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नगरनामा लंदन


लंदन की चकाचौंध 


सुधेश 

 

जलयान को संगठित चैनल पार करने में लगभग चार घंटे लगे। २३ मई को सवेरे पाँच बजे हम यात्री इंग्लैंड के बंदरगाह डोवर्स पहुँचे।
चैकपोस्ट के भीतर घुसते ही देखा कि यूरोपीय लोगों के लिए एक लाइन है तो गैरयूरोपीय यात्रियों के लिए अलग दूसरी लाइन है। मेरा माथ ठनका और मैं सोचने लगा कि लो, भेदभाव शुरू हो गया।

एक फॉर्म भरकर मैं भी अँग्रेज अधिकारी के सामने उपस्थित हुआ। उसने पूछा - 'आप लंदन क्यों जाना चाहते हैं?'
मैंने यह कहते हुए कि लंदन विश्वविद्यालय में कुछ शोधकार्य करना है और घूमना-फिरना है, अपने विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार का एक पत्र उसके सामने रख दिया। उसने उस पत्र को पढ़ने के बाद और मेरा पासपोर्ट देखकर फिर प्रश्न किया - 'आपके पास कितनी धनराशि है?'
पश्चिमी जर्मनी में मित्रों ने सलाह दी थी कि अँग्रेज अधिकारी के साथ दबंग होकर बात करना, क्यों कि विनम्रता का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। मैंने दबंग लहजे में कहा - "यह एक अप्रासंगिक प्रश्न है। आपको इस बात से क्या मतलब कि मेरे पास कितनी धनराशि है?"
उसने विनम्रता से दोहराया - "कृपया अनुमान से बता दीजिए। आप एक सप्ताह लंदन में रहना चाहते हैं। क्या वहाँ अधिक देर तक ठहरने के आपके पास पैसे नहीं है?"
मैंने उसे बताया- "मेरे पास पाँच सौ डालर से अधिक ही होंगे। पर क्या आपका देश दुनिया का सबसे सुंदर देश है जहाँ अधिक समय तक रहना ही चाहिए?"
वह मेरी स्पष्टवादिता पर मुस्कुराया। मेरे पीछे खड़े यात्री भी वह बातचीत सुन रहे थे। अँग्रेज अधिकारी फिर गंभीर हो गया और बोला- "आपका व्यवसाय क्या है?"
मेरा उत्तर सुनकर उसने यह कहते हुए मेरे पासपोर्ट पर अपनी मुहर लगा दी - "तो आप दिल्ली से एक प्रोफेसर हैं। अच्छा जाइए। आपकी यात्रा सुखद हो।"

हिंदुस्तानियों के साथ अँग्रेज अधिकारियों के दुर्वव्यवहार की बहुत-सी बातें मैंने सुन और पढ़ रखी थीं, पर डोवर्स बंदरगाह में कोई ऐसी बात नहीं हुई जिसे दुर्वव्यवहार कहा जा सके। हाँ, गैर-यूरोपीय यात्रियों के लिए अलग लाइन की व्यवस्था मुझे अच्छी नहीं लगी।
चैकपोस्ट की औपचारिकताओं में एक घंटा लगा होगा। प्रात: आठ बजे हमारी बस लंदन के विक्टोरिया स्टेशन के पास अंतर्राष्ट्रीय बस अड्डे पर पहुँच गई।
धरती के नीचे चलने वाली रेलगाड़ी (जिसे वहाँ ट्यूब कहा जाता है) का स्टेशन लगभग एक फर्लांग चलने पर मिल गया। ट्यूब से वारेन स्ट्रीट स्टेशन पर पहुँचा। उसके पास ही भारतीय वाई.एम.सी.ए. होस्टल जाने पर एक भारतीय शोधार्थी महिपाल सिंह तोमर मिले, पर होस्टल में कमरा नहीं मिला। तोमर मुझे अपने कमरे में ले गए और चाय-डबलरोटी से मेरा स्वागत किया।

होस्टल के व्यवस्थापक रायचौधरी तो नहीं मिले, पर एक दूसरे भारतीय अधिकारी नायक ने मुझे कमरा देने से साफ इंकार कर दिया और वह श्रीमती गुलशन के अतिथिगृह में चले जाने का परामर्श देने लगे। उन्होंने श्रीमती गुलशन को फोन करके मेरे लिए कमरा भी निश्चित कर दिया। शायद नायक ने उस अतिथिगृह में भारतीय यात्रियों को भेजने का कोई कमीशन बाँध रखा हो। जितनी तत्परता उन्होंने मुझे अतिथिगृह में भेजने में दिखाई, उतनी वाई.एम.सी.ए. होस्टल में ठहरने में नहीं दिखाई। थोड़ी देर बाद मैंने देखा कि उन्होंने किसी हिंदुस्तानी जोड़े को वहाँ ठहरने की जगह दी। खेद की बात है कि भारत के बाहर रहने वाले हिंदुस्तानी बंगाली, पंजाबी, ईसाई और सिख आदि पहले हैं, हिंदुस्तानी बाद में। वे जो भारत में करते हैं, नायक जैसे लोग वही लंदन में या अन्यत्र करते हैं।

