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अनन्तकाल
तक बचे रहें गायक: कुमार गंधर्व
-प्रभु जोशी
मैंने देखा,
घर घिरा हुआ था। लगभग चारों तरफ से। मेंहदी के गुत्थम-गुत्था
झुरमुटों से जो अपने अनुशासन में हरी दीवार की तरह लग रहे थे।
लेकिन, बावजूद इसके, उन्हें वहाँ से गुजरने वाला कोई भी
व्यक्ति दीवार की तरह नहीं ले रहा था। ‘दीवार‘-अर्थात् घुसने
से रोकने वाली बाधा की तरह। अलबत्ता, अपने ‘दीवारपन’ के प्रकट
व्यवहार के बावजूद वे आमंत्रित करती-सी लगती थी - गालिबन,
‘आओ!’ और हमारे भीतर कैद हो जाओ।’ अंदर आने के बाद लगा कि बाहर
की दुनिया और उसके कोलाहल को बाहर ही खदेड़ रहने में वे कितनी
मददगार लगती है।
महानगरों का कोलाहल आदमी को जितना अकेला कर देता है, कहीं उतना
ही छोटे नगरों का सन्नाटा भी। ’लगभग एकाध मिनट चुप बने रहने के
बाद कमलेश्वर ने कहा। मैं उन्हें कुमारजी से भेंट करवाने के
लिए उनके घर भानुकुल तक ले आया था। देवास आने वाले को चमत्कृत
करने के लिए हमारे पास देवास की टेकरी के नीचे गायक कुमार
गंधर्व और राधागंज में कवि नईम से मुलाकात करवा देने से अधिक
कुछ भी उपलब्ध नहीं था। इसलिए बंबई से आए चर्चित कहानीकार और
सारिका के यशस्वी सम्पादक कमलेश्वर को मैं वहाँ लाया था।
कुमारजी घर पर नहीं थे। इलाहाबाद गए हुए थे-लेकिन उनकी
उपस्थिति घर के अहाते के चप्पे-चप्पे में थी। अहाते की
क्यारियों और गमले में खिलते फूलों को देखकर मैंने कहा-‘लगता
है, शहर के सारे फूल वाले पौधों ने भागकर यहाँ शरण में रखी
है।’
कमलेश्वर हँसने लगे। बोले यों भी देवास की सड़कें देखकर मुझे
लगा कि ये तो इतनी सूनी और खाली जैसे शहर में कर्फ्यू लगा हो।’
यह लगभग बीस वर्ष पहले के देवास की बात है। उन दिनों कुमारजी
फिर से अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं के सफों पर दिखाई देने लगे
थे। उन्होंने गांधी-शताब्दी वर्ष में ‘गांधी मल्हार’ जैसे फिर
एक नए और विवादास्पद प्रयोग को अपने श्रोताओं के समक्ष रखा था।
निश्चय ही उनके कुछेक रसिकों के लिये यह अप्रत्याशित था और वे
इस पर अपनी असहमतियाँ प्रकट भी कर चुके थे। क्योंकि, यह वह
कालखण्ड था, जब ‘गांधी चर्चा’ का अर्थ सत्ता की निकटता की
इच्छा माना जाने लगा था। और मैं कुमारजी से इस सिलसिले में एक
दफा इंटरव्यू भी कर चुका था-तथा चाहता था, कि कमलेश्वर भी उनसे
इस पर बात करें। लेकिन, उस दिन कुमारजी से मुलाकात नहीं हो पाई
थी।
बहरहाल, मुझे अच्छी तरह याद है, मैंने उस पहले इंटरव्यू में
अपनी किशोर सुलभ उत्सुकता को लगभग आक्रामकता में बदलते हुए,
कुमारजी से लम्बी जिरह जैसी-चीज कर डाली थी- और कुमारजी सवालों
के जवाब देते हुए शांत और निरूद्वेग बने रहे थे। यह कुमारजी को
जानने का पहला मौका था। हम लोग पीछे आँगन में बैठे हुए थे।
उन्होंने चल रही बात को रोक कर बीच में अचानक बिना किसी
पूर्व-संदर्भ के यह संवाद बोला। ‘एक खासी लंबी रैली निकल रही
