शहर भी
बहुत कुछ हम मानवों की तरह ही होते हैं न? हर शहर की
अपनी एक अलग पहचान, अलग मिजाज .होता है। दिन रात सागर
की गर्जना सुनता एक तटीय नगर, पर्वत पर चढ़ कर बैठे शहर
के जैसा कैसे हो सकता है? इतना ही नहीं हमारी ही तरह
शहर भी कभी समृद्धि और कभी पतन की ओर बढ़ते हैं और
ध्यान से देखो– रात को काली चादर ओढ़ गहरी नींद न भी
सोयें हों यह शहर, विश्राम तो कर ही लेते हैं।
पूना से दसवीं करने के पश्चात मैं १९५५ में जयपुर पढ़ने
आर्इ थी क्योंकि पिताजी का तबादला कच्छ के गाँधीधाम
शहर में हुआ जहाँ सब से समीप कॉलेज भुज में था– गुजराती
मीडियम में। अनेक शहर घूम चुके होने पर भी राजस्थान से
यह मेरा पहला परिचय था। माल ढोने के लिए सड़क पर ऊटँ
गाड़ियों की कतारें और मंथर गति से चलते उन ऊँटों के गले
की बजती घण्टियाँ मधुर लगतीं। सड़क पर इतनी रेत बिछी
रहती कि लगता सड़क कोलतार की न होकर रेत से बनी है और
गलता जी जाने के लिए रेत के अनेक डूह लाँघने होते।
यह सब मेरे लिए एक अजूबा था क्योंकि जयपुर गाँव नहीं
एक शहर था– प्रांत की राजधानी। खैर, रेत की एक अनोखी
विशेषता है– चाहे वह सागर तट की गीली रेत हो अथवा
जयपुर की सूखी बालू। उस में लोट पोट हो जाओ, पूरे ही
धँस जाओ रेत में। उठ कर झाड़ते ही आप पहले जैसे नये
नकोर!
बाज़ार की छोटी छोटी दुकानें चटक रंगी बंधेज और लहरिया
से अटी होतीं। इन्द्रधनुष के सभी रंग, अपने विशुद्ध
रूप में। राह के किनारे सूख रहा घाघरा बीच की कमर पट्टी
के चारों ओर पूरा गोल दायरा ही बना देता। बड़ी बड़ी
रंगीन पगड़ियाँ सिर पर लपेटे पुरूष और मटकों का संतुलन
बनाये, घाघरों ओढ़नियों से पूरी लिपटी, ढँकी गणगौर गाती
स्त्रियाँ। यों लगता सीधे किसी पुस्तक के पन्नों से ही
उतर आए हैं यह लोग।
महारानी कॉलेज का नया होस्टल अभी नहीं बना था। सो
कॉलेज बिल्डिंग के ऊपरी तल वाले कमरों को ही होस्टल
में तब्दील कर दिया गया था। कक्षाओं वाले बड़े बड़े कमरे
और हर कमरे में पाँच पाँच लड़कियाँ। कमरे के शोर में
कोर्स की किताब तो क्या कहानी उपन्यास पढ़ना भी मुश्किल।
तो प्रायः ही मैं किताबें उठा बगीचे में चली जाती। वहाँ
अनेक मारों का निवास था। छोटी सी उड़ान ही भर पाते हैं
मोर। चपल बालकों की तरह कभी पेड़ की निचली डालियों पर
और कभी पास पड़ी बैंचों पर ही चढ़ते उतरते रहते। आकाश
में बदली देखते ही झूम उठते और धीरे धीरे अपने पँख फैला
किसी नृत्याँगना की तरह नाचने लगते। कोई बताये मुझे
मोर का नृत्य छोड़ मेरा किताब में मन लग सकता था भला।
जयपुर में अनेक किले हैं। नाहरगढ़, जयगढ़, गढ़गणेश
इत्यादि– पहाड़ियों पर बने। जयपुर के नगर द्वार पर बना
आमेर का किला आज भी नगर प्रहरी की तरह पहाड़ी पर से हर
आने जाने वाले पर नज़र गड़ाए खड़ा है। निसंदेह हरे भरे
पेड़ पौधों से लदे, रंग बिरंगे फूलों से भरे पर्वत
सुन्दर लगते हैं परन्तु नग्न शिलाखण्डों से बने पर्वतों
का अपना एक आकर्षण है– शक्ति एवं दृढ़ता के प्रतीक। और
ऐसी ही है यहाँ की धरती भी, वीर वीरांगनाओं से भरी।
प्रकृति ने इस भूभाग को रंग विहीन बनाया था तो यहाँ के
निवासियों ने रंग बिरंगे वस्त्र पहन इस रेतीले फैलाव
को देश का सबसे रंग रंगीला प्रदेश बना दिया है।
