बँसिया बाज रही
वृंदावन
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डॉ. पवन विजय
सुबह कॉलेज
जाते समय रास्ते में मंदिर पड़ता है। यों तो रोज कुछ न कुछ
कार्यक्रम वहाँ होते रहते हैं किन्तु त्योहारों पर अक्सर भीड़
सड़क तक आ जाती है। आज कुछ सपेरे मंदिर प्रांगण में महुअर (बीन)
बजा रहे थे। उस समय कॉलेज जाने की जल्दी में इस बात पर ज्यादा
ध्यान नही दिया किंतु कॉलेज पहुँचने के बाद जब मैंने अपना
इनबॉक्स खोला तो वह नाग पंचमी की शुभकामनाओं से भरा था।
जीवनरूपी फिल्म की रील पीछे जाने लगी।
नाग पंचमी को हमारे यहाँ जौनपुर में "गुड़ुई" भी कहा जाता है।
गुड़ुई यानि गुड़िया का पर्व। गुड़ुई के एक दिन पहले हम लोग बेर
की टहनियों को काट कर उसे हरे नीले पीले लाल रंगो से रँगते हैं
। बहनें कपड़े की गुड़िया बनातीं। साल भर के पुराने कपड़े लत्ते
से सुंदर सुंदर गुड़िया बनाई जाती। गुड़िया बनाना एक सामूहिक
प्रयास होता था। इस बहाने अम्मा अपनी गुड़िया बनाने की
परम्परात्मक कला का हस्तांतरण बहनों को करतीं। हम सब भाई इस
फिराक में रहते कि मेरी बहन की गुड़िया सबसे सुंदर होनी चाहिए।
गुड़िया सजाने के सारे सामान जुटाए जाते। गुड़िया तैयार होने के
बाद एक बार बच्चों में फौजदारी तय होती थी कि तलैया तक कौन
गुड़िया ले जायेगा। गुड़िया को खपड़े पर लिटा कर अगले दिन के लिए
उसे ढँक दिया जाता था। उसके बाद गोरू बछेरू को नहला धुला कर
उनकी सींगों पर करिखा लगा कर गुरिया उरिया पहना कर चमाचम किया
जाता था।
गुड़ुई के दिन 'पंडा वाले तारा' पर हम सब भाई बहिन जाते थे।
बहिनें गीत गाते जोन्हरी की 'घुघुरी' लिए ताल के पास पहुँचती
थी। वहाँ जैसे ही गुड़िया तालाब में फेंकी जाती हम सब डंडा ले
गुड़िया पर पटर पटर करने लगते। इस खेल में एक नियम था कि डंडे
को आधे से तोड़ कर एक ही डुबकी में गुड़िया सहित डंडे को तालाब
में गाड़ देना है। जो यह कर लेता वह राजा। खैर इस चक्कर में हम
सब साँस रोकने का अच्छा अभ्यास कर लेते।
डाली पर झूला पड़ा है। बहिनें गा रहीं
हंडिया में दाल बा गगरिया में चाउर...
हे अईया जाय द कजरिया बिते आउब...
कोल्हुआ वाली फुआ ने कहा ... हे बहिनी अब उठान गावो चलें घर
में बखीर बनावे के है।
उठान शुरू
तामे के तमेहड़ी में घुघुरि झोहराई लोई ...
