वैमनस्य और
दूसरी ओर अम्मा के साथ रोज़ छत पर हमारी मुस्लिम पड़ोसिन का
अपना दुख-दर्द बाँटना। दुख-दर्द
तो शायद अलग-अलग नहीं होता और
वही हमें एक-दूसरे से जोड़ता है।
हाँ तो बात कूचा कायस्थान की। यानी किस्सा फिर शुरू हो उस गली
का, जिसमें हम पन्द्रह वर्षों से ऊपर रहे और जिसमें रहते मैंने
जिन्दगी की कई अहम मंजिलें पार कीं। मसलन मेरी शादी वहीं से
हुई, मेरे दोनों बच्चे वहीं हुए, कविताई वहीं रहते मैंने शुरू
की आदि-आदि। हाँ, तो उस गली में मकानियत ज्यादातर निगम
कायस्थों की ही थी। एक सक्सेना, एक श्रीवास्तव कायस्थों के घर
के अलावा दो-तीन घर ब्राह्मणों के भी थे । एक नाई एवं एक पासी
परिवार भी रहते थे। जो किरायेदार रहते थे, वे भी अधिकांशतः
कायस्थ। एक ब्राह्मण, एक रस्तोगी और एक ठाकुर भी। छोटा-सा कूचा
कायस्थान। ग़रज यह कि एक पूरा भरा-पुरा परिवेश, जिसमें सभी
एक-दूसरे से परिचित, मुंहबोले रिश्तों से जुड़े यानी कि गली
नहीं पूरा एक कुनबा। हम आये तो अज़नबी थे, किन्तु कब इस कुनबे
का हिस्सा हो गये, पता ही नहीं चला। इधर की यादों में गली
बार-बार आई है। एक कविता में इसी गली के मानुषिक माहौल को
मैंने बाँचा है। कविता यों है-
बात पुरानी
एक गली थी
उसी गली में सब रहते थे
बाम्हन-पासी-कायथ-खत्री / नगरसेठ भी
एक सहन था / खुले पड़े रहते थे उसमें सभी 'गेट' भी
छुआछूत थी / सुख-दुख सब मिलकर सहते थे
पिछवाड़े थे मुसलमान / उनकी मस्जिद थी
साथ आरती औ' अज़ान हों / यही हमारी-उनकी ज़िद थी
परनाले भी / दोनों के संग-संग बहते थे
कुछ दूरी पर गुरुद्वारा था / वहीं चर्च था
वक्त बुरा था / पर दिल सबका शाहखर्च था
खुले प्यार से / सब अपने
शिकवे कहते थे
हाँ, यह सच है- उन दिनों भी एक-दूजे से शिकायतें, गिले-शिकवे
होते ही होंगे। पर हम बच्चों को इसका पता कभी भी नहीं लगा।
आपसदारी में गिले-शिकवे स्थायी तो हो ही नहीं सकते। मुझे लगता
है उन दिनों लोग जीते ही किसी और धरातल पर थे। जीवन में
छोटे-छोटे सुखों का सिलसिला बराबर बना रहे, यह गुर उन्हें आता
था। आज हमारे पैमाने, हमारी
कसौटियाँ बदल गई हैं। इसी से हम सब अधूरे और दिल से बहुत छोटे
हो गये हैं। कालोनियों में फैल गये शहरों में तो, जिसे हम
मोहल्लेदारी कहते हैं, कब की समाप्त हो चुकी है। अब तो
गाँव-गली में भी वह सहज-सरलचित्त सगापन बिरले ही देखने में आता
है।
कूचा कायस्थान के रईस थे
माना चच्चा, उसके अघोषित मुखिया भी। उनका मकान सबसे ऊँचा यानी
तिखंडेवाला, सबसे बड़ा यानी दो पाट-दो सहन-दो आँगन वाला। उनकी
रईसी, उनके घर के बारे में कई किंवदन्तियाँ थीं, यथा - उनके
यहाँ कोई अंदर की गुप्त कोठरी थी, जिसमें सोने-चाँदी से भरे