है।’ मैं थोड़-सा अटक गया। बाहर कहीं कोई शोर नहीं था। फिर रैली
का बिना किसी संदर्भ के जिक्र? मैंने प्रश्नाकुल चेहरे से उनकी
ओर फिर देखा। यह जानने के लिए कि रैली का क्या अर्थ। और कौन-सी
रैली? उन्होंने अपनी उस तर्जनी से, जो गाते हुए अक्सर अनंत की
ओर उठा करती है, जमीन की ओर इशारा किया। वहाँ दीवार के सहारे
लाल चीटियों का एक लंबा हुजूम चल रहा था। सचमुच ही इतनी बड़ी
रैली और बेआवाज।
कुमारजी हँस दिए। वह उनकी एक भरी हुई हंसी थी, इतनी कि हमारे
आसपास की तमाम चीजें भी भर गईं-एक भरे भरेपन से। मैं उनके
संकेत को समझ रहा था। विरोध और इतना बेआवाज। वह भी लाल-सेना
का। मुझे अपनी कैशोरीय आक्रामकता छोटी और नाबालिग लगने लगी थी।
बहरहाल, ऐसे ढेरों प्रसंग देश भर में कुमारजी से जुड़े ढेरों
लोगों की स्मृतियों की झीनी पल्कों में दर्ज होंगें। अपने
उत्तरों के लिए कई दफा वे बहुत आसान और बोधगम्य संकेतों को
रखकर, सारी जटिलता को सरलीकृत रूप में रख देते हैं? लोग जरूर
कहते हैं कि कुमारजी के पास बहुत गुस्सा है, लेकिन, मुझे उन से
बात करते हुए हमेशा लगता रहा है, गालिबन उनके पास गुस्सा नहीं,
सिर्फ गुस्सा प्रकट करने की तकनीक है। सिर्फ गुस्से की तकनीक
है।
बाद इसके कुमारजी से कई दफा मिलना होता रहा। और उन्हें सुनना
भी। घर पर, कार्यक्रमों में आमतौर पर तथा रेडियो की नौकरी में
आने के बाद से खासतौर पर। उन्हें सुनते हुए मुझे हमेशा लगता
रहा, जैसे हमारे भीतर छुपी अर्द्ध-विस्मृत और अर्द्ध जागृत
भाषा का वे धीरे-धीरे अर्थ खोल रहे थे। एक ऐसा अर्थ, जो
‘स्वप्न’ से अद्भुत समानता रखता है। कम-ज-कम मुझे तो ऐसा ही
लगता रहा, क्योंकि गाते समय वे ‘राग-विस्तार’ का कोई
आडम्बरपूर्ण तरीका नहीं अपनाते, जो दुर्लभ स्वर-वैचित्र्य पैदा
करे, जिसे अमूमन राग का व्याकरण गाने वालों में अक्सर दिखाई दे
जाता है। बल्कि वे अपने स्वर की सहायता से एक खास तरह के
सांगीतिक-वातावरण की निर्मिति पर ध्यान केन्द्रित करते हैं।
उनके इस आग्रह की तसदीक के लिए मैं उनके द्वारा गाए हुए ‘बड़ी’
के गीत की स्मृति दिलाना चाहूँगा, जिसमें स्त्री अपने पति की
पूर्व और मृत पत्नी के लिए गाती है। गीत मंे वह सारे
अनुनय-विनय के साथ कहती है-‘मेरे सारे सुख तुम्हारी अनुकम्पा
है।’ कुल मिलाकर उपकार से उऋण न हो पाने की विकल-विवशता को जब
कुमार गंधर्व का स्वर मिलता है, तो पूरा गीत, गहरी नॉस्टेल्जिक
फीलिंग में बदल जाता है।
पहली दफा मैंने जब अपनेगाँव और घर में दूर बस्तर में उस गीत को
सुना तो उसने मुझे शुरू होते ही अपनी हिरासत में ले लिया। मुझे
मां याद आने लगी, जो जिन्दगी भर मेरे पिता की पहली मृत
विवाहिता के लिए गाती रही और ‘सवासनी’ जिमाती रही। सचमुच ही
कभी-कभी अचरज से भर जाता है कि गुमशुदा चीजों की फेहरिस्त में
सुख को दर्ज करके भारतीय स्त्रियाँ किस अवसाद में भीगकर गाती
रहती है, ऐसे करूण लोकगीत। आप सुनेंगे तो देखेंगे कि कुमारजी
