भांग वाली ठंडाई
- रेखा
राजवंशी
होली की बात होती है तो बचपन से
जुड़े जाने कितने सुखद अनुभव मन में हिलोरे लेने लगते हैं। टेसू
के फूलों का भीना भीना रंग बरबस बचपन की ओर खींचने लगता है।
याद आता है कि कैसे होली की तैयारी हफ़्तों पहले शुरू हो जाती
थी। घर में तरह तरह के पकवान गुझिया, काँजी बड़े, नमकीन सेव,
मठरी और नमकपारे तो बनते ही थे बल्कि फाग के दो दिन पहले टेसू
के फूल भी मँगवाए जाते थे। जिन्हें पानी से भरे बड़े बड़े टबों
में डाल दिया जाता था। दो दिन बाद नारंगी और बसंती रंग के पानी
में टेसू के फूल अपना सारा रंग छोड़ देते थे। होली के दिन यही
पानी पीतल की बड़ी बड़ी पिचकारियों में भरकर मित्रों और परिवार
के सदस्यों के ऊपर डाला जाता था।
होलिका दहन में गन्ने में नई फसल बाँधकर होलिका दहन में अर्पित
की जाती थी। और चने के हरे बूटों को भून कर प्रसाद के रूप में
खाने का मज़ा ही कुछ और था। ईश्वर से यही प्रार्थना की जाती थी
कि बुराई पर सच्चाई जीवित रहे, घर परिवार सुखी रहे। उन दिनों
त्यौहारों को टेक्नोलॉजी ने नहीं छुआ था। रेडियो का जमाना था।
पूरे समय रेडियो पर फिल्मों के होली गीत बजते थे और मन को
गुदगुदाते थे। 'होली आई रे कन्हाई' या 'होली के दिन दिल खिल
जाते हैं' या 'आज न छोड़ेंगे हम हमजोली' आदि आदि।
अगले दिन सुबह उठकर माँ के आदेशानुसार शरीर के खुले अंगों में
सरसों का तेल लगाया जाता था ताकि होली के रंग आसानी से उतारे
जा सकें। बक्सों में तहा कर रखे पुराने कपड़े ढूँढकर पहने जाते
थे जिन्हें होली खेलने के बाद फेंका जा सके। तैयार होते न होते
शरारतों का दौर शुरू हो जाता था। एक थाली में गुलाल सजा कर रखा
जाता था और एक में खाने पीने की वस्तुएँ, ताकि जब पापा के
मित्र आएँ तो उन्हें कुछ खाने को दिया जा सके। हम बच्चे
थैलियों में गुलाल लेकर तैयार रहते थे। सुबह के नौ बजे ढोलक की
थापों के साथ बड़े और उनके पीछे बच्चे यानि मित्र मण्डली का
आवागमन भी शुरू हो जाता था। सहेलियों की टोली भी आती थी और हम
एक दूसरे को लाल, गुलाबी, हरे और पीले गुलाल से रंग देते थे।
अगर कोई कभी पक्का रंग ले आता तो बस्स, अलग शोर मचता। पर इस
सबसे कोई भी फर्क न पड़ता। रंग तो चेहरों पर थोप ही दिया जाता।
दोपहर तक एक दूसरे के घर जाना और रंग लगाना चलता था और फिर घर
आकर नहाना, घिस घिस कर रंग छुड़ाने की मेहनत करनी पड़ती थी। और
फिर तैयार होकर गरम गरम पूरी आलू खाने का मज़ा ही कुछ और था।
हम नौ भाई बहन थे, जिनमे से आधे तो बाहर हॉस्टल में पढ़ते थे और
तीन चार घर में रहते थे। परंतु त्यौहारों पर सब इकट्ठे हो जाते
थे, और घर में खूब चहल पहल होती थी। पिता रेलवे इंजीनीयर थे,
तो बंगला बड़ा था और नौकरों आदि का आराम था। तो इस बार बड़े
भाइयों ने निर्णय लिया कि घर पर ठंडाई बनाई जाए। एक दिन पहले
ठंडाई तैयार करने का कार्यक्रम बना। ठंडाई बनाने की सारे
