अमेरिका के
इंद्रलोक
लास वेगास की ओर
-
शकुंतला बहादुर
अमेरिका के इन्द्रलोक “लास वेगस“
की ओर
जीवन एक यात्रा है। इस यात्रा में हम अनेक साथियों से मिलते और
बिछड़ते हैं। हमें विविध अनुभव मिलते हैं। आनन्दानुभूति के साथ
ही ज्ञानवर्धन के अवसर भी मिलते हैं। इसी प्रकार देश-विदेश की
यात्राएँ भी हमें बहुत सी स्मरणीय यादों का उपहार दे जाती हैं।
किसी ने सच कहा है -
“सैर कर दुनिया की ग़ाफिल, जिंदगानी फिर कहाँ?
जिंदगानी गर रही तो, नौजवानी फिर कहाँ? “
मुझे बचपन से ही पर्यटन की - देश विदेश घूमने की लालसा रही है।
भाग्यवश ऐसे अनेक अवसर मुझे मिलते भी रहे, जिनकी
मधुर-स्मृतियाँ आज भी मन को गुदगुदा जाती हैं और मैं उनमें खो
जाती हूँ। ऐसी ही एक यात्रा का वृत्तान्त मैं आज लिखने जा रही
हूँ। आशा है कि आपको पढ़कर आनन्द आएगा।
कुछ वर्षों पूर्व का ये यात्रा-संस्मरण है। मैं उन दिनों
युनाइटेड स्टेट्स में टेक्सास स्टेट की राजधानी ऑस्टिन में
अपने बेटे के पास रह रही थी। वहाँ से हमने “लास वेगस” जाने का
प्रोग्राम बनाया था। ऑस्टिन हवाई अड्डे पर यात्रियों की संख्या
कम नहीं थी। इनमें गौरांग अमेरिकी समूह के अतिरिक्त एफ्रो
अमेरिकी भी काफी थे। भारतीय वेशभूषा में साड़ी पहिने तो केवल
हम दो ही थीं - श्रीमती बलिवाड (बेटे सुधांशु के मित्र अशोक की
माँ ) और मैं। आते जाते कई यात्री हमारी ओर देखकर, मुस्कुराते
हुए, अभिवादन करते हुए निकल जा रहे थे। सभी अपनी-अपनी जल्दी
में थे। सामान जमा करके, सुरक्षा नियमों का पालन करके हम विमान
में जा बैठे। खिड़की के पास बैठकर बाहर का आनन्द लेने के लिये
सभी उत्सुक थे।
वायुयान ने धरातल छोड़ दिया और धीरे-धीरे ऊपर की ओर उड़ चला।
एक जोर के झटके के साथ वायुयान की गति काफी तेज हो गयी। बेल्ट
बँधी होने से हमें इस झटके से कोई कष्ट नहीं हुआ। बाहर का
दृश्य मनोरम था। पृथ्वी की हरियाली और घनी बस्तियाँ- सभी काफी
नीचे छूट गयीं थीं। गुड़ियों के मकान से दिखाई देते घर और
खिलौनों सी मोटरें, चौड़े रास्ते केवल पतली रेखा से और पेड़ों
के झुरमुट - कुल मिलाकर एक झाँकी सी प्रस्तुत कर रहे थे। ये
झाँकी भी शीघ्रता के साथ परिवर्तित दृश्यों को दिखा रही थी।
आकाश में सूर्य का प्रकाश अभी अच्छी तरह था। अब हम बादलों के
बीच उड़ चले। अपने चारों ओर बादल ही बादल थे। कभी ये बादल
धुनकी हुई रुई की तरह लगते थे, तो कभी फेनिल जलराशि की तरह।
जैसे हम सागर के बीच बहते जा रहे हों। कुछ समय बाद ही हमारा
विमान नीचे की ओर आने लगा था।
हम एरिजोना स्टेट में आ गये थे। पठार जैसे भूरे पहाड़ दिखाई
दिये और रेगिस्तान सी निर्जनता थी। कहीं कहीं छुटपुट सी आबादी
थी, जो बीच बीच में ओसिस यानी कि नखलिस्तान सी दीख रही थी। कुछ
ही समय में सघन बस्ती आ गयी थी। दूर पर पहाड़ियाँ, मकान,
सड़कें, हरियाली और चारों ओर भागती मोटरें देखते देखते हम
पृथ्वी पर आ गए थे। फीनिक्स हवाई अड्डे पर उतरकर हमें दूसरे
विमान में बैठना था। बहुत से विमान वहाँ खड़े थे, सभी “साउथ
