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मेरे काका
डॉ. मीना अग्रवाल
काका के
संबंध में संस्मरण लिखते समय मेरे जीवन के वे अड़तालीस वर्ष
चलचित्र की भाँति मेरी आँखों के सामने घूम गए हैं, जिन्हें
मैंने काका के साथ बिताया। कितनी ही घटनाएँ मानस-पटल पर अंकित
हैं, क्योंकि जिनकी गोदी में मैंने बचपन की किलकारियाँ भरीं,
बड़ी हुई, जिनके लाड़-प्यार और फटकार ने मेरे जीवन का मार्ग
प्रशस्त किया, ऐसे अपने काका के संबंध में क्या लिखूँ, कुछ समझ
में नहीं आ रहा है।
काका बच्चों को बहुत प्यार करते थे। बच्चों की हँसती,
मुस्कराती, खिलखिलाती, इठलाती और किलकारियों से भरी मुद्रा
काका का मन मोह लेती थी। रोने वाले बच्चे काका को बिल्कुल भी
पसंद नहीं थे। बच्चे भी काका को देखकर रोना भूल जाते थे और
हँसने लगते थे। सभी छोटे-बड़े बच्चे उन्हें काका ही कहते थे_
बाबा, नाना, चाचा कोई नहीं कहता था। बच्चों से यदि कोई पूछता
कि ‘तुम्हारे नाना कहाँ हैं या तुम्हारे बाबा कहाँ हैं?’ तो वे
चिढ़ जाते और कहने लगते कि ‘वे तो हमारे ‘काकू’ हैं बस।’
कभी-कभी तो बच्चों में आपस में झगड़ा हो जाता। एक कहता, ‘काकू
मेरे हैं’ और दूसरा कहता कि ‘काकू मेरे हैं।’ जब झगड़ा मार-पीट
तक पहुँच जाता तो बड़ों को ही समझाना पड़ता कि ‘काका सबके हैं’
और काका के दरबार में इसका आखिरी फैसला होता था, वे सबको प्यार
जो करते थे।
काका घर में कम ही रहते थे। उन्हें कवि-सम्मेलन वाले छोड़ते ही
नहीं थे। उनके बिना घर सूना रहता। बच्चे भी उदास रहते। जैसे ही
वे घर में आते, उनकी हँसी के साथ सभी ठहाके लगाकर उनका स्वागत
करते और जब तक वे बारी-बारी से सबको प्यार नहीं कर लेते, सिर
पर हाथ नहीं फिरा देते, तब तक हमें चैन नहीं मिलता था। उस समय
हम लोग इतने बड़े होकर भी बड़ापन भूल जाते थे। यहाँ तक कि
हमारी इस हरकत पर हमारे बच्चे भी हँसते थे।
काका बच्चों को प्यार करके ही छुट्टी नहीं दे देते थे। उनके
साथ बैठकर उनकी बातें सुनते, उन्हें समझाते, जीवन जीने का
तरीका सिखाते और हँसाते भी थे। वे बच्चों को पढ़ने के लिए सदैव
प्रोत्साहित करते रहते। उन्होंने घोषणा कर दी थी कि जो भी
बच्चा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होगा, उसे इनाम मिलेगा। इससे
बच्चों में प्रतिस्पर्धा की भावना बढ़ जाती थी और प्रत्येक
बच्चा ज्यादा पढ़ने की कोशिश करता था। प्रथम श्रेणी में
उत्तीर्ण होने पर काका बहुत खुश होते और इनाम भी देते थे। अनेक
बार मैंने भी काकू से इनाम लिए हैं और आज मैं जो कुछ भी हूँ
उन्हीं के प्रोत्साहन और आशीर्वाद से हूँ।
काका पढ़ने के लिए ही प्रोत्साहित करते थे, ऐसी बात नहीं थी।
वे घर के काम करने के लिए भी प्रोत्साहित करते थे। यदि उन्हें
कोई बढि़या खाना बनाकर खिलाता तो वे प्रसन्न होते और बनाने
वाले की प्रशंसा करते थे। काका को कॉफी बहुत पसंद थी। जब कभी
उनको बहुत बढि़या कॉफी पीने को मिलती थी, वे उसकी प्रंशसा भी
करते थे और बनाने वाले को इनाम भी देते थे।
काका ने नाटकों और, प्रहसनों में स्वयं तो अभिनय किया ही था,
हम बच्चों को भी अभिनय करना सिखाया था। काका प्रत्येक वर्ष
अपना निजी आयोजन कराते थे। उसमें काका के द्वारा लिखे गए