विदेशों में जब भारतीय लोग जातीय भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाते हैं, तो उनसे कहा जाता है कि पहले अपने देश में तो जातीय भेदभाव समाप्त करो। विदेशों में बसे अधिकांश भारतीय जन, भारतीय समाज की क्रीम (श्रेष्ठ तत्व) हैं, पर उस तलछट का क्या किया जाए जो पूरे भारत को बदनाम करने पर तुली है? और यह तलछट भी वहाँ कम संख्या में नहीं है।
तोमर के सहयोग से पास के फिट्जराय होस्टल में वाजिब दाम पर एक कमरा मिल गया। किराया पेशगी देना पड़ा। रिसेप्शनिस्ट या परिचारिका एक अँग्रेज लड़की थी - बड़ी चरपरी और गुस्ताख। अगले दिन सवेरे मैं किसी काम से स्वागत कक्ष में गया। कोई बंगाली सरकार कमरे की तलाश में वहाँ आए। उन्होंने अपनी सिगरेट का टोटा उस परिचारिका की मेज के नीचे फेंक दिया, जैसे वे स्वभावत: भारत में करते होंगे। चरपरी लड़की अपनी कुर्सी पर से खड़ी हो गई, जैसे बिजली का करंट लगा हो, और चिल्लाने लगी - "ओ असभ्य आदमी! क्या करते हो?"
सरकार साहब सिगरेट का टोटा उठाकर खुली खिड़की से बाहर फेंकने की तैयार करने लगे।
वह फिर चिल्लाई -"नहीं, नहीं, ठहरो, ठहरो।"
तब वह कोने में रखे कूड़ेदान को उठा लाई। उसमें टोटा डालकर सरकार की जान बची। इस मामूली दुर्घटना के बावजूद सरकार को वहाँ कमरा मिल गया।

तैयार होकर मैं फिट्ज़राय से बाहर निकला। लंदन विश्वविद्यालय वहाँ से पास ही था, पैदल लगभग दस मिनट का रास्ता। टोटनहेम रोड पार कर एक दोराहे पर रास्ता चलते लगभग बीस वर्ष के एक अँग्रेज लड़के से पूछना पड़ा -"लंदन विश्वविद्यालय कहाँ है?"
वह लड़का खड़ा हो गया और आश्चर्यचकित-सा बोला - "क्या?" जैसे उसने लंदन विश्वविद्यालय का नाम जीवन में पहली बार सुना हो।
मैंने अपना प्रश्न फिर दोहराया। यहाँ भाषा की कठिनाई नहीं थी, पर समझ का फेर था। उस युवक ने कुछ सोचा, जैसे कुछ याद कर रहा हो। फिर कंधे उचकाते हुआ बोला- "मुझे मालूम नहीं है।" और चल दिया। मैं अनुमान से ही एक सड़क की ओर मुड़ गया और लगभग दो मिनट चलने पर लंदन विश्वविद्यालय पहुँच गया। मैं विस्मित था कि लंदन विश्वविद्यालय की जड़ में खड़ा अँगरेज युवक अपने शहर के विश्वविद्यालय को नहीं जानता। वह कोई अर्धशिक्षित युवक था, जिसे कभी विश्वविद्यालय जाने की जरूरत नहीं पड़ी थी। वह अँग्रेजों की नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व नहीं करता था, पर उसे देखकर अनुमान लगाया जा सकता था कि अँग्रेज लड़के-लड़कियों की नई पीढ़ी उच्च शिक्षा के प्रति उदासीन है। हाँ, ग्यारह-बारह वर्षों की स्कूली शिक्षा वे अवश्य ले लेते हैं और उसके बाद किसी-न-किसी धंधे में लग जाते हैं। शाम के पाँच बजे के बाद ये लड़के-लड़कियाँ किसी होटल या शराबखाने में अथवा किसी पार्क में अपनी प्रेमिकाओं या प्रेमियों के साथ शामें गुजारते हैं और आधी रात तक उनकी काम क्रीड़ाएँ चलती हैं। यह नई पीढ़ी न तो अँग्रेजी साहित्य की खबर रखती है और न पश्चिमी कला की। इसलिए आजकल लंदन के सांस्कृतिक केंद्र होने में मुझे संदेह है। सांस्कृतिक-स्तर की पहचान अन्य बातों के अतिरिक्त किसी देश के निवासियों के शिक्षा के स्तर से भी की जा सकती है।

लंदन मुझे व्यापारियों का शहर लगा। वह कई शताब्दियों से अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और पश्चिमी सभ्यता एवं संस्कृति का केंद्र रहा है। उसकी आक्सफोर्ड स्ट्रीट अब भी एक अंतर्राष्ट्रीय बाजार है, जहाँ यूरोप से ही नहीं, अफ्रीका और अमेरिका महाद्वीपों से भी लोग खरीदारी करने आते हैं। पर आजकल क्या उसे यूरोप का सांस्कृतिक केंद्र कहा जा सकता है? शायद नहीं। रात को लगभग साढे आठ बजे होस्टल के पास ओरिएंट रेस्त्रां में मैं इस आशा से गया कि वहाँ हिंदुस्तानी शाकाहारी भोजन मिल जाएगा। उसका मालिक बंगलादेशी है। उसने बंगला मिश्रित हिंदुस्तानी में बात की। जहाँ मैं बैठा भोजन कर रहा था, सामने की कुर्सी पर बैठी दीवार से सटी एक अँग्रेज लड़की किसी कागज़ पर कुछ लिख रही थी। मैं समझा कि वह भोजन या शराब की प्रतीक्षा में है।

थोड़ी देर में वह उठकर अंदर गई और रंगीन रेशमी कपड़ों में कुछ नग्न-सी सजकर आई और घुँघरू छनकाती हुई कमरे के बीच नाचने लगी। पश्चिमी संगीत की धुन उसके पदचाप का साथ दे रही थी अथवा उसका नृत्य उस धुन का अनुसरण कर रहा था, कहना कठिन है, पर उसके कामोत्तेजक नृत्य ने उपस्थित लोगों का ध्यान आकृष्ट कर लिया। कई मेज़ों पर तो ग्राहक शराब के प्याले मुँह से लगाए बैठे थे। वे होठों से मदिरा पी रहे थे और आँखों से उस श्वेतांगना नवयौवना की रूप माधुरी को, जो कभी कमर और नितंब लचकती और कभी झुककर स्तनों को संगीत की ताल पर इस प्रकार उत्तोलित करती जैसे वे कामदेव को रति के लिए निमंत्रण दे रहे हों।