वेस्ट एअरलाइन्स“ के थे। बाहर आकर हमने लगभग तीस मिनट
प्रतीक्षा की। सुसज्जित दुकानों में तरह तरह की खूबसूरत चीजों,
खिलौनों और घड़ियों आदि का अवलोकन किया। वहाँ कोई आइसक्रीम खा
रहा था, कोई कॉफी पी रहा था। यहीं हमारी भेंट साईं बाबा की
भक्त एक भारतीय महिला से हुई, जिसने अपने बेटे और उसकी अमेरिकी
पत्नी से परिचय कराया।
ऑस्टिन के अनुसार हमारी घड़ियों में रात्रि के नौ बजने वाले
थे, लेकिन यहाँ चारों ओर प्रकाश फैला होने से, अभी दिन छिपने
में काफी देर लग रही थी। मुझे पता चला कि एरिजोना स्टेट का समय
टेक्सास स्टेट से दो घंटे पीछे है। अतः अभी यहाँ केवल शाम के
सात ही बजे हैं। अमेरिका के अलग अलग भूभागों में सूर्योदय और
सूर्यास्त का समय अलग अलग होने से वहाँ की घड़ियों का समय वर्ष
में दो बार बदलता है। तभी यहाँ के समय से हमने भी अपने हाथों
की घड़ियाँ मिला लीं। सूरज अभी डूबा नहीं था। ऑस्टिन में भी
मैंने देखा था कि शाम को आठ, साढ़े आठ बजे तक दिन का प्रकाश
रहता था। दूर दूर तक अंधकार का आभास ही नहीं होता था। उस
प्रकाश के साथ ही बिजली की जगमगाहट वातावरण को और भी जागरूक
बना देती थी। घड़ी में समय की ये भिन्नता अमेरिका की दूसरी
स्टेट्स में भी मिलती है।
फीनिक्स से हम दूसरे विमान द्वारा लाल वेगस की ओर उड़ चले।
रास्ते की उड़ान में उन्हीं दृश्यों की पुनरावृत्ति हुई।
रेगिस्तानी -स्थल, खजूर के पेड़ और पठार सी भूरी पहाड़ियाँ
दिखाई दे रहीं थीं। तभी एविएशन फ्यूल (गैस) की विशालकाय
टंकियाँ दिखाई दीं। पुनः धीरे धीरे हम पृथ्वी पर उतरने लगे।
”लास वेगस“ का विशाल हवाई अड्डा बिजली के प्रकाश से जगमगा रहा
था, जैसे चाँद तारों से सजा आकाश धरा पर बिछ गया हो। विविध
प्रकार की रंग बिरंगी बिजलियों से यहाँ की शोभा देखते ही बनती
थी। बिजली से चमकते ऊँचे ऊँचे खजूर के पेड़ एअरपोर्ट भवन के
अन्दर खड़े थे। सामने विशाल स्क्रीन पर फिल्म चल रही थी। इसी
भवन में स्थान स्थान पर अनेकों मशीनों पर बैठे लोग पैसे डालते
और मशीन घुमाते हुए दिखाई दिये। ज्ञात हुआ कि “लास वेगस” पूरे
विश्व में अपने ढँग का अनोखा शहर है, जहाँ द्यूतक्रीड़ा (जुआ
खेलना) शासन द्वारा मान्य है। वैभव की दृष्टि से उसके सामने
न्यूयॉर्क जैसे शहर भी फीके पड़ जाते हैं।
हम अचम्भित से सब ओर घूम घूम कर वहाँ की अद्भुत सज्जा और
परीलोक सी शोभा को देखने लगे थे। तभी हमारा सामान भी विशालकाय
चक्र (कनवेअर बेल्ट) पर आ गया था। हमने बैगेज उठाया और बिजली
की सीढ़ियों से उतर कर हम सब नीचे आए। सामान को हमने ट्राली पर
रख लिया था। प्लैटफॉर्म पर आकर हम शटल में बैठ गए, जो
प्लैटफॉर्म पर आकर, इस तरह लग कर खड़ी हो गयी, मानो उसी का
हिस्सा हो। दोनों का तल बराबर से चिपक गया था। इसमें कई डिब्बे
(कम्पार्टमेंट्स) थे।
एक ओर सामान रखकर हम बैठ गए और खिड़की से बाहर का दृश्य देख
रहे थे, तभी शटल रुकी। हम भी उतरकर बाहर आए और खड़ी हुई बस से
में बैठकर बाहर शहर की ओर बढ़े। मेरे बेटे सुधांशु और उसके