हुए हंडे थे और उस खजाने की रक्षा एक नागों का जोड़ा करता था।
उस खजाने से बेहद ज़रूरत पड़ने या शादी-ब्याह के मौके पर ही बस
ज़रूरत भर का ही धन निकाल सकते थे। माना चच्चा खुद तो रेलवे
ऑफिस में एक मामूली क्लर्क थे, पर उनके पास ज़मीनी ज़ायदाद काफी
थी, जो उन्हें अपने जवानी में ही दिवंगत हो गये चाचा से मिली
थी। यह मकान उनके चाचा ने ही बनवाया था। इसके अलावा उसी से लगे
दो और मकान भी उनके थे, जिनमें किरायेदार रहते थे। इसके साथ ही
सदर में कई दूकानें भी थीं, जिनका किराया आता था। यह सब मैंने
अपनी विधवा मकान मालकिन से जाना , जिनके साथ अम्मा का बहनापा
हो गया था और जिन्हें हम चाची कहने लगे थे। माना चच्चा की
चाची, जब हम उस गली में रहने पहुँचे, जिन्दा थीं। विधवा चाची
ऊपर के कमरे में सबसे अलग-थलग अकेले ही रहतीं थीं। खाना भी
उनका वहीं पहुँचा दिया जाता था। शुरू में कई साल उस वृद्धा के
कमरे में जन्माष्टमी के अवसर पर शामिल होने की मुझे याद है।
अकेले रहनेवाली वह वृद्धा भी माना चच्चा के घर के रहस्यों का
ही एक हिस्सा थीं। वह रहस्यानुभूति तब बड़ी उत्तेजक लगती थी
मेरे कवि-मन को। मध्यकालीन योरोप की किसी रोमांस-गाथा की जादुई
किले में बंदी राजकन्या या किसी अभिशप्त अप्सरा का रूपक उनके
बारे में सोचकर मेरे किशोर मन में उभरता रहता था। हम सब उन्हें
दादी कहते थे अपनी बातचीत में, क्योंकि वे माना चच्चा की
इकलौती सन्तान गोपाल दद्दा की दादी थीं और गोपाल दद्दा हम युवा
हो रहे लड़कों के लिए आदर्श थे। वे लखनऊ के शिया इंटर कॉलेज में
हिंदी के अध्यापक थे। उनकी पत्नी हम सब की प्रिय भाभी थीं-
हँसमुख स्वभाव, सुंदर भी। युवा मन को सुन्दरता मोहाविष्ट करती
ही है। मेरा कोई बड़ा भाई नहीं था। इसलिए भी यह रिश्ता जल्दी
ही सगे जैसा हो गया।
एक बात और।
युवावस्था के आकर्षण अकारण एवं अहैतुक होते हैं, इसीलिए उनकी
संवेदना अधिक सहज-सरल और जाग्रत होती है। जिस वर्ष हम आये, उसी
वर्ष के प्रारम्भ में उनकी पहली सन्तान, उषा हुई थी। उसके बाद
हमारे उस मोहल्ले में रहते-रहते उनके पाँच बेटियाँ और हो गईं
थीं। उनकी आखिरी सन्तान, उनका इकलौता बेटा हमारे उस गली से
निकल आने के बाद जन्मा। माना चच्चा का मकान चौबीसों घंटे खुला
रहता था। उसका सदर दरवाजा तो हमारी याद में कभी बंद ही नहीं
हुआ। दिन-भर हमारी आमदरफ्त बनी रहती थी और शाम से जमी शतरंज
पूरी रात चलती थी। शतरंज के दो खिलाडी स्थायी थे- भगवती चच्चा
और सिन्हा चच्चा। भगवती चच्चा का अपना मकान था और सिन्हा चच्चा
किराये पर रहने आये थे और हमारी ही तरह एक लम्बे अरसे तक रहे।
