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					१कैसी औरतें थीं वे ?
 शीला इंद्र
 
 मेरे 
							पापा का आफ़िस सन् उन्नीस सौ बियालीस में आगरे जा चुका 
							था। उनकी गंगा बुआ की ससुराल आगरे में ही थी। और चूंकि 
							फूफाजी के पिताजी भयंकर शराबी और वैश्यागामी थे। वे 
							अपने छोटे बेटे को अपने साथ वैश्या का नाच दिखाने ले 
							जाते थे, कि लड़के वैश्या के यहाँ तहज़ीब सीखते है। इसी 
							लिये मेरे परबाबा जी ने फूफा जी को आगरे नहीं रहने 
							दिया। और विवाह के बाद बजाय बेटी को ससुराल भेजने के, 
							उन्होंने दामाद को उस छोटी उमर में ही अपने घर रख लिया 
							था। वहीं बरेली में ही वे पढ़े लिखे और फिर वहीं नौकरी 
							कर ली।
 सन् उन्नीस सौ तैंतालीस में बुआ जी की सबसे छोटी सगी 
							ननद का विवाह था। मई की भयंकर गर्मी और पत्थरों का शहर 
							आगरा। बुआ जी अपने परिवार के साथ आगरे आई हुईं थीं। तब 
							एक सप्ताह को मैं और मेरी छोटी बहन सुधा भी उनके घर 
							शादी में चले गये थे।
 
 उन दिनो शादियों में लाउडस्पीकर लगाने का क़ायदा नहीं 
							होता था। सच कहें तो अधिकांश घरों में बिजली ही नहीं 
							थी। बहुत अमीर लोग बेटे का जन्म होने पर अथवा उसकी 
							शादी होने पर, घर के बाहर शहनाई रखवाते थे। शहनाई के 
							लिये घर के बाहर बड़ा सा गेट जैसा बनवाया जाता था। गेट 
							के विशाल खम्बों के ऊपर दो दो लोगों के बैठने की जगह 
							होती थी। जहाँ ज़मीन से दस बारह फ़ीट ऊपर शहनाई वादक 
							बैठाये जाते थे। साथ में तबला वादक अथवा नगाड़े वाला भी 
							बैठता था और सारे सारे दिन शहनाई बजती रहती थी। बहुत 
							अमीर लोग दो दो वादक बैठालते थे, जिससे एक जोड़ी को 
							आराम भी मिल जाये। एक जोड़ी में वे लोग थकने पर स्वयं 
							ही थोड़ा रुक कर आराम कर लेते थे। पर शहनाई या नगाड़ा एक 
							चीज़ तो बजती ही रहती थी। शहनाई बैठाना अमीरी और शान की 
							निशानी थी। जो बिरले ही बैठाल पाते थे।
 
 पर जीवन में पहली बार मैंने गंगा बुआ की ननद की शादी 
							में लाउड स्पीकर पर सिनेमा के गाने सुने थे। सिनेमा के 
							गानों का इतना प्रचलन ही नहीं था। लोगों के पास रेडियो 
							तक नहीं होता था। आश्चर्य जब हुआ कि जब टैगोर के ‘नौका 
							डूबी’ उपन्यास पर बनी फ़िल्म पर बनी पिक्चर ‘मिलन’ का 
							वह गाना विदाई के समय बजाया गया, जिसे सिनेमा में नौका 
							डूबने और दुल्हन की मृत्यु के समय गाया गया था।
 
 बारात तीन दिन रुकी थी। उन दिनों हर घर में ही, कितने 
							भी साधारण हैसियत वाले हों, शादी के जश्न लड़की वालों 
							के यहाँ तीन दिन तो चलते ही थे। उस आखि़री रात घर में 
							वैश्या का नाच रखा गया था। शायद कम उम्र लड़के जनवासे 
							में अपने ढंग से मज़े करने को छोड़ दिये गये थे।
 
 बड़ी सी खुली छत। उस पर बड़ी दरी के ऊपर सफ़ेद बुर्राक 
							चादरें, फिर क़ालीन और काफ़ी सारे गॉव तकिये, अगरबत्ती 
							की ख़ुशबु से सारा वातावरण महक रहा था। ऐसे नाच हमारे 
							घर में कभी नहीं हुये थे, सो नाच देखने को बेचैन हो 
							रही थी।
 
 पता लगा कि औरतें नाच नहीं देखतीं हैं।
 यह भी कोई बात हुई? कि औरत का नाच, औरतें ही न देखें?
 
 ख़ैर औरतों के लिये भी बैठने का प्रबन्ध कर दिया गया। 
							पुराने ज़माने के घरों में गर्मियों में छतों पर सोने 
							का क़ायदा होता था। सो छतों पर बीच बीच में दीवारें 
							अथवा महराबें बनी होती थी। तो औरतों के लिये उधर ही एक 
							छत पर बैठने का प्रबन्ध था। आड़ करने को दो तीन बान की 
							खटियां खड़ी कर दी गईं थीं। जिसमंें से पूरी मजलिस साफ़ 
							दिखाई पड़ रही थी। मर्दो की ओर तेज़ हंडे जल रहे थे, और 
							औरतों की ओर अंधेरा। उनको बिल्कुल चुप रहने का आदेश 
							दिया गया था। जिससे मर्दो की ओर किसी को भी औरतों की 
							उपस्थिति का पता न लगे। विशेषतः उस नाचने वाली को। 
							सुना कि ये नाचने वालियां घरेलू औरतों से बहुत शर्माती 
							हैं। मुझे वहाँ बैठने की इज़ाज़त तो नहीं थी, पर किसी ने 
							ख़ास मना भी नहीं किया था। केवल बारह वर्ष की थी मैं। 
							गंगा बुआजी तो वहाँ बैठी ही नहीं, थक कर चूर हो रहीं 
							थीं, उनकी बड़ी बेटी सरोज थीं। खाटों से छनती हुई रोशनी 
							हम लोगों के ऊपर पड़ रही थी। किन्तु किसी को देखने की 
							फुर्सत भी नहीं थी। कि कौन है, कौन नहीं।
 
