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संस्मरण

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माँ और मेरी शिक्षा
-प्रेमपाल शर्मा


वाक़ई कोई नियम शाश्वत नहीं कहा सकता। ज़रूरी नहीं कि माँ, पिता फ़ारसी, अंग्रेज़ी, संस्कृत, उर्दू के ऊँचे विद्वान बहुत पढ़े-लिखे हों तभी बच्चों को बेहतर शिक्षा दे सकते हैं। मेरी माँ अनपढ़ थीं और पिता दिल्ली शहर में एक मामूली सी प्राइवेट नौकरी प्रिंटिंग प्रेस में मशीन मैन थे। हम पाँच-सात भाई बहन सिर्फ माँ के साये में, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक गाँव में पले-बढ़े। पुश्तैनी काम खेती था। एक मामूली काश्तकार किसान का जीवन। मगर माँ की नज़रों में न जाने क्या था कि तुरन्त टोक देतीं ये तू क्या पढ़ रहा है? ये तेरे कोर्स की किताब तो नहीं है। उन्हें अक्षर ज्ञान नहीं था लेकिन सहज बुद्धि इतनी तेज थी कि तुरन्त ताड़ जातीं कि ये कोई ऐसी वैसी फालतू किताब है।

इतनी हाड़-तोड़ मेहनत कि पूरा गाँव लोहा मानता था। जब हम सोकर उठते थे, तो वह चक्की चला रही होतीं। अँधेरे में जंगल, शौच से निवृत्त होकर। फिर जंगल की तरफ़ खर, रातिब (जानवरों का खाना) की बाल्टी लेकर निकल जातीं। भैंसों को सानी-पानी देतीं, दूध दुहतीं और फिर घर वापस। जब हम चौथी-पाँचवीं क्लास में आ गये तो हम घर की बज़ाय घेर पर सोने लगे। घेर यानी कि जहाँ बैल, भैंस, गाय बँधते थे। एक कोठरी जानवरों के लिये, एक कोठरी बरामदा हमारे रहने सोने को। गाँव यानी घर से क़रीब एक किलोमीटर पर स्थित। उसी से सटे हमारे खेत थे जिसे हमलोग जंगल कहते थे। दादा जी घेर पर दिन-रात रहते थे। उनको लकुआ मार गया था अत: मुश्किल से लाठी के सहारे ही चल-फिर पाते थे।
उनको खाना पहुँचाना दोपहर, शाम को हम भाइयों में से ही कोई करता था।

गर्मी की लम्बी दोपहरी के दिन याद करूँ तो दादा जी (हम बाबा कहते थे) पढ़ने के बड़े शौकीन थे। रामायण, सुखसागर, महाभारत और कई तरह के उपन्यास कुशवाहा कांत आदि उनकी निजी मिल्कियत थीं। इतनी निजी कि हम बच्चों को कपड़े की इस पोटली को उनके पास लाने और उनके कहे अनुसार उठाकर रखने की इजाज़त भर थी। जैसे बाबा जी को हुक्का-चिलम भरकर देने से कभी-कभी हुक्का के घूँट का स्वाद चखा, वैसे ही किताबों की पोटली बाँधकर रखने के बाद उन्हें पढ़ने का। दोपहर का खाना खाते ही इधर बाबा जी के खर्राटे शुरू और उधर हम चुपचाप कभी सुखसागर, कभी महाभारत को लेकर जल्दी-जल्दी पढ़ने लग जाते। दोपहर को यह मेरी नियमित दिनचर्या थी। जैसे कुछ बच्चों को ताश खेलने की, कुछ को दोपहरी भर बंबा (नहर) नहाने या दूसरे खेल, शरारतों की। दोपहर के बाद भैंस चराने के लिये जाना एक नियमित कार्य था जो हम सब भाइयों ने बारी-बारी से किया-- ८ वर्ष से १२ वर्ष की उम्र तक। बाबा जी के उठने से पहले मैं पोटली चुपचाप उनके सिरहाने रख देता। ऐसा नहीं कि वे मना करते। उन्हें डर था कि यदि पुस्तक फट गयी तो
दोबारा नहीं आ पायेगी और एक बुजुर्ग विकलांग के लिए पुस्तक कितना बड़ा सहारा होती है, हो सकती है मैं अब बेहतर समझ सकता हूँ।

