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संस्मरण

शनिवार १७ दिसंबर २०११ की शाम गीतों-के-चितेरे-भारत-भूषण-हमारे बीच नहीं रहे। शिक्षक के रूप में अपने कार्यजीवन का आरंभ करने वाले भारत भूषण बाद में कविता की दुनिया में आए और छा गए। १९४६ से मंच से जुडने वाले भारत भूषण अपने अंतिम समय तक मंच से गीतों की रसधार बहाते रहे और महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर जैसे कवि-साहित्यकारों के साथ मंच साझा किया। श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत हैं "मेरे चुनिंदा गीत" की भूमिका में प्रकाशित रेवतीलाल शाह एवं डॉ. मानसिंह वर्मा के लेखों के संकलित अंश-


गीतों के चितेरे भारत भूषण1
संकलित1


 गीतों के चितेरे भारत भूषण अब हमारे बीच नहीं हैं। ८२ साल की उम्र में शनिवार १७ दिसंबर २०११ को उन्होंने अंतिम साँस ली। शिक्षक के रूप में अपने कार्यजीवन का आरंभ करने वाले भारत भूषण बाद में काव्य की दुनिया में आए और छा गए। उनकी सैकडों कविताओं व गीतों में सबसे चर्चित राम की जलसमाधि रही।

उन्होंने तीन काव्य संग्रह लिखे। पहला सागर के सीप वर्ष १९५८ में, दूसरा ये असंगति वर्ष १९९३ में और तीसरा मेरे चुनिंदा गीत वर्ष २००८ में प्रकाशित हुआ। १९४६ से मंच से जुडने वाले भारत भूषण मृत्यु से कुछ महीनों पूर्व तक मंच से गीतों की रसधार बहाते रहे और महादेवी वर्मा, रामधारी सिंह दिनकर जैसे कवि-साहित्यकारों के साथ मंच साझा किया। श्रद्धांजलि स्वरूप प्रस्तुत हैं उनपर लिखे गए कुछ लेखों के संकलित अंश।

आज हम उस व्यक्ति की बात कर रहे हैं जिसका जन्म ही गीत के लिए हुआ और जो संवेदनशील सशरीर है। छोटे-से
कद में कितना कद्दावर है और थोड़े-से गीतों का रचनाकार होकर वह कितना बड़ा गीतकार है, इस बात को शब्दों में अभिव्यक्त कर पाना उतना ही कठिन है जितना कि इस बात का अनुमान लगाना कि वह गीतकार से बड़ा इंसान है या इंसान से बड़ा गीतकार।

भारत भूषण के गीतों में एक भी पंक्ति ऐसी नहीं लगती कि सायास लिखी गयी है। शब्दों का ऐसा ताजा प्रयोग उसके किसी भी समकालीन गीतकार की क्षमता नहीं है, उन प्रयोगों में दूध की गंध आती है। शारदा, उसकी हमनफस-औ' हमनवा है, उसकी हमराज है, उसकी अर्धांगिनी है। गुलाब की गंध से उसका मस्तिष्क सुवासित रहता है। पाटल उसके आँगन की शोभा है। शारदा भाभी जैसी सदगृहस्थ पत्नी, एक बेटा और एक बेटी (पाटल और जुही), जिनका अपना सुखी परिवार है।

कविता में सितारों को छूकर गृहस्थ पालन के प्यार में धरती पर पाँव जमाए रखना, अपने आप में एक पूर्णता है। उसके गीत दिमाग को झंकृत करते हैं या नहीं, मैं नहीं कह सकता, परन्तु दिलों को आनंद की अनुभूति ही नहीं, आनंद से साक्षात्कार करवाते है, यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ। इस गीतकार की एक बड़ी खूबी यह भी है कि इसके गीत छंद, भाषा एवं विचार के स्खलन से मुक्त हैं। कविता में आत्मा की प्राथमिकता और प्रधानता होती है परन्तु गीत में कलेवर का सौन्दर्य भी नितांत आवश्यक है, अन्यथा वह गेय नहीं रहता। इस युग में अपने गीतों को दोषमुक्त रखने के लिए मैं भारत भूषण को तहेदिल से मुबारकबाद देता हूँ। और बधाई देता हूँ इस बात के लिए भी कि आज के आर्थिक युग में, हिंदी के शेष मंचीय
कवियों की तरह, भारत ने अपने आँचल पर अर्थ-लोलुपता का धब्बा नहीं लगने दिया।