अपने-अपने परिवारों को ताले में बंदकर वे दोनों पूरी रात वहीं
जमे रहते। हम लोगों के लखनऊ लौट आने के बाद हमारे चच्चा, जवानी
में विधुर हो जाने के बाद उम्र-भर अकेले ही रहे। माना चच्चा के
मकान के सामने चबूतरे पर बने एकाकी कमरे को भी हमारी
मकान-मालकिन चाची से किराये पर ले लिया था और अब हम दो बड़े
भाई उनके साथ उसी कमरे में रहते थे। गर्मियों में हम लोग
चबूतरे पर ही सोते थे। सामने माना चच्चा के खुले दरवाजे के
पीछे स्थित सहन में प्रेमचन्द के 'शतरंज के खिलाड़ी' के कथानक
को सार्थक करते दीन-दुनिया, वक्त-बेवक्त से बेखबर सिन्हा चच्चा
और भगवती चच्चा अपने शतरंज के मोहरों की नकली लड़ाई लड़ते रहते
थे। आज सोचकर विस्मय होता है कि कैसे वे सारी रात शतरंज खेलने
के बाद ऑफिस जाकर कम करते होंगे। रात में कई बार वे आपस में
किसी चाल को लेकर उलझ पड़ते और प्रेमचन्द के पात्रों की तरह
सिर्फ एक-दूसरे पर तलवार खींचने को छोड़कर और सब करने की नौबत
तक पहुँच जाते, तो उनकी चिल्लाहट से हमारी आँख भी खुल जाती।
माना चच्चा भी शतरंज के शौक़ीन थे, पर वे पूरी रात कभी भी नहीं
बैठे। वैसे उनके यहाँ की दिनचर्या कुछ अज़ीब थी। खाना उनके
यहाँ लगभग आधी रात को होता था। गर्मियों में शाम का उनका
नहाना-धोना भी खाने से कुछ पहले
ही होता था। घर की औरतें इस बीच एक नींद ले लेतीं थीं। हमारी
पहली नींद हो चुकी होती थी, जब उनके यहाँ फिर से जगहर होती थी।
माना चच्चा बहुत ही छोटे कद के थे, किन्तु दिल से वे बड़े
कद्दावर थे। शतरंज के कारण रात-रात भर बिजली जलती थी उनके घर
में, पर उन्होंने कभी भी न तो सोचा न किसी को सोचने दिया कि इस
खर्चे को कौन करे या भगवती चच्चा और सिन्हा चच्चा उनके बिल में
अपना हिस्सा डालें। मध्यम वर्ग के ऐसे रईसमन लोग आज खत्म हो
चुके हैं। आज अपने पर अनापशनाप खर्च करने के लिए तो काफी लोग
रईस हो चुके हैं, किन्तु समाज या मोहल्ले या अन्य किसी पर खर्च
करने के लिए हमारी मुट्ठी बंद हो जाती है। आज सोचता हूँ तो
माना चच्चा जैसे व्यक्तियों पर अचरज होता है। किस मिटटी के बने
थे वे लोग जो सबके लिए अपने हो जाते थे। एक कुतर्क मन में
उपजता था। शायद माना चच्चा अपने घर में छिपे खजाने की, जिसकी
चर्चा दबी जुबान सारी गली में होती थी, सुरक्षा की दृष्टि से
अपने घर में रात-रात भर शतरंज चलने देते हों। किन्तु इन
बुजुर्गों के चले जाने के बाद जब वह सिलसिला खत्म हो गया, तब
यह कुतर्क स्वतः ही ढेर हो गया। मुझे लगता है माना चच्चा का
असली खजाना उनके दिल में था, ऐसा खजाना जो भर मुट्ठी लुटाने पर
भी उनकी जनम- जिन्दगी कभी
खाली नहीं हुआ।
