1
साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित डोगरी
की समर्थ कवयित्री पद्मश्री पद्मा सचदेव विगत ४ अगस्त को हमारे
बीच नहीं रहीं। उनके जीवन के कुछ सुंदर पलों को सहेजा है उनकी
अंतरंग शशि पाधा ने। वरिष्ठ रचनाकार को अभिव्यक्ति परिवार की
भावभीनी श्रद्धांजलि।
मंद बयार में खनकती हँसी-
पद्मा सचदेव
-
शशि पाधा
बात उन दिनों की है जब मैं बहुत छोटी थी। इतनी छोटी कि दो
चोटियों के झूले से बनाकर ऊपर रिब्बन से बाँध देती थी। मैं
नहीं, मेरी दीदी बाँधती थी। अपने हमउम्र बच्चों के संग
खेलते-खेलते हम ‘राजा की मंडी’ के बागों तक चले जाते थे। वहाँ
संगमरमर की सीढियों से फिसलते थे और विदेश से आये फव्वारों की
फुहार में भीगते थे। यह वही मुबारक मंडी है जिसे पद्मा सचदेव
जी ने अपने प्रतिनिधि गीत ‘ ए राजे दियाँ मंडियाँ तुन्दियाँ न
‘ में शब्दरूप कर अपने रचनात्मक जीवन की प्रथम सीढ़ी पर पैर रखे
थे। यह वही राजा की मंडी है जहाँ जम्मू के राज परिवार के महल
थे। पद्मा जी यह बात बड़े मजे से सुनाती हैं कि किसी दिन कोई
’गलेलन’ (गुज्जर स्त्री’) घूमती-घूमती उनके घर की डयोढ़ी पर आ
बैठी। घर के पास ही राजा के महल थे। घर में इतनी सुन्दर डोगरी
लड़की को देख कर उसने समझा यह अवश्य कोई राजकुमारी है। उसने
उत्सुकतावश पूछ लिया, “ क्या यह राजा के महल आपके हैं?” उस
गलेलन के भोलेपन से पद्मा जी इतनी सम्मोहित हो गईं कि इस गीत
की रचना हो गई। यह उनके सबसे पहले लिखे गीतों में से एक है। तब
वे पन्द्रह -सोलह वर्ष की थीं। बचपन में यह भी सुना था कि
छह-साथ वर्ष की पद्मा जी को बहुत से संस्कृत के श्लोक कंठस्थ
थे और बहुत बार जब वह अपने विद्वान पिता के साथ कहीं जाती तो
उनसे संस्कृत के श्लोक सुनाने का आग्रह किया जाता था। यह बात
मुझे अपनी बड़ी बहन ने उनके लिखे एक उपन्यास को पढ़ते हुए सुनाई
थी।
पद्मा जी का घर राजा की मंडी से सटे हुए पंचतीर्थी मोहल्ले में
था। वहीं पर विश्व प्रसिद्ध संतूरवादक पंडित शिव कुमार शर्मा
जी का और हमारा घर भी था। मेरे बड़े भाई श्री प्रकाश शर्मा भी
संगीत में रुचि रखते थे। इसलिए बहुत बार मोहल्ले के किसी न
किसी घर में इन युवा संगीत प्रेमियों की मित्रमंडली जमा हो
जाती थी और गयी रात तक गाने बजाने का कार्यक्रम चलता था। हम
बच्चों को भी उस कमरे में बैठ कर सुनने की आज्ञा थी पर कभी-
कभी पद्मा जी कहतीं, “ओ चिंगड़ पोड़! रौला नई पाओ।” (ओ छोटे
बच्चो! चुप रहना।)” मुझे वैसे अभी तक ‘चिंगड़ पोड़’ का असली
मायने नहीं पता। शायद रूपये - पैसे में चिल्लर को डोगरी में
यही कहते होंगे। बड़े संगीतकारों में हमारी यही अहमियत हो सकती
थी । यह बात मैं इसलिए भी लिख रही हूँ क्यूँकि पद्मा जी उस
उम्र में भी अपनी बात को बेबाकी से कह देतीं थी। फ़र्क सिर्फ
इतना था जो भी बात कहतीं साथ में बड़ा सा ‘गढ़ाका’ (ठहाका)