मित्र अशोक ने जाकर एक गाड़ी किराये पर ले ली। उसमें अपना
सामान रखकर हम लोग आराम से शहर देखने चले। अँधेरा हो गया था।
लेकिन सब ओर जगमगाहट थी। एक स्थान पर गाड़ी रोक कर, हमने कॉफी
ली और साथ के आलू के पराठों से क्षुधानिवृत्ति की। गाड़ी में
कुछ समस्या आ जाने से हम फिर लौटकर वापस गए। इस बार हमें जो
गाड़ी मिली एकदम नयी थी। चमकती मैरून कलर की वैन में बैठने का
आनन्द ही कुछ और था।
अब हमारी वैन “लास वेगस“ की सड़कों पर दौड़ रही थी। रात्रि में
नेवाडा स्टेट की ये नगरी इन्द्रपुरी से बढ़कर लगी। वहाँ घूमते
हुए हमने देखा कि वहाँ बड़े बड़े कसीनो में जनता के लिये
अनेकानेक द्यूतक्रीड़ा यन्त्र (स्लॉट मैशीन्स) लगे थे। सारी
नगरी वारविलासिनी सी सज धज कर रात्रि में अपने चाहने वालों को
आकृष्ट कर रही थी। पर्यटकों की भीड़ सभी जगह थी। लोग चुम्बक से
खिंचे चले आ रहे थे और उन अद्भुत दृश्यों को मन्त्रमुग्ध से
देख रहे थे। कलात्मक अभिरुचि और वैज्ञानिक प्रगति के
आश्चर्यजनक दृश्यों को देखकर ऐसा लगा कि शायद हम स्वर्ग में ही
आ खड़े हुए हैं। भारत में दीपावली और गणतन्त्रदिवस पर भी बिजली
की इतनी जगमगाहट मैंने नहीं देखी थी। बर्लिन, पेरिस और लन्दन
भी मुझे याद थे। लेकिन यहाँ की तो बात ही कुछ और थी। सबसे अलग-
असाधारण, भूलोक से एकदम भिन्न, मनोमुग्धकारी।
आगे बढ़ते हुए, चहल पहल के बीच हमने अपने को “ सीजर्स पैलेस “
के सामने खड़ा पाया। श्वेत भव्य अट्टालिका पर सजीव से घोड़े
दौड़ते प्रतीत हो रहे थे, जिनकी लगाम सीजर के हाथ में थी। सभी
अश्व स्वर्णिम आभा से दमक रहे थे। बाईं ओर ऊँचे ऊँचे स्तम्भों
पर परी सदृश सुन्दर मूर्तियाँ प्रतिष्ठित थीं। रंग बिरंगे
फव्वारे मन को आनन्दित कर रहे थे। ऊपर घोड़ों के पास में कई
अग्निपुंजों से ऊँची ऊँची लपटें उठती दिखाई दे रही थीं। लगता
था कि जन-समुद्र उमड़ रहा हो, फिर भी न तो कोलाहल था और न ही
कोई किसी को धक्का दे रहा था। विशाल खुले स्थान पर लोग अपने
साथियों और परिवार के सदस्यों के साथ आनन्द-सागर में गोते लगा
रहे थे। सभी मस्त थे। कहीं दुःख या कष्ट का नाम तक न था।
आस पास की ऊँची-ऊँची अट्टालिकाओं पर भी ऊपर से नीचे तक तरह तरह
की बिजली की लहरें सी दौड़ रही थीं, जैसे एक साथ असंख्य सितारे
या जवाहरात लाकर जड़ दिये गए हों। खाने-पीने के स्थान भी सजे
थे। अन्दर जाने के मार्ग से हम सीजर्स-भवन में घुस गए। जगह जगह
मानव-निर्मित पर्वत, झरने, झील आदि सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों
ने दर्शकों को मुग्ध कर दिया था। यहीं दो जीवित श्वेत चीते
निद्रा में मग्न, बड़े लुभावने थे। वे ऊँची पहाड़ी गुफा के
सामने थे, जो चारों ओर से पानी से घिरे थे। एक ओर आगे बढ़कर
विस्तृत जलराशि में पेनगुइन को खड़े देखा।
यहाँ एक ओर दुकानें थीं, जिनमें कपड़े खिलौने आदि बिक रहे थे।
आगे चलकर सीजर की बड़ी विशाल शुभ्र प्रतिमा दिखाई दी। नीचे
असंख्य मशीनों पर गोरे-काले, मोटे-पतले, छोटे-बड़े