माना चच्चा की एक खासियत और भी थी। वे गली के मात्र रईस ही
नहीं, पूरे कूचा कायस्थान के बड़े बुजुर्ग भी थे। हम लोगों के
घर के शादी-ब्याह उन्हीं के अहाते से निपटे। किसी भी लड़के को
गलत हरकत करते हुए वे पाते, तो उसे वे स्वयं डपटते थे। नौकरी
से रिटायर होने के बाद वे अपने घर की चौखट पर बैठे कौन कहाँ
आया-गया, किसने क्या किया, इसका जायज़ा लेते रहते थे। कोई भी
बाहरी अनजान व्यक्ति दिख जाता, तो उसकी तो शामत ही आ जाती।
बिना उनकी चौकी को पार किये कोई भी गली में इधर-उधर नहीं हो
सकता था। एक घटना आज लगभग पचास वर्षों के बाद भी मेरे मन में
चित्रवत अंकित है। एक आदमी गली से होकर जा रहा था। शायद उसे
पता नहीं था कि गली आगे बंद है। माना चच्चा ने जो उससे पूछताछ
की, उसका वह ठीक से उत्तर नहीं दे पाया। शायद कुछ अकड़ के भी
बोला हो। माना चच्चा ने आव देखा न ताव, ताबड़तोड़ उसे दो-चार
झापड़ जड़ दिए। छोटे-से कद के उछल-उछल कर उसे मारते हुए माना
चच्चा हमारे लिए उस दिन हीरो हो गये थे। आज भी उस दिन की उनकी
दबंग छवि मेरी आँखों में अंकित है। आज में सोचता हूँ कि उनकी
वह दबंगई कहाँ से उपजती थी? उस वामन आकार की शक्ति का स्रोत
क्या था? शायद उनका आत्म-विश्वास उनके स्नेह से उपजता था, जो
वे गली में सभी को देते थे। उन्हें पूरा भरोसा था कि पूरी गली
उनके साथ है। अपने से शरीर से दुगने-तिगने वय्क्ति से वे इसी
भरोसे भिड़ जाते थे। उनकी टोका-टोकी भी हमें अखरती नहीं थी,
क्योंकि हमें पता था कि वे वास्तव में हमारे शुभचिंतक थे और
उनके मन में हमारे कोई दुर्भाव नहीं था। हाँ, यह सच है, वे देखने
में बौने होते हुए भी बौने नहीं थे। आज ऐसे पात्रों के बारे
में सोचकर ही आश्चर्य होता है।
कुछ और विलक्षण व्यक्तियों का ज़िक्र किये बगैर मेरी यह
गली-गाथा अधूरी ही रह जाएगी। भगवती चच्चा का ज़िक्र शतरंज के
सन्दर्भ में पहले ही आ चुका है। रात-रात भर घर से बाहर रहकर
शतरंज खेलनेवाला व्यक्ति आज ही नहीं उस ज़माने में भी अज़ूबा था।
चुटकले और मज़ाक सुनाने में भी वे माहिर थे। कई बार वे शाम-हुए
हमारे चबूतरे पर आ बैठते और पता नहीं कहाँ-कहाँ के मजेदार
किस्से सुनाते। सुनाते समय वे खुद भी इस तरह हँसते थे कि उनकी
आँखों से आँसू निकल आते थे। उनके चुटकुले कई बार श्लीलता की
सीमारेखा भी पार कर जाते थे। पर वे अपने में मस्त, इससे पूरी
तरह लापरवाह कि सुननेवालों में हमारे जैसे युवा-होते लड़के भी
शामिल हैं। किन्तु इस तरह की बेपरवाही का मुखौटा लगाये हर समय
हँसने-हँसाने वाले व्यक्ति की अपनी ज़िंदगी में कई त्रासदियाँ
थीं। उनकी पत्नी को पता नहीं कब से पागलपन के दौरे पड़ते थे।
