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न्यूजीलैंड हाउस
की एक शाम
-लीना मेंहदले
एक बार विश्व
हिंदी सम्मेलन के लिये मैं न्यूयॉर्क गई थी और वापसी में लंदन
रुकने का संयोग बना। वहाँ बेटे की मकान मालकिन ने न्यूझीलैंड
हाउस में एक शाम के लिये चलने का आग्रह किया और इस तरह मैं
वहाँ पहुँची।
यह महिला न्यूझीलैंड से थी जो कुछ वर्षों से लंदन में रह रही
थी। उसने बताया कि न्यूझीलैंड हाउस अर्थात् न्यूझीलैंड सरकार
के हाई कमिशन की ओर से यह एक सांस्कृतिक आयोजन है जिसमें हर
बुधवार की शाम को इंग्लैंड में स्थित कोई भी न्यूझीलैंड मूल का
निवासी भाग ले सकता है। उनसे यह भी आग्रह किया जाता है कि अपने
दोस्तों को भी साथ ले आयें ताकि जो न्यूझीलैंड मूलवासी अबतक इस
आयोजन की बाबत नहीं जानते उन्हें जानकारी मिले और जो अन्य
देशवासी हैं उन्हें न्यूझीलैंड की सभ्यता को समझने का अवसर
मिले।
कार्यक्रम कोई बहुत बड़ा नहीं था। साढे छह बजे से आठ बजे तक।
इसमें हाई कमीशन के दो तीन ही अफसर थे और वे भी ज्यूनियर। केवल
यह सँभालने के लिये कि किसी मेहमान को कोई असुविधा न हो साथ ही
कमीशन का कोई प्रोटोकॉल भी न टूटे। आने वालों को दो हिस्सों
में बाँटा गया था -- वे जिनके साथ मेहमान नहीं थे और वे, जिनके
साथ थे। पहला ग्रुप पहले से ही अंदर हमारा इन्तजार कर रहा था।
पाँच कतारों में। हम भी कतार बनाकर उनके सम्मुख हुए और उधर से
एक सुरीला गाना आरंभ हुआ। गीत के बाद हम आमने सामने बैठे और
हरेक ने अपना परिचय दिया। परिचय से पहले दो तीन छोटे भाषण भी
हुए कि यह आयोजन क्यों महत्वपूर्ण है और कैसे इसके माध्यम से
लोगों को अपनी जडों से जुड़े रहने का संबल मिलता है।
इसके बाद सब लोग गले मिले। जो थोड़े अपरिचित थे उन्होंने शेकहँड
से भी काम चलाया। कई व्यक्ति अपने छोटे बच्चों को साथ लाये थे,
उनका हालचाल पूछा गया। फिर फटाफट टेबुल लगाये गये और लोगों ने
अपने साथ जो थोड़ी-थोड़ी खाद्य सामग्री लाई थी वह सजाई गई। दस
मिनटों में खान पान पूरा होकर टेबुल भी हटाये जा चुके थे।
फिर मेहमान एक ओर बैठ गये और जो सामूहिक नृत्य करना चाहते थे
वे फिर से पंक्तिबद्ध हो लिये। औरतें अगली पंक्तियों में और
पुरुष पिछली। न्यूझीलैंड के पारंपरिक गीत गाये जा रहे थे और
उनके साथ पारंपरिक नृत्य जिनमें केवल कुछ चुनिन्दा स्टेप्स
(पदविन्यास) और चुनिन्दा ही हावभाव भी थे लेकिन तीस चालीस
लोगों की एक साथ प्रस्तुति उसे लुभावना बना रही थी। बीच बीच
में गीतों में समर प्रसंगों की तैयारी के बोल आ जा रहे थे, तब
सारे पुरुष आगे आ जाते और युद्ध सदृश भंगिमाएँ दिखाते। इनमें
दहाड़ना, ताल ठोंकना, तलवार के हाथ, आदि फुर्तीले प्रसंग भी थे।
