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होली की
वह दोपहर - जब मैं हवा थी
-सुधा
अरोड़ा
हम
दो बहनें और पाँच भाई। कुल सात। वानर सेना घर में ही मौजूद थी।
पास पड़ोस के बच्चे आ जाते तो सेना में बढ़ोतरी हो जाती। भाई तो
ऊधमी थे ही। हम दोनों बहनें और ‘रतन भवन‘ में रहने वाली हमारी
हमउम्र सखी सहेलियाँ किसी से कम नहीं थे। साल भर के बाकी
त्यौहार तो पकवान की खुशबू और नये नकोर कपड़े की बाट जोहते थे
पर होली शुद्ध हुड़दंगी त्यौहार था।
बचपन में कितना इंतजार रहता था हम बच्चों को होली का।
बारह-तेरह साल की उम्र तक हम सब भाई बहन होली के दिन पहनने
वाले पुराने कपड़े एक सप्ताह पहले से तैयार रखते। सुबह नाष्ता
करके जो घर से निकलते तो तीन चार घंटे हुड़दंग मचाकर लाल बैंगनी
होकर ही पूरा हुजूम वापस आता और आने के बाद दो दो घंटे
मुँह-हाथ घिस घिस कर नहाना, फिर
भी चार-पाँच दिन तक होली का रंग उतरने पर न आता।
हम दोनों बहनों का होली खेलना तब बंद हुआ, जब एक बार की होली
में किसी ने मुँह पर तेल और अभ्रक मिला ऐसा रंग चेहरे पर मल
दिया कि पूरे चेहरे की त्वचा पर एलर्जी हो गई। चेहरे पर जलन
होने लगी जो तेल मलने से भी कम नहीं हुई। चेहरे पर चकत्ते पड़
गए। घर से डाँट पड़ी, सो अलग। पाँच छह दिन स्कूल में लाल लंगूर
सा मुँह लिए जाते रहे। बस, उसके बाद फिर कभी गीले रंगों से
होली नहीं खेली। बल्कि होली वाले दिन हम दोनों बहनें कमरे में
दुबक लेते। रंगों की बाल्टियाँ भर-भर कर उड़ेलने वाले हम रंगों
से डरने लगे। होली से पहले तबीयत खराब का बहाना बनाकर घर में
छिपकर रोनी सूरत बनाकर बैठ जाते और बाहर ही नहीं निकलते। एक
बार बाहर निकले नहीं कि हुड़दंगी टोली से बेरंग
और साबुत बचकर निकल आना नामुमकिन
था।
कलकत्ता में मारवाड़ियों की तादाद काफी थी और यह वर्ग
होली-दीवाली-गणगौर-तीज खूब जोश खरोश से मनाता। संदेश,
रसगुल्ले, गुझिया, बूँदी के लड्डू और पान के आकार में भाँग
मिली बर्फी होली के खास पकवान थे। एक बार गलती से मैंने यह
भाँग वाली मिठाई खा ली थी और इतना ही याद है कि खाने के बाद
मैं हवा सी हल्की हो गई। लग रहा था - जैसे धरती का
गुरुत्वाकर्शण सिद्धांत अपना असर खो बैठा है और मैं जमीन पर चल
ही नहीं पा रही, गैस वाले गुब्बारे की तरह हवा में उड़ रही हूँ।
बाद में सबने बताया कि मैं फूट फूट कर रो रही थी कि मुझे पकड़
कर नीचे उतारो, मुझे
आसमान में कोई उठाए लिए जा रहा है।
कलकत्ता महानगर में बीते दिन थे वे। कॉलेज पास कर
विश्वविद्यालय पहुँच गए थे। होली के त्यौहार को रंगों से खेलने
का चाव कब का खत्म हो चुका था पर सुबह उठकर हम गाल और माथे पर
गुलाल से आपस में टीका लगाकर ही होली की शुरुआत करते।होली पर
हमारे लिए सबसे बड़ा आकर्षण होता - होली के दिन का अखबार जिसके
पहले पन्ने पर छोटे छोटे अक्षरों में ‘‘बुरा न मानो होली है’’
की एक लंबी कतार छपी होती और पूरे पन्ने पर गप्प भरी, चुटकियाँ
लेती हुई राजनेताओं,
अभिनेताओं के बारे में खासमखास खबरें होतीं। पढ़ पढ़ कर हँसते
हँसते पेट में बल पड़ जाते।
इससे भी ज्यादा जिस पन्ने
का इंतजार होता, वह था - कलकत्ता महानगर से निकलने वाले अखबार
‘दैनिक विश्वमित्र‘ और ’सन्मार्ग ’ का भीतर का एक पन्ना,