दूसरे दिन भगवती चच्चा के चेहरे या हाथ पर खरोंच के निशान इस
बात की गवाही देते थे कि पिछले दिन उन्हें किस बीहड़ दौर से
गुज़रना पड़ा है। उनके दो बेटियाँ थीं, जिनकी शादियाँ असफल हो
गईं थीं। उनकी बड़ी बेटी में अपनी माँ के पागलपन के 'जीनसद'
उभर आये थे। भगवती चच्चा और उनकी पत्नी की मृत्यु के बाद वह
पूरी तरह पागल हो गई थी और अपने को इंदिरा गाँधी की बहन
चन्द्रा गाँधी बताती, कभी मेडिकल कॉलेज के किसी डॉक्टर की बीवी
बताती पूरे दुनिया-जहान में भटकती फिरती थी। उसका अंत क्या
हुआ, किसी को नहीं मालूम। छोटी बेटी कहीं नौकरी करने लगी थी और
अपने में गुमसुम रहती थी। भगवती चच्चा शायद इसीलिए अपने को
रात-रात भर शतरंज की बाज़ियों में डुबोए रखते थे। और
हँसने-हँसाने की कोशिश में लगे रहते थे। आज मैं सोच नहीं पाता
हूँ कि हँसते समय उनके
आँसू ख़ुशी के होते थे या अंदर गहरे में चल रहे अनवरत रुदन के।
यह हँसने-हँसने में रोने की मनोदशा बड़ी बीहड़, बड़ी त्रासक
होती है। काश, किसी को भी ऐसी स्थिति से न गुज़रना पड़े !
शतरंज के दूसरे महाखिलाड़ी सिन्हा चच्चा अपने मुंहफट और अक्खड़
स्वभाव के लिए मशहूर थे। प्रसिद्ध कवि हरिवंशराय बच्चन से उनकी
दूर की रिश्तेदारी भी थी। बच्चन जी के छोटे भाई सालिग्राम जी,
जो हाथरस में बाबूजी के साथ बैंक में अफसर रहे थे, द्वारा
बच्चन जी की 'मधुशाला' की तर्ज़ पर विरचित 'टी-शाला' के पद
मैंने उनके मुँह से ही सुने थे। अपने भाइयों और अन्य
रिश्तेदारों से उनकी पटरी कभी नहीं बैठी। किन्तु उनके हमारे
मोहल्ले में आवास के दौरान मैंने उन्हें कभी तैश में आते नहीं
देखा। सम्भवतः शतरंज की बाजियों में उलझकर उनके गुस्से का,
जिसे अरस्तू ने 'क्थारसिस' यानी उदात्तीकरण कहा है, हो गया
होगा। हाँ, उनकी प्रवृत्ति गम्भीर थी और वे सम्भवतः 'नो
नॉनसेंस' व्यक्ति थे।
एक और बहुत ही रोचक व्यक्तित्व हमारे मोहल्ले में था बद्री
बाबू का। उन्हें नज़दीक से जानने का मौका मुझे तब मिला, जब हम
लड़कों ने मोहल्ले में एक 'आल इंडिया चेस एँड कैरम टूर्नामेंट'
का आयोजन किया। बद्री बाबू को आयोजन समिति में 'ट्रेजरार' का
पद दिया गया। इस पद के लिए वे बड़े ही उपयोगी आदमी सिद्ध हुए।
उनकी देखरेख में न तो हिसाब में कोई कोताही हुई और न ही किसी
को भी एक पैसे की भी बेईमानी का मौका मिला। क्योंकि मैं उस
आयोजन का मुख्य संयोजक था, मेरा उनसे रोज़ का साबका पड़ा। ऐसे
आयोजनों में विरोधी भी होते ही हैं। बद्री बाबू की बदौलत उनसे
निबटना आसान हो गया। वे हिसाब-किताब में पूरे 'सिस्टमेटिक' और
नियम-कानून के पूरे पाबंद थे। यानी चाहे धरती इधर से उधर हो
