बात बनारस की
—
उदयप्रताप सिंह
मैं
बनारस हूँ बनारस! राजा बनार की राजधानी। मैं कभी नीरस
नहीं होता। मेरा रस सूखता नहीं। मेरा रस ही मेरा जीवन
है। बहुत पहले से मुझे काशी कहा जाता है। आज भी
जिन्हें अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ने की ललक है वे
मुझे काशी ही कहते हैं। मैं एक पवित्र नदी का
उत्तरमुखी गंगा तीर्थ हूँ। वरूणा की लोललहर और अस्सी
नदी की स्फीत भरी जलराशियों में आबद्ध हूँ इसीलिए लोग
मुझे वाराणसी (वरूण+अस्सी) भी कहते हैं। वैसे मैं गंगा
सेवित हूँ पर बारहों महीने गंगा की सेवा करता हूँ।
गंगा मेरी बड़ी सहायता करती हैं, नहीं तो मुझे घास कौन
डालता! शताब्दियों से मैं गंगा तीर्थ का इकलौता
प्राचीनतम नगर हूँ। यहाँ पंचनद भी बहते हैं। इन्हें ही
मेरे समर्थक पंचगंगा कहते हैं। गंगा, यमुना और सरस्वती
की धारा प्रयाग को संस्पर्शित करती हुई मेरी किरणा और
धूतपापा से पंचगंगा पर ही संगमन कर बैठती है। इस संगमन
का महत्व कार्तिक मास में और बढ़ जाता है। यह लोकजीवन
की धारा से जुड़ जाता है। यहीं आकाशदीप जलते हैं। पानी
में टिमटिमाते उनके प्रतिबिम्ब को देख सौंदर्यप्रेमी
कवि जयशंकर प्रसाद मोहित हो उठे। उन्होने आकाशदीप नाम
की कहानी ही लिख दी। मेरे सीने पर गंगा बहती है या यों
कहें कि गंगा में ही मेरा वास है। मैने गंगा को तीर्थ,
पूर्णतीर्थ, परमतीर्थ बनाने के लिए क्या-क्या नहीं
किया कुंड, पुष्कर, वापी, गढ़हा और मत्स्योदरी
(मछोदरी) झील जैसी जल संस्थाओं को गंगोन्मुखी बनाया।
मेरी भूमि पर मर कर लोग मोक्ष प्राप्त करते हैं।
इसीलिए मुझे मुक्ति क्षेत्र कहा जाता है। मेरे शहर में
जीने के लिए चना-चबैना और गंगाजल पर निर्भरता ही
पर्याप्त मानी जाती है। ये मेरी कुछ विशेषताएँ हैं
जिन्हें बता देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ।
मेरी भूमि पर हर आँख पढ़ने के लिए खुलती है, होंठ और
जिह्वा मंत्रोच्चार के लिए आतुर रहते हैं। हर छोटा
बड़ा आदमी मुझे संस्पर्श कर ऋषि बन जाता है। अभी मेरी
सड़कें खुरदुरी और विषम हैं। मेरे पार्कों में प्रेमी
युगल अभी स्वतंत्र नहीं घूम सकते। उन पर हजार आँखें
लगी हुई हैं कि ये बनारस का बना रस न खट्टा कर दें।
अभी मेरे पास बहुत सुंदर सभाकक्ष भी नहीं हैं। आश्रमों
के पांडाल हैं। उन्हीं में ज्ञान की वर्षा होती है।
मेरी फिजाओं में मस्ती का आलम है। यहाँ जो भी आया यहीं
का होकर रह गया। आने वाला आते ही आसमान में चलने लगता
है, ऋतुओं की हवाओं में नहाने लगता है। मंदिरों के
शिखरों पर पग प्रणाम करने लगता है। यहाँ कोई आना चाहे,
चाहे न चाहे, आने पर जाना नहीं चाहता।
हाँ जनाब! मैं बनारस बोल रहा हूँ। भक्ति गंगा के भगीरथ
स्वामी रामानंद से मेरा बहुत पुराना नाता है। कहते हैं