कदाचित १९७५ की घटना है कलकत्ता की, हमारी सांध्य सभा के एक सदस्य, भारत भूषण को, अपनी अहंतुष्टि हेतु किसी संपन्न व्यक्ति के घर ले गए, कविता-पाठ की खातिर। वापस लौटने पर, एक मित्र के इस उपालंभ पर कि भारत इतने मित्रों को छोड़कर एक के साथ चला गया, दोस्तों को पता न चला कि कब भारत की आँखे पुरनम हुई और कब सौ-सौ के कुछ नोट फाड़कर फ़ेंक दिए गए और क्यों भारत का अपहरण करने वाले श्वेताम्बर सभा सदस्य की आँखें जमीन में गडी जा रही थीं। शायद वह इस बात का अहसास कर चुका था कि भारत जैसे संवेदनशील गीतकार को कविता-विमुख श्री
पतियों के यहाँ ले जाना, उसे तुष्ट नहीं, रुष्ट करता है।

भारत की संवेदनशीलता से द्रवित होकर शब्द नतमस्तक उसके सामने खड़े रहते है और भावना को भाषा में अवतरित करने हेतु प्रतिपल तत्पर रहते है। भारत मूलतः प्रणय और पीड़ा का कवि है। भारत की कविता ज्ञान-प्रधान नहीं। भावना-प्रधान है। उसका संबंध दिमाग से कम, दिल से अधिक है। विरह-वेदना की अनुभूति को वह कलात्मकता से गीत में प्रस्तुत करता है और साथ ही उसे दिव्य बनाने का प्रयत्न करता है। इन खूबियों के कारण, उसके गीत, सुनने वालों को भी कहने वाले की आँखे में सेंक देते हैं और दिव्यानुभूति करवाते है।

भारत के गीत 'सीपिया बरन ' का नख-शिख वर्णन भावनात्मक गहराईयों से अंकुरित होकर दिव्यता के वस्त्र धारण करके हमारे सम्मुख आता है। हमें आत्मविभोर करता है। हमारे मन की गहराइयों में उतर जता है और एकांत की घड़ियों में बार-बार कानों में गूँजता है। जब हा 'साडी की सिकुडन-सिकुडन में' पढता है तो लगता है कविता का रोमांचवाद उसे उडाए ले जा रहा है। परंतु अगली पंक्ति में 'किसने लिख दी गंगा लहरी' कहकर वह उसे दिव्य बना देता है और सुनने वाले का
न गीता में अंतनिर्हित संगीत की सरहदों को छूने लगते हैं।

वे 'नवंबर मेरा गहवारा' कविता में कहते हैं- मेरी आँखों ने पहली बार सूरज की सुनहरी रोशनी देखी मेरे कानों में पहली बार इंसानी सदा आई 'पहली बार' की पुनरावृति पुनर्जन्म की नकारात्मकता को ध्वनित करती है। प्रारब्ध और संचित का मामला भारतीय मस्तिष्क से निकल नहीं सकता। भारत अपने कष्टों का कारण पूर्वजन्मों में तलाश करते हुए कहता है- शायद मैंने गत जन्मों में अधबने नीड़ तोड़े होंगे चातक का स्वर सुनने वाले बादल वापस मोड़े होंगे ऐसा अपराध किया होगा फिर जिसकी क्षमा नहीं मिलती तितली के पर नोंचे होंगे, हिरणों के दृग फोड़े होंगे काव्य सौन्दर्य यह है की कवि यदि अपराधी है तो केवल रूप का अपराधी है, चटक के स्वर सुनने वाले बादलों का अपराधी, तितली के परों का अपराधी या हिरणों के द्रगों का अपराधी। कविता का एकमात्र उद्देश्य सौन्दर्य-बोध एवं प्रज्ञानुभूति को जागृत करना है। अपराध में भी कविता के हाथ से रूप का आँचल नहीं छूटता। बस यही कविता है बाकी तो टुकड़ों की तुकबाजी है, या वह शब्दजाल है, क
हने वाला जिसके बहार नहीं आ पता और सुनने वाला जिसके अन्दर नहीं जा पाता।

प्र
णय एवं पीड़ा की कविता से रचनाकार के प्रियतम का एक चित्र उभरता है। वह एक सुन्दर देह भी हो सकती है, एक व्यवस्था विशेष भी। वह एक मनस्थिति भी हो सकती है और परम तत्व भी हो सकता है। भारत भूषण की काव्य-प्रेरणा का स्रोत उसकी इच्छा की हमशक्ल कोई सुन्दर देह रही हो परन्तु अधिकांश कविताओं से ऐसा ध्वनित होता है की उसका प्यार अनंत से है-

प्रतिमाओं का इतिहास यही
उनको कोई भी प्यास नहीं
मन ने कैसी की नादानी जो तुम को पाने को मचला
जैसे नन्हा जुगनू सूरज की पूजा करने को निकला