संगीत की ध्वनि कभी मंद होती, कभी मध्यम से तीव्र होती हुई तीव्रतर अवस्था तक पहुँच जाती। नर्तकी के नृत्य में भी उसी तरह गति आती और वह हाथ, पाँव, कमर, पेट, नितंब, कुच, दृष्टिभंगिमा से कामोत्तेजक इशारे करती हुई, जब नृत्य की पराकाष्ठा पर पहुँचती तो उसके कोमलांगों का वस्त्राभरण से संबंध प्राय: नहीं रह गया था। इधर मेरा भोजन समाप्त हुआ, उधर नर्तकी का नृत्य। भूख इतनी लगी थी कि कमबख्त भोजन जल्दी समाप्त नहीं हो सका। होटल के बैरे ने पूछा - "व्हिस्की लाऊँ या जिन?"
मेरा उत्तर था - "कोका कोला।" जिसे सुनकर वह हँसा।
यूरोप के होटलों में खाद्य पदार्थ के साथ प्राय: पानी नहीं दिया जाता। पानी की जगह तरह-तरह की शराब दी जाती है। इसीलिए मुझे खाने के बाद कोकाकोला की इच्छा हुई। बैरा चतुर था। कोकाकोला, बर्फ और कांच का गिलास मेरे सामने रखते हुए उसने फिर पाँसा फेंका- "साहब, अभी तो वह फिर नाचेगी।" मैंने कहा -"बिल लाओ।" वह बिल लाया।
मैंने बिल के साथ चार पौंड उसे देकर होटल से बाहर कदम रखा। रास्ते में सोचता जा रहा था, यह नृत्य है या नग्नता का प्रदर्शन। पश्चिमी नृत्य की पराकाष्ठा कामोत्तेजना में हैं। भारतीय नृत्य इससे कितना भिन्न है, जिसमें संयोग, वियोग, शृंगार के प्रदर्शन के बावजूद कामोत्तेजना का अभाव रहता है, बल्कि एक पावनता का वातावरण रहता है। 'ओरिएंट' रेस्त्रां में एशियाई या भारतीय संगीत एवं नृत्य नहीं था। साइन बोर्ड पर लिखे 'ओरिएंट' शब्द ने आज कितना धोखा दिया! कहाँ फँस गया था!

अगले दिन प्रात: चाय के समय भारतीय मूल के एक विदेशी डी.आर. किरण से भेंट हुई जो अपनी पत्नी और बच्चों के साथ उसी होस्टल में ठहरे थे। वह तंजानिया की राजधानी में विश्व बैंक के परामर्शदाता के रूप में काम करते हैं और छुट्टी लेकर लंदन सैर करने आए थे। रंग-रूप से वह दक्षिण भारतीय लगते थे। विदेश में मुझे जब भी कोई हिंदुस्तानी मिला, मैंने उससे हिंदी में ही बात करने की कोशिश की। शायद कुछ लोग इसे मेरा दुराग्रह कहें। वास्तविकता यह है कि वहाँ अँग्रेजी बोलते-बोलते मेरी वही मानसिक स्थिति हो जाती, जो किसी चावल खाने वाले की कई दिनों तक डबलरोटी खाते-खाते हो जाती है।

डी.आर. किरण को सामने देखकर मैंने हिंदी में बात शुरू कर दी। उन्होंने टूटी-फूटी हिंदी ही सही, पर हिंदी में बात की और उनकी पत्नी भी बीच-बीच में 'हाँ' और 'नहीं' में उत्तर देती रहीं। पास में कुछ यूरोपीय यात्री बैठे नाश्ता कर रहे थे। हिंदी में बोलकर एक तो हम उनके सामने अपनी अलग पहचान रख सके और इस प्रकार एक आत्मसम्मान का अनुभव हुआ और दूसरे वे विदेशी यह नहीं समझ सके कि हम किस बारे में बात कर रहे हैं। यदि मैं कोई दक्षिण भारतीय भाषा जानता तो किरण से उसी में बात करता। किरण ने अपना पता दिया और मेरा पता लिया। कहाँ तंजानिया और कहाँ भारत, पर भारतीयता के सूत्र ने हमें मैत्री में बाँध दिया।

प्राच्य एवं अफ्रीकी विद्या संस्थान में उर्दू के प्रोफेसर डेविड मैथ्यूज से आज मिलकर बड़ी खुशी हुई। उनसे पहली भेंट दिल्ली में अपने विश्वविद्यालय में ही कई वर्षों पहले हुई थी। आज पुरानी मुलाकात ताजा हुई और आगामी मुलाकातों की भूमिका बँधी। वह मुझे कैंटीन में ले गए। जहाँ हमने चाय पी। उनकी बातों में गर्मजोशी थी और आँखों में मिलने की खुशी की चमक। वह उर्दू लहजे में धाराप्रवाह साफ उर्दू बोलते हैं और बीच में हिंदी शब्दों का खूबसूरत इस्तेमाल करते जाते हैं। वह हिंदी और नेपाली भी अच्छी तरह जानते हैं। लंबे डील-डौल वाले डेविड मैथ्यूज, एक कश्मीरी-से लगते हैं। उन्हें उर्दू बोलते देखकर कोई उन्हें अँग्रेज नहीं बता सकता।

मैथ्यूज ने एक घटना सुनाई। कई वर्षों पहले जब वह लंबा कुर्ता और पठानों वाला चौड़ा पाजामा पहने पाकिस्तान में किसी स्थान की यात्रा कर रहे थे, तब एक अखबार वाले से उन्होंने अखबार खरीदना चाहा। उनकी वेशभूषा के कारण अखबार वाले ने उन्हें पाकिस्तानी समझा और उर्दू अखबार आगे कर दिया। जब उन्होंने अँग्रेजी अखबार पर हाथ रखा तो वह बोला -"यह अँग्रेजी का है! यह आपके बस का नहीं हैं।" उनका उत्तर था -"भाईजान, थोड़ी-थोड़ी अँग्रेजी भी पढ़ लेता हूँ।" उसे क्या पता था। जो आदमी उसके सामने खड़ा था उसकी मातृभाषा अँग्रेजी है।