माँ को भी यह पता था कि हम दोपहरी में किताब आदि पढ़ते हैं। अत: वे भी संतुष्ट थीं। घेर में नीम की घनी छाया में अक्सर और भी ऐसे बच्चे आ जाते जो थोड़ा-बहुत पढ़ने की तरफ़ झुकाव रखते थे। ऐसा कई वर्षो तक चला। सम्भवत: जब तक मैंने इन्टरमीडिएट किया होगा।

एक-दूसरे को पढ़ने में मदद करने, बड़े बच्चों की किताबें पुश्त-दर-पुश्त छोटों को देते जाना जैसी बातें बहुत आम थीं उन दिनों। पाठ्यक्रम भी इतनी जल्दी नहीं बदलते थे। शायद हम पाँच भाइयों ने एक के बाद एक वही किताबें पढ़ी होंगी। कई बार वो भी किसी और से ली हुई या आधे दाम पर ख़रीदी हुई होती थीं। उन पर लिखे नाम आज तक गवाह हैं कि एक ही किताबों से कितने बच्चे अगली क्लास में सरक गये। देश के हित में वही अच्छा था। ग़रीबी तो ख़ैर थी पूरे देश में ही।

क-दूसरे को पढ़ाने से जहाँ ख़ुद का भी `रिवीज़न' हो जाता, कुछ नयी बातें पता हो जातीं, वहीं ट्यूशन का रोग भी शुरू नहीं हो पाया। बमुश्किल सैकड़ों में कोई एक ट्यूशन करता था, वह भी जो पढ़ने में बहुत कमज़ोर, फिसड्डी-- अक्सर गणित, अंग्रेज़ी जैसे विषयों में।

पढ़ाई हम सबके लिए उस समय का काम था, जब खेती, किसानी का, जानवरों या कोई और काम बाकी न रहा हो। जैसे सुबह उठते ही बैल, भैंसों को सानी करके हम दो भाई मशीन से कुट्टी करने में लग जाते। माँ घर से आतीं, गोबर हटातीं और दूध निकालकर तुरन्त घर पर रोटियाँ सेंकतीं। हम कुट्टी काटते ही स्कूल की ड्रेस पहन, रोटी खाकर या मट्ठा पीकर पैदल सरपट स्कूल की तरफ़ मार्च कर जाते। करौरा स्कूल लगभग तीन-साढ़े तीन किलोमीटर दूर था। पक्की सड़क पर आस-पास के गाँव के बच्चों का रेला उमड़ जाता था। इक्के-दुक्कों को ही साईकिल नसीब थी। बसें भी थीं, लेकिन न किसी
की सामर्थ्य थी किराया देने की, न कोई बस में बैठने की सोचता था। स्कूल आना-जाना एक नियमित खेल का मानो हिस्सा था। यही कारण था कि इनमें से कई बहुत अच्छे धावक, पहलवान बने।

मेरे जैसों को तेज चलने की आदत स्कूल के इन्हीं दिनों की देन है। कभी-कभी हम ताँगे के पिछले हिस्से में बस्ता रखकर उसके पीछे-पीछे ताँगे को छूते हुए घोड़े की टपटप के साथ ऱ़फ्तार से दौड़ते थे। लौटने में यदि ज़रा भी देर होती तो माँ को जवाब देना होता था। कई बार ऐसा भी होता था कि खेतों पर कोई किसानी का काम चल रहा होता जैसे बुवाई, कटाई, धान रोपना, गन्ने का कोल्हू, मक्का की मुठिया निकालना या सिंचाई का काम, तो माँ पहले से ही खाना वहीं ले जातीं। हम स्कूल से लौटते ही खेतों पर ही खाना खाते और जो काम चल रहा होता उसी पर लग जाते।