 साजिंदों ने अपनी जगह संभाल ली थी। मजलिस जम चुकी थी। 
							मर्द लोग आकर अपनी अपनी मसनद पर टिक गये। मर्दों में 
							बुआ जी के ससुर और देवर आरम्भ से अन्त तक बैठे रहे। 
							किन्तु फूफा जी नहीं बैठे। और फिर वे मोहतरमा पधारीं। 
							पधारीं क्या कि एक ज़लज़ला सा आगया।
 
 बहुत बाद में कहीं पढ़ा था, या सुना था,
 एक नूर नूर, दस नूर कपड़ा।
 सौ नूर गहना, हजार नूर नखरा।
 
 उन मोहतरमा के पास ‘एक नूर’ तो बिल्कुल भी नहीं था। या 
							यों कहिये कि मेरे पास उसे देखने को आखें ही नहीं थीं। 
							दस नूर...? चलिये पूरे थे, साबित थे, और सिले हुये थे, 
							सौ नूर कुछ थे, जिन्हे। देखने की फुसर्त ही कहाँ थी, 
							पर हजार नूर? क्या कहिये हजार नूर तो हज़ार गुना हो कर 
							चकाचौंध किये दे रहे थे।
 
 सारंगी ने तान छेड़ी और उसने ठुमका लगाया। ‘राजा मोहे 
							चुनरी मँगाय देओे,’
 वहाँ बैठे जन... न सज्जन रहे, न दुर्जन... सबके सब 
							राजा हो गये।
 सारी महिलायें ? बिना हिले, दम साधे बैठी थीं।
 
 राजाओं ने रुपयों के नोट और सिक्के उसके आगे फेंके, जब 
							भी कोई रुपया फेंकता तो वह मुस्कुराती। मुस्कुरा कर 
							अनोखी अदा से सलाम करती। अधिकतर वह बैठे बैठे ही गा 
							रही थी। बीच बीच में मजलिस में नाचते हुये एक चक्कर 
							लगा लेती। शायद उसने कोई दूसरी पंक्ति भी गाई हो। मुझे 
							याद नहीं, किन्तु उस एक पंक्ति को न जाने कितनी बार और 
							कितने ढंग से गाया। मंद्र से तार सप्तक तक ऐसी अदा मे 
							पहुंचती कि लोग अश।।।अश।।। कर रहे थे। कभी ‘मोरी चुनरी 
							रंगाय देओ’’।।कभी ‘मोरी चुनरी कढ़ाय देओ’ अपनी चुनरी का 
							सारा साज सिंगार उसने राजा से ही करवाया, और राजा लोग 
							दीवाने।
 
 और फिर ‘राजाऽऽऽऽऽऽ मोहे चुनरी उढ़ाय देओे...’’राजा’ के 
							साथ जो तान उठाई, तो जैसे सारे राजा पागल हो उठे। जब 
							उसने ‘चुनरी’ की ईऽऽऽऽऽऽ की सिसकारी भरी तो कई राजा एक 
							साथ उसे चुनरी उढ़ाने उठ पड़े। एक तो उसी की चुनरी हवा 
							मे लहराते हुये, उड़ चले। जैसे बद बद कर रुपये लुटाये 
							जारहे थे। लग रहा था कि सभी नशे में धुत्त हैं। डबल 
							नशा था। किसका अधिक था, पता नहीं।
 
 और मैं हैरान थी। परेशान थी। उसके गाने पर उसकी अदाओं 
							पर, लोगों के झूमने और रूपये लुटाने पर। कितने सारे 
							रुपये हैं इन लोगों के पास? आते कहाँ से हैं इतने 
							रुपये इन लोगों के पास? और सब से अधिक आश्चर्य हो रहा 
							था, प्रस्तर मूर्ति जैसी उन औरतों पर। जिसका पति जितने 
							अधिक रुपये देता, तो इधर पत्नी का सिर उतने ही अभिमान 
							से ऊंचा हो जाता। मुस्करा कर चारों ओर ऐसे देखती कि 
							सारी धरती का राज्य पागई हों।
 
 धन्य हो देवियों! बाद में कहीं सुना था, कि किसी ज़माने 
							में, बडे़ जागीरदारों अथवा राजाओं की रानियो के लिये 
							यह बड़े ही अभिमान की बात थी, कि उनका पति जितनी अधिक 
							रखैलों, वैश्याओं से सम्बन्ध रखता है, उतना ही उसमें 
							पौरुष है। एक पत्नी के साथ ही जीवन काटने वाला, क्या 
							ख़ाक पुरुष है?
 
 दिल को समझाने के भी लाख तरीके हैं। खुश रहना भी तो एक 
							महान कला है। वरना दुखों की कमी नहीं है इस दुनिया 
							में।
 
                             २३ 
							अप्रैल 
							२०१२ |