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संस्मरण

जन्म जयंती के अवसर पर

याद आएँगे अमर गोस्वामी
-अजामिल


अमर गोस्वामी से मेरी पहली मुलाकात मित्र प्रकाशन के दफ्तर में हुई थी जहाँ हम दोनों एक साथ नौकरी पाने के लिए गए थे। यह पहली अप्रैल का दिन था हम दोनों ही सहमे हुए थे कि कही हमारी नियुक्ति का मामला भी पहली अप्रैल का मजाक बनकर न रह जाये लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ मित्र प्रकाशन के निर्देशक और प्रमुख संपादक आलोक मित्र ने हमे बकायदा पहली अप्रैल को ही नियुक्ति पत्र दिया। हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। अमर गोस्वामी यहाँ आने से पहले कई दूसरी जगहों पर भी नौकरी कर चुके थे लेकिन मेरी यह पहली नौकरी थी।

इस नियुक्ति के बाद मैं और अमर गोस्वामी लगभग दो साल तक एक ही मेज पर रचनाओं की तमाम फाईलों के साथ आमने-सामने बैठे ये वही दो साल थे जब मुझे अमर गोस्वामी को बहुत करीब से जानने का मौका मिला अमर गोस्वामी बाद में मेरे सबसे प्रिय हुए। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ कि अमर गोस्वामी दोस्ती को दोस्ती के अर्थ में जानने तक ही अपने को सीमित नहीं रखते थे बल्कि उनकी दोस्ती उनके आत्मीय व्यवहार में दिखाई देती थी। दोस्ती करना और उसे पूरी गर्माहट के साथ निभाना अमर गोस्वामी बहुत अच्छी तरह जानते थे शायद यही वजह थी कि वरिष्ठ-कनिष्ठ लेखकों की एक लंबी फेहरिस्त है जो उनके दोस्त रहे। मित्र प्रकाशन की महिला पत्रिका मनोरमा में काम करते हुए अमर गोस्वामी को शुरुआत में अच्छा नहीं लगा था। वह साहित्य जीवी थे और किसी साहित्यिक पत्रिका में ही अपनी सेवाए देना चाहते थे लेकिन परिवार की आवश्यकताओं को ध्यान रखते हुए उन्होंने मनोरमा पत्रिका में रूचि लेना शुरू किया और पत्रिका को सजाने सवारने से लेकर उसके कंटेंट को एक सार्थकता देने तक अमर गोस्वामी की सोच उनकी सूझ-बूझ और रचनात्मकता ने कमाल कर दिया। जिसकी पाठकों ने खूब सराहना की। पत्रिका के संयुक्त संपादक कथाकार अमर कान्त जी के साथ काम करते हुए अमर गोस्वामी ने संपादन की बारीकियां सीखी। व्यापार की शर्तों को स्वाीकार करते हुए अमर गोस्वामी बकायदा इस पर भी चिंतन मनन करते रहते थे। उनके रहते हुए मनोरमा परिवार से देश के अनेक बड़े लेखक साहित्यकार इस पत्रिका से जुड़े।

यह सब करते हुए भी अमर गोस्वामी का रूझान साहित्य की ओर ही बना रहा। दफ्तर से निकल कर अमर गोस्वामी अपनी साइकिल से इलाहाबाद के साहित्यकारों से मिलने और साहित्यिक चर्चा के लिए उनके घरों पर नियम से जाया करते थे। नरेश मेहता, रवीन्द्र कालिया, दूधनाथ सिंह, भैरव प्रसाद गुप्त, प्रमोद सिन्हा, मार्कडेय, शेखर जोशी, डॉ. सत्य प्रकाश मिश्र, ममता कालिया, श्रीपत् राये, डॉ. जगदीश गुप्त, विजय देव नारायण साही, रघुवंश, राम स्वरूप चतुर्वेदी, शैलेश मटियानी आदि तमाम वरिष्ठ लेखकों के सानिध्य में रहकर अमर गोस्वामी के साहित्यिक संस्कारों को गरिमा मिली और उन्होंने साहित्य को ओने मूल्यों के साथ जीना सीखा। अपनी व्यस्तता के बावजूद अमर गोस्वामी लगातार कहानियां लिखते रहे और देश की तमाम पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे। हमें यह देखकर आश्चर्य होता था कि अमर गोस्वामी आखिर इतना समय कैसे निकाल लेते हैं। उनमें अच्छी बात ये थी कि परिवार के लिए वो कुछ भी काम कर रहे हो, वो कभी साहित्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता से भटकते नहीं थे।

