जन्म जयंती के अवसर पर
चन्द्रकिरण
सौनरेक्सा -
पिंजरे की तीलियों से बाहर आती मैना की कुहुक
-सुधा अरोड़ा
आज गुजरे
जमाने की लेखिका चन्द्रकिरण सौनरेक्सा के ९३ वें जन्मदिवस
पर उन्हें याद करने का मन है ।
"मैं देश के निम्नमध्यवर्गीय समाज की उपज हूँ। मैंने देश के
बहुसंख्यक समाज को विपरीत परिस्थितियों से जूझते, कुम्हलाते और
समाप्त होते देखा है। वह पीड़ा और सामाजिक आर्तनाद ही मेरे
लेखन का आधार रहा है। उन सामाजिक कुरीतियों, विषमताओं तथा
बंधनों को मैंने अपने पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास किया है
जिससे वह भी उनके प्रति सजग हों, उन बुराइयों के प्रति सचेत
हों जो समाज को पिछड़ापन देती हैं। ७५ साल का लेखन पिंजरे की
मैना के साथ संपूर्ण होता है और यह मेरी छियासी साल की
जीवनयात्रा का वास्तविक दस्तावेज है।"
- चन्द्रकिरण सौनरेक्सा के आत्मकथ्य से
हिन्दी कथा साहित्य में महिला रचनाकारों की आत्मकथाएँ उँगलियों
पर गिनी जा सकती हैं। पुरुषवर्ग यह सवाल पूछता है कि लेखिकाएँ
अपनी आत्मकथाएँ क्यों नहीं लिखतीं? पर लिखी गयी आत्मकथाओं को
इस या उस कारण से स्वीकृति नहीं देता। स्त्री रचनाकारों और
पाठकों-प्राध्यापिकाओं का भी एक बड़ा वर्ग इस विधा में लेखन को
"अपने घर का कूड़ा" या "महज अपने जीवन का कच्चा चिट्ठा" मानकर
गंभीरता से नहीं लेता बल्कि एक सिरे से इसे खारिज करते हुए
कहता है कि साहित्य कूड़ा फेंकने का मैदान नहीं है।
"साहित्य समाज का दर्पण है" उक्ति घिस घिस कर पुरानी हो गई, पर
साहित्य का समाजशास्त्रीय विष्लेशण आज भी साहित्य का एक
अनिवार्य हिस्सा नहीं बन पाया । साहित्य और समाजविज्ञान के बीच
की इस खाई ने साहित्य को शुद्ध कलावादी बना दिया और
समाजविज्ञान के मुद्दों को एक अलग शोध का विषय, जिसका साहित्य
से कोई वास्ता नहीं।
सुभद्राकुमारी चैहान, सुमित्राकुमारी सिन्हा के कालखंड की एक
बेहद महत्वपूर्ण लेखिका चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी ने अपने जीवन
के उत्तरार्द्ध में अपनी लंबी चुप्पी को तोड़ा । अपनी आत्मकथा
"पिंजरे की मैना" में अपने जीवन के ऐसे बेहद निजी अनुभवों और
त्रासदियों को उड़ेल दिया जिसे घर और बाहर एक साथ जूझती, उस
समय के मध्यवर्गीय समाज की, एक औसत स्त्री की त्रासदी से
जोड़कर देखा जा सकता है। वे उम्र के उस पड़ाव पर पहुँच चुकी
थीं, जब व्यक्ति अपनी भरपूर जिन्दगी जी चुकता है । जिया जा रहा
समय उसे बोनस लगता है और उसे लगता है, अब उसके पास खोने के लिए
कुछ नहीं बचा। उसकी कलम बेबाक हो जाती है और सच बोलने से उसे न
खौफ होता है, न परहेज ।
चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी का जन्म 1920 में हुआ, जब अधिकांश
औरतें पढ़ने लिखने के बावजूद अमूमन गिरस्थिनें ही हुआ करती
थीं। 1940 में उनका विवाह लेखक, पत्रकार और सुप्रसिद्ध छायाकार
कांतिचंद्र सौनरेक्सा से हुआ। शादी के बाद बच्चों की तमाम
जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी हमेशा एक
सफल कामकाजी महिला रहीं। उन दिनों मनोरंजन के एक प्रमुख साधन
के रूप में रेडियो काफी लोकप्रिय था। रेडियो पर लता मंगेशकर के
गाने जितने लोकप्रिय थे, लखनऊ के पुराने वाशिंदे बताते हैं कि
उतनी ही लोकप्रिय चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी की "गृहलक्ष्मी"की
वार्ताएँ और "घर चौबारा" की कहानियाँ हुआ करती थीं।
आकाशवाणी में बेहद लोकप्रिय और नये से नये कार्यक्रम देने वाली
यह उस समय की युवा लेखिका भी एक माँ और पत्नी के रूप में एक
सामान्य औसत गृहिणी के त्याग और सहनशीलता के गुणों से लैस जीवन
जीती हैं। उनकी एक कहानी अमृत राय संपादित "हंस" में स्वीकृत
होती है तो पति, संपादक का पत्र देखकर फाहश शब्दावली का
इस्तेमाल करते हैं। पत्नी की कहानी की स्वीकृति पर ऐसी
प्रतिक्रिया उस पति की है जो तीन बेटियों का बाप होने के
बावजूद सरकारी नौकरी के प्रोबेशन पीरियड में ही एक प्रेम में
पड़ जाता है। पत्नी अपने लेखन और ट्यूशन के बूते अपने बाबूजी
के पास अलीगढ़ जाना चाहती है पर पत्नी के चले जाने से सामाजिक
प्रतिष्ठा और नौकरी जाने की संभावना है इसलिए पति को यह
स्वीकार नहीं। चन्द्रकिरण सौनरेक्सा लिखती हैं - "रोमांस और