तैलंग स्वामी ने जलराशि पर पद्मासन लगाकर साढ़े तीन सौ
वर्षों का जीवन यहीं जिया था। कबीर और रैदास तो मेरे
लाड़ले ही हैं। तुलसीदास रामगाथा के लिए मुझे ही चुनते
हैं। वह तुलसीघाट मेरे परिवार का जाग्रत सदस्य आज भी
बना हुआ है। बुद्ध ने मेरे ही सहोदर की सरजमीं सारनाथ
में प्रथम उपदेश प्रदान कर धर्मचक्र प्रवर्तन किया।
महात्मा गाँधी ने हरिजन आंदोलन की प्रेरणा मेरे
कबीरचौरा मठ से प्राप्त की। साहित्य सर्जना में लीन
पंडितराज जगन्नाथ ने सभी पंडितों का मानमर्दन मेरा ही
अन्न-जल ग्रहण कर पूरा किया। ‘सुस्तनी’ और ‘कुरंगी’
यवन कन्या को ‘दृगंगी’ करने का पश्चाताप उन्होंने
‘गंगा लहरी’ लिखकर किया और मेरी ही गंगा की उठती लहरों
में एक लहर की तरह तर गए। मेरी ही भूमि पर पश्चाताप कर
लोग शांति प्राप्त करते हैं। मैं कहाँ किसी को बख्सने
वाला! तमाम भ्रांत परिभ्रांत सम्भ्रांत जन मेरे ही
आगोश में पापक्षय की लीला करते हैं। मेरे एक नहीं
अस्सी पचासी घाट किसी न किसी रूप में तारक मंत्र को
सार्थक कर देते हैं जो उनके भी वश में नहीं होते उनके
लिए पिशाचमोचन का पोखरा है। मैं पाप और शाप दोनों से
मुक्ति देता हूँ। पाप गंगा में धुल जाते हैं और शाप
शास्त्रों के ज्ञान से मिट जाते हैं।
भारतेन्दु, प्रेमचंद, प्रसाद, रामचंद्र शुक्ल, गोपीनाथ
कविराज, जयदेव सिंह, धूमिल, हजारी प्रसाद द्विवेदी
मेरे ही कुल-खानदान के हैं। ये सभी अपने-अपने क्षेत्र
के क्षत्रप हैं। स्वाधीन चेतना को सतर्क करने वाला
बनारस अखबार मेरा ही नाम ग्रहण कर प्रसिद्ध हो गया।
रणभेरी और मर्यादा जैसी पत्रकाएँ मेरी ही कुक्षि से
उत्पन्न हुईं। मैं अभिमान कैसे करूँ पर गर्व की बात है
कि मेरे राजनेता भी साहित्यकार कहलाने में गौरवान्वित
होते हैं। यहाँ के संत महात्मा भी उपदेश देने के लिए
साहित्य को ही माध्यम बनाते हैं। स्वामी रामानंद से
काष्ठ जिह्वास्वामी तक और राजाओं में मेरे राजा ईश्वर
प्रसाद नारायण सिंह से अंतिम काशिराज विभूतिनारायण
सिंह तक साहित्य को ही अपना कर्म मानते थे। कहाँ तक
कहूँ मेरे नगर सेठों में साहित्य के प्रति वही निष्ठा
है जो शिव के प्रति। साहित्य और शास्त्र की इसी उदार
मनोभूमि पर हमने अन्यों को वही आदर दिया जो अपनों को।
अरे, भाई कबीर तो जुलाहे हैं लेकिन उन पर प्रेम भक्ति
का चढ़ा रंग तो देखिए। वह कितना गाढ़ा है, कितना पक्का
है कितना बनारसीपन लिए हुए है। वर्जित और स्वीकृत
रास्तों के बीच वह अपने प्रभु का मार्ग कैसे तलाश लेते
हैं। उन्हें छोड़िए रैदास को देखिए। वह दलित हैं पर
बड़े-बड़े काशी के विद्वान उन्हें दंडवत करते हैं।
उनकी भक्ति साधना की संजीवनी वर्ण को विवर्ण कर देती
है। ऐसी गुणग्राहकता मेरे सिवा और कहाँ मिलेगी? ईरान
से शेख अली आकर बनारस के औलिया बन गये। दाराशिकोह के