इसमें स्वर को बार-बार दोहराते हैं। निश्चय ही इस तरीके से वे
‘राग’ का आवाहन करते हैं, लेकिन श्रोता को लगता है, जैसे कहीं
कोई एक ‘आत्मनाद’ है, जो आत्मा की बेबसी में बार-बार लौट रहा
है। एक पीड़ाग्रस्त पुकार, जिसमें शब्द नहीं, सिर्फ स्वर है।
भरे कण्ठ से शनैः शनैः झरता हुआ। इसके अतिरिक्त स्वर में
‘ऊँचे‘ और ‘मन्द्र’ के उपयोग का कौशल, गहरी भावोद्रेकता को
एकत्र करके हमें अतल करूणा में लगभग सिरा देता है। कुमारजी की
यहीं वह ‘एप्रोच’ है, जो ‘अंशास्त्रीय गायन रूपों’ को इतने
गहरे में ले जाकर रेप्सोडिक बनाती है। कदाचित् इसकी एक वजह
कुमारजी का वह सोच ही है, जो यह मानता है कि आनंद का अभीष्ट
कुछ नहीं होता-क्योंकि आनंद खुद ही अपना अभीष्ट है। यदि वे ऐसा
नहीं सोच रहे होते तो लोकगीतों के लिए ‘महफिल-गायकी’ के बीच एक
सहज-स्वीकार्य प्रतिष्ठापूर्ण जगह कायम करने के लिए संघर्ष
नहीं करते।
कहने की जरूरत नहीं कि इसके लिए उन्हें मौजूदा सांगीतिक परिवेश
से भी जूझना पड़ा, और स्वयं की रचनात्मकता से भी। मिसाल के तौर
पर उनके इस रचनात्मक द्वंद्व को राग ‘धानी’ में पकड़ा जा सकता
है, जिसकी प्रस्तुति में कुमारजी उसे और और शांत बनाते हैं या
फिर ‘भूप’ को, जिसमें वे गहरे मनोयोग से अपने स्वरों की
सूक्ष्मता से उसे आहिस्ता-आहिस्ता अलंकृत करते हैं। यह अलंकरण
‘तानों‘ की ‘जटिलता‘ के सहारे नहीं, बल्कि कठिन जगह से स्वर को
पकड़ कर, उसे ‘रसोद्रेक’ से जोड़कर करते हैं। इससे ‘राग’ का
सम्पूर्ण मानचित्र उभर कर सामने आ जाता है। यह मानचित्र में
विचरण का वैभव ही है।
इसमें खतरे बहुत थे। लेकिन उन्हें उनका पता था और उन खतरों के
पीछे ठिठकी और ठहरी हुई संभावना का भी। नतीजतन् वे जोखिम मोल
लेने से नहीं डरे। दरअसल, वे ‘नया‘ करना चाहते थे। प्रचलित
‘एकरूपता‘ को तोड़कर नया करना या खोजना सिर्फ ‘जीनियस’ के
बलबूते की बात होती है। जिस समय में ‘एकरूपता’ और
‘प्रामाणिकता’ प्रमुख हो जाती है, वह युग आत्मा के विघटन का
युग बन जाता है। कलाओं में व्याकरण के अनुशासन के चलते कई
युगों में ऐसा हुआ कि रचनात्मक भिन्नता अपराध हो गयी। इसे
युगान्तरण की इच्छाशक्ति या कहें कि ‘जीनियस’ हमेशा इस सबके
विरूद्ध संकल्प लेता है। कुमारजी के रौद्र रूप को हमें इस
परिप्रेक्ष्य में रखकर भी देखना चाहिए। क्योंकि, उन्हांेने
अपने सृजनात्मक-सामर्थ्य से प्रचलित को तोड़ा, बदला और उसमें नए
को आविष्कृत किया। उनमें इसके लिए एक जरूरी तल्लीनता भी भरपूर
थी। एक अप्रतिम रसमग्नता।
कुमारजी की
तल्लीनता के गहरे और अद्वितीय क्षणों का एक दफा मैंने भी
साक्ष्य किया है। जब कुमारजी ‘शब्द‘, ‘अर्थ‘ और ‘गायन‘ से निकल
कर केवल एक मानवीय करूणा का मूर्त रूप भर रह गए। ऐसी
निवैयक्तिकता मुझे नहीं लगता कि उनके किसी समकालीनमें संभव है।
यह बात, उन पर बीमारी के ताजा प्राणघातक हमले के कोई पांच-सात
दिन पहले की है। पिछले वर्ष मैं आकाशवाणी की वार्षिक स्पर्धा