पच्चीस मई को आधा दिन वीज़ा लेने के चक्कर में बेल्जियम और अमेरिकी दूतावासों में निकल गया। वापसी में बेल्जियम की धरती से गुजरने के लिए फिर परिगमन आज्ञा (ट्रांज़िट वीज़ा) लेनी थी। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, वर्कले से प्राप्त तार के आधार पर अमेरिकी दूतावास से यात्री वीज़ा दो घंटों में मिल गया। हॉल में प्रतीक्षा करते हुए पास बैठे हिंदुस्तानी से बात हुई। वह एक गुजराती युवक था, जिसका परिवार व्यापार के सिलसिले में ब्रिटेन आया था और वहीं बस गया। उससे बातचीत हिंदी में हुई। वह अँग्रेजी मिश्रित हिंदी बोल रहा था। उससे पूछा -"आपकी मातृभाषा क्या है?"
उत्तर मिला -"गुजराती।"
मेरी जिज्ञासा थी -"यहाँ के नागरिक बनकर क्या आप गुजराती भूल गए हैं?"
उसने कहा -"नहीं, घर में हम लोग गुजराती बोलते हैं और बाहर तो अँग्रेजी ही चलती है। हमारी दुकान पर भी अँग्रेजी में सारा काम होता है।"
"आपकी दुकान पर हिंदुस्तानी ग्राहक किस भाषा में बोलते हैं?" इस प्रश्न के उत्तर में उसने कहा -"अँग्रेजी में ही। आप पहले हिंदुस्तानी मिले जो यहाँ हिंदी में बात कर रहे हैं। हिंदी अपने देश की भाषा है। मैं अच्छी हिंदी नहीं जानता, पर मुझे हिंदी में बोलना अच्छा लगता है।"

उस गुजराती युवक से मालूम हुआ कि लंदन में गुजराती, मारवाड़ी और पंजाबी व्यापार में अच्छा स्थान रखते हैं। वे अपनी दुकानों और व्यापारिक संस्थानों में बहुत-से अँग्रेजों को नौकर रखते हैं। पर उनकी समृद्धि केवल उन्हीं के लिए है। वे अपनी भाषाओं और भारतीय संस्कृति के लिए प्राय: कुछ नहीं करते। कुछ लोग अपवाद हो सकते हैं।

सवेरे बेल्जियम दूतावास से हाइड पार्क की ओर आते हुए एक 'सब-वे' (धरती के नीचे की सड़क) पार करके मुझे दूसरी सड़क पर जाना था। 'सब-वे' पर गोरी चमड़ी वाले भिखारियों को एक बाजा बजाकर भीख मांगते हुए देखा। वे सभी हिप्पी जैसी वेशभूषा में थे और उनके साथ एक जवान लड़की थी। वे शारीरिक दृष्टि से लाचार भी नहीं थे। मैं पास से गुजरा तो एक ने हाथ फैला दिया। मुझे अमेरिकी दूतावास पहुँचने की जल्दी थी। इसलिए मैं आगे बढ़ गया।

हम लोग फिर अपने पुस्तकालय पहुँचे और अपने-अपने काम में लग गए। शाम को छह बजे प्राच्य एवं अफ्रीकी अध्ययन संस्थान की ओर से एक फिल्म ब्रज - द लैंड आफ कृष्णा देखी, जो संस्थान के कक्ष में ही प्रदर्शित की गई। इसमें कृष्ण के जीवन की घटनाओं और उनकी लीलास्थलियों को विभिन्न चित्रों तथा फोटो दृश्यों के माध्यम से दिखाया गया है। वाचक की टिप्पणी स्वभावत: अँग्रेजी में थी। एक दूसरी फिल्म वृंदावन अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थान के बारे में प्रदर्शित की गई। ये दोनों वृत्तचित्र प्राच्य एवं अफ्रीउा अध्ययन संस्थान द्वारा निर्मित हैं। वृंदावन के अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थान के मूल संस्थापक डा.रामदास गुप्त हैं जो लंदन में हिंदी पढ़ाते हैं। पर इस फिल्म में उनके नाम और काम का कहीं उल्लेख नहीं है, जबकि प्राच्य एवं अफ्रीकी अध्ययन संस्थान के अध्यक्ष प्रो.जे.सी.राइट की वृंदावन यात्रा और शोध संस्थान में उनके क्रियाकलाप को प्रमुखता से प्रदर्शित किया गया है।

मुझे यह विचित्र लगा कि एक भारतीय शोध संस्थान की स्थापना में जिस भारतीय ने दिन-रात परिश्रम किया और वृंदावन जैसे छोटे स्थान पर एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था खड़ी करने में बहुमूल्य सहयोग दिया, उसे इस वृत्तचित्र में उसका श्रेय नहीं दिया गया। स्पष्ट है कि अँग्रेज लोग किसी अच्छे काम का श्रेय भी भारतीयों को नहीं देना चाहते। कुछ अँग्रेज और उनके भक्त हिंदी गद्य के विकास का श्रेय कलकत्ता के फोर्ट विलियम कालेज के हिंदी प्रोफेसर गिलक्रिस्ट को देना चाहते हैं। मैंने कहीं पढ़ा है कि कुछ लोग बंगला गद्य का जनक भी गिलक्रिस्ट को बताते हैं। वहाँ से लौटते हुए बिजलीचालित बस हाइड पार्क के कोने से मिल गई। बस का कंडक्टर कोई हिंदुस्तानी प्रतीत हुआ। मैं उसके सामने बैठा था। वह टिकट बाँट चुका तो मैंने पूछा -"क्या हिंदुस्तान से?"
उसने भी हिंदुस्तानी में जवाब दिया -"पाकिस्तान से।"
देश बँट गया, पर हिंदुस्तानी जुबान का बँटवारा नहीं हो सका, इसका अनुभव उस पाकिस्तानी कंडक्टर से बात करते हुए उस दिन भी हुआ। उसके पूछने पर मैंने बताया कि मैं दिल्ली से आया हूँ। दिल्ली का नाम सुनते ही वह खिल गया, जैसे दिल्ली के साथ उसकी बहुत स्मृतियाँ जुड़ी थीं, जिन्हें 'दिल्ली' शब्द ने कुरेदकर जगा दिया था।