गुरू शेख चेहली पर मेरी फक्कड़ाना रंगत कैसे चढ़ गई
है-यह किसी से छिपा नहीं। तेगअली तो रामधै की कसम खा
कर अपनी मौज मस्ती का इजहार करते रहते थे। कलकत्ते
जाते समय मियाँ गालिब सुबह-ए-बनारस के इतने मुरीद बन
गए कि एक दिन का ठहराव एक माह तक चलता रहा। वह तो मेरे
जर्रे-जर्रे में यहाँ तक कि भस्मीभूत शवों के खाक तक
में देवता के दीदार करने लगे।
मैं आपसे क्या-कया कहूँ जनाब ! सन् १८५७ की वीरांगना
रानी लक्ष्मीबाई को मैंने ही अपनी धरती पर जन्म दिया।
क्रातिंकारी शचींद्रनाथ लाहिड़ी और क्रांतिदूत
चंद्रशेखर आजाद मेरे गंगाजल और चना-चबैना पर ही फिदा
थे। आजाद को तो मैं इतना जम गया कि वह यहीं रहकर
अध्ययन के साथ क्राँतिकारी गतिविधियाँ भी संचालित करने
लगे। यहीं पहली और अंतिम बार गिरफ्तार किए गए। मुझे
लोग राजा बनारस भी कहते हैं। मुझे लोग ‘काSरजा’
‘बाSरजा’ कहकर एक दूसरे का स्वागत करते हैं। मेरे
अखाड़ों के पहलवान बड़े-बड़े डीलडौल वाले पंजाबियों पर
कालाजंग दाव लगाकर ऐसे धराशायी कर देते हैं मानो कोई
सिंह शावक किसी हाथी के मस्तक पर सवार हो गया हो। मैने
कलाजगत को कई नायाब चीजें दी हैं। लकड़ी के खिलौने
बड़ी-बड़ी कंपनियों के उत्पादों को श्रीहीन कर देते
हैं, पर आज बहुराष्ट्रीय कपंनियों की मार मेरे हलक को
सूखा कर दे रही है। बनारसी साड़ियों का क्या कहना! हर
नवयुवती चाहती है कि वह प्रियतम से पहला मनुहार बनारसी
साड़ी में करे। रानी इसे पहनकर महारानी बन जाती है और
नौकरानी इसे धारण कर अपने ‘राजा’ की ‘रानी’। गज़ब का
क्रेज है इस साड़ी का, उससे अधिक इसकी कला का। पर आज
ये साड़ियाँ भी नकली बनारसी साड़ियों को देखकर अपने को
हतभाग्य समझ अवाक हो गयी हैं। यह मेरा दर्द है, किससे
कहूँ, कौन सुनने वाला है? समरसी संस्कृति के विकास में
मैने कई शताब्दियाँ लगा दीं। सबका आदर किया, सबको
सम्मान दिया चाहे वह जिस धर्म-मजहब का हो, जाति
बिरादरी का हो, रंग- कविरंग-बदरंग हो। पर मेरी ही गोदी
में बैठकर मुझे ही आँखें तरेरने वाले का मैंने हाथ भी
मरोड़ दिया। इसका साक्षी मैं स्वयं हूँ। राजा चेत सिंह
और वारेन हेस्टिंग्स का संघर्ष इसका दूसरा प्रमाण है।
मेरे विद्वानों ने इसे इतिहास में अक्स कर लिया है।
मेरी ही क्रोड़ में अनेक ग्यानी-ध्यानी और जगतगुरूओं
ने विश्वकल्याण की कामना की। मेरे पास ज्ञान केद्रों
की लम्बी सूची है। विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों की
ज्ञानराशियाँ हैं। मकतब-मदरसों और सनातनी संस्थानों के
संस्कार केन्द्र भी हैं। महामना मालवीय को मैं ऐसा जमा
कि त्रिवेणी त्याग यहीं के हो गए। राजर्षि उदय प्रताप
सिंह जू देव ने अपनी पूरी संपत्ति को अपने नाम की
संस्था में १९०९ ई. में ही खर्च कर दिया। मुझे लोग
कितना पसंद करते हैं मैं क्या-क्या बताऊँ?