जाये, वे जो नियम या ढंग है, उससे ज़रा-सा भी समझौता करने को
तैयार नहीं होते थे। वैसे देखने में वे पूरी तरह 'बोहेमियन'
लगते थे। वह व्यक्ति प्रसिद्ध अँग्रेजी उपन्यासकार चार्ल्स
डिकेंस के सनकी पात्रों जैसा था। ढीला-ढाला मुड़ा-तुड़ा
पैंट-कोट, भारी जूता-मोजा धारे, सिर पर सोलो हैट लगाये, कई बार
एक-दो दिन की खसखसी दाढ़ी के साथ जब वह व्यक्ति ऑफिस जाने के
लिए अपने घर के पतले-से बरोठे से साईकिल निकाल रहा होता था, तो
मुझे लगता था कि जैसे कोई मैगविच डिकेंस के प्रसिद्ध
उपन्यास 'ग्रेट एक्स्पेक्टेशन्स' से निकलकर हमारे मोहल्ले में
रहने आ गया है। उनका 'शैबी लुक' हमारे के लिए हास्य का विषय
था, किन्तु वही उनकी 'ट्रेडमार्क' पहचान थी। कुछ हद तक उनका
मुखौटा भी। बद्री बाबू हमेशा दो मोज़े पहनते थे। मैंने एक दिन
उनसे इसका कारण पूछा। उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया। किंतु
जल्दी ही मुझे अपनी जिज्ञासा का उत्तर मिल गया। एक रात
टूर्नामेंट के दौरान मैं उनके साथ उनके घर गया। घर का दरवाजा
खोलते ही उनका पैर टूटे काँच के टुकड़ों पर पड़ा। उन्हें एक तरफ
करते हुए उन्होंने मुझसे कहा- 'देखा, दो मोज़े पहने होने का
फ़ायदा, वरना अभी तलवा लहूलुहान हो जाता।' इस बात से उनके हर
घड़ी चौकन्ने रहने की प्रवृत्ति का पता चला। उनके दो बेटे थे।
छोटा बेटा हमारी उम्र का था। दोनों ही बेटों में बाप के सनकीपन
का कुछ-कुछ हिस्सा आया था। वे मोहल्ले में हो रही किसी भी
गतिविधि से अपने को अलग रखते थे। बद्री बाबू जैसा अनोखा सनकी
चरित्र आज देखने को भी नहीं मिलेगा। वे अपनी उपस्थिति से कूचा
कायस्थान के परिवेश को रोचक बनाते थे, इसमें कोई संदेह नहीं
है।
गली में हमारा घर आखिरी था।
हमारे घर से लगा घर एक पंडितजी का था, जिनकी यहियागंज के थोक
मार्केट में शीशे- चीनी के बर्तनों की दूकान थी। उस घर में आगे
के हिस्से में रहते थे बाजपेयी चच्चा-चाची। बाजपेयी चच्चा लखनऊ
विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार ऑफिस में अकाउन्ट्स विभाग में थे।
रिटायर होने तक वे असिस्टेंट रजिस्ट्रार हो गये थे। बाजपेयी
चच्चा के माथे पर लाल रोली की बड़ी-सी बिंदी उनकी विशिष्ट
पहचान थी। दोनों पति-पत्नी स्वरूपवान, खूब गोरे - एकदम गुलाबी
रंग, तीखे नाक-नक्श, अच्छी कद-काठी। किंतु उनके संतान कोई नहीं
थी। चाची खिन्न रहतीं। एक गहरी उदासी उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में
हमेशा बनी रहती थी। एक ग़रीब मुसलमान औरत चाची को सोहर सुनाने
अक्सर आती थी। उसकी आवाज़ में बड़ा दर्द था। एक बार चोरी से
झांककर मैंने उनके बरोठे में देखा था। चाची की आँखों से सोहर
