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यात्रा-संस्मरण

 

नागालैंड- इस बार सांता क्लाज
- सतीश जायसवाल


दिमापुर नागालैंड का प्रवेश द्वार है। बाहरी लोगों को नागालैंड में प्रवेश के लिए "इनर लाइन परमिट" की जरूरत पड़ती है। बाहरी से आशय विदेशी का नहीं बल्कि उन भारतीयों से है जो नागालैंड के निवासी नहीं हैं। इसलिए यहाँ रुक कर सुबह की प्रतीक्षा करनी थी और इनर लाइन परमिट बनवा कर शाम से पहले कोहिमा पहुँच जाना भी जरूरी था। अँधेरा पड़ने के बाद नागालैंड का प्रसार असुरक्षित हो उठता है। इसके बाद भी, ट्रेनों के यहाँ पहुँचने के समय कुछ ऐसे अटपटे हैं कि देर रात के पहले आदमी पहुँच ही नहीं सकता। बाकी की रात रेलवे स्टेशन पर दुबकी और सहमी हुई व्यतीत होती है।

छत्तीसगढ़ के डॉ. एन. डी. आर चंद्रा नागालैंड विश्वविद्यालय में अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष है। उनके ही आमंत्रण पर मैं कोहिमा जा रहा हूँ। वहाँ, विश्वविद्यालय में, मुझे उनके विभाग में व्याख्यान देना है। दिमापुर एक व्यापारिक बस्ती है। इस बस्ती में घूमते हुए, पता नहीं क्यों, ऐसा लगता है कि हम नेपाल की किसी व्यापारिक बस्ती में घूम रहे हैं। एक नजर में देखने पर ऐसा लगता है कि इसके व्यापार पर मारवाड़ियों का नियंत्रण है, जैसा गुवाहाटी में भी लगता है। नेपाल और बर्मा के रास्ते से होकर आने वाले- चीन, जापान, ताइवान, हाँगकाँग, कोरिया, इंडोनेशिया आदि देशों की उपभोक्ता वस्तुओं और इलेक्ट्रानिक उपकरणों के लिए दिमापुर पूर्वोत्तर भारत की सबसे बड़ी और सबसे सस्ती मंडी है । लेकिन आतंकवादी गतिविधियों के भय से यह मंडी शाम ५ बजे से पहले बंद हो जाती है। और फिर, बस्ती साँस रोक कर पड़ जाती है।

दिमापुर से कोहिमा जाने वाली सभी बसें यहाँ से, दोपहर में एक बजे तक निकल जाती हैं। अब टैक्सियाँ बाकी हैं। टैक्सियाँ दो- अढ़ाई घंटो में कोहिमा पहुँचा देती हैं। वहाँ ५ बजे तक पहुँच गए तो भी ठीक है। इसके बाद चिंता का समय शुरू हो जाता है। निकलने से पहले मैंने डॉ. चंद्रा के घर फोन किया । उनकी पत्नी मिलीं- प्रभा। डॉ. चंद्रा अभी विश्वविद्यालय में हैं। मेरी प्रतीक्षा में होंगे। इस समय मुझे वहाँ व्याख्यान देना था, लेकिन मैं यहाँ, रास्ते में अटका हुआ हूँ।

कभी सर्पीले, कभी तीखे मोड़ वाले ऊँचे नीचे पहाड़ी रास्तों पर टैक्सी पानी की तरह चली। दिमापुर से चले तो गर्मी थी, पसीना था और टैक्सी के शीशे खुले हुए थे। अब शीशे चढ़ गए हैं। बाहर सर्दी है। कल, जहाँ बारूद से सड़क को उड़ाया गया था वहाँ सेना के जवानों ने कब्जा कर लिया है। जवानों ने तेजी से काम किया है और आवा जाही बनाये रखने लायक मरम्मत करके एक तरफ से वाहनों को निकाल रहे हैं। दूसरी तरफ मरम्मत का काम अभी चल रहा है। यहाँ से पार होने में, फिर भी, कोई आधे घंटे का समय लग ही गया।

