क्रिसमस की रात
में शोकगीत
- सतीश जायसवाल
बीसवीं सदी की दो फिल्मों के शूटिंग-स्थल
(लोकेशंस), अपने परिवेश की सघनता के कारण, मुझे इतने आमंत्रक
लगे कि मन ने एक बात तो वहाँ जाकर उनके भौगोलिक यथार्थ के
सत्यापन के लिए कई बार उकसाया। ये फ़िल्में हैं -- भुवन शोम, और
जूली।
''भुवन शोम'' के परिवेश का आकर्षण उसके समुद्र-तट में है, जो
धीरे-धीरे छिछला हो रहा है। और वहाँ अपने अंडे धरने के लिए
पंछी आते हैं। ''जूली'' में रेल की पाँतें आमंत्रण देकर अपनी
ओर बुलाती हैं। रेल-पाँतें, जो कभी समानांतर चलती चली जाती हैं
और कहीं भी नहीं मिल सकने की नियति-कथा कहती हैं। कहीं, कभी
मिलती हैं तो एक दूसरी को काटती हुई मिलती हैं। और दोनों की
फिल्मी-कथाओं का यह जादू, सीधे वहाँ के सांस्कृतिक वैशिष्ट्य
से जागता है। ''भुवन सहम'' में सौराष्ट्र का लोक-सांस्कृतिक
वैभव है। ''जूली'' ऐंग्लो इंडियन समुदाय की लोपा-मुद्रा
संस्कृति से जुड़ी हुई एक ऐसी विषाद-कथा है, जो भारत में रेल के
विकास के साथ जन्मी। और कुल जमा, एक शताब्दी में अपना जीवन जी
चुकी। इस ख़ूबसूरत समुदाय के लिए अंग्रेज़ी में एक मुहावरा
प्रचलित है -- नेवर से डाई …
यह समुदाय अपने विलोपन के कगार पर है।
मैंने भावनगर के पास, सौराष्ट्र के ग्रामांचल में जाकर वह
समुद्र-तट देख लिया है जहाँ ''हाथब बँगला'' है। और वहाँ पंछी
आते हैं। लेकिन, ''जूली'' की रेल लाइनें और वह रेलवे कालोनी
मैंने अब तक नहीं देखी है, जहाँ ऐंग्लो इंडियन रहते हैं। मुझे
यह भी पता नहीं कि उस रेलवे कालोनी में, ऐंग्लो इंडियन अब भी
रहते हैं या अब वहाँ कोई नहीं रहता, जैसे बिलासपुर की रेलवे
कालोनी अब ऐंग्लो-इंडियनों से खाली है। अब यहाँ, क्रिसमस के
बहुत पहले से, शामों को संगीत के अभ्यास और मसीही आराधना-गीत
''कैरल्ज़'' के सुर किसी भी घर से छनकर बाहर आते हुए नहीं
मिलते।
भारतीय रेलवे ने अपनी जिन रिहायशी कालोनियों को खूब मन से और
कायिक सौंदर्य से सजाया, उनमें बिलासपुर की रेलवे कालोनी एकदम
अलग से दिखाई पड़ती है। और अपनी तरफ बरबस आकर्षित करती है।
कोलकता से प्रकाशित होने वाले अंग्रेज़ी दैनिक- 'द टेलीग्राफ',
ने एक समय अपने साप्ताहिक परिशिष्ट में देश की धरोहर इमारतों
के पेन्सिल-स्केच की एक श्रंखला प्रकाशित की थी। उस श्रंखला
में बिलासपुर के रेलवे स्टेशन की इमारत भी एक थी। जान-माने
चित्रकार रथिन मित्र यह काम कर रहे थे।
रथिन मित्र को बिलासपुर रेलवे स्टेशन का स्केच बनाते हुए मिहिर
गोस्वामी ने देखा और भागा-भागा मेरे पास आया। यह मिहिर
गोस्वामी भी बस, एक चीज़ ही है। ''पढ़ैं फारसी और बेचैं तेल''
किस्म की विभूति। उस समय ''बाटा'' की जूता कम्पनी में, बुधवारी
बाज़ार वाली जूता दूकान में जूते बेचने का काम किया करता था। अब