ज़रूर होता था।
पद्मा जी को जम्मू का हर
बड़ा-छोटा निवासी ‘बोबो’ नाम से पुकारता था। जम्मू में घर की सब
से बड़ी लड़की को बोबो ही पुकारा जाता है। उन्हें हर जम्मू वासी
से इतना स्नेह मिला कि वह ‘जगत बोबो’ हो गईं ।उन दिनों जम्मू
की युवा लडकियाँ घर से बाहर जाते समय सर को ओढ़नी से ढँक लेतीं
थी। यह प्रथा धीरे- धीरे समाप्त होती गयी लेकिन पद्मा बोबो ने
इसे कभी नहीं छोड़ा। जम्मू के महाराजा डॉ कर्ण सिंह जी की पत्नी
महारानी यशोराज लक्ष्मी भी हर समारोह में सर ढँक कर ही आती
थीं। कई बार पद्मा जी को भी मैंने उनके साथ जम्मू रडियो के
कार्यक्रमों में बैठे देखा था। दोनों के सर ढँके रहते थे। मुझे
उनकी यह आदत बहुत अच्छी लगती थी।
‘बोबो’ केवल कविता लिखती ही नहीं थी, उनका कंठ भी बहुत सुरीला
था। जम्मू में शादियों के दिनों में गीत -संगीत कई दिन पहले ही
शुरू हो जाता था। रात होते ही मोहल्ले की लडकियाँ और स्त्रियाँ
किसी बड़े आँगन या बरामदे में एकत्रित हो कर डोगरी-हिन्दी के
प्रचलित गीत गाती थीं। मुझे याद है ढोलक सदा बोबो जी के हाथ से
ही बजता था और वो दिल खोल कर, पूरे खुले सुर में गातीं। वह बड़े
अधिकार से हम छोटी लड़कियों से कहतीं, “ कुड़ियो! ताली बजाओ।”
हमारा काम केवल ताली बजाना था। बड़ों की महफ़िल में ‘चिंगड़ पोड़’
का क्या काम!
पद्मा जी को याद करूँ और जम्मू
के पारम्परिक पहनावे और आभूषणों की बात न हो, यह तो शहद को
मीठा न कहने जैसी बात होगी। जिन दिनों की मैं बात कह रही हूँ
उन दिनों जम्मू की महिलाएँ लम्बे कुर्ते के साथ डोगरी सुत्थन
(आधुनिक चूड़ीदार पाजामा) पहनती थीं। सभी युवा लडकियाँ तो
कभी-कभी पहनती थी लेकिन पद्मा बोबो हमेशा पहनती थीं। हो सकता
है बहुत प्रकार के गहने भी होंगे उनके पास लेकिन मैंने उन्हें
सदा कानों में डोगरी झुमके ही पहने देखा। उनमें से किसी में
सब्ज़ा लगा होता था और किसी में मोती। अगर साहित्य जगत में कभी
भी पद्मा जी की मुखाकृति को याद किया जाएगा तो उनके ढके हुए सर
में भी कानों के सब्जे वाले झुमके अवश्य झाँक लेंगे। यह कहना
अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भारत के कोने-कोने में जम्मू के
पहनावे को पहचान देने का उनका यह अद्भुत ढँग था।
जब मैं बड़ी हो रही थी और जम्मू
रेडियो के कार्यक्रमों में भाग लेना आरम्भ ही किया था तब बहुत
बार उन्हें स्टूडियो में बैठे हुए देखा था। रेडियो स्टेशन के
प्रांगण में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रमों में मंच पर
उन्हें कविता पाठ करते भी देखा था। तब लगता था कि कितने गर्व
की बात है कि मंच पर राज्य से बाहर से आये कवियों के साथ हमारी
सुन्दर सी बोबो भी विराजमान हैं। डोगरी कविता को भारत की अन्य
भाषाओं की कविताओं के साथ मंच प्रदान करने का सारा श्रेय उस
समय की एक मात्र डोगरी महिला कवयित्री पद्मश्री पद्मा सचदेव को