प्रहसनों का मंचन होता था। कलाकार हम घर के ही बच्चे होते थे।
काका स्वयं बाँसुरी बजाते, कोई तनिक भी बेसुरा या बेताला हो
जाता तो उसे वहीं रोक दिया जाता था। उनकी इतनी मेहनत और लगन का
परिणाम यह होता था कि उनके द्वारा निर्देशित प्रहसन, नाटक,
नृत्य-नाटिकाएँ, लोकगीत सदैव सफल हुए और अनेक बार पुरस्कृत भी
हुए।
नवंबर १९७५ की बात है। मेरे छोटे भाई की शादी थी। उससे सबने
मेहँदी लगवाने को कहा, कितु वह तैयार नहीं हुआ, जबकि हाथरस में
उस समय बहुत अच्छी बारीक राजस्थानी शैली की मेहँदी लगाई जाती
थी। जब काका को पता चला कि दूल्हा मेहँदी लगवाने को तैयार नहीं
है, तो वे बोले, ‘आज तो मैं माड़वारी मेहँदी लगवाऊँगो।’ बस
सबसे पहले उन्होंने मेहँदी लगवाई। अब तो सब मेहँदी लगवाने को
तैयार हो गए और दूल्हे ने भी मेंहदी लगवाई।
बारात को मेरठ जाना था। अतः हम लोग बस से मेरठ के लिए चल दिए।
रास्ते में काका चुटकुले छोड़ते हुए चले। बारात चढ़ी,
लड़कीवालों के यहाँ पर भी काका सभी को हँसाते रहे। दूसरे दिन
काका-सहित सभी लोग बहू को विदा कराने के लिए लड़कीवाले के यहाँ
पहुँचे। विदा के समय एक ओर तो लड़कीवाले उदास थे, दूसरी ओर सब
बारातियों को मजाक सूझा। कुछ लोगों ने दूल्हे की पगड़ी उठाकर
काका के सिर पर रख दी, फोटोग्राफर तो जैसे तैयार ही था, उसने
तुरंत फोटो ले लिया। वास्तव में काका सभी प्रकार के वातावरण
में खुश रहते थे, यह उनकी खूबी थी। वे खुद हँसते थे और दूसरों
को भी हँसाते थे।
मुझे याद है १६ सितंबर १९९५ का वह दिन, जब मैं हाथरस पहुँची।
मैंने देखा काका शांत भाव से योगी के समान बिस्तर पर लेटे हैं।
लगता है, बहुत थक गए हैं और इसीलिए गहरी निद्रा में सोए हुए
हैं। उन्हें देखकर स्नेहपूरित अश्रु मेरी आँखों में छलक आए।
मैंने उन्हें गिरने नहीं दिया, वहीं रोक लिया और नयनों की
कोरों से पोंछ लिया। मैंने आवाज दी---‘काकू---काकू’---। कोई
उत्तर नहीं। मैंने सोचा शायद गहरी निद्रा में सोए हैं। फिर भी
मन नहीं माना, पुनः आवाज दी ‘काकू---’। प्रत्युत्तर न पाकर मन
का बाँध टूट गया, अश्रु-निर्झरिणी अबाध गति से बह निकली। पता
नहीं मैं कितनी देर तक ऐसे ही खड़ी रही और निहारती रही योगी के
मुख-मंडल को। लग रहा था अभी काका उठेंगे, बोलेंगे और कहेंगे,
‘मीना बेटी यहाँ मेरे पास बैठ जा?’ पूछेंगे, ‘चुनमुन कैसी है’,
‘अंकुर कैसे हैं?’ और ‘उड़नखटोला कैसी है?’ (काका प्यार में
मेरी छोटी बेटी अनुभूति को उड़नखटोला कहकर पुकारते थे) लेकिन न
तो कोई आवाज थी और न ही कोई दृष्टि मेरी ओर देखकर मुझे पुकार
रही थी। मैं स्वयं ही बैठ गई काकू के पास। मन अतीत में खो गया।
मेरा बचपन मेरी आँखों के सम्मुख जैसे तैर गया हो। स्मृतियाँ
लहरें बनकर मानस-पटल पर कभी उभर रही थीं, तो कभी धुँधली हो रही
थीं।
१७ सितंबर को मुझे वापिस बिजनौर आना था, लेकिन मेरे मन ने कहा
कि आज हम नहीं जाएँगे क्योंकि १८ सितंबर को काका का जन्मदिन
है। मुझे लग रहा था कि काका कल यानी अपने जन्मदिन पर अवश्य ही
ठीक हो जाएँगे। यद्यपि मैं जानती थी कि मेरा यह विश्वास निरा
थोथा है, लेकिन बेटी की कमजोरी होती है, वह अपने स्वजनों के
बारे में विशेष रूप से अपने माँ और पिता के बारे में किसी अशुभ