गोल बाजार वाली ''बाटा'' दूकान में मैनेजर बनकर वापस आ गया है।
उस समय मैं एक हिन्दी दैनिक में काम किया करता था। बीच में
बारह बरसों का समय गुजर चुका है। रथिन मित्र को स्केच बनाते
हुए देखना, स्मृतियों में सहेजने लायक अनुभव होता। लेकिन इतनी
देर में रथिन मित्र तो ''यह जा, वह जा … हो चुके थे और मैं,
अपने शहर के रेलवे स्टेशन के सामने खड़ा था। उस दिन मैंने पहली
बार, अपने शहर के रेलवे स्टेशन की इमारत को देखा।
गुलाबी पत्थरों से चिनी गयी, गोठी स्थापत्य शैली की इमारत तब
तक अपने १०० वर्ष पूरे कर चुकी थी। और मैं उसका सौंदर्य पहली
बार देख रहा था। सर्दियों की उस सुबह में वहाँ पीली-मुलायम धूप
खिली हुई थी। मुझे लगता है कि गुलाबी पत्थरों से चिनी गयी,
गोथिक स्थापत्य शैली की वह भव्य इमारत मुझे वैसे ही देख रही
होगी, जैसे मैं उसे देख रहा था। भरपूर और अवाक, कि इससे पहले
ऐसा क्यों नहीं हुआ? शायद समय को रथिन मित्र के आने की और फिर
हमसे पहले वहाँ से, इस तरह निकल जाने से बनने वाले खालीपन की
प्रतीक्षा थी। इस खालीपन ने ही वहाँ इतना भरपूर खाली स्थान
(स्पेस) रचा, जिसमें गुलाबी पत्थरों वाली एक इमारत अपनी पूरी
ऐतिहासिकता के साथ उभर सके। पुराने दिनों के, बंगाल-नागपुर
रेलवे वाले इस खण्ड में, जो अब दक्षिण-पूर्व-मध्य रेलवे हो
चुका है, हावड़ा और नागपुर के बीच रेलवे स्टेशनों की यह सबसे
खूबसूरत इमारत है।
बिलासपुर में रेल को आये १०० बरस से भी ऊपर हो चुके. गोथिक
स्थापत्य शैली की यह खूबसूरत ईमारत १८९० की है। रेलवे कालोनी
और बिलासपुर शहर को दो अलग-अलग संस्कृतियों में बाँटने वाले
चौराहे पर खड़ा, विक्टोरियन शैली का, कँगूरेदार ''सेंट आगस्टीन
चर्च'' भी, लगभग इसी के आसपास का होगा। उन दिनों बंगाल-नागपुर
रेलवे के अंग्रेज़ अधिकारी और शायद निचले दर्जे के रेल कर्मचारी
भी, यहाँ आते रहे होंगे, जो ड्राइवर, गार्ड या खलासी भी हुआ
करते होंगे। लेकिन अंग्रेज़ी नस्ल के हुआ करते होंगे। या,
अंग्रेज़ी बीज की देसी पैदावार, जिसे ऐंग्लो इंडियन कहा गया। इस
चर्च के पुराने रजिस्टरों में दर्ज़, विवाहों के विवरण अब १००
बरस से भी पुरानी कहानी हो चुके। और इस पुरानी कहानी के साथ,
यह बात भी मन में आती है कि रजिस्टरों में दर्ज रिश्तों से
बाहर भी एक नस्ल यहाँ पनपी। और उसने भी इस खूबसूरत रेलवे
कालोनी को उसका कायिक सौंदर्य प्रदान किया।
सेंट ऑगस्टीन चर्च वाले इस चौराहे के इधर यह खूबसूरत रेलवे
कालोनी, जिसे अंग्रेज़ों ने अपनी ज़रूरतों और अपनी पसंद के
मुताबिक बनाया और वैसा ही रख-रखाव भी किया। और चौराहे के उस
तरफ रहने वाले ''नेटिव'' या हम, काले भारतीय लोग, जिनके लिए यह
खूबसूरत रेलवे कालोनी आखिर तक ''प्रवेश निषेध क्षेत्र'' रही।
इसलिए प्रबल आकर्षण का केंद्र रही।
अंग्रेज़ों की ज़रूरतों के सामान के लिए, लगभग उसी समय रेलवे