ही जाता है। उन्हीं दिनों कुछ वर्षों के लिए जम्मू की प्रिय
कवयित्री अपने स्वास्थ्य लाभ के लिए कश्मीर चली गयी थीं। मैंने
भी उन्हें युवा कलाकारों की मित्र मंडली की महफिलों बहुत समय
तक नहीं देखा। अचानक जम्मू वासियों के लिए यह खबर बड़ी उत्साह
वर्धक थी कि पूर्णतया स्वस्थ हो कर पद्मा बोबो जी दिल्ली
रेडियो स्टेशन में डोगरी भाषा में समाचार वाचिका के रूप में
नियुक्त हुई हैं। जम्मू के लोग बड़ी शान से रेडियो पर डोगरी में
समाचार सुनते थे। शान से इसलिए क्योंकि तब तक डोगरी भाषा को
भारत की भाषाओं में मान्यता नहीं मिली थी। डोगरी को मान्यता
प्रदान करने की लड़ाई में पद्मा जी ने अथक प्रयत्न किया था ।
कुछ बातें मानस पटल पर इस तरह
अंकित हो जाती हैं कि वर्षों तक वे आपके जीवन की धरोहर बन जाती
हैं। मेरे लेखन के बिलकुल आरम्भिक दिनों की बात है। सैनिक
पत्नी होने के कारण मैं मेरा जम्मू जाना कम होता था लेकिन जब
भी जाती, जम्मू रडियो पर किसी न किसी कार्यक्रम में भाग अवश्य
लेती थी ।एक बार पद्मा बोबो जम्मू आई हुई थीं और जम्मू रेडियो
स्टेशन में एक परिचर्चा के समय मैं उनके सामने बैठी थी।
परिचर्चा के बाद उन्होंने पूछा, “कुड़िये! कुछ लिखती भी हो, कोई
कविता -कहानी?”
तब तक मैंने जम्मू रेडियो के लिए एक दो कहानियाँ लिखी थी और
कुछ कच्ची-पक्की कविताएँ। मैंने संकोच में कह दिया, “ जी,
थोड़ा-बहुत।”
मेरी ओर बड़े स्नेह से देखते हुए बोलीं, “ थोड़ा लिखो या ज़्यादा,
पर शैल (सुंदर) लिखो ।” और हँसती हुई स्टूडियो से बाहर चली
गईं। पद्मा जी को एक जगह पर बाँध के रखना असंभव था। वह तो हवा
के ठंडे झोंके की तरह पूरे वातावरण को शीतल कर देतीं थी। भला
बहती बयार को भी कोई रोक सकता है?
इस विषय में मुझे एक रोचक घटना याद आती है ----
वर्ष, २००२ में मेरे काव्य संग्रह ’पहली किरन’ के लोकार्पण के
लिए मैंने जम्मू के भूतपूर्व महाराज और विश्व प्रसिद्ध विद्वान
डॉ कर्ण सिंह जी को आमंत्रित किया। मैं यह भी चाहती थी कि
दिल्ली में बसने वाले अन्य जम्मूवासी भी इस कार्यक्रम में
आयें। मुझे पता चला कि पद्मा जी बम्बई छोड़ कर दिल्ली में बस
गयी हैं। मैंने तुरंत उनको फोन किया और शाम को मिलने का समय
माँगा। वह थोड़ी अस्वस्थ थीं लेकिन मुझे बुला लिया। घर की बैठक
में बैठी हुई पद्मा जी मुझे पूरी की पूरी जम्मू की महिला की
प्रतिमूर्ति ही लगीं। दुपट्टे से सर ढँका हुआ और कानों में
झुमके मुझे पंचतीर्थी की गलियों में ले गये। उन्हें देखते ही
मैं उनसे लिपट कर रोने लगी। मुझे उनमें अपनी माँ, बड़ी बहनें,
और वो सारी मौसियाँ, मामियाँ और भाभियाँ दिखाई दे रही थीं।
उन्होंने यही कहा, “कह नहीं सकती आ पाऊँगी लेकिन बहुत सा प्यार
- आशीर्वाद।” बातें करते- करते उनके पति भी कमरे में आ गये। अब
तो हमने जम्मू के सारे पकवान, सारी मिठाइयाँ अक्षर-अक्षर चख