कोहिमा पहुँचना किसी घटना की तरह घटित होता है। इसका बोध, कहीं पहुँच सकने से एकदम अलग, वहाँ प्रक्षेपित होने जैसा हुआ। ऐसा, जैसे किन्हीं सामान्य परिस्थितियों वाले लोक से उठाकर एकदम असामान्य परिस्थितियों वाले और बिल्कुल अपरिचित किसी अन्य लोक में फेंक दिया गया हो। ऐसा लगता है, जैसे यहाँ पहुँचकर, कहीं और के रास्ते बंद हो चुके हों। पहली बार कहीं पहुँचने पर कोई व्यक्ति उस जगह को जहाँ तक और जितनी दिशाओं में देख सकता है, कोहिमा पहुँच कर मैंने वहाँ तक और उतनी दिशाओं में देखने की कोशिश की, ताकि कोई पहचान तो मन में बना सकूँ। लेकिन, असम राइफल्स के जवानों से आगे, मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दिया। शाम के ५ बजे के इस समय, यहाँ इतना अँधेरा पड़़ चुका है कि दूर तक, वैसे भी कुछ देखा नहीं जा सकता। राजधानी का यह नगर, इस नगर का बाजार पूरी तरह बंद हो चुका है और सड़कों पर रोशनियाँ जल चुकी हैं। इक्का दुक्का दुकानें ही खुली हुई हैं। वे भी बंद हो रही हैं। असम राइफल्स के एक जवान से मैंने पूछा- क्या कोई पी.सी.ओ. खुला मिल जाएगा, जहाँ से मैं एक लोकल फोन कर सकूँ?
जवान ने सामने वाले मोड़ की तरफ बताया- ‘वहाँ चले जाइए। लेकिन थोड़ा जल्दी कीजिए। वह भी बंद हो रहा होगा।’
मैंने लगभग दौड़ लगाकर, बंद होती दुकान को पकड़ा। बात हो गई। डॉ. चंद्रा घर पहुँच गए हैं। हमें लिवाने के लिए यहाँ आ रहे हैं।

हमारे ठहरने की व्यवस्था डॉ. चंद्रा ने अपने घर में की है। घर पर प्रभा रास्ता देख रही थीं जहाँ, अपना कोई नहीं और जहाँ पहुँचने के लिए इतनी देर तक असुरक्षा के आतंक से होकर गुजरना पड़ा हो, वहाँ कोई अपनी प्रतीक्षा में मिल जाये? घर, इससे अलग और क्या हो सकता है? प्रभा ने मुझे भइया कहकर संबोधित किया। मैनें कहा-‘भाई कहा है तो फिर निभाना भी।’घर में पहुँच कर, अब समझ में आ रहा है कि बाहर, मौसम कितना ठण्डा रहा होगा जिसमें प्रतीक्षा करते हम खड़े़ थे। प्रभा ने जल्दी जल्दी पानी गर्म करवा कर बाथ रूम में रखवा दिया और भोजन की तैयारियों में जुट गई।
मै अभी बाथ रूम में ही था कि बिजली चली गई। बाहर आया तो डॉ. चंद्रा ने बताया कि यहाँ ऐसा होता रहता है। गर्म पानी से नहाकर बाहर आने के बाद, अब ठंड कुछ अधिक ही महसूस हो रही है। डॉ. चंद्रा ने सिगड़ी जलाकर लाने के लिए कहा। थोड़ी देर में कोयला आंच पकड़ने लगा और कमरा धीरे-धीरे गर्म होने लगा। बचपन के दिनों में, घर के हम सभी लोग, ऐसे ही कोयले की सिगड़ी या उपले (कण्डे) वाली अँगीठी (गोरसी) के पास घेरा बनाकर इकट्ठा हो जाते थे और सर्दी की रातों में देर तक आग तापते बैठे रहा करते थे। वे पुराने दिन और घर के साथ जुड़ी बातें, कब कितना पीछे छूटती चली गई।

घर के पिछवाडे वाली सड़क पर एक विशाल चर्च है। चर्च के शिखर इतने ऊँचे हैं कि ऊँची पहाड़ी के कटाव पर बने, इस घर के बराबर पहुँच रहे हैं। चर्च के कंगूरे पर अभी से क्रिसमस का सितारा टाँग दिया गया है। चर्च के भीतर खूब रोशनी की गई है। बाहर, कंगूरे पर लाल रंग का सितारा टँगा हुआ है। इसकी रोशनी के सहारे फरिश्ते आसमान से उतरेंगे। घर और चर्च के बीच में सड़क की दूरी न होती तो मैं क्रिसमस का सितारा चर्च के कंगूरे से उतार कर इस घर की छत पर,, बाँस में टाँग सकता था। बाँसों से बँधी हुई डोरें धूप में कपड़े सुखाने के काम आती हैं। क्या फरिश्ते धोखा खा सकते हैं और सितारों की रोशनी के सहारे आसमान से उतरते हुए, चर्च के बदले किसी घर की छत पर उतर सकते हैं, जहाँ धूप में कपडे़ सुखाए जाते हैं? इस काल्पनिक संभावना पर, अंग्रेजी साहित्य के प्राध्यापक से बात करने को मन किया। लेकिन मन की मन में रहने दी। लगा, यह बहुत अधिक फिक्शनल (औपन्यासिक) होता जा रहा है।