कालोनी का अपना अलग बाजार भी बना, जो बुधवारी बाजार हुआ।
क्योंकि बुधवार के दिन हफ्ते की पगार मिलती थी। लेकिन, बुधवारी
बाजार में रविवार के दिन रौनक होती थी क्योंकि रविवार के दिन
साहबों की छुट्टी का दिन होता था। और खरीदी के लिए गोरी मेमें
इस बाजार में आया करती थीं। बिलासपुर के इस बुधवारी बाजार में
उन दिनों ''कैलकटा'' (अब कोलकता) से ''फिरपो'' या ''ट्रिंका''
की डबल रोटियाँ रोजाना आती थीं। बर्थ डे और क्रिसमस के केक आते
थे। महँगी, विलायती शराबें आती थीं। और ''योरोपियन क्लब'' के
बार में, काँच के दरवाजों वाली काली, आबनूस की आलमारियों में
सजाकर रखी जाती थीं।
क्रिसमस के मौकों पर ''योरोपियन क्लब'' के बाहर रोशनियों की
सजावट होती थी। और भीतर लकड़ी वाले ''डांसिंग फ्लोर'' पर गोरी
परियाँ आधी रात तक नाचती-थिरकती थीं। बाहर से भीतर का कुछ भी
दिखाई नहीं पड़ता था। बस, पश्चिमी संगीत की स्वर लहरियाँ उन
ठंडी रातों में रोशनियों के सहारे छन-छन कर बाहर आ रही होतीं।
और मद्धम सुरों में सुनायी पड़ती थीं।
उन दिनों ''योरोपियन क्लब'' में भारतीयों के लिए प्रवेश-निषेध
था।
इस खूबसूरत रेलवे कालोनी में इतिहास की एक अद्भुत सुन्दर
विडंबना घटित हुई और आज भी, क्रिसमस की ठंडी-भीगी रातों में
यहाँ एक मानवीय करुण-कथा सुनाई नहीं पड़ने वाले स्वरों में, शोक
गीत गाती है।
क्या विडंबना भी सुन्दर हो सकती है? हाँ...
क्योंकि इसका सम्बन्ध मानव प्रजाति के विकास और उसके अवसान से
है, जो रेल के साथ यहाँ आये अंग्रेज़ों और यहाँ रहने वाले
''नेटिवों'' के मेल-जोल से उपजी और कुल जमा एक शताब्दी की अल्प
कालावधि में विलोपित भी हो गयी। अलग-अलग महाद्वीपों के रक्त और
बीज के संयोग से उपजी इस ऐंग्लो इंडियन प्रजाति का विलक्षण
सत्य यह है कि यह प्रजाति, भारत के अतिरिक्त, दुनिया में कहीं
और नहीं उपजी। दो अलग-अलग नस्लों के मेल से उपजी, मानव जाति की
यह नस्ल खूबसूरत हुई और बिलासपुर की रेलवे कालोनी में घटित
इतिहास की विडंबना को इस खूबसूरत नस्ल ने ही सुंदरता से सजाया।
और फिर उसे सुनायी नहीं पड़ने वाले स्वरों में गाये जाने वाले,
शोक-गीत की स्वर-लिपि में विलोपित कर दिया।
एक सुन्दर मानव प्रजाति के इस इतिहास की विडंबना दोहरे-तिहरे
धरातलों पर हमारे सामने उपस्थित होती है। हमारे लिए यह त्याज्य
है, क्योंकि यह हमारा अपना जातीय इतिहास नहीं है। यह उन
उपनिवेशवादी शासकों के इतिहास की दुर्घटना है, जो समुद्र के
उसी रास्ते से अपने देश लौटने को बाध्य हुए, जिस रास्ते से वे
आये थे। यह दुर्घटना उनके लिए इतिहास की विडंबना थी, जो उनकी
अपनी नहीं थी। इसलिए, इस विडंबना को यहीं छोड़कर वे यहाँ से
निकल गए। और इस खूबसूरत रेलवे कालोनी में रहने वाला ऐंग्लो
इंडियन समुदाय अपने पितृ-मूल की तलाश में कभी इंग्लैण्ड और कभी