इधर हम सब अखाड़े पहुँच जाते। मेरे तीन प्रिय खेल कुश्ती, कूड़ी
(लम्बी कूद) और कबड्डी। कूड़ी में उमाशंकर यादव के बेटवा नन्हें
का कोई जोड़ नहीं था। ज्वान उड़ता है । वह दूसरे गाँव का है ।
हमारे यहाँ के लड़के क्रिकेट खेलते थे इसलिए नन्हें से कोई कूड़ी
में जीत नहीं पाता। हाँ कुश्ती को हमारे गाँव में श्रेय
बच्चेलाल पहलवान को को जाता है। बच्चेलाल के एक दर्जन बच्चे
थे। वह अपने बच्चों को खूब दाँव पेच सिखाते थे। धीरे धीरे गाँव
में कुश्ती लोकप्रिय हो गयी। मैं अपने बाबू (ताउजी) से कुश्ती
सीखता था। गुड़ुई वाले दिन कुश्ती होनी होती है । सारा
गाँव-जवार के लोग जुटते हैं। जोड़ पे जोड़ भिड़ते भिड़ाये जाते
हैं।
मार मार धर धर
पटक पटक
चित कर चित कर
ले ले ले
फिर हो हो हो हो हाथ उठकर विजेता को लोग कंधे पर बैठा लेते।
अचानक गाँव के सबसे ज्यादा हल्ला मचाऊ मोटे पहलवान सुग्गू ने
मेरा हाथ उठाकर कहा 'जो कोई लड़ना चाहे रिंकू पहलवान से लड़ सकता
है!' बाबू सामने बैठे थे। मैंने भी ताव में आकर कह दिया' जो
दूध-माई का लाल हो आ जाए' मेरी उमर लगभग पंद्रह बरस रही होगी
उस समय, मेरी उमर के सभी लड़के मुझसे मार खा चुके थे सो कोई
सामने नहीं आया। अचानक कोहरौटी से हीरालाल पहलवान ताल ठोकता
आया बोला मेरी उमर रिंकू से ज्यादा है लेकिन अगर ये पेट के बल
भी गिरा देंगे तो पूरे कोहरान की ओर से हारी मान लूँगा। सुग्गु
ने हल्ला मचाया। अखाड़े में हम दोनों आ डटे। हीरा मुझे झुला
झुला फेंकता। बाबू की आखों में चिंता के डोरे दिखने लगे। हीरा
ने मेरी कमर पकड़ी और मेरा सर नीचे पैर ऊपर करने लगा। जैसे ही
मेरा पैर ऊपर गया मैंने पूरी ताकत से हीरा के दोनों कान बजा
दिए। हीरा गिरा धड़ाम से। मैंने धोबीपाट मारा। सुग्गु ने हो हो
हो करते मुझे कंधे पर लाद लिया। फिर तो वह नागपंचमी वाला दिन
मेरा था।
अखाड़े से वापस आने के बाद अम्मा ने बखीर (चावल और गुड़ से बनता
है) बनाया था साथ में बेढ़नी (दालभरी पूड़ी) की रोटी भी खाई गयी
। रात में गोईंठा (उड़द से बनता है ) भी बना था जिसको बासी खाने
का मजा ही कुछ और होता था।
...
शाम को कजरी का कार्यक्रम मंदिर में नागपूजा और ये सब बारिश की
बूँदाबाँदी में।
शाम की चौपाल में कजरी घुलने लगी-
रस धीरे धीरे बरसे बदरवा ना.…
हो बरसे बदरवा ना.…
हो बरसे बदरवा ना.…
कि रस धीरे धीरे बरसे बदरवा ना।
किसी और ने तान छेड़ी-
बँसिया बाज रही बृंदाबन टूटे सिव संकर के ध्यान। ...
टूटे सिव संभो के ध्यान...
सुक्खू काका जोर जोर से आलाप ले रहे हैं। सारा गाँव झूमता है।
अमृत रस पीकर धरती की कोख हरी हो गयी है। यही तो नागपंचमी का
जादू होता था।
आज उस जादू को किसकी नजर लगी? क्या भूमण्डलीकरण इन मौसमी
त्योहारों को निगल गया या हमारे अंदर के लालच के कारण हम
इन्हें भूल बैठे।
नागपंचमी से कजरी तीज तक कजरी गाई जाती है, जौ के बीज बोना जरई
डालना भी इसी दिन होता है। कजरी गाना भी इसी दिन से शुरू हो
जाता है। बाद में कजरी तीज पर कजरी त्यौहार के रूप में मनाया
जाता है। नागपंचमी, रक्षाबंधन के त्यौहार में महिलाएँ खासकर
लड़कियाँ कजरी गुनगुनाने लगती हैं। कजरी के मौसम में पुरुष
अपने कजरी के कार्यक्रम शुरू कर देते हैं।
लड़कियाँ नागपंचमी के दिन जौ के बीज बोती हैं इस प्रथा को ‘जरई
डालना’ बोला जाता है। रक्षाबंधन के तीसरे दिन जरई को वो नदी या
तालाब में बहाने जाती हैं और साथ ही कजरी गाती हैं, तालाब में
बहाने के बाद घर वापस आते समय थोड़ी सी जरई अपने साथ ले आती
हैं। लड़कियाँ जरई को अपने भाई, चाचा, पिता व अन्य रिश्तेदार
के कान पर रखती हैं। यही लोग उनको नेग के रूप में कपड़े, पैसे
व अन्य वस्तु भेंट करते हैं फिर सब साथ में कजरी गाते-सुनते
हैं।
श्रावण में कजरी मीरजापुर का विशेष पर्व होता है जिसमें
बालिकायें नागपंचमी के दिन जौ के बीज रोपती हैं, व नीम के पेड़
के नीचे जरई माँ की स्तुति में रतजागा और उनकी स्तुति में
सामूहिक कजरी व देवी गीत गाती हैं। सावन की मौनापंचमी
(नागपंचमी) के दिन दूध, धान की खील आदि से विषहरा भगवती (मनसा
देवी) की मौन रहकर पूजा की जाती है। |