सुनते समय झरझर आँसू बह रहे थे। उसके बाद जब कभी भी सोहर मैं
सुनता, मेरी आँखों के सामने चाची का आँसू-भीगा चेहरा आ जाता और
मैं उदास हो जाता। नियति का यह कैसा न्याय ! ईश्वर ने दोनों को
ऐसा देवतुल्य शरीर-सौष्ठव दिया, अन्य सभी सुख भी दिये, किंतु
संतान न देकर उनकी देह को अधूरा कर दिया था। मैं सोचता और दुखी
हो जाता। बाजपेयी चच्चा-चाची, दोनों ही पान के शौक़ीन थे और
उनके मुंह में पान की गिलौरी बराबर बनी रहती थी। बाजपेयी चच्चा
की खुली हँसी, उनकी सधी-हुई खरखराहटभरी मर्दाना आवाज़, उनका
दमकदार प्रखर व्यक्तित्व आज भी मेरी आँखों में समाया हुआ है।
चच्चा से उनकी दोस्ती हो गई थी, इसलिए वे अक्सर ऑफिस से आने के
बाद चच्चा से बतियाने हमारे चबूतरे पर आ बैठते थे। वे पक्के
लखनौवा चरित्र थे। बातों में खूब चुस्त-दुरुस्त और
चित्ताकर्षक। लखनऊ की उस दौर की विख्यात कवयित्री श्रीमती
स्नेहलता 'स्नेह' के पति श्री शरद, जो स्वयं भी कवि थे और अपने
भारी-भरकम शरीर के कारण भी प्रसिद्ध थे, अक्सर उनसे मिलने आते
थे। उन दोनों की आपसी नोक-झोंक, एक-दूसरे पर मीठी छींटाकशी
मुझे बड़ी प्यारी लगती थी। दोनों अपनी-अपनी बुलंद आवाज़ों में
तब तक एक- दूसरे को कोसते रहते, मीठी गालियाँ देते रहते, जब तक
कि बाजपेयी चच्चा नीचे उतर कर उन्हें अपने साथ ऊपर न लिवा ले
जाते। मैं चकित होता था कि आपसी वार्ता का यह रूप भी हो सकता
है। कोसना भी प्यार में कितना मीठा हो जाता है, यह मैंने उनसे
जाना। हमारे परिवार के अति-गंभीर व्यक्तित्व के लिए तो यह
नितांत नया अनुभव था ही।
मेरी इस गली-गाथा के एक और दिलचस्प पात्र हैं ठाकुर लोटन सिंह
उर्फ़ राजेन्द्र सिंह तोमर। उन्हें सभी ठाकुर साहब कहते थे।
किंतु माना चच्चा वाली चाची उन्हें हमेशा लोटन ही कहतीं थीं।
वे गली के कई मोड़ों में से एक पर स्थित एक बहुत ही पुराने
दो-मंजिला मकान में किराये पर रहते थे। बाद में उन्होंने हम
जिस मकान में रहे, उसी को हमारे जाने के बाद खरीद लिया और उसी
गली में स्थायी रूप से बस गये। उनके परिवार में उनकी पत्नी, कई
साल की नाउम्मीदी के बाद पैदा हुई दो-तीन साल की उनकी बेटी और
उनका भाई, यही थे जब मेरा उनसे परिचय हुआ। ठाकुर साहब असुन्दर
थे- काला रंग, बदशक्ल भी और ऊपर से चेहरे पर चेचक की मार,
किंतु उनका स्वभाव बड़ा अच्छा था। और भी तमाम तरह की उनमें
विशेषताएँ थीं, जो उन्हें आम से खास बनातीं थीं। उनके घर का
नीचे का हिस्सा तो एक पूरा वर्कशाप था, जिसमें पता नहीं
कौन-कौन से औजार उन्होंने लगा रखे थे और जिनसे वे नित नई
कारीगरी करते रहते थे। जो उन्हें सूझ जाये करने को, उसे वे