वह बोला -"क्या बात है दिल्ली की! मैंने दिल्ली देखी है। मैं भी हिंदुस्तानी हूँ। मैं लुधियाने का हूँ। क्या दिन थे वे भी।
वह एक साथ कई बातें बता गया। मैंने याद दिलाया कि थोड़ी देर पहले उसने स्वयं को पाकिस्तानी बताया था। वह हँसा और अचानक गंभीर होकर कहने लगा -"भाई साहब! मेरी पैदाइश लुधियाने में हुई, जहाँ हमारे कई मकान थे। तो मैं हिंदुस्तानी हो गया। किस कम्बख्त घड़ी में पाकिस्तान बना कि हम पाकिस्तान आ गए और मैं पाकिस्तानी हो गया। अब पिछले दस-बारह बरसों से लंदन में हूँ तो यहाँ का शहरी हो गया। लेकिन भाई साहब, बुनियादी तौर पर मैं हिंदुस्तानी हूँ। हूँ न?"

उसकी हँसी में उसका दर्द कराह रहा था। उसे अपनी पहचान न पाकिस्तान में मिली और न इंग्लैंड में। तभी वह मुझसे अपने हिंदुस्तानी होने की तसदीक चाहता था। देश-विभाजन की व्यर्थता की अनुभूति और हिंदुस्तान छोड़कर पाकिस्तान जाने पर पश्चाताप की वेदना उसके शब्द-शब्द से प्रकट हो रही थी।
भारत छोड़ने के छत्तीस वर्षों बाद भी कंडक्टर कह रहा था - "मैं लुधियाना का हूँ।"
'था' नहीं 'हूँ' पर ध्यान दीजिए।
उसकी वर्तमान स्थिति का पता लगाना चाहा - "कितने पौंड पाते हो?"
"फ़ी हफ्ता एक सौ तीस पाउंड।" अर्थात एक महीने में ५२० पाउंड। उसने हिसाब लगा कर बताया कि उसका मासिक वेतन दस हजार चालीस पाकिस्तानी रूपयों के बराबर था।
यह पूछ जाने पर कि क्या वह पाकिस्तान लौटना पसंद करेगा? उसने कहा - "नहीं, वहाँ दस हजार रूपए महीना कौन देगा मुझे? यहाँ लंदन में अपना मकान है, पक्की नौकरी है, अच्छी तनख्वाह। फिर पाकिस्तान में महाजिर (यात्री अर्थात् शरणार्थी) होने की वजह से मेरे साथ भेदभाव किया जाता था।"

जीवन में कितने संकट हैं। इस्लाम के नाम पर पाकिस्तान बन गया। फिर मुसलमान का मुसलमान से भेदभाव, जबकि इस्लामी समाज भाईचारे के लिए प्रसिद्ध है। विदेश में नौकरी और वहाँ की नागरिकता लेने के बावजूद व्यक्ति अजनबियत का शिकार! तन कहीं है, पर मन कहीं दूसरी जगह, जहाँ लौटना असंभव हो। यह एक मानवीय त्रासदी नहीं तो क्या है?
ऐसी त्रासदियाँ अनेक हैं, जो काल्पनिक नहीं, यथार्थ हैं। फिर भी आज का आदमी धर्म के नाम पर देश बाँटता है, भाषा बाँटता है, जाति और संस्कृति बाँटता है और पेट भरने पर धर्म, देश, भाषा, जाति और संस्कृति आदि सब कुछ भूल जाता है। वह धरती से उखड़े पेड़ की तरह जीवन को जीने का अभ्यस्त हो गया। कुछ मिनटों की भेंट में वह कंडक्टर मेरे सामने कितने प्रश्न उछालकर चला गया।

सत्ताइस मई को दो बजे मुझे बी.बी.सी. पर रिकार्डिंग (ध्वनि अंकन) के लिए बुलाया गया था। रास्ते में एक होटल में भोजन करके निश्चित समय पर बी.बी.सी. कार्यालय में पहुँच गया। राजनारायण बिसारिया और नरेश कौशिक मिले। बिसारिया मुझे कैलाश बुधवार से, जो वहाँ हिंदी सेवा के प्रभारी हैं, मिलवाने उनके कक्ष में ले गए।

कैलाश जी बड़ी सहृदयता से पेश आए। वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय के स्नातक हैं, जहाँ बिसारिया जी उनके सहपाठी थे। लगभग दस मिनट तक उनसे शुद्ध हिंदी में (एक भी अँग्रेज शब्द के बिना) बातचीत हुई। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी के पाठ्यक्रम के बारे में पूछा और फिर वहाँ हुए छात्रों के हिंसात्मक उपद्रव के बारे में। फिर बिसारिया जी अपने प्रसारण कक्ष (स्टूडियो) में ले गए, जहाँ पहले सांस्कृतिक चर्चा कार्यक्रम के लिए उन्होंने मेरी तीन कविताएँ और चार-पाँच हाइकू ध्वन्यांकित किए। इसमें लगभग दस मिनट लगे होंगे। फिर 'युवापीढ़ी' कार्यक्रम के लिए एक पंद्रह मिनट की बातचीत रिकार्ड की जिसमें उन्होंने कई रोचक प्रश्न किए।