पुरुष-स्त्रियाँ अपना अपना भाग्य आजमा रहे थे। कहीं पैसे पाते,
कहीं खोते। बार बार निशाना लगाते थे। कहीं कहीं शतरंज की तरह
मोहरों के भी खेल चालू थे। वातावरण बड़ा रंगीन था। सभी जैसे
मदमस्त थे। कुछ पी रहे थे, कुछ पी चुके थे। एक ही धुन थी -
लाखों में खेलने और मिनटों में लक्ष्मी को अपना बनाने की।
अन्दर व्यापक स्तर पर खान-पान की भी व्यवस्था थी। लोग खा रहे
थे। कहीं कहीं लड़के -लड़कियाँ स्वयं लाकर व्यंजन पहुँचा रहे
थे। विचित्र वेशभूषा, शृँगार और साज सज्जा थी। इसी भवन में एक
ओर जाकर हमने ऊँचा विस्तृत नीला आकाश देखा। कलाकारों की अद्भुत
प्रतिभा और कौशल ने हमें यही अहसास कराया कि जैसे हम खुले आकाश
के नीचे खड़े हों। ठंडी हवा बह रही थी। संगीत-लहरी गूँज रही
थी। ऊँची अट्टालिका के ऊपर चारों ओर ग्रीक दार्शनिकों की जैसी
भव्य प्रतिमाएँ सुशोभित थीं। भूतल पर भी एक बड़ी प्रतिमा भाला
सा अस्त्र लिये बैठी थी। चारों ओर सुन्दर फव्वारे छूट रहे थे,
जिनके जलकण हमें सिक्त कर रहे थे। यहाँ सारी रात ये कार्यक्रम
चलता है। सबेरा होने पर ही कभी कोई धनी कंगाल बनकर, सारा पैसा
डुबो कर, दुःखी मन से, तो कोई जैसे पैसे के नशे से चूर झूमता
मदमस्त अपने घर जाता है। दिन में ये सारे स्थल जनशून्य और
वीरान से हो जाते हैं।
द्यूतप्रेमी अतिथियों और दर्शक आगन्तुकों को पास में ही “
मिराज “ नाम से एक अन्य कसीनो भी अपनी ओर आकृष्ट कर रहा था।
झरनों और पर्वतों के साथ ही यहाँ हमने ज्वालामुखी फटने का
स्वाभाविक सा दृश्य भी देखा था, जिसे हर आधे घंटे बाद प्रस्तुत
किया जाता था। इसे हमने बहुत पास से बाहर खड़े होकर देखा था।
ज्वालामुखी फटने की तुमुल गर्जना के साथ ही आग की लपटों का
भयावह दृश्य, पानी की धारा, लावा का निकलना और देर तक दहकते
लाल लाल अंगारों को देखते हुए हमें ये ज्ञान नहीं रहा कि हम
लोग कहाँ हैं ? और अचानक कँपा देने वाला ये प्रकृति का प्रकोप
हमें किस प्रकार दृष्टिगत हो रहा है ? चौड़े साफ सुथरे मार्ग
पर वहाँ मोटरों की क़तारें जा रही थीं। सड़क के दोनों ओर की
पटरियों परआवागमन के लिये चौड़ा स्थान छोड़कर रंग बिरंगे
सुन्दर फूलों की क़तार देखते ही बनती थी। कहीं कहीं गुलाब के
बड़े बड़े फूल और गेंदा भी खिला हुआ था।
इस शहर में कसीनो की भरमार थी। यही यहाँ का प्रमुख उद्योग धंधा
है। पैसा कमाना और गँवाना, रातों को जागना और दिन में रात
मनाना, जगमगाती दुनिया में मस्त होकर स्वयं को भूल जाना -
इन्हीं रंगरेलियों के लिये “ लास वेगस “ प्रसिद्ध है - जिसे
प्रायः लोग “ “ वेगस “ ही कहते हैं। मैंने कहीं पढ़ा था कि ये
वह स्थान है, जहाँ समय अपना कोई अस्तित्व नहीं रखता है। कब दिन
से रात हो जाती है और कब रात से दिन ? इसका अहसास ही नहीं
होता। रातों रात राजा से रंक और रंक से राजा बनने की विडम्बना
यहाँ पर प्रत्यक्ष दिखाई देती है। जीतने के लालच में बार बार
खेलना और हारने पर खोए हुए धन को पुनः प्राप्त करने की लालसा
में - इस जाल में फँसा व्यक्ति फँसता ही चला जाता है, उस से