जिसमें साल भर की नामी गिरामी हस्तियों को - जिसमें कलकत्ता
महानगर के प्रमुख उद्योगपतियों और मंत्री से लेकर बंगाली
अभिनेताओं, नाट्यकर्मियों और हिन्दी के लेखकों कवियों से लेकर
विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों और छात्र युवा कार्यकर्ताओं को
उपाधियों, जुमलों, मुहावरों - कहावतों या फिल्मी गानों के
मुखड़ों से नवाजा जाता। पत्रकारिता अपने चरम उत्कर्ष पर होती।
कलकत्ता के दैनिक अखबारों - सन्मार्ग और दैनिक विश्वमित्र में
उपाधियाँ सिरजने वाले पत्रकारों की हाजिरजवाबी और अक्ल का लोहा
मानना पड़ता। कभी कभी उनमें बड़ा तीखा व्यंग्य भी होता पर होली
की नोक झोंक के नाम पर सबकुछ खुले मन से स्वीकार किया जाता।
हमारे प्राध्यापक आचार्य विष्णुकांत शास्त्री जी, प्रो. लोढ़ा
जी, राजेंद्र यादव, मन्नू जी - सबके नामों के साथ चुटीले
पुछल्ले जुड़े रहते। जिस साल राजेंद्र जी दिल्ली चले गए थे और
मन्नू जी कलकत्ता रह गई थीं, उनके नाम के साथ था - चंदा बिन
चकोरी। हमलोग अपने प्राध्यापकों - डॉ. प्रतिभा अग्रवाल,
सुकीर्ति गुप्ता और कलकत्ता की नामचीन हस्तियों - सीताराम
सेकसरिया जी, लक्ष्मीचंद्र जैन, कुंथा जी, कृष्णाचार्य, भंवरमल
सिंघी जी के नामों के साथ बाँटे गए फुलझड़ीनुमा जुमलों को
ढूँढते, आपस में साझा करते और निर्णय लेते कि सबसे बढ़िया
जोरदार उपाधि कौन सी रही इस बार।
तब मैंने नया नया लिखना छपना शुरु किया था, वजन सैंतीस किलो
था। १९६६ या ६७ में मेरे नाम के साथ था - फूंक मारे, उड़ जाएँ।
यह पन्ना कई दिन चर्चा का विषय रहता। सब जानने को उतावले रहते
कि किसे क्या उपाधि दी गई है। ...अब चालीस साल बाद न पत्रकारों
में वह जज्बा है, न लेखकों में व्यंग्य पर हँसने की ताब। कुछ
साल पहले आउटलुक में एक जोशीली पत्रकार ने कुछ चुटकियाँ ली थीं
तो भाई लोग बुरा मान गए। होली के एक दिन तो कम से कम एक दूसरे
की टाँग खींचने और फूल पत्तियों का अर्घ्य देने का अधिकार हर
पत्रकार लेखक को होना चाहिए।
१९६८ की होली की एक घटना याद आती है - मुँबई से निकलने वाली
कहानियों की सबसे चर्चित मासिक पत्रिका सारिका के संपादक
कमलेश्वर थे। जनवरी १९६८ की सारिका में मेरी एक कहानी छपी थी -
आग। मार्च १९६८ में पाठकीय प्रतिक्रिया में कहानियों के बारे
में एक से एक चुहलबाजी करते पत्र छपे थे। एक पत्र में कहानी की
तारीफ के बाद भाषा की गलतियों पर तंज था - ‘उनके चेहरे पर वैसी
चहल पहल नहीं थी ‘ ... हमने सड़क पर, रेलवे प्लेटफॉर्म पर तो
चहल पहल देखी सुनी है पर चेहरे पर चहल पहल ? लेखिका अपनी भाषा
और व्याकरण की अशुद्धियाँ सुधारें।’’ अंतिम पंक्ति थी- ‘‘आशा
है, बालिका सुधा साहित्य में नाम कमाएँगी।’’ पत्र लेखक की जगह
कोई पंडित नरोत्तम शास्त्री नुमा नाम था। मैंने कमलेश्वर जी को
पत्र लिखा कि कहानी में भाषा की गलतियाँ कहाँ हैं। कमलेश्वर जी
ने चुटकी लेते हुए कहा- वह पाठकीय पत्रों का पूरा पन्ना शरद
जोशी ने अलग अलग नामों से लिखा था। तब ध्यान से देखा- नीचे
बहुत छोटे अक्षरों में लिखा था- होली के अवसर पर इस पन्ने के
अतिथि लेखक- शरद जोशी। उसके बाद से जब भी कलकत्ता या बंबई में
शरदजी से मिलना हुआ, कहते- कहो बालिके, क्या समाचार हैं ? उनका
मजाहिया अंदाज में मुझे ‘बालिके’ कहना मुझे बहुत अच्छा लगता !