बड़ों से 'जी हुकुम' करके बात करना, अतिथि सत्कार,
विराजो, गोड़ लागूँ आदि शब्दों में शहर का झाँकता
चरित्र। गायत्री देवी का शफॉन की साड़ी से सिर ढके भी
पूर्णतः आधुनिका लगना– चार वर्षों में एक पूरी संस्कृति
ही समटे ले गर्इ मैं।
पढ़ाई ख़त्म हुई। शहर छूट गया। करीब पैतालीस वर्ष बाद
देखा फिर जयपुर। इस बीच कितना पानी बह गया होगा गंगा
जमुना की पुलों के नीचे, हिसाब लगा सकता है कोई? खैर
पानी का तो स्वभाव ही है बहना। अनिवार्य ही है बहना नहीं
तो अपनी ताज़गी कैसे रख पाएगा वह? सृष्टि के प्रारम्भ
से नदिया का पानी सागर से मिलने को अधीर बहता ही रहा
है पर बालू तो नदी नहीं कि बह जायेगी। हवा से उड़
भीत्तर फर्श और फर्नीचर पर पसर भी जाये तो भी झाड़
बहुार कर यथास्थान लौटा दी जाती है। पहले मन में
प्रश्न उठता था 'कहाँ से आई इतनी रेत?' अब जानना चाहती
हूँ कि आखिर गर्इ कहाँ वह रेत?' बच्चों से मैं जब भी
जयपुर की रेत के बारे में बात करती तो वह भी देखने को
उत्सकु होते – और जयपुर रेत देखने आये तो रेत ग़ायब!
गलता जी के ऊपर तक घूम आए। मीलों फैली रेत तो छोड़ो
क्यारी भर रेत भी नहीं दिखी कहीं। बच्चों को ऊँट गाड़ी
में बैठाने का वादा किया था मैने पर ऊँटगाड़ी कहीं हो
तो बैठें न? तब किसी के घर मिलने जाते तो सड़क होते हुए
भी लगता था रेत पर चल रहे हैं। उसी बालू के कारण दिन
गर्म होता था।
सर्दियों में एक स्वैटर से काम चल जाता। बालू की
विशेषता ही है सूरज के उदय होते ही जल्दी से तप जाना
और फिर सूरज ढलते ही शीघ्र ही ठंडी भी हो जाना। ठीक उस
गुस्सैल व्यक्ति की तरह जिसे क्रोध भी जल्दी आए और ठंडा
भी जल्दी से हो जाये। अब सर्दियों के दिन गर्म कौन करे?
पहले गर्मियों की रातों को बाहर आँगन में सोया जाता
था– कम्बल ओढकर। अब गर्मियों की रात ठंडी कौन करे? रेत
तो है नहीं। एक कठिनाई और भी है। ऊँट गाड़ियों की जगह
अब ट्रक चलने लग हैं जो रात को खाली सड़कें देख निशाचरों
की तरह निकल पड़ते हैं। धड़ धड़ करती ट्रक की आवाज उसके
गुज़र जाने के बाद भी देर तक कानों में गूँजती रहती है।
आमेर जाने की राह पर अनेक छोटी छोटी पहाड़ियाँ थीं तब।
उन अचल अडिग सी लगने वाली पहाड़ियों को हटाकर इस
सामर्थ्यवान जीव मानव ने अपने औद्यौगिक विकास का
प्रतिनिधित्व करते संस्थान एवं ऊँचे ऊँचे होटल खड़े कर
लिये हैं जहाँ बड़े लोग वातानुकूलित बदं कमेरों में
विश्राम करते हैं। उन्हें जन जीवन के सुख-दुख से क्या
सरोकार।
मनुष्यों की तरह शहर में भी बदलाव आता है और जिस तरह
घर में साथ रहते सदस्य एक दूसरे में आ रहे बदलाव को
जल्दी से नहीं जान पाते उसी तरह शहर में रहते लोग भी
उसका बदलता स्वरूप उस तीखेपन से नहीं आँक पाते जिस तरह
बहुत दिनों बाद लाटौ व्यक्ति। और आज मैं ढूँढ रही हूँ
'अपना परिचित शहर जयपुर।' सीधे सादे बाज़ारों की जगह खड़े
हैं मॉल, सीमेंट और कन्क्रीट के जंगल, अनगिनत फ्लैट,
बेतहाशा भीड़ की चिल्लपों। इन सब में कहाँ ढूँढूँ उस
पहले वाले जयपुर को? अपनी पहचान भूल किसी महानगर का
क्लोन बन गया है यह शहर तो। प्रगति करना अनिवार्य है।
और भी प्रगति करे शहर यही शुभेच्छा है। पर यह वो शहर
तो नहीं जो इतने बरस मेरी यादों में रहा है।
१
दिसंबर २०१८ |