बाहर नहीं निकल पाता है। विश्व के पर्यटकों की दृष्टि से यह
विश्व का सर्वाधिक प्रमुख मनोरंजन केन्द्र स्थल है। यह अद्भुत
नगरी सूर्यास्त से सूर्योदय तक विद्युत-वल्लरियों से जगमगाती
है। यहाँ राजा-महाराजाओं को निकट से देखा जा सकता है। सिंहासन
पर नहीं, द्यूतक्रीड़ा यन्त्रों के पहिये घुमाते और पाँसे
फेंकते। ये राजसी ठाठ बाट वाले ऐश्वर्य के स्वामियों के लिये
स्वर्ग है। एक बिजली की कम्पनी ने यहाँ के एक क्षेत्र में
पैंतीस करोड़ बल्ब लगाने का दावा किया था। इस जादुई नगरी में
काल्पनिक आश्चर्यजनक दृश्य वास्तविक से प्रतीत होते हैं।
यहाँ घूमते बहकते पता ही नहीं चला कि रात आधी खिसक गयी थी।
यहाँ की घड़ी के अनुसार रात के दो बज चुके थे। दर्शकों की भीड़
में कहीं कोई भी कमी नहीं लग रही थी। हँसते, बात करते मस्त
अन्तरराष्ट्रीय पर्यटक मौज बहार की उस घड़ी में खोए हुए से अभी
तक इधर उधर आ जा रहे थे - जैसे अभी शाम का छः ही बजा हो। सभी
पूरी तरह निश्चिन्त से लग रहे थे।
हमें गाड़ी काफी दूर पर पार्क करनी पड़ी थी। । घूमते घूमते हम
वहाँ इतनी दूर आ पहुँचे थे। आने और जाने के मार्ग अलग अलग होने
से चक्कर काटते हुए हमने रात्रि में विश्राम हेतु मोटेल के
लिये प्रस्थान किया। दोनों ओर जगमगाती अट्टालिकाएँ अत्यन्त
कलात्मक और सुसज्जित होने से दर्शनीय थीं। हमारी आँखों में भी
नींद नहीं थी। अपलक नयनों से हम इस सौन्दर्य को निरखने में लगे
थे। मैं एक ओर देखती थी तो मेरी बेटी स्मिता मुझे झट दूसरी ओर
देखने को कहती थी। कुछ छूट जाता तो हम पीछे मुड़ मुड़ कर देखते
थे। मधुर भारतीय संगीत बजाते हुए बेटा सुधांशु गाड़ी चला रहा
था। बीच बीच में वह भी मेरा ध्यान आकृष्ट कर रहा था। इस समय
काफी दूर जाकर भी हमने कसीनो देखे, जो दूर की बस्ती में
व्यापार-रत थे। मुझे पता चला कि इन कसीनो में बहुत बढ़िया भोजन
काफी कम दामों में मिलता है। लोग लालच में फँसकर खूब डटकर खाते
जाते हैं। जब पेट इतना भर जाता है कि वहाँ से हिलने डुलने में
कष्ट अनुभव हो तो वहीं बैठे बैठे चक्कर घुमाते, पैसा डालते और
निकालते सारी रात बिता देते हैं। उनका ये मनोरंजन कभी अचानक
हँसाता है तो कभी जी भर कर रुलाता है।
शहर
से दूर अजनबी सुनसान सड़कों पर हमारी वैन दौड़ी चली जा रही थी,
तभी हम “हूवर डैम“ के पास से गुजरे। ये बाँध ७२६ फीट ऊँचा,
विश्व का प्रसिद्ध बाँध है। ये ४४० करोड़ घन गज कंकरीट से बना
हुआ बाँध सचमुच बहुत विशाल है। अन्त में हम किंग्समैन की बस्ती
में अपने मोटेल पहुँचे।
हमारी ये यात्रा समाप्त हुई। रात को तीन बजे के बाद अपने कमरों
में जाकर, गुदगुदे बिस्तरों पर पहुँचते ही नींद में खो गये।
परिश्रान्ति को मिटाकर, प्रातःजलपान के उपरान्त हमें आगे जाना
था। ये यात्रा सदा अविस्मरणीय रहेगी। उस एक दिन में जो आनन्द
हमें मिला, उसकी हमने पहले कभी कल्पना भी नहीं की थी। इस
यात्रा की सुधि-सरिता की लहरों में हम सदा डूबते उतराते
रहेंगे।
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