कितने अच्छे दिन थे वे ! ऐसे दिनों को खो नहीं जाना चाहिए।
कोशिश करें तो ज़िन्दगी से लबरेज इस
रंगीन त्यौहार को अखबारों के जरिए हम जरूर लौटा सकते हैं।
०
होली से जुड़ी कुछ और घटनाएँ भी याद आती हैं। १९७१ के अक्टूबर
महीने में मेरी शादी हुई। नवंबर के दूसरे हफ्ते मैं अपने पति
के साथ मुँबई चली गई। मार्च के पहले सप्ताह,१९७२ में शादी के
चार महीने बाद, मेरी पहली होली थी। कलकत्ता में हमारे अरोड़ा
परिवार में होली के दिन मेरे पाँचों भाई तो हमेशा हुड़दंगी टोली
में शामिल होते रहे, हम दोनों बहनों ने एक साल की होली में
चेहरे पर रंग की एलर्जी होने के बाद रंगों से होली खेलने से
तौबा कर ली थी पर होली के दिन सुबह उठकर हम सब आपस में
हथेलियों में गुलाल लेकर ममी पापा, भाइयों को और सभी को माथे
पर या गालों पर लाल टीका लगाते। सो शादी के बाद की पहली होली
में एक दिन पहले मैं बाजार जाकर ठेले वाले से थोड़ा सा गुलाल
खरीद कर लाई और सुबह सुबह अपने पति के उठने के बाद बड़े प्यार
से उनके सामने गुलाल की पुड़िया खोली कि चलो, हम आपको गुलाल
लगाकर होली की शुरुआत करें। वे तो देखते ही भड़क गए - नहीं
नहीं, मुझे रंग वंग पसंद नहीं है, हटाओ यह सब। मैंने मनुहार की
कि अच्छा, छोटा सा टीका लगा देती हूँ। अब वह गरम हो गए - एक
बार कहने से समझ नहीं आता क्या, मुझे नहीं लगाना। गुलाल वैसे
ही पड़ा रहा। खैर, मैं मन मसोस कर रह गई। हर दिन की तरह
नाश्ता किया। मेरा मन बुझा हुआ
सा था। तब तक दरवाजे पर जोर की ठक ठक हुई। मेरे पति के चार
पाँच बैचलर दोस्तों की मंडली उन्हें फौरन बाहर निकालने के लिए
उतावली हो रही थी। एक बार अपनी मित्र मंडली के हत्थे चढ़ गए तो
कहाँ किसको रोकते। रंगों से लदे फंदे वे अपनी मित्र मंडली के
साथ स्कूटर लेकर जुहू की ओर चल दिए। मेरी अपनी अनछुई गुलाल की
पुड़िया चुपचाप रसोई के आले में एक कोने में रखी रही।
१९७८
की बात है। हमलोग जयपुर गए हुए थे। हमारी बिटिया गरिमा छह साल
की थी। रेल की वापसी की टिकट भी पहले से बुक करवा ली थी। यह
ध्यान ही नहीं गया कि उस दिन होली थी। सबने मना भी किया कि
होली के दिन यात्रा करना सुरक्षित नहीं है पर हमने सोचा कि एक
बार ट्रेन में चढ़ गए और ट्रेन चल पड़ी तो अपने गंतव्य पर पहुच
ही जाएँगे। तब जयपुर से सवाई माधोपुर तक छोटी लाइन थी। जयपुर
स्टेशन पर हमें कोई दिक्कत भी नहीं हुई। यह जरूर लगा कि पूरा
डिब्बा खाली था। हम तीनों को छोड़कर और कोई यात्री उस डिब्बे
में नहीं था। ट्रेन चल पड़ी। अगले स्टेशन पर जैसे ही ट्रेन
रुकी, रंगों से सराबोर चिल्लाते हुए युवा लड़कों का जत्था हर
डिब्बे की बंद खिड़कियों पर मुट्ठियाँ भाँजने लगा। हमने अपने
रिजर्व डिब्बे के सारे खिड़की दरवाजे बंद कर रखे थे पर बाहर से
दरवाजे भड़भड़ाने का शोर बढ़ता जा रहा था। आखिर मैं बिटिया को
लेकर बाथरूम में घुस गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। अब
किसी तरह डिब्बे के अंदर भी कुछ लड़के घुस आए थे। हम दोनों माँ
बेटी साँस रोके दरवाजे से लगे खड़े रहे। लग रहा था जैसे हमारी
जिंदगी का आखिरी दिन है। गरिमा मेरे सीने में दुबकी सिसकियाँ
भरती जा रही थी। वह बेतरह डर गई थी। थोड़ी देर दरवाजा पीटने की
नाकाम कोशिश के बाद वे लड़के डिब्बे से नीचे उतर गए। ट्रेन चली
तो हमारी साँस में साँस आई। उसके बाद से यह
कसम खा ली कि कभी होली के दिन
राजस्थान की यात्रा नहीं करेंगे।
०
होली के अच्छे पक्ष को ही त्यौहार के रूप में मनाया जाना
चाहिए। रंगों का कीचड़ और कीचड़ से होली खेलना, रंगों में तेल
मिलाकर त्वचा को नुकसान पहुँचाना, अपनी सीमा से आगे जाकर भाँग
पी पी कर अश्लील हरकतें और हुड़दंग करना होली नहीं। वह सुहावनी
होली कहीं खो गयी है जो हम पचास साल पहले खेला करते थे और
जिनसे कुछ नाराज़गी होती, वे भी होली के दिन सारे गिले शिकवे
भूल कर गुलाल मलकर गले मिलते, गुझिया खाते, अन्त्याक्षरी खेलते
और होली का जश्न मनाते ! |