भारत के गीतों में ऐसी अनेक पंक्तियाँ हैं जिनमें दिव्यता की उनकी तलाश दिखाई देती है-
राजसी चाल मंथर-मंथर
दीप से जलाती पग-पग पर
जैसे कोई त्योहार चले
हिम की ढालों में किरण फले
मैं
ने संकेत मात्र किया है। उनके गीत अथाह आनंद अपने में समोए है।

डॉ. मानसिंह वर्मा के शब्दों में "भारत का विशेषण-विशेष्य प्रयोग भी अनूठा है। हर स्थान पर वह विशेषण-विपर्यय नहीं है किन्तु अर्थ-सौन्दर्य में अभिवृद्धि करता है-बंगाली भावुकता, कोंपली छुअन, सरोवरी स्वभाव, धूलिया जेठ-बैसाख, जमुनाए होंठ, कर्पूरी बाँहें और झुँझलाई लूएँ आदि प्रयोग इस दृष्टि से दर्शनीय हैं। 'राम की जल-समाधि' गीत 'दूसरे कदम' का सशक्त गीत है और प्रसाद की 'प्रलय की छाया', निराला की 'सरोज-स्मृति' और 'राम की शक्ति-पूजा', मुक्तिबोध की 'अँधेरे में' तथा अज्ञेय की 'असाध्य-वीणा' आदि हिंदी की लंबी कथात्मक कविताओं की परंपरा में स्थान पाने योग्य हैं। 'राम की जल-समाधि' का कारुणिक चित्र बड़ा ही मार्मिक एवं जीवंत बन पड़ा है। भवभूति के 'उत्तर रामचरितम' और निराला की 'राम की शक्तिपूजा' का पूरक-सा प्रतीत होता है। ' तू मन अनमना न कर अपना', 'सीपिया बरन, मंगलमय तन', 'मेरे मन मिरगा', 'जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे', ' ये असंगति', ' मेरी नींद चुराने वाले,' 'मैं रात-रात
भर दहूँ' आदि दर्जनों गीत पाठकों को आनंद-विभोर करते हैं।

"भारत भूषण की कविता इस तथ्य का प्रमाण है की गंभीर कविता भी मंच पर सफल हो सकती है और जितनी वह मंच पर सफल होती है, उससे कहीं अधिक वह अपने मुद्रित रूप में हृदयग्राही और प्रभावकारी सिद्ध होती है। अच्छी कविता की यह भी एक पहचान है। भारत भूषण के गीतों का मूल्यांकन हिंदी गीतों की सुदीर्घ परंपरा के सन्दर्भ में ही किया जाना चाहिए। उन्होंने अपने गीतों को नवगीत नहीं कहा। उनका विश्वास है की गंगा को चाहे गंगा कहो, चाहे हुगली, उसके मूल गंगात्व में कमी नहीं आनी चाहिए। उनके गीत आधुनिक-बोध से भी संपृक्त हैं किन्तु वह बोध ऊपर से आरोपित न होकर भीतर से जन्मा है, इसी कारण गहरा है।

"भारत भूषण मूलतः प्रणय और अवसाद की गीतकार है। इन गीतों से गुजरते हुए इतने अवसाद, इतनी निराशा और इतनी असफलता के निविड़ अन्धकार से पाला पड़ता है कि आश्चर्य होने लगता है-इसने अँधेरे के बाद भी कवि टूटा क्यों नहीं ? यह आश्चर्य अनुभूति का विश्वास दिलाती है और कविता कुछ और अधिक गहराई से पढ़े जाने की माँग करती है। वस्तुतः भारत की कविताओं में व्याप्त यह अन्धेरा अज्ञान-जन्म नहीं है, वह विवेकजन्य है, इसीलिए कवि उस निराशा और असफलता को भोगता भी है और साथ ही उसे देखता भी है। यहाँ तक कि अपनी रचनाधर्मिता में वह भोक्ता से अधिक द्रष्टा बन जाता है-'तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा।"

'राम की जल-समाधि' का कारण भी प्रणय और पीड़ा ठहराकर भारत ने एक अदभुत बात पैदा की है। इस कविता की काव्यात्मकता, संगीतात्मकता और चित्रात्मकता का बयान करना कठिन है, उसको महसूस ही किया जा सकता है। भारत के स्वर में भारत के गीत सुनते समय ऐसा लगता है जैसे एक-एक शब्द के साथ कानों में अमृत की बूँदें टपक रही हों। पाइदाबाद भारत जिंदाबाद भारत। दुनिया के दुःख-दर्द सहते रहो, गम की यह हाला पीते रहो, पीते रहो, जीते रहो, जीते रहो, भारत जीते रहो।

 

१९ दिसंबर २०११

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