होमवर्क आदि की फुरसत मिली तो मिली, वरना अगले दिन के लिए मुल्तवी। गाँव देहात में किसानों के बच्चों की पढ़ाई ऐसे ही दबाव में होती है। हम तो ख़ुशक़िस्मत थे कि छोटे किसान थे, अपना ही काम था। निपटाया और अपने पढ़ने-लिखने के काम में लग गये, जिन बच्चों के माँ-बाप मज़दूर हैं, कभी-कभी बँधुआ मज़दूर हैं और जो गाँव के अधिकतर दलित, आदिवासियों का सच है, वे क्यों तुरन्त स्कूल से `ड्राप-आउट' हो जाते हैं, इसे समझना मुश्किल नहीं है। देश की
अधिकांश आबादी के अशिक्षित रहने के पीछे यही सत्य है।

काम ख़त्म होते ही माँ यह सुनिश्चित करतीं कि हम तुरन्त अपनी-अपनी किताबें लेकर बैठ जायें। कई बार देर रात तक जब हम लालटेन में पढ़ रहे होते तो माँ किसी न किसी काम को निपटाने में लगी रहतीं जैसे कभी बथुआ (सब्ज़ी) साफ़ कर रही हैं तो कभी चने की सब्ज़ी काट रही हैं। सुबह स्कूल जाने से पहले बनाने के लिये। तो कभी इम्तिहान के दिनों में लड्डू बनाने में लगी होतीं। ऐसा कम ही हुआ होगा कि माँ हमसे पहले सोयी हों और हमसे बाद में जागी हों। पैंसठ वर्ष की उम्र में जब उन्हें अचानक पेट के कैंसर ने पकड़ा और दो महीने के अन्दर ही निगल लिया, इससे पहले हमें याद नहीं
कि वे कभी बीमार भी हुई हों। तब तक हमने उनकी यही दिनचर्या देखी थी।

माँ की शिक्षा का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष था हम सब भाइयों का भूत, प्रेत, टोटके, जादू-टोनों में यकीन नहीं करना। गाँव में आये दिन ऐसे टोटकों, भूत-प्रेत की गप्पें चलती रहती थीं। हमें नहीं याद कि कभी ऐसे क़िस्सों में उन्होंने अपनी ओर से कुछ जोड़ा हो। हमारे ही ताऊ परिवार की एक भाभी पर आये दिन पीपल वाला भूत आये रहता था। हम रोज़ तमाशा देखते। कभी उन्हें जूता सुँघाया जा रहा है कभी कुत्ते का गू। देखकर ही मितली आने लगती। कभी-कभी लात-घूँसों से पिटाई भी। यह जताते हुए कि यह पिटाई भूत या डायन जो भी उनके सिर पर आ बैठा है, उसकी हो रही है। वैसे ऐसा त
ब ज्यादा होता था जब उनकी अपनी सास या देवरानी या किसी और से झगड़ा हुआ हो।

भाभी इन सबके बीच में बालों को बिखेरकर अंट-शंट बोलते हुए और तमाशा करतीं। माँ सिर्फ यह कहते हुए हमें किताबों की तरफ़ धकेल लातीं कि `यह सब नौटंकी है। कहीं कोई भूत नहीं है।' जहाँ पूरा गाँव ऐसे तमाशे के बाद एक दहशत में आ जाता हो, वहाँ एक अनपढ़ माँ की यह शिक्षा बहुत बड़ी बात थी। इसलिये जहाँ गाँव के कुछ बच्चे गले में काला धागा बाँधे होते, किसी ने बाजू में `गंडा' या कोई अँगूठी या छल्ला पहना होता, माँ ने हमें इन सबसे बहुत दूर रखा।