आस्ट्रेलिया की तरफ आसरा लगाए, एक लम्बे समय तक थकता रहा। वे
लोग सीधे इंग्लैण्ड से आये थे या ऑस्ट्रेलिया से और लौटकर वहीं
गए थे। यहाँ, रेलवे कालोनी में इंग्लैण्ड और ऑस्ट्रेलिया के
पते भर थे।
लेकिन ये नाम और पते पितृ-मूल के सगे-सम्बन्धियों के थे। इसलिए
खतो-किताबत के सिलसिले भी थे। और संबंधों के भ्रम भी। यहाँ के
''नैस्टी'' लोगों के बीच गुजारा करना, यहाँ के ऐंग्लो-इंडियन
परिवारों को अपने मान का लगा तो कुछ को इंग्लैण्ड ने और कुछ को
ऑस्ट्रेलिया ने लुभाया और अपनी तरफ बुलाया। वहाँ सपने थे,
लेकिन इन सपनों के यथार्थ ''नैस्टी'' थे। और वहाँ गुजारा और भी
मुश्किल था।
पूरी एक मानव प्रजाति के भटकाव का दारुण्य, कहीं फ़लस्तीनियों
की नियति से भी अधिक दारुण लगता है। इस अर्थ में कि वहाँ,
भटकाव अपनी जमीन के लिए है। जमीन है, जमीन का फैसला हो जाएगा।
लेकिन यहाँ, भटकाव अपनी जड़ और अपने बीज से सम्बंधित है। यह
जातीय पहचान का संकट और सामाजिक मान्यता का प्रश्न है। पहचान
नहीं है। मान्यता कैसे मिलेगी?
इस सहस्राब्दी की उल्लेखनीय ऐतिहासिक घटनाओं में से एक घटना,
छत्तीसगढ़ राज्य का गठन भी है, जिसका सालाना समारोह प्रत्येक
पहली नवम्बर को सरकारी ताम-झाम के साथ मनाया जाता है। इसलिए
सबको पता है। अपने राजस्व-कीर्तिमानों के कारण बिलासपुर को,
भारतीय रेलवे के नक़्शे में ऐतिहासिक महत्त्व के साथ उल्लेखित
किया जाता है। लेकिन ऐतिहासिकताओं की चका-चौंध में एक मानवीय
सन्दर्भ अन्धकार में अकेला छूटा हुआ है। इस सहस्राब्दी की
शुरुआत के साथ, बिलासपुर की रेलवे कालोनी, इस रेलवे कालोनी को
सुन्दर बनाकर रखने वाले ऐंग्लो-इंडियन परिवारों से पूरी तरह
खाली हो गई और अपने पीछे, मन को कचोटने वाली गहरी उदासी यहाँ
छोड़ गई। अब वहाँ अँधेरा है, इसलिए यह उदासी किसी को नहीं
दिखती।
इस सन्दर्भ के साथ यह भी जोड़कर पढ़ना पडेगा कि यहाँ विश्व की,
संभवतः सबसे अल्प संख्यक और अल्पजीवी मानव प्रजाति ने वास
किया। बिलासपुर में रेल के आने के साथ यह प्रजाति अस्तित्व में
आई और अंग्रेज़ों के, यहाँ से जाने के साथ इसके विलोपन की
प्रक्रिया भी अस्तित्व में आ गयी थी। अर्थात, अस्तित्व से
विलोपन के बीच कुल जमा एक शताब्दी के आसपास के मानव-जीवन का
संक्षिप्त इतिहास।
इसका यह अर्थ लगाना गलत होगा, भयावह भी कि पूरी की पूरी एक
प्रजाति का पञ्च-भौतिक जीवन समाप्त हो गया। मानव शास्त्र का
इतिहास हमें आश्वस्त करता है कि किसी प्रजाति का यह पञ्च-भौतिक
जीवन और उसके चारित्रिक लक्षण नष्ट नहीं होते। उनका, बस
रूपांतरण होता है। छोटा समुदाय वृहत्तर समाज के साथ घुल-मिलकर
उसका रूप अपना लेता है। फिर अलग से पहचान में नहीं आता। इस
आश्वासन के बावजूद कुछ जटिल प्रश्न अपनी बहु-कोणीय