पूरे हिन्दुस्तान को एक स्थान पर देखना हो तो मेरी
यात्रा कीजिए। मुझे लघु भारत कहा जाता है। मैने भाषा,
मजहब, पूजा पद्धति, संस्कृति धर्म, रीति-नीति, बोलचाल,
पहनावा, खानपान सबमें अंतर देखा पर मनुष्य के स्तर पर
सब बराबर हैं- ‘आत्मवत सर्वभूतेषु’ को कभी विस्मृत
नहीं किया। मेरे यहाँ बंगाली, पंजाबी, तमिल तेलगु,
मलयालम, केरली, कन्नड़, मराठी, गुजराती और राजस्थानी
सबके अपने-अपने घाट हैं, मुहल्ले हैं, आश्रम और मंदिर
हैं पर सभी नहाते हैं गंगा में और रहते हैं बनारस में।
यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि यह मेरी मिट्टी की विशेषता
है। मराठी को हिन्दी बोलने पढ़ने का दबाव मैने कभी
नहीं बनाया। तमिल को भोजपुरी और काशिका बोलने का आग्रह
मैने कभी नहीं किया। मैं मगही पान जमाने की राय नहीं
देता पर लोग हैं कि भोजपुरी बोलते हैं, काशिका में
मजाक करते हैं और मुख में मगही पान जमाए जबड़े को
आकाशमुखी किए ध्वनि और संकेत के आधार पर गूढ़ से गूढ़
बातें कर लेते हैं। इसमें बंगाली हैं, तमिल हैं,
कन्नड़ हैं, भोजपुरिया भी हैं।
अरे भाई! मैं तो गलियों का देहातनुमा शहर हूँ। सारी
गलियाँ पूर्व दिशा में गंगा की ओर खुलती हैं। गंगा को
निहार कर गलियाँ निहाल हो जाती हैं। कहती हैं इसके आगे
भी संसार होता है क्या? हाँ, आप सबको एक नई सूचना दूँ
अब मैं आधुनिक बन रहा हूँ। मेरे सीने में बड़े-बड़े
मॉल चुभाये जा रहे हैं। मेरा शरीर दर्द से फटा जा रहा
है। मेरी गुह्य और रहस्यभरी साधनाएँ बाजारू बनायी जा
रही हैं। मुझ पर चित्र बन रहे हैं, फिल्में बन रही
हैं। हर नगर में एक बनारस बसा जा रहा है। देश में
परदेश में हिन्दुस्तान के कई बड़े अखबारों का मैं
उपनिवेश बन चुका हूँ। इतना ही नहीं संगठित अपराध का
केन्द्र भी बन चुका हूँ। रेडियो, दूरदर्शन-साहित्य,
छोटी-बड़ी मीडिया की संस्थाएँ यहाँ दिल्ली का रक्त
लेकर मुंबई शैली में धड़कने लगे हैं। बड़े-बड़े
उपरिगामी सेतु बन रहे हैं। उनकी चौहद्दी में आने वाले
उनके नीचे हजारों वर्ष का इतिहास समेटे भवन टूट रहे
हैं, मूर्तियाँ बिखर रही हैं। बढ़ते हुए पूँजीवाद,
चिकनी सड़कें, पेट्रोल उगलती गाड़ियाँ रबर और
प्लास्टिक का हमला इन सबका डर मेरे खेत-गाँव बचे रहें,
ईंटों और कंक्रीट से मेरी साँस फूलती है। मेरी मंशा है
‘घर’ बचे रहें। लोग रामचरितमानस, गोदान, कामायनी और
तितली पढ़ें। माँ को माँ, बहन को बहन, मित्र को मित्र,
पत्नी को पत्नी, गाँव को गाँव, घर को घर कहते रहें।
चाहे यह मेरा सपना ही क्यों न हो। उसे देखने का पूरा
अधिकार है। मैं सच कहता हूँ कभी-कभी सच से ज्यादा मुखर
और प्रमाणिक सपना भी होता है। मेरी जेहन में यह प्रश्न
बार-बार कौंधता है कि मनुष्य ने इतनी लम्बी यात्रा
निर्वसन होते हुए भी निर्वसन होने के लिए नहीं की है।
मैं बनारस कभी एकांत में सोचता हूँ कि हिन्दुस्तान में
रहते हुए पाकिस्तान के नाम पर आतिशबाजी करने वाले लोग
यदि बुरे हैं तो सामाजिक समता के नाम पर हिंसा फैलाने
वाले लोग उससे भी अधिक जघन्य हैं। अमेरिका और जापान,
जर्मनी या कोरिया को स्वप्न लोक मानने वाले लोग भी
घृणित हैं। मैं बनारस अपनी आत्मा से बोल रहा हूँ कि
धर्म का कोई भी नया संस्करण मुझे स्वीकार नहीं। मेरा
पुराना धर्म ही मनुष्य बनने बनाने में समर्थ है। नये
धर्म में धर्म परिवर्तन का अजीब बवाल है। ईसाई हिन्दू
को कट्टर हिन्दू बना रहा है। मुसलमान भी हिन्दू को
ज्यादा हिन्दू बना रहा है और हिन्दू मुसलमान को याद
दिला रहा है कि तुम मुसलमान हो। ईसाई को हिन्दू बताना
चाहता है कि तुम ईसाई हो। धर्म के इस नये कलेवर में
मैं-बनारस आहत हूँ। आदमीयत की मुकम्मल तलाशी ही मेरा
स्वरूप (बनारसीपन) है। मैं बनारस के रूप में सोचता हूँ
कि आदमी की तलाश के लिए धर्म या धर्मों के मूल सच को
मनुष्य के पक्ष में जोड़ देना होगा।
१५
दिसंबर २०१४ |