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नीम नदी
और मैं
-नरेन्द्र पुंडरीक
दरवाजे की
नीम से ही मैंने पेड़ पर चढ़ना सीखा, वैसे भी पेड़ पर चढ़ना और
उसकी डालों में लटक कर झूलना, पेड़ के पत्तों के बीच छुपकर
बैठना, बचपन में सबसे अच्छा शगल था। चैत के महीने से नीम की
निबौलियों की भीनी-भीनी महक से हमारे घर का सहन भरा रहता था।
धीरे-धीरे नीम से सफेद फूल झर जाते थे और उनकी जगह, छोटे-छोटे
हरे-हरे गल्हे लग जाते थे, जो बहुत धीरे-धीरे पकते थे।
अषाढ़ आते-आते
पानी की बौछार खाकर गल्हे पक कर चूने लगते थे अंगूर की तरह रस
भरे कसायत मीठे-मीठे। सावन आते ही इसकी डालों में झूला पड़ जाता
था, जो भादों की कृष्ण जन्माष्टमी के बाद तक पड़ा रहता था। पूरे
मुहल्ले की लड़कियाँ-लड़के झूलते थे। औरतें सावनी गाकर झूलती थी,
सावन की फुहारों और काली घटाओं के बीच पेड़ों में झूला-झूलती
औरतें-लड़कियों के दृश्य आँखों में खुप कर रह गये हैं। पहाड़ तो
मेरे गाँव में नहीं था सो उसके प्रति गहरे जुड़ाव की छवि तो
नहीं बनी लेकिन अजूबे तरह जरुर मेरे भीतर रहे हैं। पेड़ और नदी
यों कि मेरे जीवन के शुरुवाती दिनों से जुड़े रहे सो इनकी यादें
सर्वाधिक प्रिय हैं और इनके साथ जीवन की सुखद यादें भी अधिक
हैं जिन्हें मैं और यह नदी दोनों अकेले-अकेले आपस में साझा
करते हैं।
नदी और पेड़ों के साथ में होते थे मेरे हम उम्र दोस्त जिनके साथ
विचरने का सुख अवर्णनीय है। मुझे लगता है दुनिया का कोई भी
रचनाकार इस सुख को अब तक पूरी तरह से व्यक्त नहीं कर पाया है।
जब हमारा गाँव का घर जिसमें हम रहते थे खपरैल से पक्का ईटों का
बना, तब पिता जी ने इस नीम के पेड़ को घर दरवाजों एवं खिड़कियों
के लिए कटवाया, जब यह पेड़ कट रहा था तो मुझे बहुत दुख हुआ था।
घर के सामने का नंगा सहन माँद-माँद करता रहा। लगता था कोई
हमारा पारिवारिक था जिसका साया हम लोगों के सर से उठ गया है।
महीनों उसमें रहने वाले पखेरू आ-आकर लौटते रहे। जब कभी भी इसके
कटने की बात चलती मेरा मन भी तट से अनमना उदास हो उठता था, जब
यह कटने लगा तो मैने माँ से कहा पिता जी इसे नाहक कटवा रहे
हैं। तमाम पेड़ हैं इसकी जगह दूसरे पेड़ कटवा लेते।
पिता जी को
पेड़ लगाने का बहुत शौक था नीम-पीपल, बरगद के कई पेड़ उन्होंने
लगाये थे, नीम के पेड़ तो सर्वाधिक लगाये थे अभी भी पाँच-छह पेड़
खड़े हैं जिनकी सघन छाया पिता जी की याद दिलाते हैं। लेकिन जो
चीज मेरे जीवन में दरवाजे की नीम के पेड़ को लेकर थी वह दुनिया
के किसी और पेड़ के साथ नहीं हो सकी। सन ८३-८४ में यह दरवाजे की
नीम कटी थी, ठीक १० साल बाद यानी ९५-९६ में वह पैतृक घर जिसमें