बी.बी.सी. वाले विश्व में घट रही छोटी-बड़ी घटनाओं की अधुनातन जानकारी रखते हैं। बिसारिया जी ने शायद उसी कोशिश में हमारे विश्वविद्यालय के छात्र आंदोलन के स्वरूप और उसके कारणों के बारे में पूछा तो मैं असमंजस में पड़ गया। वस्तुस्थिति कहता तो कुछ कटु सत्यों का उद्घाटन होता, जिससे अपने विश्वविद्यालय की गरिमा और उसकी अंतर्राष्ट्रीय छवि धूमिल होती। यदि कुछ छिपाता तो प्रश्न का उत्तर संतोषजनक न होता। सोचने का भी समय नहीं था, क्यों कि टेपरिकार्डर चालू था। मैंने तुरंत कूटनीतिक उत्तर दिया, जिसमें नपे-तुले शब्दों में तथ्य की ओर सूक्ष्म संकेत किए जाते हैं, जिन्हें समझने वाले समझ लेते हैं और नासमझ इधर-उधर देखने लगते हैं। मैं इस प्रकार के उत्तर देने का कौशल तो नहीं रखता, पर उस असमंजसपूंर्ण स्थिति से बाहर निकलने का एक यही उपाय सूझा।

बिसारिया जी शायद मेरे संकोच को भाँप गए। उन्होंने उस प्रश्न को अधिक नहीं खींचा। रिकार्डिंग के बाद वह मुझे उस प्रसारण कक्ष को दिखाने ले गए जहाँ उस समय सीधा प्रसारण (लाइव ब्राडकास्ट) चल रहा था और अलग-अलग व्यक्ति अपनी प्रसारण सामग्री का पाठ कर रहे थे। बड़ा दिलचस्प दृश्य था। चलते समय बिसारिया जी ने पारिश्रमिक का लिफाफा हाथ में दे दिया। उस दिन बी.बी.सी. की उर्दू सेवा के प्रधान एक अँग्रेज सज्जन - पेज और उनके सहयोगियों - जीलानी और सिद्दीकी से भी भेंट हुई। पेज उर्दू बोलते हैं पर अँग्रेज लहजे के साथ, वैसी उर्दू नहीं, जैसी लंदन विश्वविद्यालय के डेविड मैथ्यूज बोलते हैं। सिद्दीकी और जीलानी उर्दू सेवा के अंतर्गत अगले दिन मुझसे बातचीत रिकार्ड करना चाहते थे, पर तब मुझे लंदन के दर्शनीय स्थलों की सैर करनी थी। वह पूर्वनिश्चित थी।

शाम को पाँच बजे लंदन विश्वविद्यालय में डॉ. रामदास गुप्त से मिलना तय हुआ था। उनके कक्ष में पहुँचा तो वह अपने किसी शिष्य को अँग्रेजी में कुछ समझा रहे थे। उनसे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और लंदन विश्वविद्यालय के बीच किसी शैक्षिक आदान-प्रदान के विषय में बात हुई, पर वह इस बारे में आशावादी और उत्साहित नहीं लगे। उन्हें अपनी सीमाओं का ज्ञान होगा। उनसे हुई बातचीत औरपचारिकता से आगे नहीं बढ़ सकी। चलते समय उन्हें ध्यान आया कि उन्हें कोई चीज भारत भेजनी थी। पिछले पाँच दिनों से मैं वहाँ था, और पहले दिन ही उनसे भेंट हो गई थी, पर उन्होंने मुझमें कोई रुचि नहीं दिखाई। वह अपने कामों में ही व्यस्त थे। वह अपने गुरू माताप्रसाद गुप्त के पक्के शिष्य ही दिखाई दिए।
अब मेरे लंदन प्रवास की अंतिम दिन आ गया। वर्षा में भीगते हुए एक टैक्सी लेकर लंदन ट्रांसपोर्ट कोच स्टेशन की ओर चला, जहाँ से विशेष यात्री बस लेकर लंदन की सैर करने का कार्यक्रम था।

एक चौराहे पर देखा कि विचित्र वेशभूषा में ब्रिटिश सिपाहियों की एक टुकड़ी सिर पर काले और बड़े टोपे रखे जा रही थी। वह टुकड़ी गई तो उनके पीछे घुड़सवारों का एक दल आ गया। सारा यातायात रुक गया। मुझे चिंता हुई क्यों कि आठ बजे से पहले कोच स्टेशन पहुँचना था। टैक्सी वाले से पूछा कि सिपाहियों के दल कहाँ जा रहे थे। उसने बताया -"आज बकिंघम पैलेस पर चेंज आफ गार्ड्स से पहले सिपाहियों की परेड होगी। ये वहीं जा रहे हैं।"

सुबह-सुबह बुरा फँसा। खैर, प्रतीक्षा के बाद टैक्सी चली। आठ बजने में केवल दस मिनट शेष थे। और पता नहीं, रास्ता कितना बाकी था। एक मानसिक तनाव में रहा। यदि बस छूट गई तो इस वर्षा में लंदन कैसे देख सकूँगा। उसी दिन रात को लंदन से वापस चलना था। टैक्सी वाले से कहा कि टैक्सी तेज चलाओ। लगभग आठ बजे जब टैक्सी कोच स्टेशन पर पहुँची तो पाया कि बस कंडक्टर मेरी ही प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने बस में अपना सामान रखा और बस चल पड़ी।