सामग्री जुटाई गई। बादाम, पिश्ते, खरबूजे के बीज, इलायची,
सौंफ, काली मिर्च, दूध और चीनी। हर चीज नाप तौल कर ली गई और घर
के माली चोखे लाल को सिल बट्टा और ओखली देकर बिठा दिया गया। वो
भी खुशी खुशी ठंडाई घोटने को तैयार हो गया। पहली बार घर में
पारम्परिक तरीके से ठंडाई बन रही थी। पूरा घर उत्साहित था।
घंटों की पिसाई के बाद मसाला तैयार किया गया। किसी को भी छूने
और चखने पर सख्त पाबंदी लगा दी गई थी। ठंडाई बन कर तैयार हुई,
और एक भगोने में ढँक कर रख दी गई। हम सबने हर बार की तरह
जोरदार तरीके से होली खेली। दोपहर जो जब घर पहुँचे तो ठंडाई
पीने को मिली। वाह क्या ठंडाई बनी थी, कितनी स्वादिष्ट थी, और
मिठास के क्या कहने। सबने खूब मज़े ले लेकर ठंडाई पी। एक गिलास
से मन कैसे भरता, दूसरा और तीसरा गिलास भी चला। अब क्या था,
ठंडाई का असर तो होना ही था। थोड़ी देर में देखा कि कोई हँस रहा
था, कोई रो रहा था और कोई सो रहा था ।
कोई चिल्ला चिल्ला कर गाने गा रहा था । जिसने एक गिलास ही पी
थी वो बेहतर था, पर उनकी आँखों में भी नींद तारीं थी। पापा
बहुत अनुशासन प्रिय थे, उन्होंने ये सब देखा तो समझते देर न
लगी। उनका पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया। शुक्र है उन्होंने एक
ही गिलास ठंडाई पी थी।
'किसने बनाई ठंडाई?' वे गरजे।
'अरे ठीक है न, बच्चों ने बनाई थी, मैं सामने ही थी' माँ ने
हमारी पैरवी की।
'नहीं, कोई तो भांग लाया होगा, कौन लाया?' उन्होंने फिर पूछा।
सबने याद करने की कोशिश की। आखिर सबसे छोटे भाई, जो
इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहे थे, धीरे से बोले, -'लगता है
गुड्डन ने मिला दी।'
गुड्डन हमारे पडोसी का लड़का था। दो अफसरों के बगले सटे हुए थे।
उन दिनों दरवाज़े सबके लिए खुले होते थे। किचन की तो जैसे एक ही
दीवार थी। कई बार गाने की एक लाइन हम गाते और दूसरी लाइन उनके
किचन से पूरी कर दी जाती। उन दिनों सबको पता होता ही था कि
किसके घर में क्या बन रहा है। तो पता नहीं कब वो चुपचाप घर में
आया होगा और भांग की गोली ठंडाई में मिला दी होगी।
पापा ने कहा, 'ठीक है, आगे से ऐसा नहीं होना चाहिए। जाओ सो
जाओ।'
सुन कर सबको शांति मिली और मुझे याद है बेसुध होकर मैं भी सोती
रही, अगले दिन तक।
रात को माँ ने सबको उठाकर कब खाना खिलाया। कब हम दोबारा सो गए
पता ही नहीं चला।
इस सबके बीच जिसने सबसे ज़्यादा मज़ा लिया, वह था गुड्डन। जो
अगले कई दिनों तक पापा के सामने ही नहीं आया। शायद यह दिन पहला
और आख़िरी मौका था जब हमने होली पर भांग वाली ठंडाई पी थी। उसके
बाद हमें जब भी, जहाँ भी ठंडाई दी गई, हमने पीने के पहले दो
बार पूछा कि कहीं इसमें भांग तो नहीं है। अब जब हम सिर्फ एक
भाई और चार बहन बचे हैं तो घर की वो रौनक, त्योहारों से जुड़ी
वो बातें, ढेर सारी शरारते सिर्फ मीठी सी यादें रह गई हैं।
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