लीं। हर बात पर उनकी बिंदास हँसी ने स्वाद और भी बढ़ा दिया था।
मुझे पूरी आशा थी कि वह अवश्य आयेंगी। मैंने आते समय उनके गले
लगते हुए कहा था, “बोबो! आप पर मेरा पूरा अधिकार है, आपके गीत
पढ़ और सुन कर ही तो मुझे लिखने की प्रेरणा मिली है। आप का आना
तो शत प्रतिशत बनता है।”
आते-आते उन्होंने अपनी दो पुस्तकें मुझे भेंट कीं और कहा, “
डोगरी ही हमारी पहचान है, जितना लिखोगी मुझे अच्छा लगेगा।”
दो दिन बाद पद्मा जी लोकार्पण के
कार्यक्रम में आईं। मुझे याद है उन्होंने अपने वक्तव्य में
मेरी रचनाओं के विषय में कम शब्द बोले लेकिन डोगरी भाषा को
भारतीय भाषाओं में मान्यता दिलाने की अपनी बात रखी। तब मुझे
लगा था कि शायद उन्हें मेरी रचनाएँ पसंद नहीं आईं। लेकिन अब
जानती हूँ कि डोगरी भाषा को भारतीय संविधान के अंतर्गत भाषाओं
की आठवीं अनुसूची में मान्यता दिलवाने की उनकी मुहिम का उस समय
कितना महत्व था। सभागार में बहुत से दिल्ली के गणमान्य
साहित्यकार और सैनिक अधिकारी भी थे। जम्मू की यह शब्द सेनानी
हर मंच के द्वारा अपनी बात कहने को तैयार रहतीं थी। मुझसे यही
कहा, “डोगरी में भी लिख, ज़रूरी है ।”
उन्ही दिनों बोबो अपना उपन्यास ‘इक ही सुग्गी’ लिख रहीं थी।
हिन्दी में अनुवाद के बाद इसका नाम था ‘ जम्मू जो कभी शहर था’।
( इस उपन्यास की केंद्र बिंदु ‘सुग्गी’ वास्तव में एक पात्र
नहीं जम्मू की संस्कृति और परम्परा की जीती जागती तस्वीर है।
मेरे बचपन वाले घर के पास ही सुग्गी का भी एक कमरे वाला घर था।
पद्मा जी ने फोन पर मुझसे सुग्गी के विषय में मेरी बचपन की
सुधियों को टटोला। जो भी मुझे याद था मैं उन्हें बताती चली
गयी। इसके बाद मैंने जब यह उपन्यास पढ़ा तो लगा कि जैसे सारे
पात्रों को मैं जानती थी, सारी घटनाएँ मेरे सामने घट रही थीं।
उनकी लेखनी का ऐसा सम्मोहन था कि वह उपन्यास पढने जैसा नहीं,
चलचित्र देखने जैसा अनुभव था। इसी संदर्भ में एक बात और याद आ
रही है- शायद उसी वर्ष मैंने फिर उन्हें जम्मू एयर पोर्ट
पर देखा। छोटे से स्वागत कक्ष में बहुत शोर था। पद्मा जी के
हाथ में नोटपैड और पेन्सिल थी। मेरे अभिवादन का बस मुस्करा कर
उत्तर दिया और कुछ लिखती गईं। मैंने बहुत कोशिश की बात करने की
लेकिन वह हाँ - न कह देतीं और लिखती रहीं। मैंने तिरछी नज़र से
देखा तो वह अपने उपन्यास के नोट्स ही लिख रही थीं। कहने लगीं,
“ बहुत लोगों से मिली हूँ, बहुत कुछ सुना है, भूल न जाऊँ।”
मेरे लिए यह बहुत बड़ी सीख थी कि अपने विचारों को उसी समय
संभालना कितना आवश्यक है।
पद्मा जी का नाम लेते ही उनके
रूह तक पहुँचने वाले गीत स्वत: ही होठों पर मिश्री घोल देते
हैं। उनके गीत प्रकृति, प्रेम, भक्ति दर्शन, मिलन, विरह, देश-
प्रेम, वात्सल्य, शृंगार आदि सभी भावों-अनुभावों से ओतप्रोत
थे। कहीं अपने शहर से दूर ब्याही लड़की के मन की पीड़ा और कहीं