उस दिन बकिंघम पैलेस, जेम्स पैलेस, संसद के दोनों भवन (हाउस आफ कामंस, हाउस आफ लार्ड्स), वैस्टमिंस्टर एबी का विशाल गिरजाघर, डाउनिंग स्ट्रीट में प्रधानमंत्री का कार्यालय, चर्चिल का मकान, टेम्स नदी के किनारे पर व्हाइट फोर्ट (श्वेत दुर्ग) देखकर मन पर इंग्लैंड की समृद्धि की छाप अवश्य पड़ी, पर कुछ अन्य प्रतिक्रियाएँ भी हुईं।

एक प्रतिक्रिया यह हुई कि ब्रिटेनवासी प्राय: परंपरावादी और कानून में श्रद्धा रखने वाले हैं। राजा या रानी में उनकी श्रद्धा पुरानी परंपरा का अंग है, जिसे ज्ञान-विज्ञान की इतनी उन्नति के बाद भी वे अब तक छोड़ने को तैयार नहीं है। राजशाही हर जगह अप्रासंगिक हो गई है, पर ब्रिटेनवासी उसे अब भी उपयोगी समझते हैं। बकिंघम पैलेस के सामने के लंबे-चौड़े क्षेत्र में चेंज आफ गार्ड्स की रस्म देखकर मेरी उक्त धारणा और पुष्ट हुई। पारंपारिक वेषभूषा में सैनिक एक रंग के घोड़ों पर सवार होकर महल की ओर प्रयाण करते हैं और यह क्रम वर्षा या बर्फीले मौसम में भी नहीं रुकता, तो ऐसा लगता है कि वे ब्रिटेन में चिरस्थायी सामंतवाद के प्रहरी हैं।

व्हाइट फोर्ट के अंदर रानी विक्टोरिया का महल और उसके पास फाँसी देने का स्थान देखा, जहाँ राजपरिवार के कुछ सदस्यों को अवैध प्रेम अथवा अन्य किसी आरोप के कारण मृत्युदंड दिया गया था। यह स्थान मानो राजशाही की क्रूरता का स्मारक है। इस पुराने किले का सबसे रोचक स्थान ज्वैल्स हाउस है, जिसमें ब्रिटेन के राजाओं, रानियों और शाही परिवार के सदस्यों की टोपियाँ, तलवारें, चाँदी-सोने के बर्तन, आभूषण और मूल्यवान कपड़े आदि रखे गए हैं। इसमें पंचम जार्ज की वह टोपी भी दिखाई दी जो उन्होंने सन् १९१४ के दिल्ली दरबार मे पहनी थी। कई मूल्यवान हीरे भी वहाँ प्रदर्शित किए गए हैं।

वैस्टमिंस्टर एबी के विशाल गिरिजाघर में प्रसिद्ध राजाओं, रानियों, लेखकों, कवियों, वैज्ञानिकों, कलाकारों, सेनापतियों, राजपरिवार के व्यक्तियों के शव दफनाए गए हैं और उनके नाम-लिखे पत्थर फर्श में स्थान-स्थान पर लगा दिए गए हैं। यात्री इन नामांकित पत्थरों के ऊपर से ही आते-जाते हैं। यहाँ दफन होने के लिए व्यक्ति को अपने जीवनकाल में ही धन की व्यवस्था करनी होती थी। मैंने सुना कि अँग्रेजी के प्रसिद्ध आलोचक जानसन के पास इतना धन नहीं था कि वह वैस्टमिस्टर एबी में दफन हो सकें। उनके भाई या बहन ने धन की व्यवस्था की, तब वह यहाँ दफन किए गए। अँग्रेजी के कई प्रसिद्ध साहित्यकार जैसे शेक्सपियर, कीट्स, टेनीसन, वर्ड्सवर्थ आदि और विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक डारविन जैसी विभूतियों के मृत शरीर यहाँ दफन हैं।

इस गिरिजाघर की शिल्पकला, इसकी प्रकाश योजना के लिए विशिष्ट खिड़कियों अथवा झरोखों का निर्माण, दीवारों पर उत्कीर्ण कलात्मक चित्र और अनेक मूर्तियाँ उत्कृष्ट कला के नमूने हैं पर इस गिरिजाघर में घूमते हुए एक गलियारे में रखी मेज के सहारे एक विशाल चित्र देखकर मेरे मन को धक्का लगा। उस चित्र में कुछ भूखे, बीमार भारतीय बच्चों और अर्धनग्न स्त्री-पुरूषों की दयनीय आकृतियाँ थीं और नीचे इन दीन-दुखियों पर ईसाइयों की दयालुता एवं उदारता के संकेतसूचक शब्द लिखे गए थे। मैं वहाँ रुककर सोचने लगा कि सामान्य अँग्रेजों की भारतवासियों के प्रति वही अवधारणा है, जो उस चित्र में अंकित हैं। भारत की बढ़ती समृद्धि और अनेक क्षेत्रों में भारतीयों की उन्नति उन्हें दिखाई नहीं देती अथवा भारतीयों को अपमानित करने के लिए वे उनके सामने ऐसे ही चित्र रखते हैं और वह भी ऐसे पवित्र और मानवीय गरिमा से पूर्ण स्थान पर जिसका नाम है वैस्टमिंस्टर एबी। उस गिरिजाघर को देखते हुए मैं मानवीय गरिमा की जिस उज्ज्वल भावना में खोया था, उस चित्र को देखकर वह लुप्त हो गई, बल्कि वह मानवीय क्षुद्रता के बोध में बदल गई।