कहीं पास पड़ोस में जबर्दस्त धमाका हुआ। लगा कि क्रिसमस सितारे के अवतरण के साथ इस ईसाई बहुल राज्य की राजधानी में, क्रिसमस का माहौल अभी से रंग पकड़ने लगा है। रंग ओर रोशनी के साथ, यहाँ पटाखे और आतिशबाजी की शुरूआत भी अभी से हो गई? लेकिन मेरा सोचना सही नहीं निकला। धमाके की आवाज के साथ, वहाँ चारों तरफ सन्नाटा खिंच गया और अँधेरा छा गया। लोगों ने अपने घरों में रोशनियाँ बुझा दीं, भीतर से दरवाजे बंद कर लिये और खिड़कियों पर पर्दे डाल दिये। कुछ ऐसे, जैसे भारत-पाक युद्ध के दौरान शहरों में "ब्लैक आउट" का अभ्यास कराया जाता था जिससे कि घरों का उजाला बाहर न जाने पाये और बाहर, टोह लेने वाले विमानों को घरों के ठिकाने न मिलें। सुरक्षा के लिहाज से हमने भी पर्दे डाल दिये। दूसरी सुबह के अखबार से पता चला कि वह आतंकवादियों के बम का धमाका था।

यहाँ ऐसा होता रहता है। यह धमाका कल, यहाँ आयोजित होने वाले राजकीय समारोह, जिसमें नागालैंड राज्य के गठन के ३५ वें वर्ष का और नई सहस्त्राब्दी का स्वागत एक साथ होना है, के विरोध में भूमिगत संगठनों की प्रतिक्रिया है। यहाँ जब-जब इस तरह के, या इससे अलग किस्म के भी, राजकीय आयोजन होते हैं तब उन आयोजनों के विरोध में भूमिगत संगठन अपने उत्पात बढ़ा देते हैं। समारोह और उत्सव के विरुद्ध भय और आतंक इतना सघन कर देते है कि लोग शामिल होने का साहस ही न जुटा पाएँ। इससे भी बड़ी और एकदम सीधी, कोई वारदात हो सकती है।

राजधानियों के जैसे नगर देखने का हमारा अब तक का अभ्यास है, कोहिमा उससे बेमेल ठहरता है। ऊँची पहाड़ी पर एक छोटा सा पठार है। इसमें जितनी और जैसी जगह निकाली जा सकी होगी, उसमें ही नागालैंड की इस राजधानी को बसाया गया है। बसने को तो हिमाचल प्रदेश की राजधानी, शिमला भी ऐसे ही ऊँचे पहाड़ पर बसी है। लेकिन वहाँ बसाहट के लिए, और फैलाव के लिए भी, जगह है। भारत की ग्रीष्म कालीन राजधानी रह चुका शिमला, जहाँ कभी अंग्रेज वायसराय आकर रहा करते थे, एक राज्य की राजधानी के लिए छोटा नहीं लगता। कोहिमा उससे अलग है। दिल्ली से दूर और फिर कोई पर्यटक-आकर्षण भी नहीं, राजधानी जैसा लगता ही नहीं। एक बात और मन में आती है कि बाहरी संसर्ग से बचकर रहने की नीति के तहत तो, यह, बंद और ढँकी मुँदी राजधानी बड़ी अनुकूल ठहरती होगी।

मुख्य सड़क सँकरी, ऊबड़-खाबड़ और बेहद धूल भरी है। इस सड़क पर अक्सर ट्राफिक जाम होता रहता है। खुले वाहनों पर चलने वाले लोग, धूल से बचने के लिए नाक पर सफेद रूमाल ढाँक कर निकलते हैं। मुख्य चौराहे पर पर मुख्यतया वे सड़के हैं, जो अलग अलग दिशाओं वाले रास्तों को आपस में जोड़ती हैं और आगे बढ़ा देती हैं। दुकान और मकान इस पर कम हैं।