सैनिक पत्नी का वियोग, कहीं जम्मू की नदियों की जलधारा की कलकल
और कहीं जम्मू को अपने अंक में समेटती हुई पर्वत चोटियों का
सुन्दर चित्रण उनकी रचनाओं को केवल पठनीय नहीं अपितु गुनगुनाने
के लिए बाध्य कर देता है। उनकी लेखनी का शायद यही आकर्षण होगा
कि स्वर सम्राज्ञी आदरणीया लता जी ने भी उनके गीतों को स्वर
दिया।
जम्मू के हर शादी ब्याह में या अन्य उत्सवों में पद्मा जी के
गीत गाये जाते हैं। उन्होंने डोगरी के साथ-साथ हिन्दी में भी
बहुत गीत लिखे हैं। उन्होंने कई फिल्मों के लिए भी गाने लिखे
हैं जिनमें फिल्म प्रेम पर्बत के लिए लिखा उनका गीत ‘मेरा छोटा
सा घर बार’ बहुत लोकप्रिय हुआ था। इसी संदर्भ में मैं एक बहुत
ही प्यारी सी याद आपके साथ साझा करना चाहूँगी--- एप्रिल, २०२१
में मेरी भांजी अंजलि के लिए पूरे परिवार ने ज़ूम पर ‘बेबी
शावर’ की रस्म निभाने का निर्णय लिया। अंजलि स्विटज़रलैंड में
रहती है, मैं अमेरिका में और मेरा सारा परिवार भारत में। उसके
सास-ससुर फ़्रांस में। ज़ूम पर हमने पूरी परम्पराओं के साथ ‘गोद
भराई’ की रस्म निभाई। आशीर्वाद देते हुए मेरी भांजी ने भारत से
पद्मा जी द्वारा रचित प्रसिद्ध लोरी गाई। शब्द थे --- तू मल्ला
तू -- लोक पन्नन ठिकरियाँ / बदाम पन्नें तू / लोक बौन मंडिया
/न्या करें तू। (ओ मेरे लल्ला! लोग जब पत्थर तोड़ें, तू बादाम
तोड़ना, लोग मंडी में बैठें और तू राज बन कर न्याय सुनाये)। इस
गीत को लता जी ने भी बहुत ही मधुर स्वर में गाया है। सब से
मनोरंजक बात यह थी कि मेरी भांजी डोगरी में गा रही थी, मैं उसे
अंजलि के फ्रेंच पति के लिए अंग्रेज़ी में अनुवाद कर रही थी और
वह अपने केवल फ्रेंच जानने वाले माता -पिता के लिए इस लोरी का
फ्रेंच भाष में अनुवाद कर रहा था। उस दिन पूरा विश्व एक सूत्र
में पिरो गया था और इसकी डोरी थी पद्मा जी द्वारा लिखी
लोकप्रिय लोरी।
उनका एक और बहुत ही मीठा गीत
जम्मू की हर उम्र की लड़की गाते हुए अपने पीहर को याद करती हुई
सुबकने लगती है। गीत के बोल हैं- निक्कड़े फंगडू उच्ची उड़ान/
जाइए थम्मना कियाँ शमान / चाननियाँ गले कियाँ लानियाँ--- (छोटे
से पंख और ऊंची उड़ान / कैसे छू लूँ यह आसमान / चाँदनी को गले
कैसे लगाऊँ)। इस गीत को भी लता जी ने स्वर देकर अमर कर दिया
है। उन्हें कृतज्ञ राष्ट्र की ओर से कई सम्मान मिले जिनमें ये
मुख्य थे- पद्मश्री, सरस्वती सम्मान, कबीर सम्मान और साहित्य
अकादमी पुरस्कार। गिनने लगूँ तो सूची लम्बी हो जायेगी। लेकिन
शायद उनका सब से बड़ा पुरस्कार है जम्मू और देश के अन्य
प्रान्तों के लोगों द्वारा उन्हें दिया गया अथाह स्नेह। वह
जहाँ भी जाती थीं, उन्मुक्त हँसी का एक निर्झर झरने लगता था।
जिस मंच पर वह विराजमान होतीं थी, उनके व्यक्तित्व की आभ से
वहाँ धूप अपने आप खिल जाती थी। जब वह स्वरचित गीत स्वयं गाती