जल्दी ही पूरी दक्षता से करने लगते थे। उनमें एक कुशल कारीगर
के जन्मजात गुण थे। उन्हें एक बार ट्रांजिस्टर बनाने का शौक
लगा। पता नहीं कितने इष्ट-मित्रों को उन्होंने ट्रांजिस्टर
बनाकर भेंट किये। उन दिनों ट्रांजिस्टर नया-नया ही आया था। इसी
तरह उन्होंने फर्नीचर बनाने का काम अपने घर के लिए पलंग बनाने
के इरादे से शुरू किया और फिर तो पता नहीं कितने मित्रों के
लिए केवल लागत पर क्या-क्या नहीं बनाया। मेरी शादी पर उन्होंने
मुझे एक ड्रेसिंग टेबिल भेंट की, जो आज भी यानी लगभग पैंतालीस
साल बाद भी हमारे काम आ रही है। ऐसा गैर-पेशेवर शौकिया कारीगर
मैंने अपनी पूरी ज़िंदगी में कोई और नहीं देखा। मेरी ओर कविताई
की वज़ह से आकर्षित हुए थे वे। कविता सुनते-सुनते वे स्वयं भी
कवि बन बैठे। बात सन १९५८-५९ की है। मैं उन दिनों 'ययाति'
खंडकाव्य लिख रहा था। वे उसके प्रथम श्रोता रहे। उन्हीं दिनों
वे पूर्वांचल होकर आये। उस यात्रा को उन्होंने पद्यबद्ध कर
डाला। मैं चकित था, क्या विलक्षण व्यक्ति है। पद्य में कहीं
कोई दोष नहीं। उन्हीं दिनों उन्होंने एक उपन्यास भी लिख डाला,
जिसका श्रोता मैं बना। बाद में उन्होंने मुझे अपने दो खंडकाव्य
भी भेंट किये, जिन पर लखनऊ विश्वविद्यालय के किसी एम।फिल।
कक्षा के छात्र ने शोधकार्य भी किया। मेरी कविताओं के प्रथम
श्रोता, तमाम विशिष्टताओं के भंडार ठाकुर राजेन्द्र सिंह तोमर
आज इस धरती पर नहीं हैं, पर उनकी स्नेहिल निश्छल हंसी, जो उनके
कुरूप चेहरे को एक अनूठी आभा, एक अछूते सौन्दर्य से मंडित कर
देती थी, आज भी मेरी यादों में कौंध- कौंध जाती है।
मेरी इस गली-गाथा का कोई अंत नहीं। 'हरि अनंत हरिकथा अनंता' की
भांति इस गाथा का न तो मैं आदि कह सका हूँ, न ही अंत कह
पाऊँगा। बस इतना जानता हूँ कि एक बानगी मैंने देने का यत्न
किया है कूचा कायस्थान के उस बहुरंगी पटवस्त्र की, जिसने मेरी
किशोरावस्था और शुरूआती युवावस्था को एक रागात्मक भावभूमि दी।
मेरे जीवन-मंच की यही है पृष्ठभूमि। कई और पात्र हैं, कई और
चरित्र हैं, उन पर फिर कभी और।
पुनश्च :
किस्सा कोताह बस इतना-सा कि गली गुलज़ार थी, बुलबुले-बहार थी।
आज वह गली है, पर न वो बहार है और न वह बुलबुल की चहक। पिछले
दिनों गली में जाना हुआ। गोपाल दादा नहीं रहे थे। वे अंतिम शेष
कड़ी थे हमें उस गली से जोड़ने के। गली सुनसान थी, हर दरवाजा
बंद । माना चच्चा की पुरानी हवेली चुपचाप, एकदम खामोश, जैसे कि
दस्तक से भी डरी हुई। गुज़र चुका था एक माहौल, खत्म हो चुकी थी
गली की परी-कहानी। गरज़ यह कि जिस्म था, रूह फ़ना हो चुकी थी।
१३ दिसंबर
२०१० |