इस नीम के पल्ले लगाये गये थे, हमसे छूट गया। घर तो अब भी है
लेकिन उसमें रहता कोई नहीं। उस घर में रहने का घर जैसा सुख
किसी को हासिल नहीं हुआ। अब वह पूरी तरह से बंद पड़ा रहता है।
मुझे अब भी लगता है कि उस घर में हमारे साथ-साथ नीम के पेड़ की
आत्मा भी रहती थी यह शायद नीम के पेड़ का ही अभिशाप था कि हम
लोग चाहकर भी उसमें टिक नहीं सके। हमसे पहले की तीन-चार
पीढ़ियों ने इस पेड़ की छाया में अपने जीवन के दिन काटे थे, जब
हम हारे-थके भूख प्यास से लदे-फदे आते, यही हमें अपनी बाँहों
में लेकर हमारी थकावट और तनावों को दूर करता रहा।
पिता जी ने अपने जीवन काल में दूसरे जो पेड़ लगाये, उनसे मेरी
वह आत्मीयता नहीं हुई जितनी कि दरवाजे की इस नीम से थी। इसके
बाद दुनिया का कोई दूसरा पेड़ मेरे लिए इतना सुंदर एवं आत्मीय
नहीं बन सका। ऐसी ही मेरी नदी केन है, जो मेरे गाँव से बिल्कुल
सट-लिपट कर बहती है। दुनिया की कोई भी नदी मुझे इसके बराबर की
नहीं लगी न इतनी सुंदर न इतनी आत्मीय मेरी उमंगे और नदी की
लहरों की उठान मुझे बिल्कुल एक जैसी लगी। जो नदी की लहरों के
साथ, बिल्कुल उन जैसी इठलाती हुई बहती थी। नदी में सुनहली आँख
वाली मछलियों के साथ तैरती गाँव की कुँवारी सपनीली लड़कियाँ।
लड़के जो ज्यादा तर मेरी तरह निठल्ले थे वे नदी बार-बार
तैरने-नहाने व लड़कियाँ काम के बहाने से कई-कई बार नदी आतीं,
जितनी बार नदी आतीं, उतनी ही बार धोतीं अपना चेहरा, हाथ-पाँव
और हर बार पास के पत्थर में घिसती अपनी एड़ियाँ, जब पिंडलियाँ
धोतीं तो नदी के पानी से ईर्ष्या होती, जब-जब पत्थर में एड़ियाँ
घिसतीं तो पत्थर से हमें ईर्ष्या होती।
नदी सुंदर
दिखती, घाट, सुंदर भरे-भरे दिखते जब तक नदी में लड़कियाँ रहतीं।
सूरज के उगने और डूबने के समय नदी की सुंदरता हजारों गुना बढ़
जाती। शाम को केन बिल्कुल शांत सौम्य और थकी-थकी सी दिखती
लेकिन सुबह वह अलसायी लड़की सी अल्हड़ इठलाती अपने हर हिस्से में
प्रस्फुटित हुए सौंदर्य को चारों तरफ फैलाती सी दिखाई देती।
आवाजों और बातों के स्वर उन्माद की तरह नदी की लहरों की लय में
फूटते हुये मालूम देते। नदी में दिन भर जो भी आता अपना कुछ न
कुछ धोने ही आता और साफ-सुथरा चंगा खिला-खिला होकर जाता। इस
नदी के तट पर सुबह-शाम दिन-दोपहर का मेरा कितना समय गुजरा है
इसका आकलन करना मुश्किल है।
अब
भी मुझे यह नदी और नदी से जुड़ी यादें मेरी अमूल्य थाती हैं।
जिसमें जब-तब अपने को हिलोरकर मन को ताजा कर लेता हूँ। यह
प्राकृतिक सौंदर्य का सबसे टटका, गतिशील और जीवन्त सौंदर्य
बिम्ब है। जिसमें सभी अपने को निहार कर खुश होते हैं। यह नदी
मेरी कविता का सबसे प्रिय विषय है। मैंने सर्वाधिक कवितायें
नदी पर ही लिखी हैं। |