थीं तो लगता था जैसे शब्द-साज और सुरों का उत्सव हो रहा हो।
उनकी दो पुस्तकें ‘मेरी कविता-मेरे गीत’ और ‘तेरी बात ही
सुनाने आई हूँ’ मेरे पास उनके अद्भुत लेखन की अमूल्य निधियाँ
हैं। उनकी अन्य कृतियाँ में उनके समृद्ध और समग्र लेखन की
झाँकी मिलती है। जिनमें से कुछ कृतियों का उल्लेख किये बिना
भला उन्हें कैसे याद किया जा सकता है। ‘तवी ते चनाब’ ‘नेहरियाँ
गलियाँ’, पोता-पोता निम्बल, उत्तर वाहिनी, दीवानखाना, चित्त
चेते जैसी अनुपम कृतियों से उन्होंने साहित्य जगत को अमोल
निधियाँ दी हैं। उन्हें याद करते हुए लगता है जैसे मैं अपने
प्रिय जम्मू की रूह से मिलने जा रही हूँ।
पद्मा बोबो जम्मू-कश्मीर से बाहर
ब्याही लड़कियों को उनकी नागरिकता बनाये रखने के अधिकार के लिए
अपनी पूरी उम्र लड़ीं। भारत की स्वतन्त्रता के बाद भी
जम्मू-कश्मीर पूरी तरह से भारत का भाग नहीं था। जम्मू से बाहर
ब्याही लड़कियों को अपने राज्य में सम्पति बनाने का कोई अधिकार
नहीं था। अनुच्छेद ३७० के कारण उन लड़कियों से नागरिकता का
अधिकार भी छीन लिया गया था। पद्मा जी तन-मन से जम्मू की ही थीं
लेकिन उनको भी जम्मू में अपना घर बनाने का कोई अधिकार नहीं था।
मुझे पाठकों को यह बताते हुए प्रसन्नता हो रही है कि वर्ष २०१९
में भारत सरकार ने पार्लियामेंट में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव
पारित किया। आर्टिकल ३७० को निरस्त कर दिया गया और
जम्मू-कश्मीर एक केंद्र शासित प्रदेश घोषित हो गया। इस घोषणा
के फलस्वरूप एक महत्वपूर्ण बात हुई। जुलाई, २०२१ में एक और
प्रस्ताव पारित हुआ जिसके अंतर्गत जम्मू से बाहर ब्याही लड़की
को अपनी जन्मभूमि की नागरिकता का पूरा अधिकार मिल गया। अब कोई
भी जम्मू-कश्मीर से बाहर ब्याही हुई लड़की ‘देस निकाला’ जैसी
दुखद भावना से पीड़ित नहीं होगी। उसे अपनी जन्मभूमि में
सम्पत्ति बनाने का पूरा अधिकार भी मिल गया। मुझे इस बात की
प्रसन्नता है कि पद्मा जी ने यह सुखद समाचार अपने जीवन काल में
सुना। उन्हें कितनी खुशी और संतोष हुआ होगा। अपनी प्रसन्नता को
उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया था --’वैसे तो जम्मू हमेशा
मेरे दिल में बसता है, लेकिन जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद ३७०
हटने के बाद से जम्मू मेरे दिल में ज्यादा बसने लगा है।’ काश
मैं उनसे बात करके उनकी खुशी को सुन भी सकती ।
आज पद्मा जी इस नश्वर संसार से नाता तोड़ कर चली गईं हैं लेकिन,
जब तक यह धरती रहेगी,आकाश रहेगा, जम्मू रहेगा, उनके गीत उनकी
लोरियाँ, रुबाइयाँ पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के दिलों में जीवित
रहेंगी । हिन्दी और डोगरी के साहित्य जगत में उन्हें युगों
-युगों तक याद किया जाएगा। हमारे हृदय में सदैव रहने वाली हम
सब की प्यारी ‘पद्मा बोबो’ को नम आँखों से लौकिक विदाई...
|