ऐसा नहीं है कि वे नास्तिक थीं। व्रत अक्सर रखतीं विशेषकर वृहस्पतिवार को केले का पूजन उनकी नियमित चर्या में शामिल था। लेकिन किसी को दूर-दूर तक भी पता नहीं चलता कि उन्होंने व्रत रखा हुआ है। बिल्कुल गाँधीजी की उपवास की परिभाषा में-पाचन तंत्र को भी विश्राम और देश का भी हित। आम दिनों की तरह ही वे दिन भर हमारे साथ खेतों पर काम करतीं, बस खाने से पहले स्नान करके अर्घ्य चढ़ातीं और फिर काम में जुट जातीं। मौजूदा महानगरों की तरह व्रत
का मतलब भर-भरकर खाना और पूजा का आडंबर दूर-दूर तक नहीं था।

मुझे नहीं याद कि उन्होंने कभी पंडित को भी हममें से किसी का भी भविष्य फल जिसे सब हाथ दिखाना कहते थे, दिखाया हो। बस यूँ ही ज़िन्दगी की व्यस्तता में उन्हें इन सबके लिये फुरसत ही नहीं थी। हम किसी भाई-बहन की न जन्मपत्री है न जन्म कुंडली और न किसी का ज्योतिष, ग्रह, नक्षत्रों में यकीन। इस शिक्षा ने हमें बेहद हिम्मती और निडर बनाया। इतना कि सर्दियों की रात में नहर से निकले बम्बा से खेतों में पानी लगाने (सिंचाई) या रात के सुनसान में हल-बैल चलाने में जंगली जानवर का डर लगा हो तो लगा हो, किसी ऊपरी भूत-प्रेत व्याधा ने कभी भी भयभीत नहीं किया। गाँव में किसका बच्चा अच्छा पढ़ रहा है और किसे नौकरी मिली है, रात को बतियाते हुए वही हमें बतातीं-धीमे से उपदेश की तरह। उनके एक भतीजे को एम.ए. में गोल्ड-मैडल मिला था। उसकी दास्तान तो हम सबको उन्होंने न जाने कितनी बार बतायी होगी। वे इस प्रेरणा का अर्थ बख़ूबी मानती थीं और यह भी कि किन बच्चों या बिगड़ैलों की संगत से बचाना है। गाँव में दर्जनों बच्चे, नौजवान शाम को किसी चबूतरे, लट्ठे के नीचे या ऐसे ही किसी कोने पर घंटों क्या पूरे दिन ढलुए बैठे रहते थे। हमें भी ऐसी जगह बैठना बड़ा भाता था। जब छोटे थे तो ऐसी ही जगहों पर कंचे या गिल्ली डंडा या दूसरे खेलों में लग जाते। माँ न होतीं तो हम पूरे दिन के लिए बहक सकते थे।

वे आतीं और अपने साथ खेतों पर ले जातीं।कभी-कभी पिटाई भी हुई। इससे दो फायदे हुए, एक तो हम आवारगी से बचे रहे और दूसरे घर के कामों को सीखते हुए माँ को भी मदद मिली। समय के सदुपयोग का संस्कार भी माँ की इसी शिक्षा ने दिया। माँ की इन बातों को सोचते हुए इसीलिए मुझे स्त्री शिक्षा या लड़कियों की शिक्षा समाज परिवर्तन का ज्यादा कारगर उपाय लगता है क्योंकि परिवार या बच्चे को सुशिक्षा के जितने बेहतर संस्कार माँ दे सकती है उतना सम्भवत: पिता नहीं। गाँधीजी स्त्री को इसीलिए देश की सीमाओं पर लड़ने वाले सैनिकों से भी बड़ा योद्धा मानते थे। उनका कहना था कि घर और बाहर दोनों जगह भारतीय स्त्री के सामने ज्यादा बड़ी चुनौतियाँ हैं। यदि लड़की को बेहतर शिक्षा मिले तो वह पूरी संतति को रास्ते पर ला सकती है। लेकिन हिन्दी पट्टी में यह मंज़िल अभी भी बहुत दूर है।

 

४ जून २०१२

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