शादी" - यथार्थ की धरती पर चूर चूर हो गए। किसी के दोनों हाथों
में लड्डू नहीं हो सकते। यह खोने और पाने का सिलसिला न होता तो
दुनिया कब की जंगल राज्य में बदल चुकी होती।"
प्रोबेशन पीरियड खत्म होने के बाद डिप्टी कलेक्टर की स्थायी
सरकारी नौकरी पाने के बाद फिर एक दिन लेखक पत्रकार छायाकार रात
को नौ बजे अपनी एक बीस वर्षीय महिला मित्र को हॉस्टल से घर ले
आते हैं और सारे क्रोध, अपमान, आत्मग्लानि के बावजूद पत्नी
उन्हें परिवार के सदस्यों की नजर से बचाने के लिए कमरे में भेज
देती है और सारी रात गैलरी में अखबार बिछाकर दरवाजे से टेक
लगाकर बैठ जाती है। लेकिन बात छिपती नहीं - डिप्टी डायरेक्टर
साहब को सस्पेंड किया जाता है और समाचार पत्रों में इस रंगीन
अफसाने की खबर छप जाती है। फिर रोटी रोजी का सवाल । किसी तरह
सुमित्रानंदन पंत जी और जगदीशचंद्र माथुर के सहयोग से
चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी लखनऊ आकाशवाणी की नौकरी पर नियुक्त हो
जाती हैं।
घर और बाहर का मैनेजमेंट - पिछली पीढ़ी की औरतों ने कैसे बखूबी
निभाया है, यह कोई श्रीमती सौनरेक्सा से समझ सकता है। पिछली
पीढ़ी में तमाम पौरुषीय कारनामों के बावजूद कैसे और क्यों
शादियाँ टिकी रहती थीं और किस कीमत पर... यह "पिंजरे की
मैना" किताब पढ़कर बखूबी जाना जा सकता है।
1985 में प्रभात प्रकाशन से उनकी किताब का प्रकाशन, कांति जी
के लिए प्रतिशोध का कारण बन गया। उसके बाद हर वर्ग का पुरुष
कांति जी को अपनी पत्नी का प्रेमी लगने लगा - चाहे वह कोई
संभ्रांत परिचित हो या अखबार देने वाला। कांति जी को यह समझ
नहीं आया कि लेखिका चन्द्रकिरण सौनरेक्सा से प्रतिशोध लेने में
बदनामी सौनरेक्सा खानदान की बहू की, उनके बच्चों की माँ की हो
रही थी । "अपमान, आत्मग्लानि और घोर मानसिक पीड़ा के दौर से
गुजरते हुए, उम्र के इस पड़ाव पर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी कि
किस तरह झूठ के इस बवंडर का सामना करूँ?"
उन्होंने एक लंबे अरसे तक साहित्यिक जगत से अपने को काट लिया,
साहित्यिक समारोहों में जाना बंद कर दिया था पर इसकी टीस
लगातार बनी रही - "मैं आज भी निम्नमध्यवर्ग का अंश हूँ , तब भी
थी। सोचा, एक मुक्केबाज की चोट से अगर बचना चाहते हो, तो उसके
रास्ते से हट जाओ। तब उसके मुक्के हवा में चलेंगे, चलानेवाला
भी जब उसकी व्यर्थता जान लेगा, तो हवा में मुक्केबाजी बंद कर
देगा। ...मैं तो स्वनिर्मित गुमनामी के अँधेरे में खो गई।
वृंदावन से एक बंदर चला जाए तो वृंदावन सूना नहीं हो जाता।
चन्द्रकिरण के साहित्य जगत से हटने से वह सूना नहीं हो गया।"
इस आत्मकथा की तुलना अगर किसी से की जा सकती है तो वह है मन्नू
भंडारी की "एक कहानी यह भी" जो आत्मकथा नहीं, मन्नू जी की
संक्षिप्त लेखकीय यात्रा है पर दोनों किताबों में गजब की
ईमानदारी, साफगोई और पारदर्शिता है। शब्द झूठ नहीं बोलते -
दोनों आत्मकथाओं के ब्यौरे इस बात के गवाह हैं।
इस कामकाजी महिला ने जिस खूबी से अपने घर और कार्यक्षेत्र की
माँग को अपनी दिनचर्या में जिस तरह सुव्यवस्थ्ति किया, उसे
देखकर हम नहीं कह सकते कि स्त्री सशक्तिकरण आज के आधुनिक समय
की अवधारणा है। इस सशक्तिकरण के बदलते हुए चेहरे को समय के साथ
बदलता हम देख पा रहे हैं पर इस अवधारणा का शुरुआती दौर देखने
के लिए चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की आत्मकथा "पिंजरे की मैना" एक
बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक साबित होती है। हिन्दी साहित्य के हर
अध्येता को इसे पढ़ना चाहिए ।
जब मैंने २००८ में किताब पढ़ी, सोचा - पिंजरे की मैना से मिलकर
उन्हें बधाई दूँगी कि अन्ततः उन्होंने कलम को हथियार बनाने का
भरपूर साहस दिखाया। पर इससे पहले कि मैं उनसे मिलती, मैना
पिंजरा खोलकर उड़ गई। बेशक आज समय बदल चुका है पर हिन्दी
प्रदेश के उन पिंजरों में, जहाँ आज भी चन्द्रकिरण सौनरेक्सा
जैसी औरतें हैं और वही सब कुछ झेल रही हैं जो पचास साल पहले की
कामकाजी औरत ने झेला, अपने समय की एक महत्वपूर्ण लेखिका का
बेबाक और पारदर्शी बयान बहुतों के लिए ताकत का सबब बनेगा।
चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की ९३ वीं जयंती पर उन्हें नमन । |