के लिए एक प्रयोगात्मक कार्यक्रम तैयार कर रहा था। वह
कार्यक्रम था, स्पेन के गृहयुद्ध की प्रतिक्रिया में संसार के
महान कलाकार पाब्लो पिकासो द्वारा बनाई गई चित्रकृति,
गुएर्निका पर। मैं चाहता था कि कुमारजी उस चित्र कृति को ध्यान
में रखकर, जो चाहें जैसा चाहें, गाएं या बोलें। अर्थात् अपने
समय के एक महान गायक की अंतरंग अभिव्यक्ति चाहिए थी, मुझे जो,
एक ख्यात चित्रकार की दृश्य-भाषा से गुत्थम गुत्था हो सके।
कुमारजी के समक्ष जब कार्यक्रम का स्कोप स्पष्ट करके प्रस्ताव
रखा तो उन्होंने सुनते से ही एकदम इनकार कर दिया। बोले-‘‘भई
मैंने तो लाठीचार्ज तक नहीं देखा, ‘गृहयुद्ध‘ की विभीषिका को
गायन से कैसे व्यक्त करूंगा।’’ उत्तर सुनते ही पूरी चर्चा पर
विराम लग गया। मैं उलझन में पड़ गया। और आकाशवाणी के मेरे अन्य
मेरे साथियों के मुंह लटक गए। भला अब और क्या संभावना बकाया बच
रहती है। उम्मीदों पर पानी फिर चुकने की उदासी से घिरी एक
अपशकुनी चुप्पी हम सबके बीच जाने कहाँ से आकर बैठ गई, जिसे
हमसे कोई भी उड़ा सकने में समर्थ नहीं था। उसमें सिर्फ उस हिलते
झूले की कड़ियों की चिरांयध भर थी, जिस पर बैठे हुए कुमार जी
अपने भीतर लौट गये थे। आँख मूंद की तो लगा, जैसे अब तो कपाट भी
बंद कर दिये।
एक छोटे से अंतराल के बाद मैंने धीमे-से कुमारजी की ओर झुकते
हुए मौन तोड़ा, ‘खैर कोई बात नहीं। पर कुमारजी मुझे एक बात याद
आ रही है। बोरिस पास्तरनाक की। मैंने कहा तो उन्होंने धीरे-से
आँखें खोलीं। उससे बोज्नेसेंस्की ने कहा कि लोग कहते हैं, आपने
शेक्सपीयर का जो अनुवाद किया, बहुत घटिया है।’ बोरिस पास्तरनाक
ने अपने पर लगाए गए आरोप को बड़े धैर्य से सुना और अविचलित स्वर
में कहा, ‘बहुत संभव है, जिस जगह शेक्सपीयर ने गुलाब का फूल
रखा हो, वहाँ मैंने जूता रख दिया हो। लेकिन, दिक्कत यह है कि
वह ‘जीनियस‘ था और मैं भी ‘जीनियस‘ हूँ।’
यह कहकर मैंने कुमारजी को क्षण भर सोचने के लिए मौका दिया और
वे कुछ बोलें या बोले बगैर आँखें मूंदें उसके पहले ही मैं
कहा-‘कुमारजी हमें कुमार गंधर्व से मतलब नहीं, हम तो दो
‘जीनियस‘ का युद्ध देखना चाहते हैं। भारत और स्पेन के। और
मैंने उनके सामने स्पेन के गृहयुद्ध के अमानवीय हिंसा के दारूण
छायाचित्रों से भरी एक किताब फैला दी। जिसमें उस गुएर्निका
नामक गाँव के भी चित्र थे, जहाँ जनरल फ्रेंको ने बमबारी करवा
के निरपराध नागरिकों के कतरे-कतरे उड़ा दिए थे।
मैंने बहुत गौर से इतिहास की भीषण त्रासदी को ताजा कर डालने
वाले उन छाया चित्रों को देखते हुए उनकी आँखों को देखा। लगा
जैसे चित्र नहीं, कड़ुवे स्वाद को अने पेट में छुपाए बीज,
मिट्टी में उतर रहे हों। उनके होठों को बांटने वाली रेखा के
ऊपर और नीचे उनके वे होठ नहीं, पीड़ा के दो आकार थे। उन्हें
खोलकर उन्होंने किताब बंद करते हुए कहा, ‘राम-राम....’ देखी
नहीं जाती, ये किताब।’ ऐसे दारूण दृश्यों का क्या उत्तर ?