दाईं-बायीं तरफ से जो रास्ते नीचे उतरते हैं, इन्हीं में से दाहिने हाथ वाला रास्ता पकड़ कर हम नीचे उतरते गये। सब्जी बाजार पीछे छोड़कर, एक ऐसे छोर तक पहुँच गये जहाँ बाईं तरफ लकड़ी के बारजों और खिड़कियों वाले मकान कतार से बने हुए हैं। इन मकानों की सीढ़ियाँ भी लकड़ी की ही बनी हुई हैं। लकड़ियों वाले इन घरों में लड़कियाँ ही लड़कियाँ दिखाई दीं। कोई नेपाली, कोई संभवतया स्थानीय जनजातियों की। कोई खिड़की पर श्रंगार करती हुई तो कोई लकड़ी की सीढ़ी पर अलसाई सी बैठी हुई। नागालैंड में सुबह बहुत जल्दी होती है। प्रायः ४ बजे के आसपास। लेकिन इनकी सुबह अभी हो रही है? इन्हें रात में देर तक जागना पड़़ता होगा। मैंने डॉ. चंद्रा से पूछा कि यह कौन सी जगह है? उन्होंने बताया कि इससे पहले वे भी यहाँ नहीं आये थे। मुझे कुछ ऐसा अहसास हुआ कि लोग हमें देख रहे हैं।

नागालैंड में और मणिपुर के ईसाई बहुल पहाड़ी जिलों में रविवार का दिन जैसे पूर्ण स्थगन का समारोह मनाता है। प्रभु यीशु की आराधना में या फिर परिवार के साथ आराम। रविवार का स्थगन कोहिमा में सघन है। दिसंबर की ठंडी शाम सीधे सड़कों पर उतरने उतरने को है। लेकिन राजधानी की मुख्य सड़क निस्पंद और उदासीन है। ४-६ दिनों से बंद पड़े, एक गृहस्थी के घर को जगाने के लिए कुछ क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। मैंने प्रभा से कहा, जितनी देर घर की साफ सफाई में लगती है, उतनी देर में हम लोग बाजार जाकर सब्जी ले आते हैं। देखें, शायद कोई दुकान खुली मिल जाए।

कोहिमा में, बाहर से आने वालों के लिए दो प्रमुख दर्शनीय स्थल बतायें जाते हैं। वार सीमेट्री (युद्ध काल की कब्रगाह) और जन जातीय संग्रहालय। कल, विश्वविद्यालय में अपने व्याख्यान के बाद मैं कोहिमा को अलविदा कहूँगा। उससे पहले 'वार सीमेट्री' जाकर, वहाँ सो रहे लोगों को अलविदा कहूँगा।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मारे गए सैनिकों की इस कब्रगाह की देख रेख इंग्लैण्ड के ‘कॉमनवेल्थ वार ग्रेव्ज कमीशन’ के द्वारा की जाती है। यह आयोग दुनिया भर की ऐसी कब्रगाहों की देखभाल करता है-
‘चीड़ों की छाया में
सो रहे हैं सैनिक यहाँ
कब से, गहरी नींद में
लिए फूलों का सिरहना .....’

मणिपुर के सेमीनार में पढ़े गए अपने पर्चे में प्रोफेसर आई॰ गंभीर सिंह ने नये वर्ग भेद की बात की थी। एक अंग्रेजी जाननेवाला विशेषाधिकारयुक्त समाज जिसे सर्वाधिकारयुक्त समाज कहना अधिक प्रासंगिक होगा। और दूसरा अंग्रेजी नहीं जाननेवाला अवसरविहीन समाज, जो यहाँ का वंचित समाज है। नगालैण्ड की यह राजधानी - कोहिमा, इस समय अंग्रेजी के रस- रंग और धुन में पूरी तरह भीग चुकी है। दुकानें क्रिसमस के उपहारों से भरी हुई हैं। म्यूजिक शॉप्स में अंग्रेजी गीतों और धुनों के कैसेट्स और सी.डी. बज रहे हैं। मुझे किसी भी दुकान में नागा जन जातीय गीत, संगीत या नृत्यों की धुन का एक भी कैसेट ढूँढ़े नहीं मिला।

कोहिमा के मुख्य चौराहे पर खूब बड़ा सा सांताक्लाज अवतरित हो चुका है। यह, कल यहाँ नहीं था। जरूर पिछली रात उसी क्रिसमस सितारे की रोशनी के सहारे उतरा होगा, जो सितारा घर के पिछवाड़े वाले चर्च के कंगूरे पर लटक रहा है। पीले रंग के ढीले ढाले कपड़े पहने और उस पर लाल रंग की लंबी टोपी लगाये यह सांताक्लाज अब क्रिसमस तक इसी मुख्य चौराहे पर ट्रैफिक की छतरी के सामने बना रहेगा।

 

२२ दिसंबर २०१४

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