सान्दर्भिकता के साथ यहाँ सर उठाये खड़े सीधे आँख से आँख मिलाते
हुए मिलते हैं। ये जटिल प्रश्न संरक्षण और पुनर्वास के क्षेत्र
में सक्रिय स्थानीय और वैश्विक मानवाधिकारी पंचायतों को
सम्बोधित होते हैं और हमारे अपने संवैधानिक दायित्व-बोध की तरफ
भी उँगली उठाते हैं।
भारतीय संविधान में ऐंग्लो-इंडियन समुदाय को अल्पसंख्यक माना
गया है। इस आधार पर संसद में और राज्य विधान सभाओं में भी, जिन
राज्यों में ऐंग्लो-इंडियन समुदाय रहते हैं, इस समुदाय के
एक-एक प्रतिनिधि मनोनीत किये जाते हैं। लेकिन, छत्तीसगढ़ विधान
सभा में मनोनीत की जाने से पहले ही, यहाँ की ऐंग्लो-इंडियन
प्रतिनिधि श्रीमती इंग्रिड मैक्लाउड स्वयं रेलवे कालोनी छोड़
चुकी थीं इसलिए, उन्हें भी इस ऐतिहासिक दुर्घटना के विषय में
नहीं मालूम होगा। फिर वह कैसे समझ पाएँगी कि यह एक अल्प संख्यक
समुदाय के विस्थापन का मुद्दा है। और इसके साथ पुनर्वास का
प्रश्न एकदम सीधे जुड़ा हुआ है। लेकिन, छत्तीसगढ़ राज्य के
सांसदों में से भी किसी ने रेलवे से सम्बंधित प्रश्नों की अपनी
औपचारिकता में इस प्रश्न को शामिल नहीं किया है, क्योंकि यह
प्रश्न इतने छोटे से वोट-समूह से सम्बंधित है, जिसकी गिनती
चुनावी नतीजों को प्रभावित करने में कहीं नहीं ठहरती।
एक इतिहास-पीड़ित मानव समुदाय के प्रति हमारी उदासीनता की हद यह
है कि दक्षिण-पूर्व रेलवे के दिनों से लेकर आज,
दक्षिण-पूर्व-मध्य रेल का जोनल मुख्यालय होने तक, यहाँ के
रेल-विवरण रेलवे कालोनी में ऐंग्लो-इंडियन की रिहाइश से
सम्बंधित बुनियादी जानकारियाँ भी उपलब्ध कराने में असमर्थ हैं।
बुनियादी जानकारियाँ तो बस, इतनी ही होंगी कि इस कालोनी के
बसने के समय यहाँ कितने इंडियन परिवार थे और यह कालोनी
ऐंग्लो-इंडियन परिवारों से पूरी तरह कब खाली हो गयी? इस कालोनी
को खाली करके जाने वाले ऐंग्लो-इंडियन परिवार कहाँ जाकर बसे और
उनके रोजगार-पुनर्वास की क्या व्यवस्था हुई? ये बुनियादी
जानकारियाँ इसलिए भी जरूरी हैं कि इनका ऐतिहासिक महत्त्व है।
बिलासपुर की रेलवे कालोनी में बसने वाले ऐंग्लो-इंडियन परिवार
रेल के विकास में उनकी भागीदारी, बंगाल-नागपुर रेलवे का वह
महत्वपूर्ण अध्याय है जो विलोपित नहीं किया जा सकता।
सुनहरे दिनों में बिलासपुर की रेलवे कालोनी दिन के समय
कहानियों का अनोखा कथानक और शामों को संगीत की स्वर-लिपि हुआ
करती थी। वे स्कूल और कालेज के दिन हुआ करते थे। और तब
प्रत्येक मन के भीतर ''गुनाहों का देवता'' हुआ करता था, जो
यहाँ गुलाब की क्यारियों वाली किसी भी कॉटेज में पम्मी की तलाश
को उकसाया करता था।
लोहे के पुल पर से खड़े होकर देखने पर, रेल की पाँतें और पाँतों
की समानांतर दूरियों का दूर तक चलते चले जाना नज़दीक में
एक-दूसरी को काटते हुए रास्ता बदलना तब भी वैसा ही फिल्मी सा