इसके बाद मुझे कुमारजी रैम्बो की तरह लगे, जिसने गरज कर बर्बर
बनते समुद्र द्वारा किए गए विनाश को कभी नहीं देखा, लेकिन उसका
सर्वाधिक सफल और सार्थक चित्रण एक अद्भुत कलात्मक काव्य युक्ति
से किया। कुमारजी गाने के लिए तैयार हो गए। एक साक्षात्
विस्मय।
मुझे याद है, मैं और मेरे साथीगण उनके रियाज के कमरे में कालीन
पर खामोश बैठ गए। पहले वे आहिस्ता-आहिस्ता बोलने लगे। फिर
बोलते हुए उनका हम से रिश्ता टूट-सा गया। उन्हें बोलते हुए
देखकर लगने लगा, जैसे वे चौतरफा फैले प्रलय के बाद की निर्वात
शांति में अकेले बोल रहे हैं। और उन्हें सिर्फ सन्नाटा सुन रहा
है। फिर वे गाने भी लगे। लगभग तीन-चार मिनट भर उन्होंने कोई एक
बंदिश गाई होगी, लेकिन इतने में ही उनका गला भर आया और उनकी
आँखों में आँसू चमकने लगे। मेरे साथ ऐसे भी श्रोता थे, जिनके
कान में अधैर्य होता है और वे शब्द से स्वर कम, अर्थ की अधिक
मांग करते हैं। लेकिन, उनकी भी आँखें अर्थ समझे बगैर नम-नम हो
आई थी।
वह मालवे का एक लोकगीत था, जिसमें गाँव में आए अकाल की
उजाड़-व्याप्ति का बड़ा दारुण और बरदाश्त बाहर ब्यौरा था। अभाव
की ऐसी जघन्य घड़ियों में भाई अपनी बहन के लिए चुनड़ी ले आता है।
कुमारजी के आँसुओं को देखते हुए मुझे लगा, उनकी आँखों में आँसू
नहीं, कर्ज की एक बहुप्रतीक्षित किस्त बाहर आ गई है, जिसे
हमारा समय पता नहीं चुका भी पाएगा कि नहीं। बाद इसके हम लोग,
इस तरह बाहर आ गए थे, जैसे हम उनकी बैठक से नहीं, बल्कि किसी
करूणा का कारोबार चलाने वालीबैंक से ऐसे ऋण-पत्र पर हस्ताक्षर
करके निकले हों, जिसका ब्याज ऊँची दर का चक्रवृद्धि ब्याज हो।
इसके बाद कुमारजी से जब मिला तो वे इंदौर में अस्पताल के
बिस्तर पर थे। वहाँ एक हिंस्र और निष्करूण सन्नाटा था। और
कुमारजी शांत और अवाक् थे, फिर भी मुझे लगा, मौन में भी काँपता
रहता है, उनका कण्ठ। उन्होंने बोला कुछ नहीं। डॉक्टरों की ओर
से मनाही भी थी, लेकिन मुझे लगता रहा, जैसे गोरखनाथ या कबीर के
किसी पद की कोई पंक्ति उनके श्वाँस में स्वर का सिरा थामने की
कोशिश में धीरे-धीरे काँप रही है। मैं नमन की क्षणिक मुद्रा
बनाने के बाद बाहर आ गया। बाहर आकर पूरी उत्कटता के साथ मैंने
चाहा कि कुछ क्षणों के लिए अस्पताल के उस सन्नाटे से भरे
गलियारे में नितांत अकेड़ा खड़ा रहूँ। एक घिरती उदासी का सामना
करने के लिए मुझे यही लग रहा था। मैं उदासी का सामना नहीं कर
पा रहा था, जबकि कुमारजी तो ‘तपेदिक’ के बाद से मौत का सामना
करते हुए शताब्दी के इस छोर तक आ गए थे।
अस्पताल से धीरे-धीरे बाहर आते हुए, मुझे मृत्यु के आदेश की
तरह बढ़ता हुआ ग्रीक मैथॉलाजी का ओडियस याद आया- जो चर्च में
हिंस्र इरादे से घुसा था और गायक का स्वर सुनकर उसने अपनी
तलवार फेंक दी थी - यह कहते हुए कि ‘यदि डूबना हो तो डूब जाए
सारी पृथ्वी समुद्र में, लेकिन अनंतकाल तक बचे रहें गायक। वे
ब्रह्मांड में ईश्वर की एकमात्र अनुकम्पा है। और वे कभी नष्ट
नहीं होंगे।‘
बहरहाल, कुमारजी अपनी उत्कट जिजीविषा के चलते रोग को परास्त
करके तब तो अस्पताल से बाहर आ गए। और लेकिन, हमें कहाँ पता था
कि उसके चंगुल से छूट कर बाहर जरूर आ गये, लेकिन शायद उससे
चुपचाप उन्होंने कोई अनुबंध कर लिया था। वह यही था कि वह
उन्हें अस्पताल से सीधे उठा कर नहीं ले जाये। घर से ले जाये।
वह भी तब, जब वे गा रहे हों..... वह सचमुच ही बात निर्मम और
चालाक थी। वह उस वक्त को छोड़ कर एक सर्द और ठिठुरती रात में आ
धमकी....। इस संसार से आखिरी बिदा लेते हुए मृत्यु की गिरफ्त
में फँसे हाथ को उठाकर कहा होगा - भानुकुल, अब बिदा ! |