हम अपनी बस से उतरकर वर्षा में भीगते हुए जेम्स पैलेस का मुख्य द्वार देखने गए, जिसके दोनों ओर बनी चौकियों में दो ब्रिटिश सैनिक स्थिर मुद्रा में खड़ी मूर्ति के समान प्रतीत होते हैं। उनके पलक झपकने से ही पता चलता है कि वे जीवित मनुष्य हैं। गाइड ने बताया कि आज एक ही चौकी में सैनिक बंदूक लिए खड़ा है, जो इस बात का सूचक है कि ब्रिटेन की रानी लंदन में नहीं हैं। उनके वहाँ होने पर दोनों ओर की चौकियों में दो सैनिक खड़े होते हैं। जेम्स पैलेस के पास ही कुछ लोग आगे चलकर डाउनिंग स्ट्रीट है, जो एक गली ही है, जिसमें ब्रिटिश प्रधानमंत्री का कार्यालय है। केंद्रीय लंदन महलों का शहर है। जिधर निकलिए, उधर ही ऊँचे महलों के दर्शन होंगे, जो विक्टोरियन वास्तुकला के ढंग पर बने हैं। इन महलों का एक मुख्यद्वार होता है, आसपास और ऊपर की कई मंज़िलों तक छोटे-बड़े अनेक कमरे होते हैं और खिड़कियाँ तथा छोटी बालकनियाँ अधिक संख्या में होती हैं। नीचे की मंजिल में बड़े-बड़े हॉल होते हैं जो राजाओं, उपराजाओं और रईसों (लॉर्ड्स) की बैठकों का काम देते होंगे। अब इन महलों की देखभाल और मरम्मत कराना अँग्रेजों के बस का काम नहीं रहा क्यों कि पुराने उपनिवेशों से उनकी अनवरत लूट की आमदनी बंद हो गई है।

अब इन ऊँचे भवनों में विदेशी दूतावास खुल गए हैं अथवा वे होटलों या बड़ी कंपनियों के मुख्यालयों में बदल गए हैं। इन भवनों की कद्र और इनका मूल्य इतना गिर गया है कि केंद्रिय लंदन के मकान बाहरी लंदन के मकानों की तुलना में सस्ते दामों पर खरीदे जा सकते हैं। इसीलिए जगह-जगह खाली और बंद मकानों के आगे 'फार सेल' के सूचनापट देखे जा सकते हैं। लंदन जैसे बड़े शहर में बिजली से चलने वाली बसों और भूमि के नीचे चलने वाली रेलगाड़ियों द्वारा यातायात की समस्या हल कर ली गई है। यह बात दूसरी है कि वहाँ बसों और स्थानीय रेलगाड़ियों का किराया पश्चिमी जर्मनी की तुलना में अधिक है पर यह आश्चर्य की बात है कि लंदन के साउथ हॉल क्षेत्र में, जहाँ हिंदुस्तानियों और पाकिस्तानियों की बड़ी संख्या रहती है, भूमिगत रेलवे का विस्तार नहीं किया गया है।

लंदन में प्रवेश करते समय (२३ मई) टेम्स नदी के किनारे एक दीवार पर लगे एक सूचनापट पर नज़र गई तो देखा कि उस पर अप्रैल १९८३ तक बेरोजगार लोगों की कोई बड़ी संख्या लिखी थी जो कई लाख थी। ३ जून, १९९४ को दिल्ली के अँग्रेजी दैनिक हिंदुस्तान टाइम्स (पृष्ठ १६) में छपी रिपोर्ट के अनुसार ब्रिटेन में बेरोजगार लोगों की संख्या तीस लाख से ऊपर है। इन बेरोजगार लोगों में शायद कुछ अशिक्षित या अर्धशिक्षित हिंदुस्तानी और पाकिस्तानी भी हों, पर ब्रिटेन में बेरोजगारी की समस्या को यह कहकर नहीं टाला जा सकता कि इसके लिए एशियाई लोग उत्तरदायी हैं। भारत, पाकिस्तान और अन्य एशियाई देशों से जो लोग वहाँ बसने के विचार से ब्रिटेन में पहुँचते हैं, उनमें अधिक संख्या उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों की होती है जिनमें डाक्टर, इंनीनियर, अध्यापक और तकनीकी योग्यता प्राप्त लोगों की बड़ी संख्या होती है। ये लोग अपनी योग्यता के बल पर सहज ही वहाँ नौकरी पा सकते हैं (यदि जातीय भेदभाव के कारण उन्हें उससे वंचित न रखा जाए)। ब्रिटेन के बेरोजगार लोगों में काफी संख्या उन अँग्रेज युवक-युवतियों की होगी जो मामूली शिक्षा प्राप्त हैं, क्यों कि गोरों की नई पीढ़ी उच्च शिक्षा के प्रति उदासीन लगती है।

मैं एक सप्ताह लंदन में रहा। वहाँ की समृद्धि, वैज्ञानिक, तकनीकी, व्यापारिक प्रगति को खुली आँखों से देखा, पर मैं यह देखकर विस्मित हुआ कि विक्टोरिया स्टेशन के पास, हाइड पार्क के निकट एक सब-वे (भूमिगत मार्ग) में, कई स्थानीय रेलवे स्टेशनों के पास गोरी चमड़ीवाले भिखारी अनेक तरीकों से भीख माँग रहे थे। इन्हें देखकर पहले तो मैं चकित हुआ, पर बाद में इस प्रकार का दृश्य मेरे लिए सामान्य हो गया। इसी प्रकार इटली और पश्चिमी जर्मनी के कई शहरों में भी मुझे भिखारी दिखाई दिए। ये अमीर देश अपनी सारी वैज्ञानिक और तकनीकी उन्नति के बावजूद बेरोजगारी की समस्या हल नहीं कर सके हैं और इन्हीं बेरोजगार लोगों में से कुछ भीख माँगने लगते हैं, जबकि वहाँ बेरोजगार लोगों को सरकारी भत्ता मिलता है। इसका मुख्य कारण पूँजीवादी अर्थव्यवस्था और एकाधिकार प्राप्त अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक कंपनियों द्वारा किया जाने वाला आर्थिक शोषण है।

१ अक्तूबर २००४

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