की कल्पना तक नहीं कर सकती। मैं रात को सोई तो सोचा सुबह फूलों
का गुलदस्ता काकू को दूँगी। लेकिन लगभग चार बजे जब मेरी आँख
खुली तो देखा वह योगी तो चिर-समाधि में लीन हो गया है। मन को
विश्वास नहीं हो रहा था, लेकिन आँखें जो कुछ देख रही थीं उसे
असत्य कैसे कहा जाए? जो श्वास कल रात तक चल रही थी वह आज शांत
हो गई थी। आँखों की धारा निर्बाध गति से बह निकली। मेरे भाई,
भाभी, सभी कि स्थिति ऐसी ही थी।
नगर के सभी लोग, जिन्हें सूचना मिली काका के दर्शन हेतु आ रहे
थे, ताँता लगा हुआ था। जैसे जन-समुद्र उमड़ पड़ा हो और हर
व्यक्ति के मन में मानो एक ही प्रश्न उठ रहा था, ‘जो सदैव
हँसता-हँसाता रहा हो वह आज शांत क्यों लेटा है?’ शहर के
छोटे-बड़े, प्रतिष्ठित, निर्धन, धनी सभी की आँखें नम थीं, पर
होठों पर काका का जयगान था। लाल-नीली बत्ती वाले अधिकारी आए,
कवि-साहित्यकार आए, और वे लोग भी आए जिनको कभी किसी ने रोते
नहीं देखा, जो शादी और बच्चे के जन्म के समय अपने नृत्य,
गीत-संगीत और तालियों से सभी का मनोरंजन करते रहते हैं। उनकी
अश्रुधारा देखकर मुझे महान आश्चर्य हो रहा था, ऐसा अद्भुत
दृश्य मैंने ही क्या शायद किसी ने कभी नहीं देखा होगा।
काका के पार्थिव शरीर को दो दिन दर्शनार्थ रखा गया था, उन दो
दिनों में मैंने उमड़ते हुए जन-सैलाब को देखा था। न जाने
कहाँ-कहाँ से लोग आ रहे थे दर्शन के लिए। कुछ लोग अपने
पोते-पोतियों को कंधे पर बैठाकर ला रहे थे और बच्चों से काका
के चरणस्पर्श करा रहे थे। सबको सदैव हँसाने वाला हास्य-सम्राट,
जिसके दर्शन मात्र से लोग हँस पड़ते थे आज उसे सभी नम आँखों से
अंतिम विदाई दे रहे थे।
महाप्रयाण से पहले जब काका मेरे पास बिजनौर में थे, तो अचानक
एक दिन बोलेµ ‘बेटी, मैंने जीवन का खूब आनंद ले लिया है, पूरा
संसार देख लिया है। अब मेरे मन में जीने की कोई इच्छा नहीं
है।’ शायद उनके दिल की बात को ईश्वर ने भी मान लिया था। अगस्त
१९९५ में एक दिन काका अचानक अचेत हो गए, उन्हें आगरा के जी॰
डी॰ नर्सिंग होम में एडमिट कराया गया। वहाँ चिकित्सकों ने
बताया कि रक्त-अल्पता के कारण ऐसा हुआ है। उन्हें रक्त देने की
सख्त जरूरत है। यह बात दावाग्नि की तरह पूरे अस्पताल और शहर
में फैल गई और उनके ब्लड ग्रुप के सैकड़ों लोग अपने चहेते काका
को रक्त देने के लिए आ गए। जिसे देखो, वही रक्त देने के लिए
लाइन में लगा खड़ा था। उस समय मेले का सा दृश्य दिखाई दे रहा
था।
डॉक्टर बड़े मनोयोग से काका की चिकित्सा कर रहे थे। लेकिन कोई
सकारात्मक परिणाम दिखाई नहीं दे रहा था। आखिर डाक्टर्स ने भी
काका के स्वस्थ होने की उम्मीद छोड़ दी। अतः मेरे भाई उन्हें
हाथरस ले आए। अपने बिस्तर पर योग की मुद्रा में काका को देखकर
विश्वास ही नहीं हो रहा था कि कभी न थकने वाला, सबको हँसाने और
गुदगुदाने वाला युगपुरुष आज मौन होकर शांत भाव से बिस्तर पर
एकाकी लेटा है। दुनिया में और भूतल पर अलख जगाने वाला तथा
अंधकार में भटके प्राणियों को मुक्ति का पाठ पढ़ाने वाला आज
स्वयं मुक्ति-पथ पर इस नश्वर संसार से बहुत दूर चला गया है।
काका की ये पंक्तियाँ आज भी मेरे कानों में गूँज रही हैं--
कुछ मेरी भी तो सुनो, अरे दुनिया वालो!