प्रभाव छोड़ा करता था जब यह फिल्म 'जूली' बनी भी नहीं थी। ढलवाँ
छप्परों पर मंगलोरी कवेलू वाले रेलवे क्वार्टरों के अहाते उन
दिनों साफ़-सुथरे हुआ करते थे और मेहँदी की बाड़ें करीने से
कटी-छँटी होती थीं। इन अहातों में कपड़े सुखाने के लिए डोरियाँ
तनी होती थीं। और उन पर भरपूर धूप भी उतरती थी। लेकिन एक अजीब
बात होती थी कि वहाँ सूखते हुए कपड़े कभी दिखाई नहीं देते थे।
उन दिनों जिस तरह के कपड़ों का चलन था, उसमें फूल और छींट के
मोहक रंग हुआ करते थे। और स्कर्टों से नीचे सुडौल पिंडलियों का
खुलापन उत्तेजना पैदा करने वाला होता था। रेलवे कालोनी में
जवान होने वाली लड़कियों के भाई अंग्रेजी किस्म की वर्जिशें
करके अंग्रेजी काट के ही बदन बनाया करते थे। ये बदन घर की
पहरेदारी के काम आया करते थे। इन्हीं में से किसी क्वार्टर में
लिंडा रहा करती थी, जो अब इंग्लैण्ड में होगी या आस्ट्रेलिया
में।
लिंडा से मिलने के लिए हमारा एक मित्र यहाँ रेलवे कालोनी में
आया करता था। लिंडा सीधे बाथरूम से निकल कर दरवाजे पर आती थी
और वैसी ही गीली की गीली मित्र के साथ लिपट जाया करती थी। उसका
बदन, अहाते में तनी हुई डोर की तरह तना हुआ था और उस पर पड़ रही
धूप में इस कदर चमकता हुआ होता था कि आँखों में चौंध पड़ने लगती
थी। तनी हुई डोरियों पर कपड़ों का सूनापन आक्रामक और उत्तेजक
हुआ करता था। शायद लिंडा का कोई भाई नहीं था। इसलिए उसके घर पर
कोई पहरा नहीं था।
लेकिन उसके घर पर फूलों वाले रंगीन परदे पड़े होते थे, जो भीतर
झाँकने के लिए उकसाते थे। परदे ऐसे थे जो, जितना ढाँकते थे
उतना ही उघाड़ते थे। रेलवे कालोनी के इन क्वार्टरों में उन
दिनों ऐसे ही पर्दों का चलन था, जब इनमें ऐंग्लो-इंडियन रहा
करते थे। शाम के समय इन पर्दों से छनकर घरों की रोशनियाँ बाहर
पड़ा करती थीं और हरी-भरी कालोनी मद्धम रोशनी में रहस्यमय या
रोमानी दिखने लगती थी। और क्रिसमस और नए साल के जश्न के बहुत
पहले से इन घरों में प्रभु यीशु की आराधना में गाये जाने वाले
''कैरल्ज़'' और नए वर्ष के स्वागत-गीतों के अभ्यास शुरू हो जाते
थे। तब इन पर्दों से छनकर संगीत के स्वर बाहर आते और कॉलोनी की
शामों को धीरे-धीरे गुंजाया करते थे। जवान हो रही
ऐंग्लो-इंडियन लड़कियाँ डांस के नए स्टेप्स सीखने के लिए
''योरोपियन क्लब'' में जातीं और लकड़ी के डांसिंग फ्लोर पर
अभ्यास करतीं। और रात में देर से घर लौटतीं। त्यौहार के लिए और
नए साल के जश्न के लिए ''योरोपियन क्लब'' में, उस समय कैलकटा
से अच्छी और महँगी शराबें आई हुई होती थीं। रेलवे कॉलोनी के इन
क्वार्टरों में मिसेज़ बीट्रीन रहा करती थीं, जो बैडमिंटन खेलती
थीं। और हम लोग देखा करते थे। इसमें पता यहीं कितना बैडमिंटन
का खेल देखना होता था और कितना, उन को बैडमिंटन खेलते हुए
देखना होता था?