केरल की नृत्य शैली में ऐसी कुछ भाव-भंगिमाएँ मैने देखी हैं
लेकिन हमेशा एकल या दो व्यक्तियों को लेकर। यहाँ बीसेक व्यक्ति
जब एक साथ उन प्रसंगों को दर्शा रहे थे तो एक अद्भुत समाँ बन
रहा था।
मुझे विचार आया कि यदि कभी भी न्यूझीलैंड देश से संबंधित आयोजन
के लिये इन्हें नृत्य प्रस्तुति आदि करनी हो तो एक तैयार ग्रुप
इनके पास हमेशा उपलब्ध रहेगा। जब पाँच छ नृत्य प्रस्तुत हो
चुके तो एक महिला नया गीत सिखाने को चली। वह अपने साथ गीत की
टाइप्ड प्रतियाँ ले आई थी जिसमें गीत के बोल और उसका इंग्लिश
भाषांतर भी था। यह आयोजन का एक महत्वपूर्ण भाग था कि
न्यूझीलैंड के लोकगीतों में से एक गीत का परिचय हर सप्ताह
कराया जाय और उसे उसी धुन में गाना सिखाया जाय। सिखाने वाली
महिला हर पंक्ति की दस-बीस रिहर्सल कराती थी ताकि हरेक को धुन
पकड में आये। साथ ही अर्थ भी समझाती थी। कोई वायलीन ले आया था
जो संगत भी कर रहा था। इसके पश्चात् पुराने सीखे हुए पाँच
गीतों को दुहराया गया।
अगले कार्यक्रम में हर व्यक्ति को न्यूझीलैंड के संबंध में कुछ
कहना था – आठ दस ही वाक्यों में। मैंने भी अनुमति माँगी और कभी
पढ़ी हुई रुदरफोर्ड की बायोग्राफी सुनाई – जो फिजिक्स के
नोबुल-विजेता और कॅम्ब्रीज में फिजिक्स के हेड रह चुकने के बाद
वैसी ही भव्य प्रयोगशाला अपने देश में स्थापित करने की खातिर
वापस चले गये थे। सबने उसे पसंद किया। इस दौरान हरेक ने बताया
कि कैसे वह अपने काम को श्रद्धा से करते हुए अपने देश की शान
बढ़ा रहा है। यहाँ से क्या सीखकर ले जाना है और उसे अपने देश
में कैसे लागू करना है। इसी दौरान थोडी बहुत कला गुणों की
प्रस्तुति भी थी। फिर एक चार मिनट की फिल्म के माध्यम से थोडा
न्यूझीलैंड परिचय कराया गया।
कुल मिलाकर डेढ़ घंटे – यह भी आवश्यक नहीं कि लंदन-स्थित हर
व्यक्ति हर सप्ताह वहाँ पहुँचे – अक्सर लोग दो महीनें में एक
बार समय निकालते थे। लेकिन न्यूझीलैंड सरकार के हाई कमीशन की
कमाल देखिये कि उन्होंने एक छोटा सा हॉल एक छोटे से समय के
लिये और वह भी सप्ताह में केवल एक दिन के लिये लेकिन निरंतरता
से और गारेंटी पूर्वक उपलब्ध कराया था। उसके आगे उन्हें कुछ
नहीं करना पड़ता था – फिर भी अपनी संस्कृति, अपना देश अपनी कला
आदि से नई पीढ़ी को सतत जोड़कर रखने के महत्वपूर्ण काम इतनी छोटी
लागत पर किये जा रहे थे।
हमारे देश की कार्यप्रणाली में केवल बड़े उत्सव की मानसिकता
दिखती है – उससे उबर कर हमें छोटे परंतु चिरंतन टिकनेवाले
कार्यक्रम चलाने पड़ेंगे – चाहे वे यहाँ आनेवाले प्रवासी
भारतीयों के लिये हों या विदेशों में बसी नई पीढ़ी के लिये हों। |