इस भूतल पर मैं अलख जगाने आया हूँ
जो अंधकार में भटक रहे लाखों प्राणी
मैं उन्हें मुक्ति का मार्ग दिखाने आया हूँ।
मुझे याद नहीं आता है कि काका कभी उदास हुए हों। हाँ, मेरी
दादी यानी काका की अम्मा के देहावसान और मेरी माँ यानी काका की
भाभी के असामयिक निधन पर काका फूट-फूटकर रोए थे। काका की अपनी
कोई संतान न होने के कारण हम छहों बहन-भाइयों से वे बहुत प्यार
करते थे। मेरी माँ की मृत्यु तो १९५४ में ही हो गई थी, जब मैं
मात्र सात वर्ष की थी। आज काका की याद करके किसी शायर की ये
पंक्तियाँ अचानक याद आ गई हैं--'कहकहों के लिए तो तुम मशहूर थे
देखते-देखते गमजदा हो गए।'
मुझसे काका को विशेष स्नेह था। यही कारण था कि मृत्यु से पूर्व
काका दो वर्ष मेरे पास बिजनौर में रहे। काका सदैव कहा करते थे,
मेरे मरने के बाद कोई रोना नहीं। मेरी शवयात्रा ऊँट गाड़ी पर
निकालना। उनकी इच्छानुसार उनकी शवयात्रा ऊँट गाड़ी पर निकाली
गई। हाथरस के बाजार तीन दिन तक बंद रहे। महाप्रयाण यात्र के
दिन रास्ते में श्रद्धांजलियों का सिलसिला चलता रहा। किसी ने
केलों की माला से श्रद्धांजलि दी तो किसी ने इमरती की मालाओं
से और अधिकारियों ने पुष्पचक्रों से। रास्ते में भजन-मंडली भजन
गाती जा रही थी। साथ में पीने के ठंडे पानी की प्याऊ की गाड़ी
भी चल रही थी। हजारों लोग थे उस समय। कई किलोमीटर तक लोग दिखाई
दे रहे थे। मकानों और दुकानों की छतों पर चढ़कर भी लोग अपने
प्यारे काका के दर्शन कर उन्हें अंतिम विदा दे रहे थे। इस
अद्भुत दृश्य को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी महापर्व पर
जन-सैलाब उमड़ पड़ा हो।
श्मशान-भूमि पर तो और भी अनोखा नजारा था। काका को चंदन की
लकडि़यों पर लिटा दिया गया। ऐसा लगा जैसे अग्निदेव ने उन्हें
अपनी गोद में ले लिया हो। काका कहा करते थे कि मेरे मरने पर
कोई रोयेगा नहीं। मेरी शवयात्र ऊँटगाड़ी पर निकाली जाए और
श्मशान-भूमि पर हास्य कविसम्मेलन हो। काका की अंतिम इच्छाओं को
पूरा किया गया। हास्य कविसम्मेलन आयोजित हुआ। यद्यपि कविताएँ
उदास नहीं थीं कितु सुनने वाले और सुनाने वाले उदास थे। सबकी
आँखें आसुँओं से भीगी हुईं थीं। दूसरी ओर मेले का दृश्य दिखाई
दे रहा था। बच्चे तो वहाँ मेले के उत्सव का आनंद ले रहे थे।
तरह-तरह के खिलौने और चाट की दुकानें लगी हुई थीं। ऐसा विचित्र
महातीर्थ का दृश्य था, जिसका वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द
ही नहीं हैं।
काका का संपूर्ण जीवन दूसरों को हँसाने में व्यतीत हुआ। वे
जीवन में हास्य को सर्वाधिक महत्त्व देते थे। वे कहते थे कि
स्वस्थ रहने के लिए हास्य अनिवार्य औषधि है--
भोजन आधौ पेट कर, दुगनौ पानी पीउ,
तिगुनौ श्रम, चौगुन हँसी, बरस सवासौ जीउ।
ऐसे महान व्यक्तित्व के धनी और हास्य के महान प्रणेता काका को
उनके जन्मदिवस (१८ सितंबर १९०६) और स्मृतिदिवस (१८ सितंबर
१९९५) पर हमारी भावभीनी श्रद्धांजलि। हमारी उनसे यही प्रार्थना
है कि आज के तनावग्रस्त जीवन में, जबकि मनुष्य हँसना भूल गया
है, वे स्वर्ग में बैठे-बैठे हमें हँसने-हँसाने की प्रेरणा
देते रहें।
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