अमर गोस्वामी को पढ़ने का बहुत शौक था। मित्र प्रकाशन में हम लोग जिस वेतन पर काम कर रहे थे उससे हमारे परिवार बस चले जा रहे थे। मैं बहुत कम किताबे खरीद पाता था लेकिन अमर गोस्वामी को जब कभी किसी रचना का कही से पारिश्रमिक मिलता था तो वह किताबे खरीदते थे। उनके पास उनकी अपनी बनी हुई बड़ी समृद्ध लाईब्रेरी थी। दूसरों को पढ़ने के लिए वो प्रेरित करते रहते थे। मेरे विवाह में उन्होंने मुझे उपहार में पुस्तकें दी थी जो आज भी मेरे पास सुरक्षित हैं। वो अक्सर कहा करते थे कि पुस्तकों से अच्छा कोई दोस्त नहीं होता। अमर गोस्वामी के कंधे पर लटकते झौले में सब जानते थे कि नई किताबें होंगी या पत्र-पत्रिकाओं के अंक होंगे। जीवन भर विसंगतियों में जीते हुए अमर गोस्वामी ने विसंगतियों को ही अपनी कहानियों का विषय बनाया और उसी पर तंज किया शायद यही वजह थी की अमर गोस्वामी की कहानियां पढ़ने के बाद अधिकतर पाठकों को यही लगा कि यही तो वे भी कहना चाहते थे। अमर गोस्वामी बांग्ला साहित्य के अद्ध्येता थे। लगातार इसको लेकर भी उनका चिंतन मनन चलता रहता था। बांग्ला और हिन्दी पर समान अधिकार होने के कारण उन्होंने बांग्ला की लगभग पचास पुस्तकों का अनुवाद किया।

अमर गोस्वामी स्वभाव से बेहद मिलनसार थे। मित्र प्रकाशन में जब हरी शंकर परसाई आये तब अमर गोस्वामी ने पांच मिनट में ही उनका दिल जीत लिया। वह काफी देर तक अमर गोस्वामी के साथ बैठे रहे। जाते समय उन्होंने अमर गोस्वामी को जबलपुर आने का निमंत्रण भी दिया। यह हमारे लिए इसलिए आश्चर्य का विषय रहा क्योंकि जब यह सब कुछ घटित हो रहा था उसी कमरे में अमरकान्त और भैरव प्रसाद गुप्त जैसे वरिष्ठ लेखक बैठे हुए थे। घुमक्कड़ स्वभाव का होने के कारण अमर गोस्वामी अपने लेखक मित्रों से मिलने के लिए देश के तमाम छोटे बड़े शहरों में गए। उनके साथ देश के बहुत सारे लेखक पूरी आत्मीयता से जुड़े हुए थे। एक बार अमर गोस्वामी ने एक कार्यक्रम में नरेश मेहता, जगदीश गुप्त और भैरव प्रसाद को मिरजापुर आमंत्रित किया था। वहाँ से लौटते समय कुछ बदमाशों ने हमारी कार अपने कब्जे में कर ली। बमुश्किल तमाम हम सभी लेखक चिरौरी विनती करके उस मुसीबत से बच पाए थे।
अमर गोस्वामी के साथ बीते दिन अभी काफी बिखरे हुए हैं। मैं उन्हें धीरे-धीरे सहेजूँगा। अमर गोस्वामी को भुलाना मेरे लिए संभव नहीं है....

 

२५ नवंबर २०१३

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