बिलासपुर के दो सबसे बड़े खेल के मैदान रेलवे कॉलोनी में ही
हैं। एक ''नेटिव'' लोगों के लिए, जो नार्थ-ईस्ट इंस्टीट्यूट के
साथ है। और दूसरा योरोपियन क्लब के सामने, ऐंग्लो-इंडियन लोगों
के लिये था। दोनों फुटबाल के मैदान हैं। लेकिन रेलवे कॉलोनी का
अपना क्लॉडियस हॉकी का खिलाड़ी हुआ। एक व्यक्ति के नाम से बहुत
ऊपर उठकर, क्लॉडियस यहाँ किसी मिथक-कथा की तरह फैला। कहते हैं
कि क्लॉडियस ने ओलम्पिक में हॉकी खेल कर बिलासपुर का नाम
चमकाया था। यह बात कब और किस ओलम्पिक की होगी? कोई ठीक-ठाक
नहीं बताता। ना ही यह जानना उतना जरूरी है। मिथक-कथा के लिए
इतिहास का प्रमाण जरूरी होता भी नहीं। यह, नार्थ-ईस्ट
इंस्टीट्यूट का नामकरण, साउथ ईस्टर्न रेलवे का ठीक विलोम लगता
है कि नहीं? साउथ ईस्टर्न रेल के मंडल मुख्यालय में इस नामकरण
के साथ जरूर कोई ना कोई दिलचस्प कथा जुड़ी हुई होगी।
बंगाल-नागपुर रेलवे बदल कर दक्षिण-पूर्व हुआ और हावड़ा-नागपुर
के बीच सबसे प्रमुख रेल मंडल मुख्यालय हुआ। अब यह
दक्षिण-पूर्व-मध्य रेल हो चुका। और बिलासपुर, इस नए रेलवे ज़ोन
का कोई बहुत बड़ा दफ्तर अब उस इमारत में होगा जो अंग्रेजों के
दिनों में योरोपियन क्लब हुआ करता था।
अंग्रेज़ों के बाद भी योरोपियन क्लब उजाड़ नहीं हुआ। यहाँ के
ऐंग्लो-इंडियन समुदाय ने इसे अपने पूर्वजों की धरोहर की तरह
सम्हाल कर रखा। और ''नेटिव्ज़'' के प्रवेश पर पाबंदी को बरकरार
रखा। पता नहीं, इस पाबंदी का अब क्या-कोई अर्थ बचा था। फिर भी,
शहर के शौक़ीन व्यापारी और पुराने रईस ''नेटिव्ज़'' के लिए
योरोपियन क्लब के दरवाज़े खुल चुके थे, जो यहाँ मन बहलाने के
लिए आते थे और ताश खेलते थे। और जब जैसी जरूरत होती थी उतनी
रकम हारने की रस्म-अदायगी भी करते थे। योरोपियन क्लब का
डांसिंग फ्लोर लकड़ी का था, क्रिसमस और नए साल के मौकों पर
इमारत के बाहर रंग-बिरंगी रोशनियों की सजावट होती थी। और भीतर,
लकड़ी के डांसिंग फ्लोर पर आधी रात तक गोरी परियों के नाच हुआ
करते थे। हाँ, ऐसा ही लगता था जैसे परियाँ नाच रही हैं। और
इनमें कोई एलिस होगी या सिंड्रेला। सिंड्रेला के जूते काँच के
होंगे। लकड़ी के डांसिंग फ्लोर से उठने वाली ठक-ठक की आवाज़ें
ठंडी रातों में बाहर आकर मिलतीं तो अपने साथ ऐसी ही
कितनी-कितनी परी-कथाओं के लिए रतजगे के आमंत्रण लेकर आती थीं।
पता नहीं कैसे, पिछले बरस क्रिसमस की रात को एक बात मन में आयी
कि चलकर ठिकानों को देखा जाए, जहाँ आसमान पर क्रिसमस के सितारे
टंगे होंगे और रोशनियों की सजावट नए साल के जश्न की प्रतीक्षा
में होंगी।
मिहिर गोस्वामी की तरह मेरे एक और मित्र हैं -- राघवेन्द्र धार
दीवान। राघवेन्द्र, भारतीय स्टेट बैंक में अधिकारी हैं और
कंप्यूटर पर अंकों के मायाजाल में उलझे रहते हैं। फिर भी उनकी
संवेदनाओं के तल आश्चर्यजनक रूप से सुरक्षित बचे हुए हैं। हम
दो मित्र उस रात रेलवे कॉलोनी में क्रिसमस का सितारा और रोशनी
की सजावट देखने के लिए भटकते रहे। सेंट आगस्टीन चर्च के ऊपर,
आसमान पर क्रिसमस का सितारा अकेले टंगा हुआ था। और अजीब सी
उदासी फैला रहा था।
क्रिसमस की उस रात रेलवे कॉलोनी में सुनसान था। क्योंकि अब
वहाँ ऐंग्लो-इंडियन नहीं थे। और रोशनियों की सजावट की जगह वहाँ
अन्धेरा पड़ा हुआ था। अंग्रेज़ों के ज़माने का योरोपियन क्लब अब
वहाँ नहीं था। क्योंकि स्वतंत्र भारत में ''योरोपियन क्लब'' को
नहीं होना चाहिए। वहाँ इतिहास का संशय था। और इस संशय की आसान
काट यही थी कि इतिहास के उन सन्दर्भों को ही विलोपित कर दिया
जाए, जो भारत में योरोपीय उपनिवेश का जीवित साक्ष्य हैं। उस
रात तक योरोपियन क्लब की इस पुरानी इमारत में
दक्षिण-पूर्व-मध्य रेल का जोनल दफ्तर शुरू नहीं हुआ था। इसलिए
वहाँ अँधेरा था। और अब वहाँ योरोपियन क्लब नहीं था। इसलिए वहाँ
रोशनी और जश्न का जीवन नहीं था।
योरोपियन क्लब अँधेरे में अकेले नहीं था, पूरी ऐंग्लो-इंडियन
बस्ती अँधेरे में थी। क्योंकि वहाँ कोई नहीं था। क्रिसमस की वह
रात शोक-गीत की धुन में डूबी हुई थी। शोक-गीत की वह धुन सघन
होकर पूरी रेलवे कॉलोनी में व्याप रही थी। उसमें करुणा का स्वर
था। और वह खूब भीगा हुआ था। क्रिसमस की वह रात खूब ठंडी थी। और
ओस में डूबी हुई थी। रात विलाप कर रही थी। लेकिन विलाप के स्वर
उठ नहीं पा रहे थे। भारी होकर ओस और कोहरे में डूब रहे थे। फिर
भी हम दो मित्र उसे सुन पा रहे थे। वह, इस धरती से एक सुंदर
मानव प्रजाति के विलोपन का शोक-गीत था, जिसके लिए अंग्रेज़ी में
एक मुहावरा सर्व मान्य है -- "नेवर से डाई..."
मुझे मालूम है, और मालूम होने से अधिक विश्वास है कि किसी एक
जीवित प्रजाति का इस धरती पर से पञ्च-भौतिक विलोपन नहीं हो
सकता। केवल, उसका रूपांतरण या ट्रांसफॉर्मेशन होता है। फिर भी,
एक शोक-गीत मन में घर कर रहा था तो वह, उसी रूप और जीवन के
उत्सव के लिए था जिसमें कायिक सौंदर्य था और जो संगीत की ऊर्जा
से उपजता था।
बिलासपुर की रेलवे कॉलोनी में अब वह सौंदर्य नहीं दिखता, और ना
ही अब संगीत का वह उत्सव यहाँ आयोजित होता है। |